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श्रतसागर | श्रूतसागर
SHRUTSAGAR (MONTHLY) February-2020, Volume : 06, Issue : 09, Annual Subscription Rs. 150/- Price Per copy Rs. 15/
EDITOR : Hiren Kishorbhai Doshi
BOOK-POST / PRINTED MATTER
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पुद्गलपरावर्त का एक प्रतीक चित्र आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
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દાસ દૂધ,
माप
राष्ट्रसन्त पूज्य आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी
महाराजा का श्री कैयल तीर्थ में
पदार्पण
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SHRUTSAGAR
RNI : GUJMUL/2014/66126
February-2020 ISSN 2454-3705
(आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र) श्रुतसागर श्रृतसागर
SHRUTSAGAR (Monthly)
वर्ष-६, अंक-९, कुल अंक-६९, फरवरी-२०२०
Year-6, Issue-9, Total Issue-69, February-2020 वार्षिक सदस्यता शुल्क - रु. १५०/- * Yearly Subscription - Rs.150/अंक शुल्क - रु. १५/- * Price per copy Rs. 15/
आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. * संपादक * * सह संपादक * *संपादन निर्देशक * हिरेन किशोरभाई दोशी रामप्रकाश झा गजेन्द्रभाई शाह
* संपादन सहयोगी राहुल आर. त्रिवेदी
ज्ञानमंदिर परिवार १५ फरवरी, २०२०, वि. सं. २०७६, माघ कृष्ण पक्ष-७
आराधना
तर जैन
महाक
भी
काया
म
अमृतं तू
विद्या
प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
(जैन व प्राच्यविद्या शोध-संस्थान एवं ग्रन्थालय)
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फैक्स : (079) 23276249, वॉट्स-एप 7575001081 Website : www.kobatirth.org Email : gyanmandir@kobatirth.org
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श्रुतसागर
१. संपादकीय २. गुरुवाणी ३. Awakening ४. माणिभद्र छंद ५. पार्श्वनाथ विनती ६. ऋषभदेव हमची ७. पुद्गलपरावर्त स्तवन ८. स्तुति-स्तोत्रादि-साहित्यमां
क्रमिक परिवर्तन ९. प्राचीन पाण्डुलिपियों की
संरक्षण विधि १०. पुस्तक समीक्षा ११. समाचार सार
फरवरी-२०२० अनुक्रम
रामप्रकाश झा आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी ६ Acharya Padmasagarsuri i गणि सुयश-सुजसचंद्रविजयजी साध्वी विनीतयशाश्रीजी हिरेनाबेन अजमेरा डॉ. शीतलबेन शाह
मुनिश्री पुण्यविजयजी
राहुल आर. त्रिवेदी रामप्रकाश झा
साध(असाध)मै आंतरो ज्यू अंब अने बबूल । इनकै मुख अमृत चुवै, उनके मुख हुवै सूल ॥
प्रत क्र. १२८०३२ भावार्थ- सज्जन और दुर्जन पुरुष में यही अन्तर है, जो आम और बबूल में होता है, एक के मुख से अमृत झरता है तो दूसरे के मुख से काँटे चुभते हैं।
* प्राप्तिस्थान* आचार्य श्री कैलाससागरसरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर, होटल हेरीटेज़ की गली में
डॉ. प्रणव नाणावटी क्लीनिक के पास, पालडी अहमदाबाद - ३८०००७, फोन नं. (०७९) २६५८२३५५
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SHRUTSAGAR
February-2020 संपादकीय
रामप्रकाश झा श्रुतसागर का यह नवीनतम अंक आपके करकमलों में समर्पित करते हुए हमें अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। इस अंक में योगनिष्ठ आचार्य बुद्धिसागरसूरीश्वरजी की अमृतमयी वाणी के अतिरिक्त चार अप्रकाशित कृतियों का प्रकाशन किया जा रहा है।
सर्वप्रथम “गुरुवाणी" शीर्षक के अन्तर्गत आत्मा के अनन्त वर्तुल के विषय में पूज्य आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा. के विचार प्रस्तुत किए गए हैं। द्वितीय लेख राष्टसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी के प्रवचनों की पुस्तक 'Awakening' से क्रमशः संकलित किया गया है, जिसमें गुरु-शिष्य के सम्बन्ध पर प्रकाश डाला गया है ।
अप्रकाशित कृति प्रकाशन के क्रम में सर्वप्रथम पूज्य गणिवर्य श्री सुयशचन्द्रविजयजी म. सा. के द्वारा संपादित “माणिभद्र छंद” प्रकाशित किया जा रहा है। जिसके कर्ता मुनि मोहनसागरजी हैं। इस कृति में तपागच्छ और लोंकागच्छ के पारस्परिक संघर्ष, माणिभद्रवीर के स्वरूप तथा उनके प्रभाव से तपागच्छ की उन्नति का वर्णन किया गया है। द्वितीय कृति के रूप में पूज्य साध्वीजी श्रीविनीतयशाश्रीजी म. सा. के द्वारा सम्पादित कृति “पार्श्वनाथ विनती" प्रकाशित की जा रही है। इस कृति के कर्त्ता कवि जयनिधान ने प्रस्तुत कृति के माध्यम से पार्श्वनाथ प्रभु के गुणों की स्तवना की है। तृतीय कृति के रूप में शहरशाखा पालडी में कार्यरत श्रीमती हिरेनाबेन अजमेरा के द्वारा सम्पादित “श्री ऋषभदेवनी हमची" का प्रकाशन किया जा रहा है। धार्मिक उत्सवों में गाई जानेवाली इस गेय कृति में भगवान ऋषभदेव के जन्म से लेकर निर्वाण तक की घटनाओं का वर्णन किया गया है। चौथी कृति के रूप में शहरशाखा पालडी की कार्यकर्ती डॉ. शीतलबेन शाह के द्वारा सम्पादित “पुद्गलपरावर्त्त स्तवन” का प्रकाशन किया गया है। श्री भक्तिविजयजी द्वारा रचित इस कृति में कर्ता प्रभु से निवेदन करता है कि मैंने अनन्त पुद्गलपरावर्त्त इस संसार में परिभ्रमण किया है, अतः अब आप अपने चरणों में स्थान दें, जिससे मुझे अनन्त काल तक संसार में भटकना न पड़े।
