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त्रिमंत्र
त्रिमंत्र नमो अरिहंताणं नमो सिद्धाणं नमो आयरियाणं नमो उवज्झायाणं नमो लोए सव्वसाहूणं एसो पंच नमुक्कारो, सव्व पावप्पणासणो मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवई मंगलम् ॥१॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥२॥ ॐ नमः शिवाय ॥३॥ जय सच्चिदानंद
ISBN 978-81-89933-09-8
19-7881899933098
दादा भगवान प्ररूपित
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SURE
दादा भगवान प्ररूपित
प्रकाशक : अजित सी. पटेल
महाविदेह फाउन्डेशन दादा दर्शन, 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद - ३८००१४, गुजरात फोन - (०७९) २७५४०४०८, २७५४३९७९ E-Mail: info@dadabhagwan.org
त्रिमंत्र
All Rights reserved - Shri Deepakbhai Desai Trimandir, Simandhar City, Ahmedabad-Kalol Highway, Post - Adalaj, Dist.-Gandhinagar-382421, Gujarat, India.
प्रथम संस्करण : प्रत ३०००,
अगस्त २००८
भाव मूल्य : 'परम विनय' और
'मैं कुछ भी जानता नहीं', यह भाव! द्रव्य मूल्य : १० रुपये
लेसर कम्पोझ : दादा भगवान फाउन्डेशन, अहमदाबाद
मुद्रक
मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरूबहन अमीन
अनुवाद : महात्मागण
: महाविदेह फाउन्डेशन (प्रिंटिंग डिवीज़न), पार्श्वनाथ चैम्बर्स, नई रिज़र्व बैंक के पास, उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८००१४. फोन : (०७९) २७५४२९६४, ३०००४८२३
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त्रिमंत्र
दादा भगवान कौन ?
जून १९५८ की एक संध्या का करीब छः बजे का समय, भीड़ से भरा सूरत शहर का रेल्वे स्टेशन, प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतुर 'दादा भगवान' पूर्ण रूप से प्रकट हुए और कुदरत ने सर्जित किया अध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य। एक घण्टे में उनको विश्वदर्शन हुआ। 'मैं कौन? | भगवान कौन ? जगत कौन चलाता है? कर्म क्या? मुक्ति क्या?' इत्यादि जगत के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए। इस तरह | कुदरत ने विश्व के सन्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और | उसके माध्यम बने श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, गुजरात के चतर क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कान्ट्रेक्ट का व्यवसाय करने वाले, | फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष !
उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घण्टों में अन्य मुमुक्षु | जनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हुए ज्ञानप्रयोग से उसे अक्रम मार्ग कहा । अक्रम, अर्थात बिना क्रम के, और क्रम अर्थात सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार ऊपर चढ़ना। अक्रम | अर्थात् लिफ्ट मार्ग, शॉर्ट कट !
वे स्वयं प्रत्येक को 'दादा भगवान कौन?' का रहस्य बताते हुए कहते थे कि "यह जो आपको दिखाई देते है वे दादा भगवान नहीं है, वे तो 'ए. एम. पटेल' है। हम ज्ञानी पुरुष हैं और भीतर प्रकट हुए हैं, वे 'दादा भगवान' हैं। दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं।
| वे आप में भी हैं, सभी में हैं। आपमें अव्यक्त रूप में रहे हुए हैं और 'यहाँ' हमारे भीतर संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं। दादा भगवान को मैं | भी नमस्कार करता हूँ ।"
'व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं, इस सिद्धांत से उन्होंने पूरा जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्होंने किसी के पास से पैसा नहीं लिया बल्कि अपनी कमाई से भक्तों को यात्रा करवाते थे।
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आत्मज्ञान प्राप्ति की प्रत्यक्ष लींक 'मैं तो कुछ लोगों को अपने हाथों सिद्धि प्रदान करनेवाला हूँ। पीछे अनुगामी चाहिए कि नहीं चाहिए? पीछे लोगों को मार्ग तो चाहिए न?"
- दादाश्री परम पूजनीय दादाश्री गाँव-गाँव, देश-विदेश परिभ्रमण करके मुमुक्षु जनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे। आपश्री ने अपने जीवनकाल में ही पूजनीय डॉ. नीरूबहन अमीन (नीरूमाँ) को आत्मज्ञान प्राप्त करवाने की ज्ञानसिद्धि प्रदान की थी। दादाश्री के देहविलय पश्चात् नीरूमाँ वैसे ही मुमुक्षुजनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति, निमित्त भाव से करवा रही थी। पूज्य दीपकभाई देसाई को दादाश्री ने सत्संग करने की सिद्धि प्रदान की थी। नीरूमाँ की उपस्थिति में ही उनके आशीर्वाद से पूज्य दीपकभाई देश-विदेशो में कई जगहों पर जाकर मुमुक्षुओं को आत्मज्ञान करवा रहे थे, जो नीरूमाँ के देहविलय पश्चात् जारी रहेगा। इस आत्मज्ञानप्राप्ति के बाद हजारों मुमुक्षु संसार में रहते हुए, जिम्मेदारियाँ निभाते हुए भी मुक्त रहकर आत्मरमणता का अनुभव करते हैं।
ग्रंथ में मुद्रित वाणी मोक्षार्थी को मार्गदर्शक के रुप में अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो, लेकिन मोक्षप्राप्ति हेतु आत्मज्ञान पाना जरूरी है। अक्रम मार्ग के द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति आज भी जारी है, इसके लिए प्रत्यक्ष आत्मज्ञानी को मिलकर आत्मज्ञान की प्राप्ति करे तभी संभव है। प्रज्वलित दीपक ही दूसरा दीपक प्रज्वलित कर सकता है।
निवेदन आत्मविज्ञानी श्री अंबालाल मलजीभाई पटेल, जिन्हें लोग 'दादा भगवान' के नाम से भी जानते हैं, उनके श्रीमुख से आत्मतत्त्व के बारे में जो वाणी निकली, उसको रिकार्ड करके संकलन तथा संपादन करके ग्रंथो में प्रकाशित की गई है। इस पुस्तक में त्रिमंत्र में समाये हुए तीनो मंत्रों का अर्थ तथा उसका महत्व यथार्थ रूप से स्पष्टीकरण किया गया है।
'अंबालालभाई पटेल' को सब 'दादाजी' कहते थे। 'दादाजी' याने पितामह और 'दादा भगवान' तो वे खुद भी भीतरवाले परमात्मा को कहते थे।शरीर भगवान नहीं हो सकता है, वह तो विनाशी है। भगवान तो अविनाशी है और उसे वे 'दादा भगवान' कहते थे, जो जीवमात्र के भीतर है।
प्रस्तुत अनुवाद में यह विशेष ख्याल रखा गया है कि वाचक को दादाजी की ही वाणी सुनी जा रही है, ऐसा अनुभव हो । उनकी हिन्दी के बारे में उनके ही शब्द में कहें तो "हमारी हिन्दी याने गजराती. हिन्दी और अंग्रेजी का मिश्चर है, लेकिन जब 'टी' (चाय) बनेगी, तब अच्छी बनेगी।"
ज्ञानी की वाणी को हिन्दी भाषा में यथार्थ रूप से अनुवादित करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा। जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वह इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसी हमारा अनुरोध है।
प्रस्तुत पुस्तक में कई जगहों पर कोष्ठक में दर्शाये गये शब्द या वाक्य परम पूज्य दादाश्री द्वारा बोले गये वाक्यों को अधिक स्पष्टतापूर्वक समझाने के लिए लिखे गये हैं। जबकि कुछ जगहों पर अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी अर्थ के रूप में रखे गये हैं।
अनुवाद संबंधी कमियों के लिए आप के क्षमाप्रार्थी हैं।
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संपादकीय
प्रदान किया। जिसे सुबह-शाम पाँच-पाँच बार उपयोगपूर्वक बोलने को कहा है। जिससे सांसारिक कार्य शांतिपूर्ण रूप से संपन्न होते हैं। ज्यादा अड़चनों की स्थिति में घण्टा-घण्टा भर बोलें, तो मुश्किलों में सूली का घाव सूई से टल जायेगा।
निष्पक्षपाती त्रिमंत्र का शब्दार्थ, भावार्थ और किस प्रकार यह हितकारी है, इसका सर्वलक्षी समाधान दादाश्री ने प्रश्नोत्तर रूप में दिया है। वे सारी बातें प्रस्तुत पुस्तिका में संकलित हुई हैं। इस त्रिमंत्र की आराधना से प्रत्येक के जीवन के विघ्न दूर होंगे और निष्पक्षपातीपन उत्पन्न होगा।
- डॉ. नीरूबहन अमीन
अनादि काल से प्रत्येक धर्म के मूल पुरुष जब विद्यमान होते हैं, जैसे कि महावीर भगवान, कृष्ण भगवान, राम भगवान आदि; तब वे लोगों को विभिन्न धर्मो के मतमतांतर से बाहर निकालकर आत्मधर्म में स्थिरता करवाते हैं। और कालक्रम अनुसार मूल पुरुष की गैरहाज़िरी होने पर इस दुनिया के लोग आहिस्ता-आहिस्ता मतभेद में पड़कर धर्मबाड़े-संप्रदाय में विभक्त हो जाते हैं। जिसके फल स्वरूप धीरे धीरे सुख-शांति क्षीण होती जाती है।
धर्म में तू-तू मैं-मैं से झगड़े होते हैं। उसे दूर करने के लिए यह निष्पक्षपाती त्रिमंत्र है। इन त्रिमंत्रों का मूल अर्थ यदि समझें तो उनका किसी व्यक्ति या संप्रदाय या पंथ से कोई सरोकार (संबंध) नहीं है। आत्मज्ञानी से लेकर अंततः केवलज्ञानी और निर्वाण प्राप्त करके मोक्षगति प्राप्त करनेवाले ऐसे उच्च, जागृत आत्माओं को ही नमस्कार निर्दिष्ट हैं। जिन्हें नमस्कार करने से संसारी विघ्न दूर होते हैं, अड़चनों में शांति रहती है और मोक्ष के ध्येय प्रति लक्ष्य होने लगता है।
कृष्ण भगवान ने सारी ज़िन्दगी में कभी नहीं कहा कि 'मैं वैष्णव हूँ, मेरा वैष्णव धर्म है।' महावीर भगवान ने सारी ज़िन्दगी में नहीं कहा कि 'मैं जैन हूँ, मेरा जैन धर्म है। भगवान रामचंद्रजी ने कभी नहीं कहा कि 'मेरा सनातन धर्म है। सभी ने आत्मा की पहचान करके मोक्ष में जाने की बात ही कही है। गीता में कृष्ण भगवान ने, आगमों में तीर्थंकरों ने और योगवशिष्ठ में रामचंद्रजी से वशिष्ठ मुनि ने आत्मा पहचानने की ही बात कही है। जीव यानी अज्ञान दशा। शिव यानी कल्याण स्वरूप। आत्मज्ञान प्राप्ति के पश्चात् उसी जीव में से शिव की प्राप्ति होती है। शिव यानी कोई व्यक्ति की बात नहीं है, जो कल्याण स्वरूप हुए हैं उनकी बात है।
आत्मज्ञानीपुरुष परम पूज्य दादा भगवान ने निष्पक्षपाती त्रिमंत्र
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त्रिमंत्र
त्रिमंत्र
रहस्य, त्रिमंत्र समन्वय का प्रश्नकर्ता : इस त्रिमंत्र में तीन प्रकार के मंत्र हैं, एक जैनों का मंत्र, एक वैष्णवों का मंत्र, एक शैवधर्म का मंत्र, इनके समन्वय का क्या तात्पर्य है? इसका क्या रहस्य है?
दादाश्री : भगवान निष्पक्ष होते हैं। भगवान को वैष्णव से, शिव से या जैन से कोई सरोकार (संबंध) नहीं है। वीतरागों के पक्षपात नहीं होता। पक्षवाले 'यह तुम्हारा और यह हमारा' ऐसा भेद करते हैं। 'हमारा' जो कहता है वह औरों को 'तुम्हारा' कहता है। जहाँ हमारातुम्हारा' होता है, वहाँ राग-द्वेष होता ही है। वह वीतराग का मार्ग नहीं है। जहाँ हमारा-तुम्हारा ऐसा भेद हुआ, वहाँ वीतराग का मार्ग नहीं होता। वीतराग मार्ग भेदभाव से रहित होता है। यह आपकी समझ में आता है?
त्रिमंत्र से प्राप्ति पूर्ण फल की प्रश्नकर्ता : यह त्रिमंत्र है वह सभी के लिए है? और यदि सभी के लिए है तो किस लिए है?
दादाश्री : यह तो सभी के लिए है। जिसे पाप धोने हैं उसके लिए है और पाप नहीं धोने हों तो उसके लिए नहीं है।
__ प्रश्नकर्ता : इस त्रिमंत्र में नवकार मंत्र, वासुदेव और शिव, इन तीनों मंत्रों को साथ रखने का क्या प्रयोजन है?
दादाश्री : सारा फल खाये और टुकड़ा-टुकड़ा खाये, इसमें फर्क नहीं है? वे त्रिमंत्र पूरे फल के रूप में हैं, पूरा फल!
मंत्र-जप, फिर भी सुख का अभाव... ऋषभदेव भगवान ने एक ही बात कही थी कि ये जो देहरे (मंदिर) हैं, वे वैष्णववाले वैष्णव के, शैवधर्मवाले शिव के, जैनधर्मी
जैन के, अपने-अपने देहरे बाँट लेना मगर ये जो मंत्र हैं उन्हें मत बाँटना। मंत्र बाँटने पर उनका सत्व उड़ जायेगा। पर हमारे लोगों ने तो मंत्र भी बाँट लिए और एकादशी भी बाँट ली, 'यह शैव की और यह वैष्णवों की।' इसलिए एकादशी का माहात्म्य नष्ट हो गया और इन मंत्रों का माहात्म्य भी नहीं रहा है। ये तीनों मंत्र साथ नहीं होने से, न तो जैन सुखी होते हैं, न तो ये दूसरे लोग सुखी होते हैं। इसलिए यह भगवान के कहने के अनुसार तीनों का समन्वय हुआ है।
ऋषभदेव भगवान धर्म का मुख कहलाते हैं। धर्म का मुख यानी सारे संसार को धर्म की प्राप्ति करानेवाले वे खुद ही हैं। यह वेदांत मार्ग भी उनका स्थापित किया हुआ है और यह जैनमार्ग की स्थापना भी उनके ही हाथों हुई है (उस वक्त वह मार्ग निग्रंथ पंथ यानी वीतराग मार्ग के नाम से जाना जाता था)।
और ये बाहर के लोग जिसे आदम कहते हैं न, वे आदम यानी ये आदिम तीर्थंकर ही है। वे आदिम के बजाय आदम कहते हैं। अर्थात् यह जो सब है वह उनका ही बताया हुआ मार्ग है।
सांसारिक अड़चनों के लिए प्रश्नकर्ता : ऋषभदेव भगवान ने देहरे बाँटने को कहा मगर देहरों में सभी देवता तो एक ही हैं न?
