Book Title: Acharya Hemchandra
Author(s): V B Musalgaonkar
Publisher: Madhyapradesh Hindi Granth Academy

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Page 203
________________ हेमचन्द्र की बहुमुखी प्रतिभा १६१ वाद अथवा अनित्यवाद सदोष है किन्तु नित्यानित्यवाद निर्दोष है। गुड़ कफ करने वाला है, सोंठ पित्तजनक किन्तु मिश्रण में ये दोष नहीं रहते । (वीतराग) हेमचन्द्र के मतानुसार सत्व-रज-तम इन परस्पर विरुद्ध तीन गुणों से युक्त प्रकृति को स्वीकार करके सांख्य-दर्शन ने स्याद्वाद् को ही स्वीकार किया है। एकही वस्तु में भिन्न धर्मों,लक्षणों एवं अवस्थाओं के परिणामों की सूचना करता हआ योगदर्शन स्यादवाद का ही चित्र उपस्थित करता है। इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र प्रत्येक दर्शन में समन्वय को ही देखते हैं । इस प्रकार के सोचने से अनेकान्त दर्शन से परस्पर भिन्न दृष्टिकोण अभिन्नता की और जाते हैं । परमत सहिष्णुता बढ़ती है । दृष्टि व्यापक होती है । भगवान में भी वे समन्वय भाव से ही देखते हैं । इस प्रकार अनेकान्त के आधार पर वे समन्वय का प्रचार करते हुए 'विश्वबन्धुत्व' एवं 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना जनमानस में प्रचारित करने का प्रयास करते हैं। ___ समन्वय-भावना के विकास ने कला के क्षेत्र में भी प्रभूत योगदान दिया है । जैन लोग सरस्वती के भक्त थे । उनका यह भक्तिभाव केवल स्तुति-स्तोत्रों में ही नहीं, वरन मनमोहक, मूर्तियों में भी व्यक्त हुआ है। दसवीं से तेरहवीं शताब्दी तक जितनी सरस्वती की मूर्तियां बनीं उनमें जैन-सरस्वती-प्रतिमाओं की भव्यता की तुलना किसी से नहीं की जा सकती। धार की भोजशाला में प्राप्त सरस्वती की मूर्ति, जो आजकल 'ब्रिटिश म्यूजियम, में स्थित है, जैन शैली में ही आचार्य हेमचन्द्र समन्वय-भावना का केवल साहित्य में ही प्रतिपादन करके सन्तुष्ट नहीं हुए। उन्होंने अपने दैनिक आचरण में समन्वय-भावना का ही व्यवहार किया। इसीलिये जैन मन्दिरों के लिये काशी से पुजारी बुलाए गये थे । उन्होंने स्वयं सोमनाथ की पूजा की थी। सिद्धराज जयसिंह को आचार्य हेमचन्द्र ने दृष्टान्तों एवं सुरुचिपूर्ण कहानियों के द्वारा समन्वय का ही उपदेश दिया था। वे अपने आश्रयदाता, सिद्धराज जयसिंह को जैनधर्म का उपदेश देकर उन्हें जैन धर्म में दीक्षित होने के लिये प्रेरित कर सकते थे। किन्तु आचार्य हेमचन्द्र ऐसा करते तो वे साम्प्रदायिक कहलाते-केवल जैन सम्प्रदाय के महान प्रचारक के रूप में ही प्रसिद्ध होते । किन्तु आज तो वे जैन धर्म का प्रचार एवं प्रसार करके भी समन्वय-भावना के अनुरूप प्रत्यक्ष आचरण करने के कारण धर्मनिरपेक्ष सम्प्रदायातीत युगप्रवर्तक युगपुरुष हो गये । कुमारपाल राजा दैनन्दिन आचार-विचार में एक श्रावक के अनुसार रहते हुए भी अन्त तक ''परममाहेश्वर"

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