पुनःप्रकाशन श्रेणी के अन्तर्गत "स्तुति-स्तोलादि-साहित्यमा क्रमिक परिवर्तन" नामक लेख का द्वितीय अंश प्रकाशित किया जा रहा है, इस लेख में स्तुति-स्तोत्र साहित्य के क्रमिक विकास के ऊपर प्रकाश डाला गया है।
गतांक से जारी “पाण्डुलिपि संरक्षण विधि” शीर्षक के अन्तर्गत ज्ञानमंदिर के पं. श्री राहुलभाई त्रिवेदी द्वारा पाण्डुलिपियों के भौतिक व रासायनिक अपघटन के ऊपर प्रकाश डाला गया है। ___पुस्तक समीक्षा के अन्तर्गत इस अंक में पूज्य पुण्यकीर्तिविजयजी गणि के द्वारा संपादित आवश्यकसूल की भद्रबाहुस्वामी कृत नियुक्ति के ऊपर तिलकाचार्य की लघुवृत्ति की समीक्षा प्रस्तुत की गई है। यह वृत्ति मूल, नियुक्ति व भाष्य तीनों के ऊपर संयुक्त रूप से है, जो साधु-साध्वीजी भगवन्तों तथा विद्वानों हेतु अत्यन्त उपयोगी है।
हम यह आशा करते हैं कि इस अंक में संकलित सामग्रियों के द्वारा हमारे वाचक अवश्य लाभान्वित होंगे व अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से हमें अवगत कराने की कृपा करेंगे।
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श्रुतसागर
फरवरी-२०२० गुरुवाणी
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी जैनदृष्टिए आत्मानुं अनन्त वर्तुल श्रीसर्वज्ञधर्म देशकालादि वडे अपरिछिन्न वर्तुल समान अनन्त छ । मुक्त थवाना असंख्य योगो श्रीजैनदर्शनमां जणाव्या छ। असंख्य योगोमां विश्वना सर्वधर्मोनो सापेक्षिक दृष्टिए समावेश थाय छे। आत्माना सामर्थ्य विशेषरूप असंख्य योगो छ। असंख्य योगोनो ज्ञान-दर्शन अने चारित्रमा समावेश थाय छे। असंख्य योगो वडे आत्माना उपशमादि गुणो प्राप्त करीने मुक्त थवू, एज लक्ष दृष्टिमां अवधारवा योग्य छ। कर्मसहित आत्मा रजोगुण, तमोगुण अने सत्त्वगुणनी अपेक्षाए ब्रह्मा, महादेव अने विष्णु वगेरे नामोथी संबोधित थतो होय तो जैनदृष्टिए तेने पोतानामां सापेक्षपणे एवा ब्रह्मादि पर्यायोने सकर्मचेतनपर्यायो गणीने समावी दे छे। नाभिकमलमां आत्माना आठ रूचक प्रदेश छे ते सिद्धसमान निर्मल छे। शरीरमां व्याप्त थएलो आत्मा ते शरीररूप सृष्टिनी अपेक्षाए समष्टिरूप लेवो तेनो शरीरनी साथे क्षीरनीरवत् संयोग छ । शरीरने पीपलानी उपमा आपवामां आवे अने तेना उदर भागने एक डाळ वा पतनी उपमा आपवामां आवे, तेमां पर सत्त्वगुणी प्रकृतिनी मुख्यतावाळा आत्माने विष्णुनी उपमा आपवामां आवे, तेमांथी नाभिमां अष्टकमल पांखडीवाळू कमल उत्पन्न थयु एम मानवामां आवे, तेमांथी रूचक अष्टप्रदेश वडे सह आत्माथी चितिरूप ब्रह्मा उत्पन्न थया, एम मानवामां आवे, अने तद्दवारा सर्वज्ञेयरूप विश्वनुं ज्ञान जगतमां उत्पन्न थयु एम पौराणिक कल्पनाने घटाडवामां आवे तो जैनज्ञानदृष्टिए अविरोधभावे जैनदर्शनमां तेनो समावेश थाय छे। दर्शनने ब्रह्मानी उपमा आपवामां आवे, ज्ञानने महादेवनी अने चारित्रने विष्णुनी उपमा आपवामां आवे तो ए रीते त्रण गुणरूपी त्रणदेवोनो जैन दृष्टिए आत्मामा समावेश थाय छे । अन्य अपेक्षाए ज्ञानरूप विष्णुमांथी क्षायिकसम्यक्त्वरूप ब्रह्मानो अने तेमांथी चारित्ररूप महादेवनो प्रादुर्भाव युक्ति-युक्त करी घटाडीने तेनो आत्मामा समावेश करवामां आवे तो जैन दृष्टिए ए त्रण गुणोना वर्तुलमां ब्रह्मादि देवोनो अन्तर्भाव थाय छे । ए त्रण गुणोने ब्रह्मादिनी उपमा आपीने एकेकमां अन्यनो अवतार अपेक्षाए मानवामां आवे तो घटी शके छे। श्रुतज्ञानथी दर्शननी प्राप्ति थाय छ। दर्शनथी ज्ञाननो प्रगटभाव संमान्य थाय छ। चारित्रमाथी केवलज्ञान अने दर्शन प्रगट थाय छे । इत्यादि सापेक्ष युक्तिद्वारा घटाडीने आत्मामां ब्रह्मादिनो समावेश करवो। पूरक, रेचक अने कुंभकने योगनी शैलीए ब्रह्मा, महादेव, अने विष्णु कथवामां आवे छे, तेनो योगदृष्टिए जैनदृष्टिए आत्मामा समावेश थाय छ।
क्रमशः धार्मिक गद्य संग्रह भाग - १, पृष्ठ - ६८१-६८२
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SHRUTSAGAR
February-2020
Awakening
Acharya Padmasagarsuri (from past issue...)
The disciples who experience the torment of the teacher's harsh and serve rebukes become elevated and ennobled. Those precious stones whose worth is not tested on the touchstone cannot find a place on the crowns of kings.
