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________________ त्रिमंत्र कर डालता है। तीर्थंकर भी कहें कि, 'मैं भी उनकी वजह से ही हुआ हूँ।' इसलिए आचार्य भगवान तो बहुत बड़ा गुणधाम कहलाते हैं। ये पाँचो नवकार (नमस्कार) सर्वश्रेष्ठ पद हैं। उनमें भी आचार्य महाराज के तो तीर्थंकर को भी बखान करने पड़ते हैं। क्योंकि तीर्थंकर कैसे हुए? (उनके समय के) आचार्य महाराज के प्रताप से ! गणधर पार करें बुद्धि के स्तर प्रश्नकर्ता: तब ये भगवान के गणधर हैं, वे आचार्य कक्षा में आते होंगे? १५ दादाश्री : हाँ, आचार्य पद में ही आते हैं। क्योंकि भगवान से नीचा दूसरा कोई पद ही नहीं है। गणधर नामाभिधान इसलिए हुआ उन लोगों ने बुद्धि का पूर्णरूप से भेदन किया । और आचार्य महाराज ऐसे हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते हैं। पर गणधरों ने तो बुद्धि का सारा स्तर पार किया होता हैं। वह स्तर हमने पार किया है। एक चंद्र का स्तर यानी मन का स्तर और सूर्य का स्तर यानी बुद्धि का स्तर, उन सूर्य-चंद्र का जिसने भेदन किया है ऐसे गणधर भगवान, फिर भी वे तीर्थंकर के आदेश में रहते हैं। हम भी सूर्य-चंद्र का भेदन करके बैठे हैं। हिम जैसा ताप आचार्य को पूरा शास्त्र कंठस्थ होता है और सारा धारण किया हुआ होता है। जबकि उपाध्याय पढ़ते हैं और पढ़ाते हैं । ये उपाध्याय (साधु से) थोड़ा आगे पढ़े हुए होते हैं पर वे आचार्य महाराज के आगे 'बापजी, बापजी' किया करते हैं। जिसकी दहाड़ से साधु, उपाध्याय बिल्ली जैसे हो जायें (उनकी शरण में आ जायें), उसका नाम आचार्य ! और साधु चाहे कितना भी जोरों से दहाड़े फिर भी आचार्य महाराज उनसे प्रभावित नहीं होते । साधु ने आत्मा की प्राप्ति की होती है यानी १६ त्रिमंत्र सम्यक्त्व प्राप्त किया है लेकिन अभी भी पढ़ रहा है, शास्त्र सीख रहा होता है। आचार्य ऐसे होते हैं कि शिष्य से गलत हो गया तो शिष्य वहीं उलटी कर दें। क्योंकि वह भीतर सहन नहीं कर सकता। आचार्य का इतना बड़ा ताप होने पर भी वे सख़्त नहीं होते। वे क्रोध नहीं करते। यों ही उनकी सख्ती बरतती रहे, बहुत ताप लगे । जैसे यह हिमप्रपात होता है न, उस हिम का ताप कितना भारी होता है? वह हिमताप कहलाता है। इस तरह इनमें भी क्रोध नहीं होता । क्रोध - मान-माया-लोभ हों तो वे आचार्य कहलाते ही नहीं न ! वर्ना आचार्य महाराज तो कैसे होंगे? उनका क्या कहना ! उनकी वाणी सुनकर वहाँ से उठने को जी नहीं करता। आचार्य तो भगवान ही कहलाते हैं। वे कुछ ऐसे-वैसे नहीं कहलाते । दादा, खटपटिये वीतराग हमारा यह आचार्य पद कहलाता है। लेकिन हमारा संपूर्ण वीतराग पद नहीं कहलाता। पर हमें वीतराग कहना हो तो खटपटिये (कल्याण हेतु खटपट करनेवाले) वीतराग कह सकते हैं। ऐसी खटपट कि 'आइए आप, हम सत्संग करेंगे और आपको ऐसा कर देंगे, वैसा कर देंगे।' ऐसा वीतराग में नहीं होता । दखल भी नहीं और झंझट भी नहीं । वे आपका हित होता हो कि अहित होता हो, यह सब देखने की परवाह नहीं करते। वे खुद ही हितकारी हैं। उनकी हवा (परमाणु) हितकारी है, उनकी वाणी हितकारी है, उनके दर्शन हितकारी हैं। पर वे आपको ऐसा नहीं कहेंगे कि आप ऐसा कीजिए। और मैं तो आपसे कहूँ कि, 'आपके साथ मैं सत्संग करूँ और आप कुछ मोक्ष की ओर आगे चलें ।' तीर्थंकर तो एक ही स्पष्ट वाक्य कहते हैं कि 'चार गतियाँ भयंकर दुःखदायी हैं। इसलिए हे मनुष्यों, यहाँ से मोक्ष में जाने का साधन प्राप्त हो ऐसा तुम्हें मनुष्यत्व प्राप्त हुआ है, इसलिए मोक्ष की कामना करो'
SR No.009605
Book TitleTrimantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2008
Total Pages29
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size216 KB
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