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________________ त्रिमंत्र त्रिमंत्र प्रश्नकर्ता : और आत्मदशा साधने पर आत्मा का अनुभव होगा? दादाश्री : वह आत्मदशा साधने पर अनुभव की ओर दौड़ पड़ते हैं, साधना करते हैं। अर्थात् साधना का क्या अर्थ है? 'आत्म भावना करते जीव लहे कैवल्यज्ञान रे!' पर आत्मभावना उसे प्राप्त होनी चाहिए न? हम यहाँ जो ज्ञान देते हैं, वह आत्मदशा ही प्राप्त होती है और उसे प्राप्त करने के बाद उसे फिर आगे की दशा प्राप्त होती है और उसमें जैसे-जैसे आगे बढ़े वैसे उपाध्याय दशा किसी को प्राप्त हुई होती है। हमारे यहाँ इस समय आखिरी पद कौन-सा प्राप्त कर सकते हैं? कि आचार्यपद तक जा सकते हैं। उससे आगे नहीं जा सकते। प्रश्नकर्ता : हम कैसे तय कर सकते हैं कि यह आत्मदशा साधते हैं कि नहीं? दादाश्री : हाँ, हम उसके बाधक गुण देख लें तो मालूम हो जायेगा। आत्मदशा साधनेवाला मनुष्य साधक ही होगा, बाधक नहीं होगा। साधु हमेशा साधक होते हैं और वर्तमान में ये जो साधु हैं वे इस दूषमकाल की वजह से साधक नहीं हैं, साधक-बाधक हैं। साधकबाधक यानी बीवी-बच्चे को छोड़कर, तप-त्याग आदि करते हैं। आज सामायिक-प्रतिक्रमण करके सौ रुपये कमाते हैं लेकिन शिष्य के साथ झमेला होने से उसके प्रति उग्र हो जाते हैं, तब डेढ़-सौ रुपये गँवा देते हैं। इसलिए वह बाधक है। और सच्चा साधु कभी बाधक नहीं होता, साधक ही होता है। जितने साधक होते हैं न, वही सिद्धदशा प्राप्त करते हैं। प्रश्नकर्ता : अनंतानुबंधी? दादाश्री : हाँ, जो क्रोध दूसरों को भयभीत करे, हमें सुनाई (दिखाई) दे, वह अनंतानुबंधी कहलाता है। ॐ का स्वरूप प्रश्नकर्ता : ॐ वह नवकार मंत्र का छोटा रूप है? दादाश्री : हाँ, ॐ समझकर बोलने से धर्मध्यान होता है। प्रश्नकर्ता : नवकारमंत्र के बजाय ॐ इतना कहने पर चलेगा? दादाश्री : हाँ, पर वह समझकर करने पर! ये लोग बोलते हैं वह बिना अर्थ का है। सच्चा नवकार मंत्र बोलने पर तो परिणाम स्वरूप घर में क्लेश होता रूक जाये। वर्तमान में सबके घरों में सारे क्लेश रूक गये हैं न? प्रश्नकर्ता : नहीं रुकते। दादाश्री : जारी ही हैं? यदि क्लेश होता रूक नहीं जाये तो समझना कि अभी यह नवकार मंत्र अच्छी तरह समझकर नहीं बोलते हैं। यह नवकार मंत्र जो है, उसे बोलने से ॐ (पंच परमेष्टि) खुश हो जायें, भगवान खुश हो जायें। यह अकेला ॐ बोलने से कभी ॐ खुश नहीं होता। इसलिए यह नवकार मंत्र भी बोलना। यह नवकार मंत्र वही ॐ है। इन सबके संक्षिप्त रूप में ॐ शब्द रखा है। करनेवालों ने लोगों के लाभ के हेतु ऐसा किया, पर लोगों को समझ नहीं होने से न जाने उसका क्या से क्या हो गया और बात बिगड़ गई। वह पहुँचे अक्रम के महात्माओं को जिसे मैं यहाँ ज्ञान देता हूँ न, वह उस दिन से ही 'मैं शुद्धात्मा हूँ' बोलने लगता है, तब से वह साधु हुआ। शुद्धात्मा दशा साधे वह साधु । इसलिए हमारे ये महात्मा, जिनको मैंने ज्ञान दिया है न, उनको और यह तो बाधक, इसलिए छेड़खानी करते ही चिढ़ने में देर नहीं न! अर्थात् ये साधु नहीं, त्यागी कहलाते हैं। वर्तमान ज़माने के हिसाब से इनको साधु कह सकते हैं। बाकी वर्तमान में तो साधुत्यागियों का क्रोध खुल्लमखुल्ला नजर आता है न? अरे! सुनाई भी देता है। जो क्रोध सुनाई दे वह क्रोध कैसा कहलाये?
SR No.009605
Book TitleTrimantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2008
Total Pages29
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size216 KB
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