The teacher's precepts possess a dynamic force that imparts speed to the minds of disciples. The teacher's preaching is a tonic which makes the spiritual life of a disciple full, perfect and mature. On account of the teacher's precepts man becomes great and can walk upon the path shown by the Lord; and he can also attain the place of Lordship spiritually. The divinity that lies latent in a man manifests itself on account of his contact with a teacher. Even in the absence of the teacher, the disciple's devotion for his teacher keeps carrying out its task of giving light to him.
Dronacharya could not accept Ekalavya as his disciple because he was a forest-dweller and not a Kshathriya; but Ekalavya was not disappointed by Dronacharya's refusal to take him as his disciple. He made an image of Dronacharya out of clay and erected it in the forest. He began learning the art of archery guided by the voice of his soul deeming it the voice of his teacher. The result was that Ekalavya became a greater archer than Arjuna, the favourite disciple of Dronacharya. When Dronacharya witnessed his skill in archery, he was greatly amazed.
This incomparable story from the Mahabharatha illustrates the point that we can perform wonders and miracles by virtue of our devotion for our teacher.
(continue...)
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श्रुतसागर
फरवरी-२०२० मुनि मोहनसागर कृत माणिभद्र छंद
गणि सुयश-सुजसचंद्रविजयजी जैन साहित्यमां देव-देवीओने केंद्रमा राखी नाना-मोटा घणा काव्यो बनावाया छे। जेमांनां केटलाक काव्यो तेमना स्वरूपनी वर्णनाना छे, तो केटलाक तेमनी साधना पद्धतिनी वर्णनाना, केटलाक वळी तेमना माहात्म्यनी कथा कहेनारा छे तो बीजा केटलाक उपरोक्त बे के लणेय वर्णनाना सायुज्यवाळा छ। पाछा आ काव्य संस्कृत, प्राकृतादि भाषाओमां तो रचाया खरा ज, पण तेथी' य विशेष ते जे-ते क्षेत्रनी प्रादेशिक बोलीमां पण रचाया। तेमां' य खास करी लघुकृतिओ रूपे, रास, चोपाई, छंद, आरती, गीतादि रुपे सविशेष रचाया छे।
अहीं प्रकाशित थयेल रचना उपरोक्त २ लक्षणोना संयोजनवाळी मरुगुर्जर भाषानी मिश्र रचना छे । कृतिना नाम प्रमाणे तो तेनी रचना तपागच्छना संरक्षक देव माणिभद्रजीनी वर्णना माटे कराई होवी जोइए परंतु तेम न करता कविए काव्यना शरुआतना १ थी ५० पद्यो सुधी तपागच्छ तथा लोंकागच्छना पारस्परिक संघर्ष स्वरूपनी विगते आलेखना करी छ । ज्यारे शेष १० पद्यो ज काव्यनी मूळ वस्तु वर्णना माटे फाळव्या छे। जो के आम करवा पाछळ- कविन प्रयोजन एकदम स्पष्ट थतुं नथी।
वळी बीजु “कृतं मोहनसागरेण” ए लेखन प्रशस्ति परथी कृतिकार द्वारा ज कृति लेखन थयु होवानी विद्वानो द्वारा थयेली अटकळ जो साची गणीये तो कृतिमां अन्य कृतिनी भेळसेळ थई होवानी शक्यता पण अस्थाने रहे छे । आम एक ज कृतिमां बंने जुदा-जुदा २ विषयो शा माटे कविए रजु कर्या हशे ते तपासनो विषय छे। जो के काव्यना संदर्भोने थोडा जुदी रीते विचारीए तो काव्यगत ते वर्णनक्रमनुं कारण थोडं स्पष्ट थाय छे एवं अमोने जणाय छ । चालो आपणे ते जोइए..
काव्योक्त तपागच्छ तथा लोंकागच्छना संघर्ष- मूळ मूळे तो मर्यादा छे मर्यादाना अपलापथी लोंकागच्छने भोगववी पडेली कदर्थनानी तथा मर्यादापालनने कारणे तपागच्छने मळेला माननी वातो विगते रजू करी कविए लोकव्यवहारमा सारभूत एवा मर्यादापालनथी थता गुणोनी तथा दोषोनी वातो पण पद्य क्रम १ थी ५० मां सुंदर रीते गुंथी लीधी छे। आज वर्णनक्रममां आगळ कवि आवा मर्यादापालक तपागच्छ
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__February-2020 श्रीसंघनी उन्नति माणिभद्र वीरनी सहायथी विशेषे विशेषे वधे छे तेवी वर्णना करी त्यांथी ज माणिभद्रना स्वरूपनो विस्तृत चितार आलेखे छे । आम कविए बन्ने विषयोने परस्पर सांकळी लीधा होय तेम लागे छ।
