Book Title: Acharya Hemchandra
Author(s): V B Musalgaonkar
Publisher: Madhyapradesh Hindi Granth Academy

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Page 173
________________ दार्शनिक एवं धार्मिक ग्रन्थ १६१ नेत्र दया से तनिक नीचे झुकी हुई पुतली वाले तथा करुणावश आये हुए किंचित् आँसुओं से आर्द्र हो गये । आचार्य हेमचन्द्र के विश्व व्यापक प्रेम ने तथा अनन्त कारुण्य ने धर्म के द्वार सबके खोल दिये हैं । जिन भगवान की व्याख्यान सभा में किसी प्रकार का प्रतिबन्ध न था । आचार्य हेमचन्द्र ने संकुचित दृष्टिकोण भेद के कारण मत-मतान्तरों में संकीर्णता आ जाती है । कामराग और स्नेहराग का निवारण सुकर है; परन्तु अतिपापी दृष्टिराग का उच्छेदन तो पण्डित और साधु-सन्तों के लिए भी दुष्कर है । यह वस्तुस्थिति का सुन्दर चित्रण है । संसार के सभी वाद, सम्प्रदाय, मत इसी दृष्टिराग के ही परिणाम हैं । इस दृष्टिराग के कारण ही संसार में अशान्ति एवं दुखः दिखायी देता है । अतः विश्वशान्ति के लिए तथा दृष्टिराग के उच्छेदन के लिये आचार्य हेमचन्द्र का 'योगशास्त्र' आज भी अत्यन्त उपादेय ग्रन्थ है । हमारे धर्म-निरपेक्ष राज्य में साम्प्रदायिक राग का बढ़ने के पहले ही उच्छेद वाँछनीय है | हेमचन्द्र के योगशास्त्र की उपादेयता इसी में है । कर्म आत्मा पर प्रभाव डालते हैं। कीचड़ में पैर डालकर फिर धोने की अपेक्षा तो कीचड़ में पैर न डालना ही अच्छा है । I आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र में शक्ति - सम्प्रदाय के सिद्धान्त भी जगहजगह बिखरे मिलते हैं । श्री बालचन्द्र सूरि ने " वसन्त विलास " महाकाव्य के मंगलाचरण में शक्ति-पद्धति का अनुमोदन किया है । श्वेताम्बर सम्प्रदायानुसार २४ तीर्थङ्कर की २४ शासनदेवता मानी जाती हैं । सरस्वती के १६ विद्याव्यूह माने जाते हैं । जैन शासन में तीर्थंङकार विषयक ध्यान-योग का विधान है । उस ध्यान धर्मध्यान और शुक्लध्यान दो मुख्य विभाग है । उसमें धर्मध्यान के ध्येयस्वरूप पर बने हुए चार विभाग हैं - ( १ ) पिंडस्थ ( २ ) पदस्थ ( ३ ) रूपस्थ और (४) रूपवर्जित । जिस ध्यान में ध्येय अर्थात् ध्यान का आलम्बन पिण्ड में हो ऐसे ध्यान को पिण्डस्थ ध्यान कहते हैं । जिसमें शब्द ब्रह्म के वर्ण पद, वाक्य के ऊपर रचित भावना करनी होती है उसे पदस्थ ध्यान कहते है । जिसमें आकार वाले अहत की भावना होती है उसे रूपस्थ ध्यान कहते हैं और जिसमें निराकार आत्मचिन्तन होता है उसे रूपवर्जित ध्यान कहते हैं । इस चार प्रकार के ध्यान में पृथ्वी, जल वायु आदि की धारणा का क्रम पिण्डस्थ ध्यान योग में होता है । और इस पिण्डस्थ ध्यान में अपनी आत्मा को सर्वज्ञकल्प ( सर्वज्ञसम) और कल्याण गुण युक्त अपने देश में सतत ध्यान करने वाले को मन्त्र मण्डल की नीची शक्तियाँ, शाकिनी, आदि

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