Book Title: Abhaykumar Chopai
Author(s): Dharmkirtivijay
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 19
________________ ४४ अनुसन्धान ४७ नाटकरस रखे भंग हैं जी मुझ बैसाणीयौ दूर वीतग० ||१७|| वेसीया तुरत मुझ अटकल्यौजी एह तौ माहरौ मीत । रायमन कहि विधि रीझवीजी छोडवुं तौ मुझ प्रीति वीतग० ॥ १७॥ दोहा - वेस विविध करि वेसीया हावभाव करि हित्त । राजादिक सहु रंजीया चंपकलो हैं चित्त ||१|| नृपति कहैं पुरनायिका हुं रंज्यौ लयलीन । जिके ताहरैं जोई मांगि वसत तुं तीन ॥२॥ मांगें गणिका प्रीतिमन इक पहिलौ वर एह । मांस लीयौ मृगपुच्छनौ तुरत छुडावौ तेह ||३|| वर बीर्जे मुझ एह वर नही बीजासुं काम । त्रीजी वर इण चालतां सार्थं जास्युं साम ||४|| वर दीधा तीने नृपति नाटक परौ निवेडि । वेश्या आई निज घरे मुझर्ने साथै तेडि ॥५॥ ढाल- नवमी ( नायक मोह नचावीयौ- एहनी-) कपटवती ते कामिनी चितमैं आई चीतो रे । गणिका कहैं तुझ नारिनी चालि दिखावुं रीतो रे ||१|| कपटवती ते कामिनी- आंकणी | आवी उतरीया अम्हे उज्जेणी आरामो रे । रातैं हाथे खड्ग ले हुं आयौ निज धामो रे कपट० ॥२॥ ऊपरवार्डे ऊतरी पैंठौ मंदिर माहे रे । मुझ नारी परपुरुषसुं सूती दीठी बेहु रे कपट० ॥३॥ नही य खबरि का नीदमें मैं हणीयौ ते जारो रे । छानौ तिहांथी नीकली आयै बाग मझारो रे कपट० ||४|| जागी पापिणि जोईयौ मार्यौ किण मुझ मीतो रे । काम नही कुंक्यांतणौ निंदा हुवें अनीतो रे कपट० ॥५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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