खास तो अहीं आ कृतिनुं संपादन तेना शब्द वैभवने कारणे करायु छ । संस्कृतादि भाषाओना शब्दाने क्यांक मूळ स्वरूपे प्रयोजी तो क्यांक लालित्यसभर बनावी, क्यांक भाववाचक बनावी तो क्यांक प्रास माटे सामान्य पणे फेरवी कविए एटला अद्भूत रीते प्रयोज्या छे के क्यांक तो प्रथम नजरे अर्थभ्रम ज थई जाय। जो के तेवू करवा जता क्यांक क्लिष्टता पण सर्जाई छ। अने तेथी ज तेवा शब्दो अनवबोध पण रह्या छ। कृतिकार
कृतिकार मुनि मोहनसागरजी छे। तेओ शिवसागरजीना विद्वान शिष्य छ। काव्यमां तेमना गच्छादि विशे कोइ नोंध मळती नथी। परंतु तपगच्छ अधिष्ठायक माणिभद्रनी रचना परथी तेओ तपागच्छना होय तेम जणाय छे । हस्तप्रतमां लखायेल (तेमना वडे रचायेल) अन्य कृति (राणकपुर स्तवन)मां तेमने (मोहनसागरे) सं. ७८मां राणकपुरनी यात्रा करी होवानो उल्लेख मळे छ । कृतिनी लेखन शैली जोता लेखन १९मी शताब्दिमां थयेलुं अनुमान करीए तो कृतिकारनो सत्ता समय १८७८ आसपासनो समजी शकाय। आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिरमा वि.सं. १८७०मां आ विद्वानना स्वहस्ते सुंदर अक्षरे लखायेली एक प्रत नं. ३७४३६ छ। आ विद्वाननी अन्य रचनाओमां गुरुगुण भास, गुरुगुण सज्झाय, राणकपुरमंडन आदिजिन स्तवननो समावेश थाय छे । आ तमाम कृतिओ अद्यपर्यंत अप्रकाशित जणाय छ।
प्रान्ते प्रस्तुत कृतिनुं संपादन करवा कृतिनी एकमात्र हस्तप्रत नं. ८०९२५ आपवा बदल आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिरना व्यवस्थापकोनो खूब खूब आभार। ॥GO॥ श्री सरस्वत्ये(य) नमः ।। गाथा-सावझड। प्रणमुं ईस्वरी धरि(री) इगताला, वचनसुधा वरसति रसाला। वाहन हंस गले वरमाला, देज्यो बालक वचन रसाला देश गोढांणो अति मनुहारू, तेहमां सादडी पुर-शिरदारू । साह वसे तिहां वारू वारू, गृह घण लछी(च्छी) धनद दिदारू राज अछे तिहां नाथजी केरो, तेजथी न रहे दुर्जन नेरो । हाकम मेतो मांन तपेरो', हुकम चलावे न्याव भलेरो
॥१॥
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श्रुतसागर
फरवरी-२०२० तेह नगरमां तपगछ भरीया, साधु श्रावक गुण के दरीया। वली गछ लुंका श्रावक जरीया', साधु विरला रहे अनुसरीया संवत अढार अठ्युत्तर(१८७८) भायो, लुंकामत को थिवर ज आयो। तद तस श्रावक लोको धायो, सांभेला' निसांण घुरायो तद(दा) तपगछ के श्रावक बोले, देवभंडार से देहरा पोले। ढोल न वाजे इतनी कोले, मुझ मर्याद कही ध्रुव तोले तेह जबाप[जवाब] सुणी चडवडीया', थोकें सब मिलि राउल चढीया। मेहताजीकुं कहे लुंकडीया, तपा अन्याय करे अडवडीया हाकम एक पठायो सिपाई, ल्यायो तपांकुं वेग बुलाई। कहे हाकम तुम क्युं जबराई, वात सही मुझ दाय न आई तपा कहे मर्याद हमारी, ढोल न वाजे चेत्य-दुआरी । भांजत ए उल्लंठ धरारी, पीछे करो दिलचाह तुमारी बोले हाकम सुण बे लोंका, ढोल निसांण लेई नर थोका। ल्यावो थिवरकुं पय देई धोका २, रीत म भंजो थईने वोंका३ वचन न मान्यो लुंके साजन, बाहिर थिवर रह्यो मठ-भाजन । रात गमाई तिहां विन(ण) काजन, चढ्यो दिल क्रोध लुंके सब माहाजन ॥११।।
॥तो छंद अडयाल ॥ {सूर पूर ?} प्रात भये सूर वीर, गाजीया सामंत धीर। मूंछडे खेचंता वाल, हीयडे प्रबल झाल'५ हांक मारे एक एक, फिरंता धरता धेष६ । थोकडां मिल्या सुघट्ट, त्रिबलां धरी प्रगट्ट
॥१३॥ वदे मुह विकराल, काला हीये असराल । लखंत विहंग गृध९, केई बाल केई वृध सोहागण नारी चंग, सांबलो लेई सुरंग। इम नर नारी थोक, लगी घण चित्त-चोक२०
॥१०॥
॥१२॥
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ईसा लुंके कीयो जोर, आप जांणे चढी डोर । हम तुल्ल कोण जग्ग, इसा भारी मिले नग(ग)२ इण विध कीध घोल२३, आए वडे वास पोल। वजडावे ढोल ठोर, छत्तीयां करी कठोर परस्पर जंपी वेण, हलक्या५ थिवर लेण। भारथ६ भडे जु(झ)झार२८, वणीयात्र मज्जंकार२९ धडाधड धडक्कार, दडा कूच गये द्वार। वंदीया थिवर पाय, पाछे वड वेग आय तद(दा) चिंते तपगछ(च्छ), सघले वणिक मछ(च्छ)३१ । भोजग दोडायो जांण, देवराई संघ-आण वडे चोहटे मिलें थोक, हलक्या खलक२२ लोक। सुणी तपगछ-पाल, आय मिले ततकाल उरध अरध थाट, गाजे गजगल-लाट३३ । छक्कीया युवान योध, पूरीया अनड क्रोध बालक तरुण वृद्ध, बांह-बल" तोले युद्ध । दृढबंध हुँसीयाल, मरयाद रखपाल अड्डीयां२६ अडी अडाव, जोडीयां जुडी जडाव । प्रताला २ वणी प्रगट्ट, छोजीयां चढी घमट्ट४ मोडता पिशूणां मांन, भु(भू)जाबल सुलतांन । प्रेरता झडप धाय, ध्रम धूजे धरा काय बोलतां गंभीर नाद, गाज-घटा उत्तराध । अबीह अनड५ भड, पंचायण बल झड६ लुंका नर केती मात, देखत ही भागजात । देवल भंडार वी(बी)च, तपाजन अडे भीच फिरि बोले तपा साथ, प्रथम म वाहो हाथ। हाकम की तजबीज, देखी करो बल धीज
