Book Title: Acharya Hemchandra
Author(s): V B Musalgaonkar
Publisher: Madhyapradesh Hindi Granth Academy

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Page 155
________________ दार्शनिक एवं धार्मिक-ग्रन्थ १४३ सहित ही है। सम्भवत: आचार्य अपनी वृद्धावस्था में इस ग्रन्थ को पूर्ण नहीं कर सके, अथवा सम्भव है कि शेष भाग काल कवलित हो गया हो। इसे ग्रन्थ में हेमचन्द्र की भाषा वाचस्पति मिश्र की तरह नपी-तुली, शब्दाडम्बर शून्य, सहज, सरल है ; उसमें न अति संक्षिप्तता है और न अधिक विस्तार । तुलनात्मक दृष्टि से दर्शन-शास्त्र की परिभाषा का अध्ययन करने वालों के लिए 'प्रमाण मीमांसा' महत्वपूर्ण है । भारतीय दर्शन विद्या के ब्राह्मण, बौद्ध और जैन इन तीनों मतों की तात्विक परिभाषाओं में और लाक्षणिक ब्याख्याओं में किस प्रकार क्रमशः विकसन, वर्धन और परिवर्तन होता गया यह ज्ञान इस ग्रन्थ के अध्ययन से हो जाता है। सूत्र तथा उसकी वृत्ति की तुलना में अनेक जैन, बौद्ध और वैदिक ग्रन्थों का उपयोग उन्होंने किया है। 'प्रमाण मीमांसा' का उद्देश्य केवल प्रमाणों का चर्चा करना नहीं है। अपितु प्रमाणनय और सोपाय बन्ध मोक्ष इत्यादि परम पुरुषार्थोपयोगी विषयों की चर्चा करना है। हेमचन्द्र ने 'स्वप्रकाशत्व' के स्थापन और ऐकान्हिक 'परप्रकाशत्व' के खण्डन में बौद्ध, प्रभाकर, वेदान्त, आदि सभी स्वप्रकाशवादियों की युक्तियों का संग्रहात्मक उपयोग किया है। श्वेताम्बर आचार्यों में भी हेमचन्द्र की खास विशेषता यह है कि उन्होंने ग्रहीत-ग्राही और ग्रहीष्यमाणग्राही दोनों का समत्व दिखाकर सभी धारावाही ज्ञानों में प्रामाण्य का समर्थन किया है और यह समर्थन करते हुए सम्प्रदाय निरपेक्ष तार्किकता का परिचय कराया है । यद्यपि वे जिनभद्र, हरिभद्र देवसूरि तीनों के अनुगामी हैं तथापि वेधारणा के लक्षण सूत्र में दिगम्बराचार्य अकलङ्क, विद्यानन्द, आदि का शब्दश: अनुसरण करते हैं । जिनभद्र के मन्तव्य का खण्डन न करके, हेमचन्द्र समन्वय करते हैं । अनुमान-निरूपण में भी हेमचन्द्र ने पूर्ववर्ती तार्किकों के अनुसार वैदिक परम्परा सम्मत त्रिविध अनुमान प्रणाली का खण्डन नहीं किया किन्तु अनुमान प्रणाली को व्यापक बना दिया है, जिससे असङ्गति दूर हो गयी। 'प्रमाण मीमांसा' का आभ्यन्तर स्वरूप- 'अथातो ब्रह्म जिज्ञासा' के अनुसार आचार्य हेमचन्द्र ने भी अपने ग्रन्थ का आरम्भ 'अथ प्रमाण मीमांसा' १।१।१ सूत्र से किया है और फिर उपोद्घात के विस्तार में न जाते हुए एकदम दूसरे ही सूत्र में प्रमाण की लघुतम एवं सरलतम परिभाषा प्रस्तुत की है । 'सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम्' १।१।२ उनका प्रमाण विभाग विशेष महत्व रखता है। उनके अनुसार प्रमाण दो हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष । आचार्य का यह प्रमाण विभाग दो दृष्टियों से अन्य परम्पराओं की अपेक्षा विशेष महत्व रखता है। एक तो एक

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