Book Title: Abhaykumar Chopai
Author(s): Dharmkirtivijay
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 5
________________ ३० अनुसन्धान ४७ राजा कहैं हुं सेवक सुद्ध नरक पर्दू नही सौ कहौ विद्ध । कहैं भगवंत निकाचितकर्म न हुवै किणही भारौं नर्म ॥७॥ आउबंध को मेटैं नही प्रथम नरक तिण जाइस सही । श्रेणिक वलि कहैं वीनति धरौ नरक न जाउं सो विद्ध करौ ।।८।। कहैं जिन, राजा सुणहु निदान दासी कपिला जो 3 दान । कालकसूकरीयौ मनरसैं भैंसा मारै नही पांचवें ॥९॥ ए , नरकनिषेधउपाय वांदीनें घरि आयौ राय । कपिलानैं कह दे तु दान माह छै बहुला धनधान ॥१०॥ ते बोलें मरणौ ही सही मैं निज हाथे देवौ नही । कर चाटू बंधायौ तीर्थं कहैं हुं न दीयुं चाटू दीयें ॥११।। नृप कहैं सुणि कालकसूरीया पापैं पेट घणुं पूरीया । भैंसौ हिव मत मारे कोय ते कहैं ए वातां किम होय ॥१२॥ वास्यौ न रहैं सीच्यौ कूप मनसुं मारे धरै सरूप । श्रेणिक वीर वले वांदीया कह्या तुहारा दोउं कीया ॥१३॥ दानदयाविध सगली लही केवलीए सहु वातां कही । सुणि श्रेणिक हूऔ दिलगीर वलि तेह. संतोषै वीर ॥१४॥ पहिली नरक थकी नीकली मो सरिखौ जिन थाइस रली । पदमनाभ पहिलौ जिन हुसी श्रेणिक सांभलि हूऔ खुसी ॥१५॥ जिन वांदी पुर आचैं जिसैं दीठौ सरवर पासैं तिसैं । साधुवेस. हाथे जाल का माछलीयां तिण काल ॥१६॥ कहैं तेहनें नृप प्रणमी पाय जिनशासन इण कर्म लजाय । साधु कहैं तडकीनैं वली जोई0 मुझ इक कांबली ॥१७॥ जाण्या तो सरिखा जजमान निंद घणीनैं थोडौ दान । नृप मीठे वचने सतकार कांबलि दीधी समकितधार |॥१८॥ दोहादेव विमासँ दिल्लमैं कोध परीक्षा कर्म । डिग्गायौ पिण ना डिग्यौ धन राजा दृढधर्म ॥१॥ एक परीक्षा वलि करुं नृपति चुकावं नेट । साधु संघारौं साधवी पूरे मासे पेट ।।२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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