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12 ताम तपा-साध खास, पोहचे हाकम पास । वदंत ही एम साध, पछे देस्यो अपराध भाखे मल्ल-मांन एम, एतो जोर धरो केम। साध भणे लुंका बोल, नीसरी वजाय ढोल तडक्यो’ हाकम सुण, जोरावरी कीधी घण। माहोमांहिं करे धंध, आपोआप जोर-अंध भोभडा'३ फोडे भडाक्, पाटुंआ पडे पडाक् । लठीयां वजे कडाक्, दृषदां" चले झडाक्६ पूर भर्या मद-छाक", दूर करी भय धाक। त्रपा छोड मथे आक, तो पडे हाक हाक हाक चिंतवी हाकम चित्त, कामेतीकुं कहे वत्त । सांभेला को थोभो लोक, रखे आय देवे झोकर कामेती हुकम सुण, शीघ्र चाल्या सात जण। धमक धमक धाय, थंभीयो सांभेलो जाय तांम लूंका भया भूत, जाणुं राय यमदूत । बकाबक जपे वेण, डक्का जिम फाडे नेण धमधम्या इम सोय, राजसें५ न जोर कोय । बापडा भया गरीब, छागलो पेखी हरीब६७ बोले फिरि का तास, चलो बे हाकम पास। किण विध रोके मुझ, चोरी खाधुं दीसे तुझ मारवाड-दरवाज, थोभीयो सांभेलो साज८ । लुका मिलि दश वीस, चालता पाडता चीस हाकम कचेरी जिहां, आए लोंका-जन तिहां। हाथ जोडी जंपे एम, रोकायो सांभेलो केम कहेत हाकम वात, मरयाद करो घात । सुणि(णी) तद रह्या चुप, पड्या जांणे ब्रह्मकूप
॥३५॥
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॥४५॥
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February-2020 आप ही हाकम उ(ऊ)ठ, लोंका लेई सब पूठ। विराजे भंडार आय, कहे लुंका ल्याओ जाय इसो सुणि(णी) चढे जोण९, अब आपा गंजे कोण । तब ही तुरत धाए, सांभेलो हलकलाएं माल(लं)ता जु खूब दोड, पोहचे भंडार ठोड । बोलीया हाकम जब, वाजा बंध करो अब कोसथी प्रासाद दूर, आगलि बजाओ पूर। तिम ही ज विध कीध, हाकम सुजस लीध कोइनो न पाड्यो काम, मरयाद राखी आम। तपगछ गुणधांम, आप राखी जग माम
दूहा मांनमल्ल मेतो तपो, प्रगट्यो धोरी समाज। मर्यादा राखण सधर७३, जिम नृप विक्रम आज देश विदेश प्रसिद्ध छे, ए मर्याद अखंड। भोला थई साहमा अडे, सोभ गमावे बंड७५ तपागछ उन्नत चढी, मोड्या कुमती(ति)-मांन । माणक यख्य सहायथी, वाधे अधिक प्रधान
॥छंद- मोतीदांम ॥ माणिभद्र यख्य नमुं शिर पाय, धरा तपगछ तणो अधिष्ठाय । श्रीहेमविमल्लसूरि वर दीध, तपागछ उन्नत कीध प्रसीध वदन्न वाराह अथाहसरूप, प्रधान प्रबल प्रताप अनूप। धरे हत्थां बीच खडग्ग विशाल, भजे अरिवृंद गयन्न पायाल जपे यख्य नाम लहे सुखधांम, सौभाग्य अपार लहे ठांमोठांम । माणि[क] मग्गवाड विराजधिराज, मांने त्रिहुं लोक आवाज आवाज ॥५२॥ एरावण गज्ज चढे यख्यराय, पलाद पिशाच विदेश पुलाय। अनाथीयां नाथण वीर सधीर, एणी कलियुग्ग निधान अमीर ॥५३॥
॥४७॥
॥४८॥
॥४९॥
॥५०॥
॥५१॥
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॥५४॥
॥५५॥
॥५७||
॥५८॥
श्रुतसागर
फरवरी-२०२० अजा बल-बाकुल चाहे नही ज, मांने पकवांन मीठाई तुं ही ज। शिरोपर छत्र अडाव जडाव, प्रदीप ही धूप सिंदूर चढाव पूजित आठम चउदस जाप, धरे इक चित्त मिले आपोआप। नही तद रोग नही तद सोग, मिले मनवंछित भोग-संयोग मिटे ज्वर ताप एकादश जात, भयंकर भीत विलात कुजात १ । अपुत्रीयां पूत ज प्रापति होत, अलाछीयां लछि वरे घर यो(बो?)त ॥५६॥ दरिद्र अपूठ अखूड भंडार, नमे मछराल तजी मद-भार । बहु नर नारी करे पय सेव, जाउं बलिहारी तुझें यख्यदेव चले मुह आगल खेतल सज्ज, कालो गोरो दोनुं ग्रहीत गुरज्ज। अगम्म सुजोति अनाथ सनाथ, प्रथि मज्झ भूरि तोरा गुण-गाथ लहे ऋद्धि राज तुमारे पसाय, सबे सिद्धकाज तुमारे पसाय । सुसेवग उपर राख पसाय, श्रीमाणकजी महाराज सहाय
॥५९॥ जपो माणिभद्र तजी दंभ दूर, सुकोडि कल्याण लहे भरपूर । गुरु शिवसागर पंडितराय, तणो शिशु मोहनसिंधू भणाय
कलस माणभद्र यख्यराज काज निज दास सुधारे, इच्छत पूरत स्वामि धाम ऋद्धि सिद्धि वधारे। धारक अभय महंत सांति भगति जिनलायक, पायक सुरनर सकल अचल परम सुखदायक। चिदानंद गणधर सधर विबुध सिंधु शिवकजचरण, दास सिंधुमोहन कहत माणिभद्र असरणसरण ।।
॥ इति श्रीछंद संपूर्ण ॥
॥६०॥
शब्दकोश १. नजीक, २. झळहळे, ३. थोडा, ४. स्थविर साधु, ५. सामैयु ६. उत्तेजित थया(?), ७. लोंकागच्छना श्रावको, ८. झगडनारा, ९. चैत्यना द्वार पासे, १०. उद्धत,
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SHRUTSAGAR