दादाश्री : नहीं, देवता सारे भिन्न-भिन्न हैं। सभी के शासनदेव भी अलग हैं। यह संन्यस्त मंत्र के शासनदेव अलग होते हैं। अन्य मंत्रों के शासनदेव अलग होते हैं, सभी देव अलग-अलग होते हैं।
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त्रिमंत्र
३
प्रश्नकर्ता: पर तीनों मंत्र एक साथ बोलने का फ़ायदा क्या ?
दादाश्री : अड़चनें चली जाती हैं न! व्यवहार में अड़चनें आती हों तो कम हो जाती हैं। पुलिसवाले से साधारण पहचान होने पर छूट जाते हैं कि नहीं छूट जाते?
प्रश्नकर्ता: हाँ, छूट जाते हैं।
दादाश्री : इसलिए इस त्रिमंत्र में जैन, वासुदेव और शिव के तीनों मंत्रों का समन्वय किया है। यदि आप देवों का सहारा चाहते हैं तो तीनों मंत्र साथ में बोलिए। उनके शासनदेव होते हैं, जो आपको सहाय करेंगे। इसलिए इस त्रिमंत्र में जैन का मंत्र है, वह जैनों के शासनदेवों को खुश करने का साधन है। वैष्णव का मंत्र उनके शासनदेवों को खुश करने का साधन है और शिव का जो मंत्र है वह उनके शासनदेवों को खुश करने का साधन है। हमेशा प्रत्येक के पीछे शासन की रक्षा करनेवाले देव होते हैं। वे इन मंत्रों को बोलने पर खुश होते हैं। इसलिए हमारी अड़चनें दूर हो जाती हैं।
आपको संसार की अड़चनें होने पर इन तीनों मंत्रों को एक साथ बोलने पर अड़चनें हलकी हो जायेंगी। आपके बहुत सारे कर्मों का उदय हुआ हो न, उन उदयों को नरम करने का यह रस्ता है। अर्थात् आहिस्ता-आहिस्ता राह पर चढ़ने का रास्ता है। जिस कर्म का उदय सोलह आने है, वह चार आने हो जायेगा। इसलिए इन तीन मंत्रों को बोलने पर आनेवाली सारी अड़चनें हलकी हो जायेंगी। जिससे आपको शांति रहेगी।
बनायें निष्पक्ष त्रिमंत्र
परापूर्व से ये तीन मंत्र हैं ही, पर इन लोगों ने लड़ाई-झगड़े करके मंत्र भी बाँट लिए हैं कि, 'यह हमारा और यह तुम्हारा'। जैनों ने नवकार मंत्र अकेला ही रखा और बाकी दो निकाल दिए। वैष्णवों ने नवकार मंत्र निकाल दिया और अपना रखा। अर्थात् मंत्र सभी ने बाँट लिए ।
त्रिमंत्र
अरे, इन लोगों ने भेद करने में कुछ बाकी नहीं छोड़ा है, और इसलिए ही हिन्दुस्तान की यह दशा हुई, भेद करने की वजह से । देखिए, इस देश की स्थिति अस्त-व्यस्त हो गई है न? और ये भेद जो किये हैं,
वे अज्ञानियों ने अपना मत सही बताने के लिए किये हैं। जब ज्ञानी होते है, तब सब एकत्र कर देते हैं, निष्पक्ष बनाते हैं। इसीलिए तो हमने तीनों मंत्र साथ में लिखे हैं । अर्थात् उन सारे मंत्रों को एक साथ बोलने पर मनुष्य का कल्याण ही हो जाये।
पक्षपात से ही अकल्याण
प्रश्नकर्ता : ये त्रिमंत्र किन संयोगों में बँट गये होंगे ?
दादाश्री : अपना फ़िरका (संप्रदाय) चलाने के लिए। यह हमारा सही है। और जो खुद को सही बतायेगा वह सामनेवाले को गलत कहता है। यह बात भगवान को सही लगेगी क्या? भगवान को तो दोनों बराबर हैं न? अर्थात् न तो खुद का कल्याण हुआ और न ही सामनेवाले का कल्याण हुआ, सभी का अकल्याण किया इन लोगों ने।
फिर भी इन फ़िरकों को तोड़ने की आवश्यकता नहीं है, फ़िरके रखना ज़रूरी है। क्योंकि फर्स्ट स्टान्डर्ड से लेकर मैट्रिक तक भिन्नभिन्न धर्म चाहिए । अलग-अलग मास्टर्स चाहिए। पर इसका मतलब यह नहीं है कि सेकिन्ड स्टान्डर्ड गलत है, यह नहीं होना चाहिए। मैट्रिक में आने पर कोई आदमी कहे कि 'सेकिन्ड स्टान्डर्ड गलत है तो वह कितना गैरवाजिब कहलाये ! सभी स्टान्डर्ड सही हैं मगर समान नहीं हैं।'
त्रिमंत्र, स्वयं को ही हितकर
यह तो एक आदमी कहेगा कि, 'यह हमारा वैष्णव मत है। ' तब दूसरा कहे कि, 'हमारा यह मत है।' अर्थात् इन मतवालों ने लोगों को उलझा दिया है। तब यह त्रिमंत्र निष्पक्ष मंत्र है। यह हिन्दुस्तान के सभी लोगों के लिए है। इसलिए ये त्रिमंत्र बोलोगे तो बहुत फ़ायदा
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होगा। क्योंकि इसमें उत्तम मनुष्यों, उच्चत्तम कोटि के जीवों को नमस्कार करना सिखलाया है। आप समझें कि क्या सिखाया गया है?
प्रश्नकर्ता : नमस्कार करना।
दादाश्री : इसलिए उनको नमस्कार करने से हमें फ़ायदा होगा, सिर्फ नमस्कार बोलने से ही फ़ायदा होगा। तब मालूम होगा कि 'यह तो मेरे अपने हित के लिए है।' जो अपने हित का हो, उसे जैन का मंत्र कैसे कहा जाये? पर मतार्थ की बिमारीवाले लोग क्या कहेंगे? 'यह हमारा नहीं हो सकता।' अरे, हमारा क्यों नहीं हो सकता? भाषा हमारी है, सभी हमारा ही है न? क्या हमारा नहीं है ? पर यह तो नासमझी की बातें हैं। वह तो जब इसका अर्थ समझायें तब समझ में आये।
यह है त्रिमंत्र इसलिए हम इसे ऊँची आवाज़ से बुलवाते हैं न,
नमो अरिहंताणं
नमो सिद्धाणं नमो आयरियाणं नमो उवज्झायाणं नमो लोए सव्वसाहूणं एसो पंच नमुक्कारो, सव्व पावप्पणासणो मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवई मंगलम् ॥ १॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ २॥ ॐ नमः शिवाय ॥ ३॥
जय सच्चिदानंद अभी इस नवकार मंत्र का अर्थ आपको समझाऊँगा तो आप ही कहेंगे कि यह तो हमारा मंत्र है। उसका अर्थ समझने पर आप छोड़ेंगे
ही नहीं। यह तो आप ऐसा ही मानते हैं कि यह शिव का मंत्र है कि यह वैष्णव का मंत्र है। पर उसका अर्थ समझने की ज़रूरत है। मैं उसका अर्थ आपको समझाऊँगा, फिर आप ऐसा कहेंगे ही नहीं।
नमो अरिहंताणं... प्रश्नकर्ता : 'नमो अरिहंताणं' यानी क्या? इसका अर्थ विस्तार से समझाइए।
दादाश्री : 'नमो अरिहंताणं ।' अरि यानी दुश्मन और हंताणं यानी जिसने उनका हनन किया है, ऐसे अरिहंत भगवान को नमस्कार करता हूँ।
जिसने क्रोध-मान-माया-लोभ-राग-द्वेष रूपी सारे दुश्मनों का नाश किया है, वे अरिहंत कहलाते हैं। दुश्मनों का नाश करने से लेकर पूर्णाहुति होने तक अरिहंत कहलाते हैं। वे पूर्ण स्वरूप भगवान कहलायें। वे अरिहंत भगवन् फिर चाहे किसी भी धर्म के हों, इस ब्रह्मांड में चाहे कहीं भी हों, उन्हें नमस्कार करता हूँ।
प्रश्नकर्ता : अरिहंत देहधारी होते हैं ?
दादाश्री : हाँ, देहधारी ही होते हैं। देहधारी न हों तो अरिहंत कहलाते ही नहीं। अरिहंत देहधारी और नामधारी, नाम के साथ होते हैं।
प्रश्नकर्ता : अरिहंत भगवान यानी चौबीस तीर्थंकरों को संबोधित करके प्रयोग किया है क्या?
दादाश्री : नहीं, वर्तमान तीर्थंकर ही अरिहंत भगवान कहलाते हैं। महावीर भगवान तो वहाँ पर मोक्ष में विराजमान हैं। वैसे लोग कहते हैं कि 'हमारे चौबीस तीर्थंकर (ही अरिहंत है) और एक तरफ पढ़ते हैं कि 'नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं।' तब मैं उनसे पूछता हूँ कि 'ये दो हैं?' तब कहते है कि, 'हाँ, दो हैं।' मैंने पूछा, 'अरिहंत के बारे में बताइये जरा।' तब कहते हैं कि, 'ये चौबीस तीर्थंकर ही अरिहंत
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है।' अरे, वे तो सिद्ध हो गये हैं। वे तो हाल में सिद्धक्षेत्र में हैं। आप सिद्ध को अरिहंत कहते हैं? ये लोग किसे अरिहंत कहते होंगे?
प्रश्नकर्ता: जो हाल में सिद्ध हैं उन्हें ।
दादाश्री : सिद्ध हैं न? आपको विश्वास है न? शत-प्रतिशत है न ? प्रश्नकर्ता: हाँ, शत-प्रतिशत ।
दादाश्री : इसलिए उन्हें सिद्धाणं में रखा है। सिद्धाणं में पहुँच गये हैं। उसके बाद अब अरिहंताणं में कौन हैं ? अरिहंताणं यानी प्रत्यक्ष, हाजिर होने चाहिए। लेकिन अभी मान्यता उलटी चल रही है। चौबीस तीर्थंकरों को अरिहंत कहा जाता है। पर यदि सोचें तो वे लोग तो सिद्ध हो गये हैं। इसलिए 'नमो सिद्धाणं' बोलने पर उसमें वे आ ही जाते हैं, तब अरिहंत का विभाग बाकी रहता है। इसलिए सारा नमस्कार मंत्र परिपूर्ण नहीं होता और अपूर्ण रहने से उसके फल की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिए हाल में वर्तमान तीर्थंकर होने चाहिए। अर्थात् वर्तमान तीर्थंकर सीमंधर स्वामी को अरिहंत मानें, तभी नमस्कार मंत्र पूर्ण होगा। चौबीस तीर्थंकर तो सिद्ध हो गये, वे सभी 'नमो सिद्धाणं' में आ जाते हैं। जैसे कोई कलेक्टर हो और उनके गवर्नर होने के पश्चात् हम उन्हें कहें कि, 'अय, कलेक्टर यहाँ आइए।' तो कितना बुरा लगेगा, नहीं? प्रश्नकर्ता: बुरा लगेगा ही ।
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दादाश्री : उसी प्रकार सिद्ध को अरिहंत मानें तो बड़ा भारी नुकसान होता है। उनका नुकसान नहीं होता, क्योंकि वे तो वीतराग हैं, पर हमारा भारी नुकसान होता है, ज़बरदस्त नुकसान होता है। पहुँचे प्रत्यक्ष तीर्थंकरों को ही
महावीर भगवान आदि सारे तीर्थंकर मोक्ष में जाने हेतु काम नहीं आनेवाले, वे तो मोक्ष में जा चुके हैं और हम यह 'नमो अरिहंताणं' बोलते हैं वह उनके संबंध में नहीं है। उनका संबंध तो 'नमो सिद्धाणं'
त्रिमंत्र
से हैं। यह 'नमो अरिहंताणं' जो हम बोलते हैं वह किसे पहुँचता है? अन्य क्षेत्रों में जहाँ-जहाँ अरिहंत हैं उनको पहुँचता है। महावीर भगवान को नहीं पहुँचता । डाक तो हमेशा उसके पते पर ही पहुँचेगी। तब लोग क्या समझते हैं कि यह 'नमो अरिहंताणं' बोलकर हम महावीर भगवान को नमस्कार पहुँचाते हैं। वे चौबीस तीर्थंकर तो मोक्ष में जाकर बैठे हैं, वे तो ‘नमो सिद्धाणं' हुए। वे भूतकालिन तीर्थंकर कहलाते हैं। इसलिए आज सिद्ध भगवान कहलाते हैं और जो वर्तमान तीर्थंकर हैं, उन्हें अरिहंत कहा जाता हैं।
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बुद्धि से भी समझ में आयेगी यह बात
प्रश्नकर्ता: अरिहंताणं बोलते हैं मगर अरिहंत तो यह सीमंधर स्वामी ही है, यह बात आज समझ में आयी ।
दादाश्री : सारा का सारा कद्दु सब्ज़ी में गया ! लौकी की सब्ज़ी काटी और सारा कद्दू बिना कटे उसमें गया ! ऐसा चलता ही रहता है.... क्या करें फिर ?
आपको, एक वकील की हैसियत से कैसा लगा?
प्रश्नकर्ता: वह बात बैठ गई, दादाजी। वकील की हैसियत से तो ठीक है मगर मैं जैनधर्म का चुस्त अनुयायी होने के नाते मुझे बात समझ में आ गई। आपने जो बात बताई उस पर से यदि जैन हो और ठीक से समझता हो, तो उसकी समझ में यह आ जाये कि वर्तमान में जो विचरण करते हैं, वे ही तीर्थंकर कहलायें । इसीलिए तो अरिहंत को सिद्ध से आगे स्थान दिया है।
कहीं भी होने पर, वे प्रत्यक्ष ही
प्रश्नकर्ता: वे लोग सीमंधर स्वामी विदेश में हैं ऐसा मानते हैं न?
