Book Title: Acharya Hemchandra
Author(s): V B Musalgaonkar
Publisher: Madhyapradesh Hindi Granth Academy

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Page 171
________________ दार्शनिक एवं धार्मिक ग्रन्थ १५१ . व्रत अच्छी समाज-व्यवस्था का सर्जन कराने वाला व्रत है। व्रत से तृष्णा के समुचित नियन्त्रण, एवं लोभ पर अंकुश हो जाता है। इसके साथ ही वैदिक कार्यक्रमों में रात के भोजन का निषेध किया गया है। इस प्रकार आत्मोन्नति के लिए आचार्य हेमचन्द्र जी ने अपने योगशास्त्र में आचार-धर्म पर विशेष जोर दिया है। पातञ्जल योग के अष्टांग साधनों में से केवल यम-नियमों पर उन्होंने साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से विचार किया हैं। जिस आत्मा की उन्नति के हेतु पञ्च-महाव्रत आदि साधनों का वर्णन किया गया है उस आत्मा के विषय में-आत्मा के स्वरूप के विषय में भी 'योगसूत्र' तथा 'योगशास्त्र' में बहुत कुछ साम्य पाया जाता है। महर्षि पतञ्जलि अपने योगसूत्र में आत्मा को स्वभावतः शुद्ध चैतन्य स्वरूप, तथा नित्य मानते हैं। योगसूत्र के अनुसार आत्मा वस्तुत: शारीरिक बन्धनों और मानसिक विकारों से मुक्त रहती है, परन्तु अज्ञान के कारण यह चित्त के साथ-साथ अपना तादात्म्य कल्पित कर लेती है। भ्रमवश वह अपने को चित्त समझने लगती है। इन्द्रिय-निरोध से चित्त का धारा प्रवाह बन्द हो जाता है और आत्मा को अपने यथार्थ स्वरूप का ज्ञान होता है। यही आत्मसाक्षात्कार योग का उद्देश्य है। जैन दर्शन के अनुसार, और 'योगशास्त्र' के अनुसार भी, कर्म के अस्तित्व के आधार पर आत्मा स्वत: सिद्ध होती है । आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार आत्मा चैतन्य स्वरूप, परिणामी, कर्ता-साक्षात्, भोक्ता एवं स्वदेह परिमाणः प्रतिक्षेत्रं भिन्नः है। आत्मा ज्ञानमय है किन्तु शरीर के बाहर आत्मा का अस्तित्व नहीं है । आत्मा के ज्ञान-इच्छादि गुणों का शरीर में ही अनुभव होने के कारण इन गुणों की स्वामी आत्मा भी शरीर में ही रहने वाली सिद्ध होती है। आत्मा के ज्ञानमय तथा प्रकाशमय होने के विषय में आचार्य जी लिखते हैं कि सब प्रकार का (यथार्थ-अयथार्थ) ज्ञान स्वप्रकाशक (स्वसंवेदन रूप) है अर्थात् वह स्वयं अपने आपको प्रकाशित करता है। जैसे दीपक को प्रकाशन के लिए दूसरी वस्तु की अपेक्षा नही वह स्वयं प्रकाशरूप है । वैसे ही ज्ञान भी स्वप्रकाश होकर ही पर प्रकाश करता है। आचार्य' हेमचन्द्र की यह उदारता उनकी परमेश्वर विषयक कल्पना में भी दिखायी देती है। वे परमात्मा व्यक्ति के नहीं-उसके गुणों के पूजक हैं। "नमो वक्कार" में सबसे प्रथम "नमो अरि हन्ताणं" से राग-द्वेषादि आन्तरिक शत्रुओं का नाश करने वाले को नमस्कार कहा है । जैन दर्शन के निरीश्वरवादी

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