Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 12 2-1-1-1-1 (335) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन 6. सुप्रत्युपेक्षित दुष्प्रमार्जित 7. सुप्रत्युपेक्षित सुप्रमार्जित... इस प्रकार सातवे भंगवाली स्थंडिलभूमि में साधु सावधानी से शुद्ध एवं अशुद्ध आहार आदि के भाग की विचारणा करके अशुद्ध आहारादि को परठ दें... अब औषधि-(अनाज-दाने) बाबत की विधि सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र में कहेंगे... v सूत्रसार : साधु हिंसा का सर्वथा त्यागी है और आहार के बनाने में हिंसा का होना अनिवार्य है। इसलिए साधु के लिए भोजन बनाने का निषेध किया गया है। परन्तु, संयम निर्वाह के लिए उसे आहार करना पड़ता है। अतः उसके लिए बताया गया है कि- वह गृहस्थ के धर में जाकर निर्दोष एवं एषणीय आहार ग्रहण करे। यदि कोई गृहस्थ सचित्त एवं आधाकर्मी आदि दोषों से युक्त आहार दे या सचित्त पानी से हाथ धोकर आहार दे या आहार यदि सचित्त रज से युक्त है, तो साधु उसे स्वीकार न करे। वह स्पष्ट शब्दों में कहे कि- ऐसा दोष युक्त आहार मुझे नहीं कल्पता। यदि कभी सचित्त पदार्थों से युक्त आहार आ गया हो-जैसे गुठली सहित खजूर या ऐसे ही बीज युक्त अन्य आहारादि का ग्रहण हो गया हो तब साधु उन्हें अलग करके उस अचित्त आहार को ग्रहण कर ले। यदि कोई पदार्थ ऐसा है कि- उसमें से उन सचित्त पदार्थों को अलग नहीं किया जा सकता है, तो मुनि उस आहार को खाए नहीं, परन्तु एकान्त स्थान में बीज-अंकुर एवं जीवजन्तु से रहित अचित्त भूमि पर यतना-पूर्वक परठ-त्याग दे। इसी तरह आधाकर्मी आहार भी भूल से आ गया हो तो उसे भी एकान्त स्थान में परठ दे। इससे स्पष्ट है कि साधु सचित्त एवं आधाकर्म दोष आदि युक्त आहार का सेवन न करे। भगवान महावीर ने सोमिल ब्राह्मण को स्पष्ट शब्दों में बताया कि- साधु के लिए सचित्त आहार अभक्ष्य है। ये ही शब्द भगवान एवं थावच्चा पुत्र ने शुकदेव संन्यासी को कहे है। श्रावक के व्रतों का उल्लेख करते समय इस बात को स्पष्ट किया गया है कि- श्रावक साधु को प्रासुक एवं निर्दोष आहार देंवे। यह उत्सर्ग मार्ग है और साधु को यथाशक्ति इसी भाग पर चलना चाहिए। परन्तु, जीवन सदा एकसा एक जैसा नहीं रहता। कभी-कभी सामने कठिनाइयां भी आती हैं, उस समय संयम की रक्षा के लिए साधु क्या करे ? इसके लिए वृत्तिकार ने बताया है कि- 'उत्सर्ग मार्ग में साधु आधाकर्मी आदि दोषों से युक्त आहार को स्वीकार न करे।' परन्तु अपवाद मार्ग में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का ज्ञाता गीतार्थ मुनि दोषों की न्यूनता या अधिकता का विचार करके उसे ग्रहण कर सकता है। द्रव्य का अर्थ है- द्रव्य (पदार्थ) का मिलना दुर्लभं हो। क्षेत्र