दादाश्री : हमें यह नहीं देखना है कि वर्तमान तीर्थंकर कहाँ हैं? वे चाहें विदेश में हों या कहीं भी हों।
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त्रिमंत्र
हमने अरिहंत देखें नहीं हों, महावीर भगवान के समय में हमने उन्हें देखा नहीं हों, भगवान महावीर उस ओर (बिहार में) हों और हम इस ओर (गुजरात में) हों, मगर वे अरिहंत ही कहलायेंगे। हमारे नहीं देखने से उनका कुछ बिगड़ नहीं जाता। अर्थात् अरिहंत को अरिहंत मानेंगे तो ज्यादा फल प्राप्त होगा वर्ना वह तो विफल हो जाता है, मेहनत पानी में जाती है। नवकार मंत्र फलदायी नहीं होता, इसकी वज़ह ही यह है।
ऐसे देखा जाये तो वे पहले बिहार में थे, उसमें गुजरातवालों को क्या लेना-देना? उस वक्त गाड़ियाँ नहीं थीं, कुछ भी नहीं था, तब क्या लेना-देना? पर नहीं, यहाँ बैठे-बैठे उनका नाम भजते रहें। चाहें वे कितने भी दूर हों मगर किसी जगह पर हाल में हैं कि नहीं? तब कहें, 'हाँ, हैं।' तो वे वर्तमान तीर्थंकर कहलायेंगे।
तीर्थंकर कौन कहलाये ? तीर्थंकर भगवान कैवल्यज्ञान सहित होंगे। कैवल्यज्ञान तो दूसरों को भी होता है, केवलियों को भी होता है। पर तीर्थंकर के लिए तीर्थंकर (गोत्र) कर्म का उदय चाहिए। जहाँ उनके पैर पड़ें वह स्थान तीर्थ हो जाता है। जिस काल में तीर्थंकर भगवान होते हैं न, तब सारी दुनिया में उनके जैसी न तो किसी की पुण्याई होती है, न तो किसी के ऐसे परमाणु होते हैं। उनके शरीर के परमाणु, उनकी वाणी के परमाणु, अहह ! स्याद्वाद वाणी ! सुनते ही सभी के हृदय तृप्त हो जायें, ऐसे वे तीर्थंकर महाराज!
अरिहंत तो बहुत बड़ा रूप कहलायें। सारे ब्रह्मांड में उस घड़ी ऐसे परमाणु किसी के नहीं होते। सारे उच्चत्तम परमाणु अकेले उनके शरीर में सम्मिलित हुए होते हैं। तब वह शरीर कैसा? वह वाणी कैसी? वह रूप कैसा? उन सब बातों का क्या कहना ! उनकी तो बात ही अलग न! अर्थात् उनकी तुलना तो करना ही नहीं, किसी के साथ! तीर्थंकर
की तुलना किसी के साथ नहीं की जा सकती, वे ऐसी गज़ब की मूर्ति कहलाते हैं। चौबीस तीर्थंकर हो गये, मगर वे सारे गज़ब की मूर्ति !
बंधन रहा, अघाती कर्म का प्रश्नकर्ता : अरिहंत भगवान अर्थात् मोक्ष से पहले की स्थिति?
दादाश्री : हाँ, अरिहंत भगवान अर्थात् मोक्ष से पहले की स्थिति। ज्ञान में सिद्ध भगवान के समान ही स्थिति है, पर बंधन के रूप में इतना शेष रहा है। जैसे दो मनुष्यों को साठ साल की सजा सुनाई थी तब एक मनुष्य को जनवरी की पहली तारीख पर सुनाई थी और दूसरे मनुष्य को जनवरी की तीसरी तारीख को सुनाई थी। पहले के साठ साल पूरे हो गये और वह रिहा हो गया। दूसरा दो दिन के बाद रिहा होने जा रहा है। पर वह मुक्त ही कहलाता है न? ऐसी उनकी स्थिति है।
नमो सिद्धाणं... फिर दूसरे कौन हैं? प्रश्नकर्ता : 'नमो सिद्धाणं'।
दादाश्री : अब जो यहाँ से सिद्ध हो गये हैं, जिनकी यहाँ पर देह भी छूट गई है और फिर देह प्राप्त होनेवाली नहीं है और सिद्धगति में निरंतर सिद्ध भगवान की स्थिति में स्थित हैं, ऐसे सिद्ध भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ।
अब यहाँ से रामचन्द्रजी, ऋषभदेव भगवान, महावीर भगवान आदि सभी जो षड्रिपु को जीतकर सिद्धगति में गये अर्थात् वहाँ निरंतर सिद्धदशा में रहते हैं, उनको नमस्कार करता हूँ। इसमें क्या हर्ज है, बोलिए! इसमें कुछ हर्ज जैसा है?
अब वे पहलेवाले ऊँचे कि दूसरे जो अभी बोले वे ऊँचे? ये तो देह त्यागकर सिद्ध हो गये हैं, पूर्णतया मुक्त हुए हैं। अब इन दोनों में
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कहलाते हैं। और ये जो सिद्ध पुरुष होते हैं न, वे तो मनुष्य ही कहलाते हैं। इनको आप गाली दें तो ये सिद्ध पुरुष तो घमासान मचा दे, नहीं तो आपको शाप दे दें।
ऊँचा कौन और नीचा कौन? आपको क्या लगता है? बहुत सोचने से नहीं मिलेगा, अपने आप सहज रूप से बोल दीजिए न!
प्रश्नकर्ता : नमस्कार करें इसलिए सभी समान। अब उनमें श्रेष्ठता अथवा न्यूनता हम कैसे तय कर सकते हैं?
दादाश्री : मगर इन लोगों ने पहला नंबर नमो अरिहंताणं का लिखा और सिद्धाणं का दूसरा नंबर लिखा, उसकी कोई वज़ह आपकी समझ में आई?
वे क्या कहते हैं कि जो सिद्ध हुए वे संपूर्ण हैं। वे वहाँ पर सिद्धगति में जा बैठे हैं, पर वे हमारे कुछ काम नहीं आते हैं। हमें तो 'ये' (अरिहंत) काम आते हैं, इसलिए उनका पहला नंबर और बाद में सिद्ध भगवान का दूसरा नंबर है।
___ और सिद्ध भगवंत जहाँ हैं, वहाँ जाना है। इसलिए तो वे हमारा लक्ष्य हैं। मगर उपकारी कौन हैं? अरिहंत । खुद ने छह दुश्मनों को जीता हैं और हमें जीतने का रास्ता दिखाते हैं, आशीर्वाद देते हैं। इसलिए उन्हें पहले रखा। उन्हें बहुत उपकारी माना। अर्थात् हमारे लोग प्रकट को उपकारी मानते हैं।
अंतर, अरिहंत और सिद्ध में प्रश्नकर्ता : सिद्ध भगवान किसी प्रकार मानवजीवन के कल्याण हेतु प्रवृत होते हैं क्या?
दादाश्री : नहीं। सिद्ध तो आपका ध्येय है पर फिर भी वे आपको कुछ हेल्प करनेवाले नहीं हैं। वह तो यहाँ पर ज्ञानी हों अथवा तीर्थंकर हों, वे आपकी हेल्प करेंगे, वे मदद करेंगे, आपकी भूल दिखायेंगे, आपको राह दिखायेंगे, आपका स्वरूप दिखायेंगे।
प्रश्नकर्ता : तो ये सिद्ध देहधारी नहीं हैं? दादाश्री : सिद्ध भगवान देहधारी नहीं होते, वे तो परमात्मा
प्रश्नकर्ता : अरिहंत और सिद्ध में क्या अंतर है?
दादाश्री : सिद्ध भगवान को शरीर का बोझ नहीं उठाना पड़ता। अरिहंत को शरीर का बोझ उठाकर चलना पड़ता है। उनको खुद को शरीर बोझ रूप लगता है, मानों इतना बड़ा घड़ा सिर पर रखकर इधरउधर घूमते हो। कुछ कर्म शेष हैं उन्हें पूरे किये बगैर वे सिद्धगति में नहीं जा सकते। इसलिए उतने कर्म भुगतने शेष हैं।
नमो आयरियाणं... ये दो हुए, अब? प्रश्नकर्ता : 'नमो आयरियाणं'।
दादाश्री : अरिहंत भगवान के बताए हुए आचार का जो पालन करते हैं और उन आचारों का पालन करवाते हैं, ऐसे आचार्य भगवान को नमस्कार करता हूँ।
उन्होंने खुद आत्मा की प्राप्ति की है, आत्मदशा प्रकट हुई है। वे संयम सहित हैं। पर यहाँ इस समय यह जो आचार्य हैं वे (सच्चे) आचार्य नहीं हैं। ये तो ज़रा-सा अपमान करने पर तुरंत ही क्रोधित हो जाते हैं। अर्थात् ऐसे आचार्य नहीं होने चाहिए। उनकी दृष्टि में परिवर्तन नहीं आया है। दृष्टि परिवर्तन होने के बाद काम होगा। जो मिथ्या दृष्टिवाले हैं, उन्हें आचार्य नहीं कहा जाता। सम्यक्त्व (आत्मदृष्टि) होने के बाद आचार्य बनें तो वे आचार्य कहलाते हैं।
आचार्य भगवान कौन से? यह दिखाई देते हैं, वे जैनों के आचार्य नहीं। जैनों में वर्तमान में कई आचार्य होते हैं, वे भी नहीं और वैष्णवों के भी आचार्य हैं, वे भी नहीं। मंडलेश्वर होते हैं, वे भी नहीं। सुख
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की जिसे किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं है और निज आत्मा के सुख के हेतु ही आचारों का पालन करते हैं। आयरियाणं अर्थात् जिसे आत्मा जानने के पश्चात् आचार्यपन (खुद आचारों का पालन करते हैं और दूसरों को पालन करवाते हैं) है, ऐसे आचार्य भगवान को नमस्कार करता हूँ। इसमें हर्ज है क्या? आपको इसमें आपत्ति लगती है क्या? चाहे फिर कोई भी हो, किसी भी जाति का हो पर जिसे आत्मज्ञान हुआ है, ऐसे आचार्य को नमस्कार करता हूँ।
अब वर्तमान में ऐसे आचार्य इस जगत में सभी जगह पर नहीं हैं, किंतु कुछ जगह पर हैं। लेकिन ऐसे आचार्य यहाँ नहीं हैं। हमारी भूमि पर नहीं हैं पर दूसरी भूमि पर हैं। इसलिए यह नमस्कार वे जहाँ हैं वहाँ पहुँच जाते हैं और हमें तुरंत उसका फल मिलता है।
प्रश्नकर्ता : इन आचार्यों में शक्ति नहीं थी? आचार्य पद कब प्राप्त होगा?
दादाश्री : यह आचार्य पद जो है वह महावीर भगवान के पश्चात् हजार साल तक ठीक से चला। और उसके बाद जो आचार्य पद है वह लौकिक आचार्य पद है। बाद में अलौकिक आचार्य ही नहीं
पिछले महापुरुषों के आगम हों कि वेदांत के सूत्र हों, उसकी ही मुहर जैसे हैं। इसीलिए उन्हें आचार्य कहा है।।
दादाश्री : वे तो कहेंगे, मगर सही आचार्य तो आत्मज्ञान होने के बाद ही कहलाते हैं।
आचार्य, प्रतापी सिंह समान तीर्थकर क्या काम आते हैं? दर्शन के काम आते हैं और सुनने के काम आते हैं। सुनना कब कि देशना दे रहे हों तब सुनने के काम आते हैं, वर्ना दर्शन के काम आते हैं।
वह भी जिसे सिर्फ दर्शन की ही कमी रह गई हो, वह उनके दर्शन कर के मोक्ष में जाता है। उनके दर्शन से ही पूर्णाहुति हो जाती है। पर जो उस स्टेज तक पहुँचा हो उसके लिए। जिसने आचार्य के पास से सारे आचार जान लिए हैं, वह उस स्टेज पर आ गया हो न, उसका वहाँ तीर्थंकर भगवान के पास दर्शन से काम हो जाता है। अर्थात् अंतिम परिपक्वता आचार्य के पास होती है। आचार्य परिपक्व करते हैं। तीर्थंकर भी उनकी महत्ता का स्वीकार करते हैं। तीर्थंकर भगवान से पूछा जाये कि 'इन पाँचों में सबसे बड़ा कौन? आप हैं क्या?' तब तीर्थंकर भगवान कहेंगे कि 'आचार्य भगवान बड़े।' यह तो तीर्थंकर भगवान से अभिप्राय माँगे, इसलिए अभिप्राय तो उनका ही कहलाये न !
प्रश्नकर्ता : पर ऐसा क्यों कहेंगे?
दादाश्री : क्योंकि तीर्थंकर भगवान के एक सौ आठ गुण और आचार्य महाराज में एक हजार और आठ गुण होते हैं! अर्थात् वे तो गुणों का धाम कहलायें। और वे तो सिंह समान होते हैं। उनकी दहाड़ से तो सब डोलने लगें। जैसे यह गीदड़ ने कुछ मांस खाया हो, पर यदि शेर को देख लिया तो देखने के साथ ही गीदड़ मांस की उलटी कर डाले! ऐसा ही आचार्य महाराज का प्रताप होता है। हाँ, किसी ने बहुत सारे पाप किए हों न, वह उनके सामने अपने पापों की उलटी
हुए हैं।
प्रश्नकर्ता : मैं अलौकिक आचार्य की बात करता हूँ।
दादाश्री : तो अलौकिक हुए ही नहीं हैं। अलौकिक आचार्य तो भगवान कहलाये।
प्रश्नकर्ता : तो कुंदकुंदाचार्य...?
दादाश्री : कुंदकुंदाचार्य हो गये पर वे महावीर भगवान के पश्चात् छह सौ साल बाद हुए थे। कुंदकुंदाचार्य तो पूर्ण पुरुष थे। और यह मैं तो कहता हूँ कि आखिरी पंद्रह सौ साल में आचार्य ही नहीं हुए हैं।
प्रश्नकर्ता : पर यह तो आचार्यों की जो कुछ कृतियाँ हैं, वे
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कर डालता है। तीर्थंकर भी कहें कि, 'मैं भी उनकी वजह से ही हुआ हूँ।' इसलिए आचार्य भगवान तो बहुत बड़ा गुणधाम कहलाते हैं।
ये पाँचो नवकार (नमस्कार) सर्वश्रेष्ठ पद हैं। उनमें भी आचार्य महाराज के तो तीर्थंकर को भी बखान करने पड़ते हैं। क्योंकि तीर्थंकर कैसे हुए? (उनके समय के) आचार्य महाराज के प्रताप से ! गणधर पार करें बुद्धि के स्तर
प्रश्नकर्ता: तब ये भगवान के गणधर हैं, वे आचार्य कक्षा में आते होंगे?