February-2020 ११. निश्चित कार्य करनार, १२. साष्टांग प्रणाम, १३. वांका, १४. ?, १५. ज्वाळा = क्रोधरूपी अग्नि, १६. द्वेष, १७. वाद्य विशेष (?), १८. भयंकर, १९. आ चरणनो अर्थ स्पष्ट थतो नथी, २०. चित्तरूपी चोकमां (?), २१.? २२. पर्वत (?), २३. चर्चा (?), २४. स्थान, २५. चाल्या, २६. ?, २७. लडे (?), २८. योद्धा, २९. ?, ३०. दडवडु = शीघ्रताथी (देश्य)नी जेम अहीं दडी = झडपथी (?), ३१. गर्विष्ट (?), ३२. सघळा, ३३.?, ३४. उन्मत्त थया, ३५. बाहुबल, ३६.?, ३७.?, ३८.?, ३९.?, ४०.?, ४१. ?, ४२. ?, ४३. ?, ४४. ?, ४५. ? ४६. ?, ४७. चलावो, ४८. तैयारी, ४९. परीक्षा (?), ५०. निकळीशु, ५१. गुस्से थयो, ५२. झगडो, ५३. ?, ५४. लात, ५५. ?, ५६. ?, ५७. मदांध, ५८. डर, ५९. ?, ६०.?, ६१.?, ६२.?, ६३. एलफेल-जेमतेम, ६४. डक्का- डाकणनी जेम, ६५. राजाथी (?), ६६. उन्मत्त, ६७. प्रतिपक्षी, हरीफ, ६८. (नी) तैयारी (?), ६९.?, ७०. अहं भाव (?), ७१. खळभळ्यु(?), ७२. नी तरफ, ७३. मददगार, ७४. नडे(?), ७५. बंडखोर ? ७६. गगन, ७७. ?, ७८. नाथ, ७९. चढावेल, ८०. जडतर = घरेणा विगेरे शणगार, ८१. ?, ८२. निर्धन, ८३. ?, ८४. गुर्ज (शस्त्रविशेष),
(अनुसंधान पृ. ३४ से)
पूज्य आचार्य श्री अमृतसागरसूरीश्वरजी म. सा. की निश्रा में श्री महावीरजैन आराधना केन्द्र में जिनालय का
३३वाँ ध्वजारोहणसम्पन्न
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा मध्ये दि. ८-२-२०२० को श्री महावीरालय का ३३वाँ ध्वजारोहण धूमधाम से मनाया गया। इस उपलक्ष्य में श्री महावीरालय में १७ भेदी पूजा का आयोजन किया गया। मन्त्रोच्चारों के साथ श्री महावीरालय की तीन प्रदक्षिणा के साथ ध्वजारोहण किया गया। संस्था के ट्रस्टीगण, श्रद्धालु भक्तगण तथा संस्था के सभी कार्यकर्ताओं ने पूज्य आचार्य श्री अमृतसागरसूरि म.सा. के मुख से बृहद्शांति व मंगल प्रवचन का श्रवण किया। तत्पश्चात् रत्नमन्दिर तथा गुरुमन्दिर का भी ध्वजारोहण का कार्यक्रम सानंद संपन्न हुआ।
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श्रुतसागर
फरवरी-२०२० कवि जयनिधान कृत पार्श्वनाथ विनती
साध्वी विनीतयशाश्रीजी प्रस्तुत कृति राजचंद्रजीना शिष्य कवि जयनिधानजीनी लघु रचना छे । कृतिकारे अहीं पार्श्वप्रभुना गुणोनी स्तवना वर्णवता स्वदोषोनु सामान्य पणे निरूपण कर्यु छे। खास तो कृतिमा उल्लेखित पार्श्वनाथ प्रभुना के तेमना तीर्थोना संदर्भो काव्यनी ऐतिहासिक सामग्री छे। जो के कविनी, तेमना गुरुना सत्ता समयनी के गच्छादिनी कोइ विगत मळे तो प्रस्तुत कृतिगत सामग्री वधु मूल्यवान साबित थाय। प्रस्तुत कृतिनुं संपादन गोडीजी जैन देरासर पायधुनि मुंबईना भंडारनी अनुमानित १९मी सदीनी हस्तप्रतना आधारे करेल छ ।
O॥ चरणकमलि तोरइ मन लीणउ, श्रीचिंतामणि पासजी। जन-मनवंछित सुरतरु अभिनव, पूरि अम्हारी आसजी। ताल तमाल अनइं वनराई, घन घनश्याम सरीरजी। वामानंदन जगदानंदन, सिवसहकार-सुकीरजी ॥१॥ चरणकमलि... लख चउरासी जोनि मझारइं, फिरियउ वार अनंतजी।। तुम्ह दरसण विणु करुणासायर, चउगइमांहि भमंतजी ॥२॥ चरणकमलि... कुगुरु कुदेव कुमत-पथ सेवी, कीधां बहुअ मिछातजी। पंच प्रमाद विषयरसि रातउ, काल न जाणिउ जातजी ॥३॥ चरणकमलि... क्रोध मान मद मच्छर माया, कूड कपट किया कोडिजी। इंद्रिय वसि अहनिसि जिनराया, वीनवु हिव कर जोडिजी ॥४॥ चरणकमलि... जगगुरु तुझ सरणइं हुं आयउं, तूं समरथ संसारिजी। मात पिता जगबंधव तूं ही, भवजलधी मोहि तारिजी ॥५॥ चरणकमलि... अश्वसेनकुल-कमल-दिवायर, नव कर काय प्रमाणजी।। परमपुरुष जगवच्छल सामी, तूं हि ज चतुर सुजाणजी ॥६॥ चरणकमलि... थंभणपुरि अरिथंभण तूं ही, जीराउलि वरकाणजी। संखेसर गउडीपुरि मगसी, नारंगपुरि सपराणजी ॥७॥ चरणकमलि...
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February-2020
सोवनगिरि फलवधि(धि) तिमिरीपुरि, जोधनयरि कलिकुंडजी। जेसलमेरई मूरति अंतर, एकइ नाम अखंडजी ॥८॥ चरणकमलि... अहनिसि प्रभु तुम्ह सेवा सारइं, पउमावइ धरणिंदजी। सुर नर किंनर असुर विद्याधर, पाइ प्रणमइ जणवृंदजी ॥९॥ चरणकमलि... पास जिणेसर इणि कलिकालई, हमरइ तूं आधारजी। पूरव सुकृत-संजोगइ पाया, जय जय जिन जयकारजी ॥१०॥ चरणकमलि... राजचंद्र सुहगुरु सुपसायई, सीसि थुणिउ जिनचंदजी। पासकुमार सयल सुखदाई, जयनिधानि आनंदिजी ॥११॥ चरणकमलि...
