Book Title: Acharya Hemchandra
Author(s): V B Musalgaonkar
Publisher: Madhyapradesh Hindi Granth Academy

View full book text
Previous | Next

Page 191
________________ हेमचन्द्र की बहुमुखी प्रतिभा १७६ की प्रतिक्रिया आरम्भ हुई और प्राचीन स्वर-व्यज्जनों को फिर स्थान देकर भाषा को भिन्न आदर्श में गठित करने की चेष्टा हुई । प्रादेशिक अपभ्रंश भाषाएं साहित्य की भाषाओं के रूप में उन्नत होने लगीं ।“सुभव्योऽपभ्रंशः सरसरचनं भूतवचनम्"' अपभ्रंश भाषा भव्य है, पैशाची की रचना रसपूर्ण है। अपभ्रश साहित्य की रचनाएं मुक्तक और प्रबन्ध दोनों रूपों में मिलती हैं । जैनों द्वारा लिखित तीन प्रकार की प्रबन्धात्मक अपभ्रंश रचनाएँ मिलती हैं- पुराण साहित्य, चरितकाव्य तथा कथाकाव्य । विशुद्ध लौकिक श्रृंगारिक अपभ्रंश काव्य आचार्य हेमचन्द्र के ग्रन्थों में मुक्तकों के रूप में तथा सन्देश रासकादि के रूप में मिलता है। आचार्य हेमचन्द्र के साहित्य में 'कुमारपाल चरित', 'प्राकृत शब्दानुशासन' का अन्तिम भाग, 'छन्दोऽनुशासन' तथा देशी नाममाला में अपभ्रंश पद्य पाये जाते हैं जिनसे उस कालतक के अपभ्रश साहित्य का भी अनुमान किया जा सकता है । हेमचन्द्र के 'कुमारपाल चरित' नामक प्राकृत द्वयाश्रय काव्य के अन्तिम सर्ग में 2-८२ तक पद्य अपभ्रश में मिलते हैं । कथा की दृष्टि से प्रथम सर्ग से अष्टम सर्ग तक नगरवर्णनऋतुवर्णन, चन्द्रोदय, जिनमन्दिरगमन, पूजनादि विषयों का वर्णन विशद् और सुविस्तृत है। काव्य और व्याकरण की आवश्यकताओं की एक-साथ पूर्ति बड़ा दुष्कर कार्य है। इस दुष्कर कार्य को ही हेमचन्द्र ने अपनी इस कृति में बड़ी कुशलता से निबाहा है । इसकी तुलना संस्कृत साहित्य के एक 'भट्टी काव्य' से की जा सकती है, किन्तु 'भट्टी'में वह पूर्णता और क्रमबद्धता नहीं जो हमें हेमचन्द्र की कृतियों में मिलती है। आचार्य हेमचन्द्र के 'शब्दानुशासन' के अष्टम अध्याय के चतुर्थ पाद में अपभ्रंश भाषा का निरूपण अन्तिम ११८ सूत्रों में बड़े विस्तार से किया है और इससे भी बड़ी विशेषता यह है कि इन नियमों के उदाहरणों में उन्होंने अपभ्रश के पूरे पद्य उद्धृत किये हैं । उनके अपभ्रश के उद्धरण रसभावापन्न हैं । 'छन्दोऽनुशासन' में भी उन्होंने अपभ्रंश छन्दों का समावेश कर देने का प्रयत्न किया है। पण्डित केशवप्रसाद मिश्र ने हेमचन्द्र द्वारा उद्धृत अनेक दोहों को पूर्वी हिन्दी में परिणत करके दिखाया है। जैसे: सन्ता भोग जु परिहरइ तसु कत हो बलिकीसु । तसु दइवेण वि सुण्डिअउ जसु खल्लिहडउ सीसु ।। हेम ८-४-३८९ आछत भोग जे छोडय तेह कन्ताक बलि जावें। तेकर देवय से मंडल जकर खललउ सीस ॥ १-बालरामायण- राजशेखर-१-११

Loading...

Page Navigation
1 ... 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222