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दादाश्री : हाँ, आचार्य पद में ही आते हैं। क्योंकि भगवान से नीचा दूसरा कोई पद ही नहीं है। गणधर नामाभिधान इसलिए हुआ उन लोगों ने बुद्धि का पूर्णरूप से भेदन किया । और आचार्य महाराज ऐसे हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते हैं। पर गणधरों ने तो बुद्धि का सारा स्तर पार किया होता हैं।
वह स्तर हमने पार किया है। एक चंद्र का स्तर यानी मन का स्तर और सूर्य का स्तर यानी बुद्धि का स्तर, उन सूर्य-चंद्र का जिसने भेदन किया है ऐसे गणधर भगवान, फिर भी वे तीर्थंकर के आदेश में रहते हैं। हम भी सूर्य-चंद्र का भेदन करके बैठे हैं।
हिम जैसा ताप
आचार्य को पूरा शास्त्र कंठस्थ होता है और सारा धारण किया हुआ होता है। जबकि उपाध्याय पढ़ते हैं और पढ़ाते हैं । ये उपाध्याय (साधु से) थोड़ा आगे पढ़े हुए होते हैं पर वे आचार्य महाराज के आगे 'बापजी, बापजी' किया करते हैं। जिसकी दहाड़ से साधु, उपाध्याय बिल्ली जैसे हो जायें (उनकी शरण में आ जायें), उसका नाम आचार्य ! और साधु चाहे कितना भी जोरों से दहाड़े फिर भी आचार्य महाराज उनसे प्रभावित नहीं होते । साधु ने आत्मा की प्राप्ति की होती है यानी
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सम्यक्त्व प्राप्त किया है लेकिन अभी भी पढ़ रहा है, शास्त्र सीख रहा होता है।
आचार्य ऐसे होते हैं कि शिष्य से गलत हो गया तो शिष्य वहीं उलटी कर दें। क्योंकि वह भीतर सहन नहीं कर सकता। आचार्य का इतना बड़ा ताप होने पर भी वे सख़्त नहीं होते। वे क्रोध नहीं करते। यों ही उनकी सख्ती बरतती रहे, बहुत ताप लगे ।
जैसे यह हिमप्रपात होता है न, उस हिम का ताप कितना भारी होता है? वह हिमताप कहलाता है। इस तरह इनमें भी क्रोध नहीं होता । क्रोध - मान-माया-लोभ हों तो वे आचार्य कहलाते ही नहीं न !
वर्ना आचार्य महाराज तो कैसे होंगे? उनका क्या कहना ! उनकी वाणी सुनकर वहाँ से उठने को जी नहीं करता। आचार्य तो भगवान ही कहलाते हैं। वे कुछ ऐसे-वैसे नहीं कहलाते ।
दादा, खटपटिये वीतराग
हमारा यह आचार्य पद कहलाता है। लेकिन हमारा संपूर्ण वीतराग पद नहीं कहलाता। पर हमें वीतराग कहना हो तो खटपटिये (कल्याण हेतु खटपट करनेवाले) वीतराग कह सकते हैं। ऐसी खटपट कि 'आइए आप, हम सत्संग करेंगे और आपको ऐसा कर देंगे, वैसा कर देंगे।' ऐसा वीतराग में नहीं होता । दखल भी नहीं और झंझट भी नहीं । वे आपका हित होता हो कि अहित होता हो, यह सब देखने की परवाह नहीं करते। वे खुद ही हितकारी हैं। उनकी हवा (परमाणु) हितकारी है, उनकी वाणी हितकारी है, उनके दर्शन हितकारी हैं। पर वे आपको ऐसा नहीं कहेंगे कि आप ऐसा कीजिए। और मैं तो आपसे कहूँ कि, 'आपके साथ मैं सत्संग करूँ और आप कुछ मोक्ष की ओर आगे चलें ।' तीर्थंकर तो एक ही स्पष्ट वाक्य कहते हैं कि 'चार गतियाँ भयंकर दुःखदायी हैं। इसलिए हे मनुष्यों, यहाँ से मोक्ष में जाने का साधन प्राप्त हो ऐसा तुम्हें मनुष्यत्व प्राप्त हुआ है, इसलिए मोक्ष की कामना करो'
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इतना ही कहते हैं। तीर्थंकर अपनी देशना में ऐसा ही बोलते हैं।
हाल में यहाँ पर तीर्थंकर नहीं हैं और सिद्ध भगवान तो अपने देश (सिद्धक्षेत्र) में ही रहते हैं। इसलिए तीर्थंकर के रीप्रेजेन्टेटिव (प्रतिनिधि) के तौर पर हाल में हम हैं। हाँ, उनके नहीं होने पर सारी सत्ता हमारे हाथ में है। इसलिए उसका आराम से उपयोग करते हैं, बिना किसी को पूछे ! पर हम तीर्थंकरों को अपने सिर पर रखते हैं, इसलिए उन्हें यहाँ बिठाये है न!
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उपाध्याय में विचार और उच्चार दो ही होते हैं और आचार्य में विचार, उच्चार और आचार तीनों होते हैं। उनको इन तीनों की पूर्णाहुति होती है, इसलिए आचार्य भगवान कहलाते हैं ।
नमो उवज्झायाणं...
प्रश्नकर्ता: 'नमो उवज्झायाणं' विस्तार से समझाइये ।
दादाश्री : उपाध्याय भगवान। उसका क्या अर्थ होता है? जिसे आत्मा की प्राप्ति हो गई है और जो खुद आत्मा जानने के पश्चात् सभी शास्त्रों का अभ्यास करते हैं और फिर दूसरों को अभ्यास करवाते हैं, ऐसे उपाध्याय भगवान को नमस्कार करता हूँ ।
उपाध्याय यानी खुद सबकुछ समझे सही फिर भी संपूर्ण आचरण में नहीं आये होते । वे वैष्णवों के हों कि जैनों के हों, किसी भी धर्म के हों पर आत्मा प्राप्त किया होता है। आज के ये साधु वे सभी इस पद में नहीं आते। क्योंकि उन्होंने आत्मा प्राप्त नहीं किया है। आत्मा प्राप्त करने पर क्रोध - मान-माया लोभ चले जाते हैं, कमजोरियाँ चली जाती हैं। अपमान करने पर फन नहीं फैलाते ( क्रोधित नहीं होते)। ये तो अपमान करने पर फन फैलाते हैं न? इसलिए फन फैलानेवाले वहाँ नहीं चलते हैं।
प्रश्नकर्ता: उपाध्याय जानते हैं ऐसा कहा, पर वे क्या जानते है?
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दादाश्री : उपाध्याय यानी जो आत्मा को जानते हैं, कर्तव्य को पहचानते हैं और आचार भी जानते हैं। उनमें कुछ आचार होते हैं और कुछ आचार आने शेष हैं। पर संपूर्ण आचार प्राप्त नहीं होने की वज़ह से वे उपाध्याय पद में हैं। इसलिए खुद अभी पढ़ रहे हैं और अन्य को पढ़ा रहे हैं।
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प्रश्नकर्ता: अर्थात् आचार में पूर्णता नहीं आई होती ? दादाश्री : हाँ, उपाध्याय को आचार की पूर्णता नहीं होती । आचार की पूर्णता के बाद तो आचार्य कहलाते हैं।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् उपाध्याय भी आत्मज्ञानी होने चाहिएँ ? दादाश्री : आत्मज्ञानी नहीं, आत्मप्रतीतिवाले। पर प्रतीति की डिग्री जरा ऊँची होगी।
और आगे?
नमो लोए सव्वसाहूणं.....
प्रश्नकर्ता : 'नमो लोए सव्वसाहूणं' विस्तार से समझाइये ।
दादाश्री : लोए यानी लोक, इसलिए इस लोक में जितने साधु हैं उन सभी साधुओं को मैं नमस्कार करता हूँ।
साधु किसे कहेंगे? सफेद कपड़े पहने, गेरुआ कपड़े पहने उसका नाम साधु नहीं। आत्मदशा साधें वे साधु । अर्थात् जिन्हें बिल्कुल देहाध्यास नहीं, संसार दशा-भौतिक दशा नहीं मगर आत्मदशा साधे उन साधुओं को मैं नमस्कार करता हूँ। अब ऐसे साधु कहाँ मिलेंगे? अब ऐसे साधु होते हैं ? पर इस ब्रह्मांड में जहाँ-जहाँ भी ऐसे साधु हैं, उनको नमस्कार करता हूँ ।
संसार दशा में से मुक्त होकर आत्मदशा के लिए प्रयत्न करते हैं और आत्मदशा साधते हैं, उन सभी को नमस्कार करता हूँ । बाकी
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योग आदि जो सब कुछ करते हैं वे सारी संसार दशाएँ हैं। आत्मदशा वह असल वस्तु है। कौन-कौन से योग में संसार दशा हैं? तब कहें, एक तो देहयोग, जिसमें आसन आदि करने पड़ें वे सभी देहयोग कहलाते हैं। फिर दूसरा मनोयोग, यहाँ चक्रों के ऊपर स्थिरता करना वह मनोयोग कहलाता है। और जपयोग करना वह वाणी का योग कहलाता है। ये तीनों स्थूल शब्द हैं और उसका फल संसार फल मिलता है। अर्थात् यहाँ बंगला मिले, गाड़ियाँ मिलें। और आत्मयोग होने पर मुक्ति मिलती है, सभी प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं। वह आखिरी, बड़ा योग कहलाता है। सव्वसाहूणं यानी जो आत्मयोग साधकर बैठे हैं ऐसे सभी साधुओं को मैं नमस्कार करता हूँ। ____ अर्थात् साधु कौन? जिनको आत्मा की प्रतीति हुई है, उनकी गिनती हमने साधुओं में की। अर्थात् यह साहूणं को पहली प्रतीति और उपाध्याय को विशेष प्रतीति और आचार्य को आत्मज्ञान होता है। और अरिहंत भगवान वे पूर्ण भगवान! इस रीति से नमस्कार किए हैं।
पाँचो इन्द्रियाँ सुनें तब... प्रश्नकर्ता : भगवंतों ने नवकार के पाँच पदों की जो रचना की है, उनमें पहले चार तो सही हैं पर पाँचवे में नमो लोए सव्वसाहूणं के बजाय सव्वसाहूणं क्यों नहीं रखा?
दादाश्री : उन्हों ने जो कहा है न, वह जैसा है वैसा, कानामात्रा के साथ बोलने को कहा है। क्योंकि उनके श्रीमुख से निकली वाणी है। उसका भाषा परिवर्तन करने की मनाई की है। अर्थात् उनके श्रीमुख से निकली है, महावीर भगवान के मुँह से और वे जब बोलें न, तो वे परमाणु ही ऐसे संयोजित होते हैं कि मनुष्यों को अजूबा लगे। पर यह तो ऐसे बोलते हैं कि खुद को भी सुनाई नहीं देता, तब फल भी ऐसा ही मिलेगा न! खुद को फल का पता नहीं चलेगा। बाकी पाँचों इन्द्रियाँ सुनें ऐसे बोलने पर सच्चा फल प्राप्त होगा। हाँ, आँख भी देखा करे, कान भी सुना करे, नाक सूंघती रहे...
यह तो नवकार यों ही बोलते हैं। जब कान सुने नहीं, कान भूखा रहे, आँखें भूखी रहें, जीभ अकेली मुँह में बोलती रहे, तब फिर कैसा फल मिलेगा? अर्थात् पाँचों इन्द्रियाँ प्रसन्न हों, तब नवकार मंत्र परिणमित हुआ कहलाये। मंत्र बोलते तो हैं मगर कान सुने, आँखें देखें, नाक सुगंध महसूस करे, उस समय चमड़ी को स्पर्श हो उसका, इस प्रकार बोलना चाहिए। इसलिए तो हम यह त्रिमंत्र ऊँची आवाज़ में बुलवाते हैं न!
केवल साधक, नहीं बाधक यह हमारे लोगों ने जितना निश्चित किया है, उतना ही ब्रह्मांड नहीं है। ब्रह्मांड बहुत बड़ा है, विशाल है।
संसार के स्वाद के खातिर साधना करें वे साधु नहीं हैं। स्वाद के खातिर, मान के खातिर, कीर्ति के खातिर, वे सभी साधनाएँ अलग होती हैं और आत्मा की साधना में यह सब नहीं होता। आत्मदशा सिद्ध करने जो साधना करते हैं वे साधु हैं। ऐसे सभी साधुओं को नमस्कार करता हूँ। बाकी सभी साधु नहीं कहलाते।
देह दशा, देह के रौब के खातिर, देह के सुख की खातिर जो घूमते-फिरते हैं वह नहीं चलता। आत्मदशा साधनेवाले ही साधु कहलाते हैं। ऐसे साधु शायद ही हिन्दुस्तान में कोई हों! वे अन्य क्षेत्रों में हैं। उन सभी को नमस्कार करता हूँ। हमारा नमस्कार वहाँ पहुँचता है और हमें फल मिलता है।
प्रश्नकर्ता : लोए यानी क्या?
दादाश्री : नमो लोए सव्वसाहूणं। लोए यानी लोक। इस लोक के सिवा दूसरा अलोक है, वहाँ कुछ नहीं है। अर्थात् लोक में जो सभी साधु हैं उनको नमस्कार करता हूँ।
प्रश्नकर्ता : अब आत्मदशा साधने पर आत्मा का ज्ञान होता है? दादाश्री : हाँ।
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प्रश्नकर्ता : और आत्मदशा साधने पर आत्मा का अनुभव होगा?
दादाश्री : वह आत्मदशा साधने पर अनुभव की ओर दौड़ पड़ते हैं, साधना करते हैं। अर्थात् साधना का क्या अर्थ है? 'आत्म भावना करते जीव लहे कैवल्यज्ञान रे!' पर आत्मभावना उसे प्राप्त होनी चाहिए न? हम यहाँ जो ज्ञान देते हैं, वह आत्मदशा ही प्राप्त होती है और उसे प्राप्त करने के बाद उसे फिर आगे की दशा प्राप्त होती है और उसमें जैसे-जैसे आगे बढ़े वैसे उपाध्याय दशा किसी को प्राप्त हुई होती है। हमारे यहाँ इस समय आखिरी पद कौन-सा प्राप्त कर सकते हैं? कि आचार्यपद तक जा सकते हैं। उससे आगे नहीं जा सकते।
प्रश्नकर्ता : हम कैसे तय कर सकते हैं कि यह आत्मदशा साधते हैं कि नहीं?