लटवट होय रह्यौ विषयरस फंद मे। दीप की सिखामांहे पतंग ज्युं जलायगौ॥ मिनष जमारौ पाय नही सेव्या जिनराज प्राणी। बांधी मुठी आयौ है पसार हाथ जायगौ ॥
प्रत सं. १२८०३२ भावार्थ :- विषयरस के फंद में लिपटा हुआ मनुष्य उसी प्रकार मृत्यु को प्राप्त करता है, जिस प्रकार पतंग दीपशिखा की अग्नि में जलकर अपनी जान दे देता है। जो प्राणी मनुष्यजन्म पाकर भी जिनराज की भक्ति नहीं करता है, वह मुट्ठी बाँधे इस संसार में आता है और हाथ फैलाए हुए चला जाता है।
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श्रुतसागर
फरवरी-२०२० प्रेमविजय कृत ऋषभदेवनी हमची
श्रीमती हिरेनाबेन अजमेरा कृति परिचय
प्रायः अप्रकाशित प्रस्तुत देशी कृतिनो काव्य प्रकार हमची छे। हमची के हमचडी ए गरबानी देशीनो प्रकार छ । रास-गरबा-फाग-विवाहलो होळी गीतो जेवा काव्योमा वर्तुळाकारे फरी फरीने गावानी प्रक्रिया थाय छ। धार्मिक उत्सवोमां आ प्रमाणे गवाती कृतिओने हमचडी ओळखवामां आवे छे। आ कृतिमां ३४ गाथा अंतर्गत ऋषभदेव परमात्मानुं जीवन सुंदर रीते ढूंकमां वर्णवायेलुं छे । आ अवसर्पिणी काळना प्रथम राजा, प्रथम साधु अने प्रथम तीर्थंकर परमात्माना जन्मथी लई निर्वाण सुधी- वर्णन जोवा मळे छे। शरुआतनी १८ गाथा अंतर्गत ऋषभदेव परमात्माना जन्म समये छप्पनकुमरी केवी रीते हरख घेली थाय छे अने सोळेशृंगार करी तेओ ऋषभदेवने जोवा माटे केवी तलसे छे, तथा तेमना दर्शननी उत्कंठानुं वर्णन मनमोहक तथा विस्तृत रीते कर्ता श्रीप्रेमविजयजीए वर्णव्यु छ। छप्पन दिक्कुमारीओ खूब ज उल्लासपूर्वक ऋषभदेव- सूतकर्म करे छे त्यारबाद अवधिज्ञानी इन्द्र आवी तेमनो अभिषेक करवा मेरुपर्वत पर लइ जाय छे अने आनंद मंगल साथे ओच्छव करे छ।
प्रभु ज्यारे यौवन वय थया त्यारे तेमनो विवाह सुनंदा अने सुमंगला साथे करावायो। प्रभुने १०० दीकरा अने २ दीकरी जन्मी। प्रभुना दीक्षानो समय जाणीने नव लोकांतिक देवो द्वारा दीक्षानी विनंती कराइ अने १ वर्ष- वरसीदान कर्या बाद प्रभुए ४००० दीक्षार्थीओ साथे दीक्षा अंगीकार करी । दीक्षाना १००० वर्ष पछी प्रभुने केवलज्ञान थयु । समवसरण रचायु । प्रभुए देशना आपी। गामोगाम विहार करी घणा भव्यजीवोने भवथी पार उतार्या अने अंते निर्वाण समय जाणीने अष्टापद पर्वत उपर अनशननो स्वीकार करी अनंत सुखने पाम्या। कर्ता परिचय
कृतिना अंते आपेल प्रशस्तिना आधारे प्रस्तुत कृति श्रीविमलहर्षना शिष्य श्रीप्रेमविजय द्वारा रचायेल छ। कृतिमां घणी जग्याए प्राकृत शब्दोनो उपयोग थयेल छ । सुंदर रागमां गाइ शकाय एवी आ हमचीकाव्यनी रचनामां कर्ताए उपयोग करेल अलंकारिक शब्दोना प्रास कृतिनी सुंदरतामां अनेक गणो वधारो करे छ। कृतिना
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SHRUTSAGAR
February-2020 कर्ता अकबरप्रतिबोधक हीरविजयसूरिनी परंपराना छे। आ ज कर्ता द्वारा रचायेल तीर्थमाला स्तवनमा प्रेमविजयजीनो परिचय प्राप्त थाय छ। तपागच्छ परंपराना श्री दानसूरिना शिष्य विजय-हीरसूरि-तेमना शिष्य गच्छाधिपति श्रीविजयसेनसूरिना प्रशिष्य श्रीविमलहर्षना शिष्य श्रीप्रेमविजय प्रस्तुत कृतिना कर्ता छ । जेनुं अपर नाम कवियण पण प्राप्त थाय छे। तीर्थमाला स्तवनमां र.सं. -१६५९ प्राप्त थाय छे, ते परथी कर्ताना समयनुं अनुमान करी शकाय छे। कर्तानी आ सिवायनी अन्य कृतिओमां शनुंजय स्तवना, रावणमंदोदरी, सीतासती आदि सज्झायो तथा घणा स्तवन अने स्तुतिओ प्राप्त थाय छे । तेओए हीरविजयसूरि तथा विजयसेनसूरि उपर गीत, भास, सज्झाय, सलोको आदि रच्यां छे, जेमां तेमना गुरु प्रत्येनो अत्यंत आदरभाव प्रगट थाय छे। कर्ताए 'गणि रत्नहर्ष बंधु' तेवो उल्लेख कर्यो छे । वस्तुपाल-तेजपाल रासमां तेओ नोंधे छे के'पंडितवरभूषण रत्नहर्ष गुणखाण, तस पाय प्रसादि, कीधो ए मि रास' आम तेमनी अन्य पण केटलीक कृतिओमां रत्नहर्षनुं नाम जोवा मळे छ । बनी शके के ते तेमना वडील गुरुबंधु तथा विद्यागुरु पण होय। प्रत परिचय
प्रस्तुत कृतिनुं संशोधन आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर-कोबामांथी प्राप्त थयेल एक मात्र प्रत क्रमांक-३१२२७ना आधारे करेल छ । प्रतमां ले.सं. आपेल नथी, पण प्रतमां उपयोग थयेल पडीमात्रा अने मध्यफुल्लिका परथी अनुमान करी शकाय के प्रत १८वीं शताब्दीमां लखायेल होइ शके । प्रतनुं लेखन सुंदर अने सुवाच्य अक्षरथी थयेल छे। दंड, गाथांक तथा विशेषपाठ लालस्याहीथी लखेल छे। लेखनना उपरी पंक्तिओमां कलात्मक मात्राओनो उपयोग थयेल छे तथा कृतिनुं नाम दर्शावती हुंडी पण प्राप्त थाय छे । २ पत्रमा लखायेल आ प्रतनी लंबाइ तथा पहोळाई २५/११ छे । प्रति पत्रमा पंक्ति संख्या-११ छे तथा एक पंक्तिमां अक्षर संख्या-३२ थी ३७ जेटली छ । प्रतिलेखक द्वारा गाथांक-२८ पछी २९ न आपतां सीधो ३० आपेल छ।
आ कृतिना संपादनमां डॉ. शीतलबेन शाहनो सुन्दर सहयोग अने मार्गदर्शन प्राप्त थयु छे, ते बदल तेमनो खूब-खूब आभार।
श्री ऋषभदेवनी हमची ॥GO॥ श्री वीर जिणेसर जग माहि वीर, तस पाए करुअ प्रणाम । जे ऋष[भ]देवनी हमची गाइ, ते पामइ शिवठाम रे
॥हमचडी।
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॥६॥ हम०...