दादाश्री : हाँ, हम उसके बाधक गुण देख लें तो मालूम हो जायेगा। आत्मदशा साधनेवाला मनुष्य साधक ही होगा, बाधक नहीं होगा। साधु हमेशा साधक होते हैं और वर्तमान में ये जो साधु हैं वे इस दूषमकाल की वजह से साधक नहीं हैं, साधक-बाधक हैं। साधकबाधक यानी बीवी-बच्चे को छोड़कर, तप-त्याग आदि करते हैं। आज सामायिक-प्रतिक्रमण करके सौ रुपये कमाते हैं लेकिन शिष्य के साथ झमेला होने से उसके प्रति उग्र हो जाते हैं, तब डेढ़-सौ रुपये गँवा देते हैं। इसलिए वह बाधक है। और सच्चा साधु कभी बाधक नहीं होता, साधक ही होता है। जितने साधक होते हैं न, वही सिद्धदशा प्राप्त करते हैं।
प्रश्नकर्ता : अनंतानुबंधी?
दादाश्री : हाँ, जो क्रोध दूसरों को भयभीत करे, हमें सुनाई (दिखाई) दे, वह अनंतानुबंधी कहलाता है।
ॐ का स्वरूप प्रश्नकर्ता : ॐ वह नवकार मंत्र का छोटा रूप है? दादाश्री : हाँ, ॐ समझकर बोलने से धर्मध्यान होता है। प्रश्नकर्ता : नवकारमंत्र के बजाय ॐ इतना कहने पर चलेगा?
दादाश्री : हाँ, पर वह समझकर करने पर! ये लोग बोलते हैं वह बिना अर्थ का है। सच्चा नवकार मंत्र बोलने पर तो परिणाम स्वरूप घर में क्लेश होता रूक जाये। वर्तमान में सबके घरों में सारे क्लेश रूक गये हैं न?
प्रश्नकर्ता : नहीं रुकते।
दादाश्री : जारी ही हैं? यदि क्लेश होता रूक नहीं जाये तो समझना कि अभी यह नवकार मंत्र अच्छी तरह समझकर नहीं बोलते हैं।
यह नवकार मंत्र जो है, उसे बोलने से ॐ (पंच परमेष्टि) खुश हो जायें, भगवान खुश हो जायें। यह अकेला ॐ बोलने से कभी ॐ खुश नहीं होता। इसलिए यह नवकार मंत्र भी बोलना। यह नवकार मंत्र वही ॐ है। इन सबके संक्षिप्त रूप में ॐ शब्द रखा है। करनेवालों ने लोगों के लाभ के हेतु ऐसा किया, पर लोगों को समझ नहीं होने से न जाने उसका क्या से क्या हो गया और बात बिगड़ गई।
वह पहुँचे अक्रम के महात्माओं को जिसे मैं यहाँ ज्ञान देता हूँ न, वह उस दिन से ही 'मैं शुद्धात्मा हूँ' बोलने लगता है, तब से वह साधु हुआ। शुद्धात्मा दशा साधे वह साधु । इसलिए हमारे ये महात्मा, जिनको मैंने ज्ञान दिया है न, उनको
और यह तो बाधक, इसलिए छेड़खानी करते ही चिढ़ने में देर नहीं न! अर्थात् ये साधु नहीं, त्यागी कहलाते हैं। वर्तमान ज़माने के हिसाब से इनको साधु कह सकते हैं। बाकी वर्तमान में तो साधुत्यागियों का क्रोध खुल्लमखुल्ला नजर आता है न? अरे! सुनाई भी देता है। जो क्रोध सुनाई दे वह क्रोध कैसा कहलाये?
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यह नवकार पहुँचता है। हाँ, लोग नवकार मंत्र बोलते हैं न, उसकी जिम्मेवारी आपके सिर पर आती है। क्योंकि आप भी नवकार में आ गये। आत्मदशा साधे वह साधु। __उसके बाद आप धीरे धीरे थोड़ा-थोड़ा खुद समझने लगें और थोड़ा-थोड़ा दूसरों को समझा सकें, ऐसा हुआ अर्थात् आप साधु से आगे हो गयें। तब से उपाध्याय होने लगे। और आचार्यपद इस काल में जल्दी मिले ऐसा नहीं है, हमारे जाने के बाद निकलेगा वह बात अलग है।
नवकार का माहात्म्य "ऐसो पंच नमुक्कारो' अर्थात् यह जो ऊपर बताये गये उन पाँचो को नमस्कार करता हूँ।
'सव्व पावप्पणासणो' अर्थात् यह सभी पापों का नाश करनेवाला है। इसे बोलने से सारे पाप भस्मीभूत हो जाते हैं।
'मंगलाणं च सव्वेसिं' अर्थात् सभी मंगलों में...
'पढम हवई मंगलम्' अर्थात् यह प्रथम मंगल है। इस दुनिया में जो सारे मंगल हैं, उन सभी में सर्व प्रथम मंगल यह है, सबसे बड़ा मंगल यह है, ऐसा कहना चाहते हैं।
बोलिए अब, हमें इसे छोड़ देना चाहिए क्या? पक्षपात के खातिर छोड़ देना चाहिए? भगवान निष्पक्षपात होंगे कि पक्षपाती होंगे?
प्रश्नकर्ता : निष्पक्षपात।
दादाश्री : इसलिए हम, भगवान जैसे कहते हैं वैसे उनके निष्पक्षपात मंत्रों को भो।
त्रिमंत्र से पीड़ा हलकी हो जाये प्रश्नकर्ता : त्रिमंत्र में सव्व पावप्पणासणो आता है। यह सारे
पापों का नाश करनेवाला है, तो फिर बिना भुगते वे नष्ट हो जाते हैं?
दादाश्री : वह भुगतना तो होगा। ऐसा है न, आप यहाँ पर मेरे साथ चार दिन रहे हों, तो आपका कर्मों का भुगतना तो रहेगा पर वह भुगतना मेरी हाज़िरी में हलका हो जायेगा। ऐसे त्रिमंत्र की हाजिरी से भुगतने में बहुत फर्क पड़ जाता है। फिर वह आपको ज्यादा असर नहीं करेगा।
अभी एक आदमी को जिसे ज्ञान नहीं है, उसे चार दिन के लिए जेल में भेजें तो उसे कितनी भारी अकुलाहट होगी? और ज्ञानवाले को जेल भेजने पर ? उसकी वज़ह क्या कि भुगतना तो वही का वही है पर वह अंदर असर नहीं करता।
व्यवस्थित में होने पर ही जप पायें प्रश्नकर्ता : आप कहते हैं कि त्रिमंत्र हमारी सारी अड़चनें दूर कर देता है। आप यह भी कहते हैं कि सब 'व्यवस्थित' ही है, तब फिर त्रिमंत्र में शक्ति कहाँ से आई?
दादाश्री : व्यवस्थित यानी क्या कि यदि अड़चन दूर नहीं होनेवाली हो तो तब तक हमारे से त्रिमंत्र नहीं बोले जाते ऐसा 'व्यवस्थित' है समझ लेना।
प्रश्नकर्ता : पर त्रिमंत्र बोलने पर भी अड़चन दूर नहीं हो तो क्या समझना चाहिए?
दादाश्री : वह अड़चन कितनी बड़ी थी और कितनी कम हो गई, वह आपको मालूम नहीं पड़ता लेकिन हमें उसकी ख़बर होती है।
नवकार अर्थात् नमस्कार प्रश्नकर्ता : कुछ लोग 'नमो लोए सव्वसाहूणं' तक ही बोलते हैं और कुछ लोग 'एसो पंच नमुक्कारो' और आखिर तक बोलते हैं। दोनों में से कौन-सा सही है?
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दादाश्री : 'एसो पंच नमुक्कारो' से पीछे के चार वाक्य नहीं बोलें तो हर्ज नहीं। मंत्र तो पाँच ही हैं और पीछे के चार वाक्य तो उसका माहात्म्य समझाने के लिए लिखे हैं।
प्रश्नकर्ता : यह नव पद के हिसाब से नवकार मंत्र कहलाये?
दादाश्री : नहीं, नहीं, ऐसा नहीं। यह नव पद नहीं है। यह नमस्कार मंत्र है, उसके बदले नवकार हो गया। यह मूल शब्द नमस्कार मंत्र है, उसके बदले मागधि भाषा में नवकार बोलते हैं। इसलिए नमस्कार को ही यह नवकार कहते हैं। अर्थात् नव पद से इसका लेनादेना नहीं है। ये पाँच ही नमस्कार हैं।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय... प्रश्नकर्ता : फिर 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' समझाइए।
दादाश्री : वासुदेव भगवान! अर्थात् जो वासुदेव भगवान नर से नारायण हुए, उसको मैं नमस्कार करता हूँ। नारायण होने पर वासुदेव कहलाते हैं।
प्रश्नकर्ता : श्रीकृष्ण, महावीर स्वामी वे सभी क्या हैं?
दादाश्री : वे तो सारे भगवान हैं। वे देहधारी रूप में भगवान कहलाते हैं। वे भगवान क्यों कहलाते हैं कि भीतर संपूर्ण भगवान प्रकट हुए हैं। इसलिए हम उन्हें देह समेत भगवान कहते हैं।
और जो महावीर भगवान हुए, ऋषभदेव भगवान हुए वे पूर्ण भगवान कहलाते हैं। कृष्ण भगवान तो वासुदेव भगवान कहलाते हैं, उसमें कोई शक नहीं है न? वासुदेव यानी नारायण। नर में से जो नारायण हुए ऐसे भगवान प्रकट हुए थे। उसे हम भगवान कहते हैं।
वासुदेव की गिनती भगवान में होती है। शिव की गिनती भगवान में होती है और सच्चिदानंद वह भी भगवान में गिने जाते हैं। और ये पाँचो परमेष्टि भी भगवान में ही गिने जाते हैं। क्योंकि ये सच्चे साधक
होने से वे सारे भगवान में गिने जाते हैं। पर ये पंच परमेष्टि कार्य भगवान कहलाते हैं, जबकि वासुदेव तथा शिव कारण भगवान कहलाते हैं। वे कार्य भगवान होने के कारणों का सेवन करते हैं।
नर में से नारायण प्रश्नकर्ता : 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' का जरा विशेष रूप से स्पष्टीकरण कीजिए।
दादाश्री : यह श्रीकृष्ण भगवान वासुदेव हैं, वैसे ऋषभदेव भगवान के समय से लेकर आज तक नौ वासुदेव हो गये। वासुदेव यानी नर में से नारायण हो, उस पद को वासुदेव कहते हैं। तप-त्याग कुछ भी नहीं। उनको तो मारधाड़-झगड़े-तूफान सबकुछ उनके प्रतिपक्षी के साथ होता हैं। इसीलिए तो उनके प्रतिपक्षी के रूप में प्रतिवासुदेव जन्म लेते हैं। वे प्रतिनारायण कहलाते हैं। उन दोंनो के झगड़े होते रहते हैं।
और तब नौ बलदेव भी होते हैं। कृष्ण वासुदेव कहलाते हैं और बलराम (श्रीकृष्ण के बड़े भाई) वह बलदेव कहलाते हैं। भगवान रामचन्द्रजी वासुदेव नहीं कहलाते, रामचन्द्रजी बलदेव कहलाते हैं। लक्ष्मण वासुदेव कहलाते हैं और रावण प्रतिवासुदेव कहलाते हैं। रावण खास पूजा करने योग्य है। (रावण महान ज्ञानी और भगवान शिव के परम आराधक थे।) हमारे लोग रावण के पुतले जलाते हैं। भयंकर तरीके से जलाते हैं न! देखिए न! ऐसा उलटा ज्ञान जहाँ फैला हुआ है, उस देश का कैसे भला होगा? रावण के पुतले नहीं जलाने चाहिए।
इस काल के वासुदेव यानी कौन? कृष्ण भगवान । इसलिए यह नमस्कार कृष्ण भगवान को पहुँचते हैं। उनके जो शासनदेव होंगे, उनको पहुँचता है।
वासुदेव पद, अलौकिक वासुदेव तो कैसे होते हैं? एक आँख से ही लाखों लोग डर जायें ऐसी तो वासुदेव की आँख होती है। उनकी आँख देखकर ही
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त्रिमंत्र
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डर जायें। वासुदेव पद का बीज कब पड़ेगा? वासुदेव होनेवाले हों तब कईं अवतार पहले से ऐसा प्रभाव होता है। वासुदेव जब चलते हों तो धरती धम धमती है ! हाँ, धरती के नीचे से आवाज़ आती है। अर्थात् वह बीज ही अलग तरह का होता है। उनकी हाज़िरी से ही लोग इधर-उधर हो जाते हैं। उनकी बात ही अलग है। वासुदेव तो मूलतः जन्म से ही पहचाने जाते हैं कि वासुदेव होनेवाले हैं। कई अवतारों के बाद वासुदेव होनेवाले हों, उसका संकेत आज से ही मिलने लगता है। तीर्थंकर नहीं पहचाने जाते मगर वासुदेव पहचाने जाते हैं। उनके लक्षण ही अलग तरह के होते हैं। प्रतिवासुदेव भी ऐसे ही होते हैं।
प्रश्नकर्ता : तो तीर्थंकर पिछले अवतारों में कैसे पहचाने जाते
हैं?
दादाश्री : तीर्थंकर सीधे-सादे होते हैं। उनकी लाइन ही सीधी होती हैं। उनका दोष ही नहीं होता, उनकी लाइन में दोष ही नहीं आता और दोष आने पर किसी भी तरह से (ज्ञान से) वापस, वहीं के वहीं आ जाते हैं। वह लाइन ही अलग है। और वासुदेव तथा प्रतिवासुदेव को तो कई अवतार पहले से ही ऐसे गुण होते हैं। वासुदेव होना यानी नर में से नारायण हुए कहलाते हैं। नर से नारायण यानी किस अवस्था से, जैसे कि वह पड़वा होता है तब से मालूम नहीं होता कि अब पूनम होनेवाली है। ऐसे उसके कईं अवतार पहले से मालूम हो जाता है कि ये वासुदेव होनेवाले हैं।
नहीं बोल सकते उलटा कृष्ण या रावण का
ये जो तिरसठ शलाका पुरुष कहलाते हैं न, उन पर भगवान ने मुहर लगाई कि ये सारे भगवान होने लायक हैं। इसलिए हम अकेले अरिहंत को भजें और इन वासुदेव को नहीं भजें तो वासुदेव भविष्य में अरिहंत होनेवाले हैं। यदि वासुदेव का उलटा बोलेंगे तो हमारा क्या
होगा? लोग कहते हैं न, 'कृष्ण को ऐसा हुआ है, वैसा हुआ है...' अरे, ऐसा नहीं बोलते। उनके बारे में कुछ मत बोलना। उनकी बात अलग है और तू जो सुनकर आया वह बात अलग है। क्यों जिम्मेवारी मोल लेता है? जो कृष्ण भगवान अगली चौबीसी में तीर्थंकर होनेवाले हैं, जो रावण अगली चौबीसी में तीर्थंकर होनेवाले हैं, उनकी जिम्मेवारी क्यों मोल लेते हो?
तिरसठ शलाका पुरुष शलाका पुरुष यानी मोक्ष में जाने योग्य श्रेष्ठ पुरुष। मोक्ष में तो दूसरे भी जायेंगे मगर ये श्रेष्ठ पुरुष कहलाते हैं। इसलिए वे ख्याति के साथ हैं। संपूर्ण ख्यातनाम होकर मोक्ष में जाते हैं। हाँ, उनमें चौबीस तीर्थकर होते हैं, बारह चक्रवर्ती होते हैं, नौ वासुदेव होते हैं, नौ प्रतिवासुदेव होते हैं और नौ बलदेव होते हैं। बलदेव वासुदेव के बड़े भाई होते हैं। वे हमेशा साथ में ही होते हैं। यह नेचुरल एडजस्टमेन्ट (स्वाभाविक समायोज़न) होता है। उसमें फर्क नहीं होता। नेचुरल में कोई परिवर्तन नहीं होता। जैसे कि पानी के लिए 26 और 0 ही चाहिए, इसके समान यह बात है।
यह सायन्टिफिक वस्तु है। वर्ना यह तिरसठ मेरा शब्द नहीं है, तिरसठ के बदले चौसठ भी रखता। पर यह कुदरत की रचना कितनी सुंदर और व्यवस्थित है!
बोलते समय उपयोग... हम ॐ नमो भगवते वासुदेवाय बोलें, तब कृष्ण भगवान नज़र आते हैं। इस तरह हम शब्दोच्चार करते हैं। अब कृष्ण भगवान, जो भले ही हमारे दर्शन में आये हुए हों, जो भी चित्र उभरा हो, फिर वे मुरलीवाले हों कि अन्य रूप में हों पर हमारे यह उच्चारण के साथ वे तुरंत दिखाई दें, बोलते ही दिखाई दें। बोलें और दिखाई नहीं दें, उसका अर्थ ही क्या?
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कहीं भी हों, उनको नमस्कार करता हूँ। कल्याण स्वरूप कौन कहलाता हैं? जिसके लिए मोक्षलक्ष्मी माला पहनाने तैयार हुई हो। मोक्षलक्ष्मी ब्याहने तैयार हुई हो, वे कल्याण स्वरूप कहलाते हैं।
किसलिए शंकर-नीलकंठ ?
हम वहाँ पर महादेवजी के मंदिर में जाकर बोलते हैं न,
'त्रिशुल होते हुए भी जगत ज़हर पीनेवाला, शंकर भी मैं ही और नीलकंठ मैं ही हूँ।'
नाम अकेला बोलने पर अकेले नाम का फल मिलेगा। पर साथसाथ उनकी मूर्ति देखें, तो दोनों फल मिलेंगे। नाम और स्थापना दो फल मिलें तो बहुत हो गया।
प्रश्नकर्ता : 'नमो अरिहंताणं' बोलते समय मन में किस रंग का चिंतन करना चाहिए?
दादाश्री : 'नमो अरिहंताणं' बोलते समय किसी रंग का चिंतन करने की कोई जरूरत नहीं है। और यदि चिंतन करना हो तो आँखे मुंदकर न...मो... अ...रि...हं...ता...णं... ऐसे एक-एक शब्द नज़र आना चाहिए। उससे बहुत अच्छा फल प्राप्त होता है। आँखे मूंदकर बोलिए तो, न...मो... अ...रि...ह...ता...णं... ये अक्षर बोलते समय क्या मन में नहीं पढ़ सकते? अभ्यास करना, तो फिर तुम पढ़ पाओगे।
फिर 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' इसे भी आप आँखें मूंदकर बोलेंगे तो हर अक्षर दिखाई देगा। अक्षरों के साथ पढ़ पायेंगे। आप दो दिन अभ्यास करना, तीसरे दिन बहुत ही सुंदर दिखाई देगा।
मंत्रों का इस तरह चिंतन करना। यही ध्यान कहलाता है। यदि इस त्रिमंत्र का ऐसे ध्यान करें न, तो बहुत सुन्दर ध्यान हो जाये।
ॐ नमः शिवाय... प्रश्नकर्ता : 'ॐ नमः शिवाय' विस्तार से समझाइये।
दादाश्री : इस दुनिया में जो कल्याण स्वरूप हुए हों और जो जीवित हों, जिनका अहंकार खतम हो गया हो, वे सभी शिव कहलाते हैं। शिव नाम का कोई मनुष्य नहीं है। शिव तो खुद कल्याण स्वरूप ही हैं। इसलिए जो खुद कल्याण स्वरूप हुए हैं और दूसरों को कल्याण की राह दिखाते हैं, उनको नमस्कार करता हूँ।
जो कल्याण स्वरूप होकर बैठे हैं, वे चाहे हिन्दुस्तान में हों या
मैं ही शंकर और मैं ही नीलकंठ, किस लिए कहा? कि इस संसार में जिसने जिसने भी जहर पिलाया वह सारा का सारा पी गये। और अगर आप पी जायें तो आप भी शंकर हो जायेंगे। कोई गाली दे, कोई अपमान करे तो भी आशीर्वाद देकर, समभाव से सारा का सारा जहर पी जायें तो आप शंकर होंगे। वैसे समभाव रह नहीं सकता पर आशीर्वाद देने पर समभाव आयेगा। अकेला समभाव रखने जाते हैं तो विषमभाव हो जाता है।
महादेवजी ज़हर (सांसारिक कष्ट) के सारे गिलास पी गये थे। जिसने गिलास दिया, उसे पी गये। वैसे हम भी ऐसे गिलास पीकर महादेवजी हुए हैं। आपको भी महादेवजी होना हो तो ऐसा करना। अभी भी समय है। पाँच-दस साल पी सको तो भी बहुत हो गया। तो आप भी महादेवजी हो जायेंगे। पर आप तो वह गिलास पिलाये उससे पहले उसको ही पिला देते हैं ! ले, मुझे महादेवजी नहीं होना, तू महादेवजी हो जा', ऐसा कहते हैं।
शिवोहम् कब बोला जाये ? प्रश्नकर्ता : कुछ लोग 'शिवोहम्, शिवोहम्' ऐसा बोलते हैं, वह क्या है?
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दादाश्री : ऐसा है न, कि इस समय नहीं मगर पहले जो शिव स्वरूप हुए हों, पिछले जन्मों में शिव स्वरूप हुए हों, वे 'शिवोहम्' बोल सकते हैं। उनकी नकल उनके बाद उनके शिष्यों ने इन लोगों ने की। और उनकी नकल इन शिष्यों के शिष्यों ने और उनके शिष्यों ने की। इस तरह सब नकल करते हैं। ऐसा करने से थोड़े शिव हो जायेंगे? घर में प्रतिदिन बीवी के साथ झगडे होते हैं और वहाँ 'शिवोहम् शिवोहम्' करते हैं। अरे, शिव को क्यों बदनाम करते हैं? बीवी के साथ झगडा करता हो और 'शिवोहम्' बोलता हो तो शिव की बदनामी होगी कि नहीं होगी?
प्रश्नकर्ता : जितना समय 'शिवोहम्' बोले उतना समय तो बीवी से नहीं लड़ता न?
दादाश्री : नहीं, 'शिवोहम्' बोल ही नहीं सकते। फिर तो उसे आगे जाने के मार्गदर्शन की ज़रूरत ही नहीं रही। क्योंकि अंतिम स्टेशन की बात चली, इसलिए फिर अन्य स्टेशनों पर जाने की ज़रूरत ही नहीं रही न ! इसलिए ऐसा नहीं बोल सकते। जब तक खुद के पास अंतिम स्टेशन का लाइसेन्स नहीं आता, तब तक 'शिवोहम्' नहीं बोल सकते। 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा भी नहीं बोल सकते। उसका भान होना चाहिए। जो कुछ बोलते हों, उसका भान होना चाहिए। अभानावस्था (बेहोशी) में तो कईं लोग ऐसा बोलते हैं कि, 'अहम् ब्रह्मास्मि'। अरे, काहे का? ब्रह्म क्या और ब्रह्मास्मि क्या? तू क्या समझा है, जो बार-बार बोलता रहता है? उन लोगों ने ऐसा ही सिखाया था, अहम् ब्रह्मास्मि । पर उसका अनुभव होना चाहिए। आप शुद्धात्मा हैं मगर खुद को शुद्धात्मा का अनुभव होना चाहिए। यों ही नहीं बोला जाता। शिवोहम् बोल सकते हैं क्या? आपको क्या लगता है? अनुभव होने के सिवा नहीं बोल सकते। वह तो हमें समझना है कि आखिर में हमारा स्वरूप शिव का है। पर ऐसा बोल नहीं सकते। वर्ना बोलने पर फिर दूसरे बीच के सारे स्टेशन रह जायेंगे।
प्रश्नकर्ता : 'शिवोहम्' बोलता है लेकिन वह अज्ञानता में ही बोलता है न? समझता नहीं है फिर भी बोलता है।
दादाश्री : हाँ, अज्ञानता से बोलता है। पर मन में तो उसे ऐसा ही रहता है न कि 'हमारा शिवोहम्' यानी 'मैं ही शिव हूँ'। इसलिए अब कोई प्रगति करनी शेष नहीं रही। ऐसा भीतर में समझता है। और जो लोग 'सोहम् सोहम्' बोलते हैं वैसा बोल सकते हैं। सोहम् का हिन्दी क्या होगा?
प्रश्नकर्ता : 'वह मैं हूँ।'
दादाश्री : 'वह मैं हूँ' बोल सकते हैं पर शिवोहम् नहीं बोल सकते। वह मैं हूँ' अर्थात् जो आत्मा है या भगवान है वह मैं हूँ, ऐसा बोल सकते हैं । 'तू ही, तू ही' बोल सकें पर 'मैं ही, मैं ही' नहीं बोल सकते। 'तू ही, तू ही' बोल सकें, क्योंकि तब अज्ञानता में भी 'मैं' और 'तू' दो अलग ही हैं पहले से। और ऐसा बोलते हैं इसमें गलत भी क्या है? वे दोनों अलग ही हैं।
प्रश्नकर्ता : शिवोहम् यानी क्या?
दादाश्री : जिसे मुझे शिव होना है, उस लक्ष्य पर पहुँचना है ऐसा होता है वह कहता है कि मैं शिवोहम् हूँ! शिव यानी खुद ही कल्याण स्वरूप हो गया, वह खुद ही महादेवजी हो गया !
अंतर है शिव और शंकर में प्रश्नकर्ता : शिव और शंकर उसमें क्या अंतर है? शिव उसे कल्याण पुरुष कहा, तो शंकर वह देवलोक में है?
दादाश्री : शंकर तो एक ही नहीं, कईं शंकर हैं। जब से समता में आये न, तब से 'सम कर' यानी शंकर कहलाये। अर्थात् कई शंकर हैं पर वे सारे उच्चगति में हैं। जो 'सम' करता है, वह शंकर।
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'ॐ नमः शिवाय' बोलते ही एक ओर शिव स्वरूप नज़र आये और दूसरी ओर हम बोलते जायें।
यह है परोक्ष भक्ति आप महादेवजी को भजते हैं। लेकिन महादेवजी आपके भीतर बैठे शुद्धात्मा को खत लिखते हैं, कि लीजिए, यह आपका माल आया है, यह मेरा नहीं है। इसका नाम परोक्ष भक्ति। ऐसे कृष्ण को भजें या चाहें किसी और को भजें, वह परोक्ष भक्ति होती है। इसलिए मूर्तियाँ नहीं होती तो क्या होता? उस सच्चे भगवान को भूल जाते और मूर्ति को भी भूल जाते, इसलिए उन लोगों ने जगह-जगह पर मूर्तियाँ रखवाईं। इसलिए महादेवजी का मंदिर आया कि दर्शन करने जायें। दिखने पर दर्शन होंगे न! दिखने पर याद आयेगा कि नहीं आयेगा?
और याद आने पर दर्शन करते हैं। इसलिए ये मूर्तियाँ रखी हैं। पर कुल मिलाकर यह सब आखिर तो भीतरवाले को पहचानने के लिए है।
सच्चिदानंद में समाये सभी मंत्र यह त्रिमंत्र है उसमें पहले जैनों का मंत्र है, बाद में वासुदेव का और शिव का मंत्र है। और यह सच्चिदानंद में तो हिन्दू, मुस्लिम, विदेशी सभी लोगों के मंत्र आ गये।
इसलिए इन सभी मंत्रों को साथ बोलें, ये मंत्र निष्पक्षपात रूप से बोलें तब भगवान हम पर खुश होते हैं। एक व्यक्ति का पक्ष लेने पर जैसे, 'ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय' अकेला बोला करें तो वे सभी खुश नहीं होते। इसमें तो सभी देव खुश होते हैं।
अर्थात् जो मत में पड़े हुए हों उसका काम नहीं है। मत में से बाहर निकले तब काम का है।
कैसे कैसे लोग हिन्दुस्तान में हैं अब भी! पूरा हिन्दुस्तान खलास नहीं हो गया है। यह हिन्दुस्तान पूरा खलास नहीं हो सकता। यह तो
मूलतः आर्यों की भूमि है। और जिस भूमि पर तीर्थंकरों का जन्म हुआ! अकेले तीर्थंकर नहीं, तिरसठ शलाका पुरुष जिस देश में जन्म लेते हैं, वह देश है यह!
बोलिए पहाड़ी आवाज़ में यह भीतर मन में 'नमो अरिहंताणं' और सबकुछ बोले मगर भीतर मन में और कुछ चलता हो, उलटा-पुलटा। इससे कोई परिणाम नहीं मिलता। इसलिए कहा था न कि एकांत में जाकर, ऊँची पहाड़ी आवाज़ में बोलिए। मैं तो ऊँची आवाज़ में नहीं बोलूँ तो चलेगा पर आपको ऊँची आवाज़ में बोलना चाहिए। हमारा तो मन ही अलग तरह का होता है न!
अब ऐसी एकांत जगह में जायें तो वहाँ पर यह त्रिमंत्र बोलना ऊँचे से। वहाँ नदी-नाले पर घूमने जायें तो वहाँ ऊँचे से बोलना, दिमाग में धम-धम हो ऐसे।
प्रश्नकर्ता : ऊँचे से बोलने पर जो विस्फोट होता है उसका असर सब जगह पहुँचता है। इसलिए यह ख्याल में आता है कि ऊँचे से बोलने का प्रयोजन क्या है!
दादाश्री : ऊँची आवाज़ में बोलने से फायदा बहुत ही है। क्योंकि जब तक ऊँची आवाज़ में नहीं बोलते, तब तक मनुष्य की सारी भीतरी मशीनरी (अंत:करण) बंद नहीं होती। यह बात प्रत्येक मनुष्य के लिए है। हमारी तो भीतरी मशीनरी बंद ही होती है। पर ये दूसरे लोग ऊँची आवाज़ में नहीं बोलें न, तो उनकी भीतरी मशीनरी बंद नहीं होगी। वहाँ तक एकत्व प्राप्त नहीं होता। इसलिए हम कहते हैं कि ऊँची आवाज़ में बोलना। क्योंकि ऊँची आवाज़ में बोलने पर फिर मन बंद हो गया, बुद्धि खलास हो गई और यदि आहिस्ता बोले न, तो मन भीतर चुन चुन करता हो, ऐसा होता है कि नहीं होता है?
प्रश्नकर्ता : होता है।
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दादाश्री : बुद्धि भी भीतर ऐसे दखल देती रहती है, इसलिए हम कहते हैं कि ऊँची आवाज़ में बोलना चाहिए। और एकांत में जायें तब उतनी ऊँची आवाज़ में बोलना कि जैसे आकाश उड़ा देना हो, ऐसे बोलना। क्योंकि ऊँची आवाज़ में बोलने से भीतर सब (सारा अंत:करण) बंद हो जाता है।
मंत्र से नहीं होता आत्मज्ञान प्रश्नकर्ता : गुरु के दिए मंत्र-जाप करने से क्या आत्मज्ञान जल्दी होता है?
दादाश्री : नहीं। संसार में अड़चनें कम होंगी पर ये तीन मंत्र (त्रिमंत्र) साथ में बोलोगे तो।
प्रश्नकर्ता : तो ये मंत्र अज्ञानता दूर करने के लिए ही हैं न?
दादाश्री : नहीं, त्रिमंत्र तो आपकी संसार की अड़चनें दूर करने के लिए हैं। अज्ञानता दूर करने के लिए मैंने जो आत्मज्ञान आपको दिया है (ज्ञानविधि द्वारा) वह है।
त्रिमंत्र से, सूली का घाव सूई से सरे ज्ञानी पुरुष बिना काम की मेहनत में नहीं उतारते। कम से कम मेहनत करवाते हैं। इसलिए आपको ये त्रिमंत्र सुबह-शाम पाँच-पाँच बार बोलने को कहा है।
ये मंत्र क्यों बोलने लायक है क्योंकि इस ज्ञान के बाद आप तो शुद्धात्मा हुए पर पड़ोसी कौन रहा? चंदुभाई (पाठक चंदूभाई की जगह स्वयं को समझे)। अब चंदुभाई को कोई अड़चन आये तब हम कहते हैं कि, 'चंदुभाई, एकाध बार यह त्रिमंत्र बोलिए न, कोई अड़चन आती हो तो इससे कम हो जाएगी।' क्योंकि वे हरएक प्रकार के संसार व्यवहार में हैं। उनको लक्ष्मी, लेन-देन सबकुछ है। इसलिए त्रिमंत्र बोलने पर आनेवाली अड़चनें कम हो जाती हैं। फिर अड़चनें अपना
नैमित्तिक प्रभाव दिखायेंगी मगर इतना बड़ा पत्थर लगनेवाला हो वह कंकड़ समान लगे। इसलिए यह त्रिमंत्र दिया है।
कोई विघ्न आनेवाला हो तो यह त्रिमंत्र आधा घण्टा, एक घण्टा बोलना। सारा गुणस्थान पूर्ण कर देना (एक गुणस्थान अड़तालीस मिनट का होता है)। वर्ना रोजाना यह पाँच बार बोलना। पर ये सभी मंत्र साथ बोलना और सच्चिदानंद भी बोलना। सच्चिदानंद में सभी लोगों का मंत्र आ जाता है।
त्रिमंत्र का रहस्य यह है कि आपकी सारी सांसारिक अड़चनों का नाश होगा। आप रोजाना सवेरे बोलेंगे तो संसार की सारी अड़चनों का नाश होगा। आपको बोलने के लिए पुस्तक चाहिए तो एक पुस्तक देता हूँ। उसमें यह त्रिमंत्र लिखा है। वह पुस्तक यहाँ से ले जाना।
प्रश्नकर्ता : इन त्रिमंत्रों से चक्र शीघ्रता से चलने लगेंगे?
दादाश्री : इन त्रिमंत्रो को बोलने से दूसरे नये पाप नहीं बँधते, इधर-उधर उलटे रास्ते पर भटक नहीं जाते और पुराने कर्म पूरे होते जाते हैं।
यह त्रिमंत्र तो ऐसा है न कि नासमझ बोले तो भी फायदा होगा और समझदार बोले तो भी फायदा होगा। पर समझदार को अधिक फायदा होगा और नासमझ को मुँह से बोला उतना ही फायदा होगा। एक केवल यह टेपरेकर्ड (मशीन) बोलता है न, उसे फायदा नहीं होगा। पर जिसमें आत्मा है, वह बोलेगा तो उसे फायदा होगा ही।
___ यह जगत शब्द से ही खड़ा हुआ है। अच्छे मनुष्य का शब्द बोलने पर आपका कल्याण हो जायेगा और बुरे मनुष्य का शब्द बोलने पर उलटा हो जायेगा। इसलिए ही यह सब समझना है।
लक्ष्य तो चाहिए मोक्ष का ही कुछ पूछना चाहें तो पूछना, हं। मोक्ष में जाना है न? यहाँ पर
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मोक्ष में जा पायें ऐसा सबकुछ पूछ सकते हैं, यदि पूछना चाहें तो। मन का समाधान हो तो मोक्ष में जा पायेंगे न? वर्ना मोक्ष में कैसे जा पायेंगे? भगवान के शास्त्र तो हैं सारे, मगर शास्त्र समझ में आने चाहिए न? अनुभवी ज्ञानीपुरुष के बिना वह समझ में आते ही नहीं और उलटे गलत मार्ग पर चले जाते हैं।
प्रश्नकर्ता : नवकार मंत्र के जप किस लक्ष्य से करना चाहिए?
दादाश्री : वह तो केवल मोक्ष के लक्ष्य से ही करना चाहिए। दूसरा कोई लक्ष्य नहीं होना चाहिए। 'मेरे मोक्ष के लिए करता हूँ' ऐसे मोक्ष के हेतु करेंगे तो सब प्राप्त होगा। और सुख के हेतु से करने पर अकेला सुख प्राप्त होगा, मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी। नवकार मंत्र तो मददकर्ता है, मोक्ष के लिए। नवकार मंत्र व्यवहार से है, निश्चय से नहीं है।
यह नवकार मंत्र किसलिए भजना? ये पंच परमेष्टि भगवंत ही मोक्ष का साधन हैं। ये पाँचों सर्वश्रेष्ठ पद हैं। यही आपका ध्येय रखना। इन लोगों के पास भजना करना, इन लोगों के पास बैठे रहना और मरना हो तो वहीं मरना। हाँ, दूसरी जगह पर मत मरना। सिर पे आ पड़ना है तो इनके सिर पे आ पड़ना। अकर्मी के सिर पर पड़े, तो क्या से क्या हो जाये?
मंत्रदाता की योग्यता प्रश्नकर्ता : वर्तमान युग में मंत्र साधना शीध्र फल क्यों नहीं देती? मंत्र में क्षति है कि साधक में कमी है?
दादाश्री : मंत्र में क्षति नहीं है पर मंत्रों की व्यवस्था में क्षति है। मंत्र सारे निष्पक्ष होने चाहिए। पक्षपातवाले मंत्र फल नहीं देंगे। निष्पक्ष मंत्र साथ होने चाहिए। क्योंकि मन खुद ही निष्पक्ष की खोज में है, तभी उसे शांति होती है। भगवान निष्पक्ष होते हैं। इसलिए मंत्र
साधना तभी फल देगी कि वह मंत्र देनेवाला शीलवान हो। मंत्र देनेवाला ऐसा-वैसा नहीं होना चाहिए, लोकपूज्य होने चाहिए। लोगों के हृदय में बैठे होने चाहिए।
मंत्र से आत्मशुद्धि संभव है? प्रश्नकर्ता : संसार में नवकार मंत्र साथ देगा कि नहीं? दादाश्री : नवकार मंत्र साथ देगा ही न! वह तो अच्छी वस्तु है।
प्रश्नकर्ता : उसे बोलने से आहिस्ता-आहिस्ता आत्मा की शुद्धि होगी?
दादाश्री : पर हमें आत्मा की शुद्धि करने की ही नहीं है, क्योंकि आत्मा शुद्ध ही है। नवकार मंत्र तो आपको अच्छे लोगों को नमस्कार करने से उपर उठाता है। पर समझकर बोलें तब । इसलिए नवकार मंत्र का अर्थ समझना पड़ेगा। यह तो तोता 'राम राम' बोले, इससे कुछ 'राम' समझेंगे थोड़े ही? क्या तोता 'राम राम' नहीं बोलता? इसी तरह ये लोग नवकार मंत्र बोलते हैं इसका क्या अर्थ? नवकार मंत्र तो ज्ञानी पुरुष के पास समझना चाहिए।
किस समझ से नवकार भनें? नवकार मंत्र क्या है, इसकी समझवाले कितने होंगे? वर्ना यह नवकार मंत्र तो ऐसा मंत्र है कि एक ही बार नवकार बोला हो तो उसका फल कई दिनों तक मिलता रहे। अर्थात् रक्षण दे ऐसा नवकार मंत्र का फल है। पर किसी ने एक भी नवकार सच्चे रूप में समझकर गिना नहीं है। यह तो जप जपा करते हैं पर सही जप किसी ने जपा ही नहीं है न!
नवकार मंत्र तो आपको बोलना ही कहाँ आता है? यह तो ऐसे ही बोलते हैं। नवकारमंत्र बोलनेवाले को चिंता नहीं होती। नवकार मंत्र
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इतना सुंदर है कि अकेली चिंता ही नहीं, पर क्लेश भी चला जाये उसके घर में से। पर बोलना आता ही नहीं है न! अगर बोलना आया होता तो ऐसा नहीं होता।
किसी ने भी नवकार मंत्र दे दिया और हम बोलने लगे उसका अर्थ नहीं है।
प्रश्नकर्ता : वह तो आपके पास से लेंगे।
दादाश्री : लाइसेन्सवाली दुकान हो और वहाँ से लिया हो तो चलेगा। यदि बिना लाइसेन्सवाले के यहाँ से लेंगे तो क्या होगा? वह खोटा, नकली माल पकड़ा दे। शब्द वही के वही होंगे पर माल नकली होगा। आपको नकली माल पसंद है या असली पसंद है?
नवकार मंत्र समझकर बोलना चाहिए। समझकर बोलने पर सभी भगवंतों को पहुँचेगा और हमारा नमस्कार तुरंत स्वीकार हो जायेगा। इस 'दादा भगवान' थु (द्वारा) बोलें कि पहुँच ही जाता है और फल प्राप्त होता है। यह तो पहले साल व्यापार किया और इतना फल प्राप्त हुआ, तो दस साल तक व्यापार चलता रहे तो? वह पीढी कैसी जम जायेगी?
'नमो अरिहंताणं' कहते ही सीमंधर स्वामी नज़र आने चाहिए। फिर 'नमो सिद्धाणं' वह नज़र नहीं आये पर लक्ष्य में होना चाहिए कि मैं अनंत ज्ञानवाला हूँ, मैं अनंत दर्शनवाला हूँ। (कैवल्यज्ञान, कैवल्यदर्शन वही परम ज्योतिस्वरूप भगवान हैं।) वे गुण लक्ष्य में होने चाहिए। 'नमो आयरियाणं' वे आचार्य भगवान, खद आचार का पालन करें और दूसरों को पालन करवायें। यह सब लक्ष्य में रहना चाहिए।
प्राप्त करवाये यथार्थ फल ये सभी नवकार मंत्र भजते हैं, उसका एक तो प्राकृतिक फल आयेगा, भौतिक में सुंदर फल आयेगा। पर मैं तो इन सभी को ये जो
'प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में, वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र में विचरते...' बुलवाता हूँ न, वे नमस्कार इसी नवकार मंत्र से यहाँ लिए हैं। ये जो नमस्कार बुलवाता हूँ, वे एक्जेक्ट उन्हें पहुँचते हैं और उसका तुरंत एक्जेक्ट (यथार्थ) फल मिलता है, और नवकार मंत्र का फल तो जब आये तब सही।
लाखों लोग यह नवकार मंत्र बोलते हैं, वह किसे पहुँचता है? कुदरत का नियम ऐसा है कि जिसका है उसे पहुँचता है पर सच्चे भाव से बोलें तो।
तब किसका निदिध्यासन करना? प्रश्नकर्ता : त्रिमंत्र बोलते समय प्रत्येक पंक्ति पर किसका निदिध्यासन करना चाहिए, यह ब्यौरेवार बताइये।
दादाश्री : अध्यात्म को लेकर आपको किसी पर प्रेम आया है? आपको प्रेम का उछाल आया है किसी पर? किसके ऊपर आया है?
प्रश्नकर्ता : आपके प्रति, दादाजी।
दादाश्री : तो उसका ही ध्यान करें। जिसके प्रति प्रेम का उछाल आये न, उसका ध्यान करना।
उपयोगपूर्वक करने पर संपूर्ण फल लोग तो नवकार मंत्र अपनी भाषा में ले गये। महावीर भगवान ने ऐसा कहा था कि इसे किसी प्राकृत भाषा में मत ले जाना, अर्धमागधी भाषा में रहने देना। उसका इन लोगों ने क्या अर्थ किया कि प्रतिक्रमण अर्धमागधी भाषा में ही रहने दिया और इस मंत्र के शब्दों के अर्थ निकालते रहे ! प्रतिक्रमण उसमें तो 'क्रमण' है और यह तो मंत्र है। यदि प्रतिक्रमण सही तरीके से नहीं समझा जाये तो वे (एक ओर) गालियाँ देते रहते हैं और (दूसरी ओर) उसके प्रतिक्रमण करते रहते हैं!
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बात को समझे नहीं और कैसे-कैसे दुराग्रह लेकर बोलते हैं। यह त्रिमंत्र है, उसे कैसा भी पागल आदमी बोलेगा तो इसका फल पायेगा। फिर भी उसका अर्थ निकाल कर पढ़ें तो अच्छा है।
यह नवकार मंत्र भी भगवान के समय से है और बिलकुल सही है, मगर नवकार मंत्र समझ में आये तब न? उसका अर्थ समझें नहीं
और गाते रहते हैं। इसलिए उसका जैसा लाभ मिलना चाहिए वैसा नहीं मिलता। पर फिर भी फिसल नहीं पड़े, उतना अच्छा है। वर्ना नवकार मंत्र तो वह कहलाये कि नवकार मंत्र के होते चिंता क्यों हो? पर अब बेचारा नवकार मंत्र क्या करे, जब आराधक ही टेढा हो!
कहावत है न कि 'माला बेचारी क्या करे, जपनेवाला कपूत?' ऐसा कहते हैं न?
ज़रा पूछ आइए कि, ये सभी मंत्र बोलते हैं, उनमें से कितने उपयोगपूर्वक बोलते हैं? माला फेरते हैं, तब कितने उपयोगपूर्वक माला फेरते हैं? तब फिर जलदी निपटाने के लिए माला के मनको की गिनती में घोटाला करते थे। यह लोगों की नजर में आ जाता था, इसलिए उससे बचने के लिए गौमुखियाँ बनाई। खुले आम तो गोटाला नहीं कर सकते हैं न?
__ भगवान ने क्या कहा है कि, 'तू जो-जो करेगा, माला फिरायेगा, नवकार मंत्र बोलेगा, वह उपयोगपूर्वक करेगा तो उसका फल प्राप्त होगा। वर्ना नासमझी से करने पर तो 'काँच' लेकर ही घर जायेगा और असली हीरा तेरे हाथ नहीं लगेगा। उपयोगवाले को हीरा और उपयोग नहीं उसे काँच। और आज उपयोगवाले कितने हैं, इसकी ज़रा तलाश कर लेना।
द्रव्यपूजा और भावपूजावालों के लिए ये साधु-आचार्य पूछते हैं कि, यह नवकार मंत्र और अन्य मंत्र
साथ में बोलने की वजह क्या है? अकेला नवकार बोलने में क्या हर्ज है? मैंने कहा, 'जैन यह अकेला नवकार मंत्र नहीं बोल सकते। अकेला नवकार मंत्र कौन बोल सकता है? जो त्यागी है, जिसे संसार से कुछ लेना-देना नहीं है, लड़कियाँ ब्याहनी नहीं हैं, लड़के नहीं ब्याहने हैं, वे नवकार अकेला बोल सकते हैं।'
लोग दो हेतु से मंत्र बोलते हैं। जो भावपूजावाले हैं वे ऊपर चढ़ने के लिए बोलते हैं और दूसरे इस संसार की जो अड़चनें हैं उन्हें कम करने के लिए बोलते हैं। अर्थात् जो सांसारिक अड़चनोंवाले हैं उन सभी को देवलोगों की कृपा चाहिए। इसलिए जो अकेली भावपूजा करते हों, द्रव्यपूजा नहीं करते हों, वे यह एक ही मंत्र बोल सकते हैं। और जो द्रव्यपूजा और भावपूजा दोनों ही करते हों, उन्हें सारे मंत्र साथ बोलना चाहिए।
मूर्ति के भगवान द्रव्य भगवान हैं, द्रव्य महावीर हैं और यह भीतर भाव महावीर हैं। उनको तो हम भी नमस्कार करते हैं।
___ मन को तर करे मंत्र जहाँ तक मन है वहाँ तक मंत्र की जरूरत है और मन अंत तक रहनेवाला है। शरीर है वहाँ तक मन है। मंत्र इटसेल्फ (स्वयं) कहता है कि मन को तर करना हो तो मंत्र बोलें। मन को खुश करने के लिए यह सुंदर रास्ता है।
अर्थात् उसकी व्यवस्था ही ऐसी पद्धति अनुसार है कि आप मंत्र बोलें तो उसका फल प्राप्त हुए बिना नहीं रहता।
त्रिमंत्र की भजना कहीं भी प्रश्नकर्ता : त्रिमंत्र मानसिक तौर पर किसी भी समय और किसी भी जगह किया जा सकता है या नहीं?
दादाश्री : अवश्य। किसी भी समय किया जा सकता है। त्रिमंत्र
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तो संडास में भी बोल सकते हैं। पर ऐसा कहने का लोग दुरुपयोग करते हैं और फिर वे संडास में ही करते रहते हैं। ऐसा नहीं समझते कि किसी दिन अड़चन होने पर, समय नहीं मिला तब संडास में करें वह बात अलग है। यानी हमारे लोग उस बात को उलटा पकड़ लेते हैं। इसलिए हमारे लोगों के लिए मर्यादा बाँधनी पड़ती है। फिर भी हम कोई मर्यादा नहीं बाँधते हैं।
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नवकार मंत्र के सर्जक कौन ? प्रश्नकर्ता: नवकार मंत्र का सर्जक कौन है?
दादाश्री : यह तो कुछ आज का प्रोजेक्ट नहीं है। यह तो पहले से ही है, पर अन्य रूप में था । अन्य रूप में यानी भाषा का परिवर्तन होता है पर अर्थ वही का वही चला आ रहा है।
त्रिमंत्र में कोई मोनिटर नहीं
प्रश्नकर्ता: इन सभी मंत्रों में कोई अगुआ, मोनिटर तो होगा न?
दादाश्री : कोई मोनिटर नहीं होता। मंत्रों में मोनिटर नहीं होते । मोनिटर तो लोग अपना-अपना आगे करते हैं कि यह 'मेरा मोनिटर' ।
प्रश्नकर्ता: पर मैं सबसे कहूँ कि 'आप मेरा कार्य करें, फिर दूसरे से कहूँ कि 'आप मेरा काम कीजिए' तो मेरा काम कौन करेगा?
दादाश्री : जहाँ निष्पक्ष स्वभाव होगा वहाँ सभी काम करने के लिए तैयार होते हैं, सभी के सभी ! एक पक्ष का हुआ कि दूसरे तुरंत विरोधी हो जाते हैं। पर निष्पक्ष होने पर सभी काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं। क्योंकि वह बहुत नोबल होता है। यह हम हमारी संकुचितता की वज़ह से उसे संकुचित बनाते हैं । अर्थात् निष्पक्षता से सारा काम हो। हमारे यहाँ कभी हरकत नहीं आई। हमारे यहाँ चालीस हजार लोग यह त्रिमंत्र बोलते हैं, किसी को कोई हरकत नहीं आई। ज़रा सी भी हरकत नहीं आती।
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काम करे ऐसी दवा यह
प्रश्नकर्ता : तीनों मंत्र साथ बोलें तो अच्छा है । वह धर्म के समभाव और सद्भाव के लिए अच्छी बात है।
दादाश्री : उसमें काम करे ऐसी दवाई निहित होती है।
जिन्हें लड़कियाँ ब्याहनी हैं, लड़के ब्याहने हैं, सांसारिक जिम्मेवारी, फर्ज अदा करने हैं, उन्हें सभी मंत्र बोलने पड़ेंगे। सभी निष्पक्ष मंत्र बोलना। आप किसी पक्ष में क्यों पड़ते हैं?
यह नवकार मंत्र किसी की मालिकी भाववाला है क्या? यह तो जो नवकार मंत्र भजेगा उसी का है। जो मनुष्य पुनर्जन्म समझने लगा है उसके लिए काम का है। जो पुनर्जन्म नहीं समझते हैं ऐसे लोगों के लिए यह किसी काम का नहीं है। हिन्दुस्तान के लोगों के लिए यह बात काम की है।
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सभी मंत्र क्रमिक में हैं
प्रश्नकर्ता : जो नवकार मंत्र है वह क्रमिक का मंत्र है न? दादाश्री : हाँ, सभी क्रमिक हैं।
प्रश्नकर्ता: तो फिर यहाँ अक्रम मार्ग में उसे क्यों अधिक स्थान दिया गया है ?
दादाश्री : उसका स्थान तो व्यावहारिक रूप में है। अभी आप व्यवहार में जीते हैं न? और व्यवहार शुद्ध करना है न? इसलिए यह मंत्र आपको व्यवहार में अड़चन नहीं आने देगा। यदि आपको व्यावहारिक अड़चने आती हों तो इन मंत्रों से कम हो जायेगी ।
इसलिए आपको यह त्रिमंत्र का रहस्य समझाया। इसके आगे विशेष कुछ जानने की जरूरत नहीं रहती ।
- जय सच्चिदानंद
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वीतराग शासन देवी-देवताओं को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। निष्पक्षपाती शासन देवी-देवताओं को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार
करता हूँ। • चौबीस तीर्थंकर भगवंतों को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता
प्रातः विधि श्री सीमंधर स्वामी को नमस्कार करता हूँ।
(५) • वात्सल्यमूर्ति दादा भगवान' को नमस्कार करता हूँ। (५)
प्राप्त मन-वचन-काया से इस संसार के किसी भी जीव को किंचित्मात्र भी दुःख न हो, न हो, न हो। • केवल शुद्धात्मानुभव के अलावा इस संसार की कोई भी विनाशी चीज मुझे नहीं चाहिए। • प्रकट ज्ञानी पुरुष दादा भगवान की आज्ञा में ही निरंतर रहने की परम शक्ति प्राप्त हो, प्राप्त हो, प्राप्त हो। • ज्ञानी पुरुष 'दादा भगवान' के वीतराग विज्ञान का यथार्थ रूप से, संपूर्ण-सर्वांग रूप से केवल ज्ञान, केवल दर्शन और केवल चारित्र में परिणमन हो, परिणमन हो, परिणमन हो।
नमस्कार विधि प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में, वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र में विचरते तीर्थंकर भगवान श्री सीमंधर स्वामी को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ।
(४०) प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में, वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र और अन्य क्षेत्रों में विचरते ॐ परमेष्टी भगवंतों को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ।
(५) प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में, वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र और अन्य क्षेत्रों में विचरते पंच परमेष्टी भगवंतों को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में, वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र और अन्य क्षेत्रों में विहरमान तीर्थंकर साहिबों को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ।
(५)
श्री कृष्ण भगवान को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ।(५) भरत क्षेत्र में हाल विचरते सर्वज्ञ श्री दादा भगवान को निश्चय से अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ।
(५) दादा भगवान के सर्व समकितधारी महात्माओं को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। सारे ब्रह्मांड के समस्त जीवों के रियल स्वरूप को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। रीयल स्वरूप ही भगवत् स्वरूप है, इसलिए सारे विश्व को भगवत् स्वरूप से दर्शन करता हूँ। रीयल स्वरूप ही शुद्धात्म स्वरूप है, इसलिए सारे विश्व को शुद्धात्म स्वरूप से दर्शन करता हूँ। रीयल स्वरूप ही तत्त्व स्वरूप है, इसलिए सारे विश्व को तत्त्वज्ञान
रूप से दर्शन करता हूँ। (वर्तमान तीर्थंकर श्री सीमंधर स्वामी को परम पूज्य श्री दादा भगवान के माध्यम द्वारा प्रत्यक्ष नमस्कार पहुँचते है। कोष्ठक में लिखी संख्यानुसार उतनी बार प्रतिदिन बोलें।)
दादा भगवान के असीम जय जयकार हो (प्रतिदिन कम से कम १० मिनट से लेकर ५० मिनट तक जोर से बोलें)
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________________ दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा प्रकाशित पुस्तकें हिन्दी 1. ज्ञानी पुरूष की पहचान 10. हुआ सो न्याय 2. सर्व दुःखों से मुक्ति 11. चिंता 3. कर्म का विज्ञान 12. क्रोध 4. आत्मबोध 13. प्रतिक्रमण 5. मैं कौन हूँ? 14. दादा भगवान कौन? 6. वर्तमान तीर्थकर श्री सीमंधर स्वामी 15. पैसों का व्यवहार 7. भूगते उसी की भूल 16. त्रिमंत्र 8. एडजस्ट एवरीव्हेयर 17. भावना से सुधरे जन्मोजन्म 9. टकराव टालिए English 1. AdjustEverywhere 16. Money 2. Ahimsa (Non-violence) 17. Noble Use of Money Anger 18. Pratikraman Apatvani-1 19. Pure Love 5. Apatvani-2 20. Shree Simandhar Swami 6. Apatvani-9 21. Spirituality in Speech 7. Avoid Clashes 22. The Essence of All Religion 8. Celibacy : Brahmcharya 23. The Fault of the Sufferer 9. Death: Before, During & After... 24. The Science of Karma 10. Flawless Vision 25. Trimantra 11. Generation Gap 26. Whatever has happened is 12. Gnani Purush Shri A.M.Patel Justice 13. Guru and Disciple 27. Who Aml? 14. Harmony in Marriage 28. Worries 15. Life Without Conflict दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा गुजराती भाषा में भी बहुत सारी पुस्तकें प्रकाशित हुई है। वेबसाइट www.dadabhagwan.org पर से भी आप ये सभी पुस्तकें प्राप्त कर सकते हैं। दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा हर महीने हिन्दी, गुजराती तथा अंग्रेजी भाषा में दादावाणी मैगेज़ीन प्रकाशित होता है। प्राप्तिस्थान दादा भगवान परिवार अडालज : त्रिमंदिर संकुल, सीमंधर सीटी, अहमदाबाद- कलोल हाई वे, पोस्ट : अडालज, जि. गांधीनगर, गुजरात - 382421. फोन : (079) 3983 0100 E-mail : info@dadabhagwan.org अहमदाबाद : दादा दर्शन, 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८००१४. फोन : (079)27540408, 27543979 राजकोट : त्रिमंदिर, अहमदाबाद-राजकोट हाई वे, तरघडीया चोकडी, पोस्ट : मालियासण, जि. राजकोट, फोन : 99243 43416 मुंबई : दादा भगवान परिवार, 9323528901-03 पूणे : महेश ठक्कर, 9822037740 बेंगलूर : अशोक जैन, 9341948509 कोलकता : शशीकांत कामदार, 033-32933885 U.S.A. : Dada Bhagwan Vignan Institue : Dr. Bachu Amin, 100, SW Redbud Lane, Topeka, Kansas 66606. Tel : 785-271-0869, E-mail : bamin@cox.net Dr. Shirish Patel, 2659, Raven Circle, Corona, CA 92882 Tel. : 951-734-4715, E-mail : shirishpatel@sbcglobal.net : Dada Centre, 236, Kingsbury Road, (Above Kingsbury Printers), Kingsbury, London, NW9 OBH Tel.: 07956476253, E-mail: dadabhagwan_uk@yahoo.com Canada : Dinesh Patel, 4, Halesia Drive, Etobicock, Toronto, M9W 6B7. Tel. : 416675 3543 E-mail: ashadinsha@yahoo.ca Canada :+1416-675-3543 Australia:+61421127947 Dubai :+971506754832 Singapore: +65 81129229 Malaysia : +60 126420710 Website : www.dadabhagwan.org, www.dadashri.org U.K.