श्रुतसागर
फरवरी-२०२० हमचडी सखी हेलि रे, ऋषभजिन भेटणि गेलि । मरुदेवीनंदन मूरति सूरति, मूरति मोहणवेलि रे ॥१॥ हमचडी.... आचली० हमची सारी सुणु नरनारी, जाउ ऋषभ बलिहारी। जे भणिसइ मनसुद्धि सुणसिइ, ते लहिसिइ शिवनारी रे ॥२॥ हम०... हमची गाऊ बहु सुख पाउ, पामु नवह निधान । श्री नाभि नरेसर सुत अले(ल)वेसर, तस नामिइ वाधइ वान रे ॥३॥ हम०... चऊद सुपन सूचित सुत सुत जायु, सुरनर के मनि भायु । छपन कुमारी सुंदर नारी, हरखि हीडोलइ गायु रे
॥४॥ हम०... हम पग पाह्नीआ लता समराती, भर योवन मदमाती। नेउरी रणकइ घुघरि घमकइ, ठमक ठमक चालीती रे
॥५॥ हम०... पीडी जंघा तेह वखाणु, कदलीदल समजाणु। सीहलंकी कट मेखल खलकइ, तेजि तो बहु झलकइ रे स्तनयुगलि हेम कुभाकार, रियक पाटण विशाल। कबुग्रीवा मोहनगारी, भुजा कमलनी नाल रे
॥७॥ हम०... पंचवर्ण चोली केसर घोली, नारी कंजर चीर। करि कंकण चूडी रुपि रुडी, देखी मोह्या वीर रे
॥८॥ हम०... कंठि एकावलि हार ज ठवीउ, बाजुबंध बाहि चंग। दंतपत हीरा सम उपइ, अधुर प्रवाला रंगरे
॥९॥ हम०... बोलि बाली वचन रसाली, अमीरस समजाणी। नाके मोती मनमोहंती, दीपशिखा परिमाण रे
॥१०॥ हम०... गल्लयुगल दर्पण समदीपि, नयण कमल सम सोहि। काने झालि वीज सम झबकइ, टीलइ त्रिभो(भुवन मोह रे ॥११॥ हम०... वदन कहीइ शारदनु चंद, मोह्या सुरनर इंद। निलव चंदलडु तेत लाल, दीसइ झाकझमाल रे
॥१२॥ हम०... सिरिवेणी वाली अति सुकमालि, जाणी नागिण काली। सोवन फूली अति बहुमूली, गूंथी गूथण जाली रे
॥१३॥ हम०...
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February-2020
॥१४।। हम०...
॥१५।। हम०..
॥१६॥ हम०..
॥१७।। हम०...
॥१८।। हम०...
॥१९॥ हम०...
SHRUTSAGAR रतन जडित मणमाणिक मोती, मस्तिकी राखडी रोपी।
आदितनी परि तेजि झलकइ, सुघड सोनीइ उपारी पंचवर्ण हीरा, गोफणु रे, कुसुममाल सोइ लहिकइ। अबीर गुलाल नइ चूआ चंदन, कस्तूरी अंगि महिकइ रे हाथ पग निरखंता रुडा, सामुद्रिकमा जाण्या। तस अनुभाविइ मति सारु मइ, घोडास्या वखाण्या रे ए सिणगार कहिउ जिन भगति, प्रेमविजय भली युगति । मनमाहि कोइ नरनारि, म करस्यु अवर विचार रे इम छपन कुमारी करी शृंगारा, आखी जिननइ पासि। सूतकर्म क[कि]धु उल्हासिइ, गाइ जिनपद भास रे हवइ सोहमपतिनु आसण हालइ, सुर सहु हलहल चालइ। अवधिन्यान धरी इंद्र ज आवइ, मेरसिखर लेइ जावइ रे करी महोच्छव मातानइ पासिइ, मूकी जाइ उल्हासइ । रिषभ जनमनु नाभि नरेसर, उछव करइ उच्छाय रे योवन वय जव प्रभुजी आव्या, सुरनर के मनि भाय रे। सुनंदा सुमंगला रूपि रुडी, तेसु प्रभु परणाव्या रे पंच विषय सुख भोगवइ रे, देवकुमर सम जाणि । श्री ऋषभदेवनी त्रिभुवनमाहि, सहू मानइ सुरनर आण रे एकसु बेटा दो बेटी रे, रिषभदेव घरि जाया। समय जाणीनइ देव लोका[कां]तिक, उलट अंगि आया रे । निज पुत्र सविनइ जूजूआ रे, दीधा ते सवि देस । वरसीदान देइ करीनइ, लीधु संयम वेस रे च्यार सहस साथिइ वली रे, रिषभ जिन करि विहार । घनघाती प्रभु केवल पाम्या, आव्या सुरनर नारि रे समोसरण तिहा दैव कीधु, रुप्य कनक मणि सार। तिहा बइसी प्रभु कइ वखांण, जोजन वाणि अपार रे
॥२०॥ हमचडी०...
॥२१।। हम०...
॥२२॥ हम०...
॥२३॥ हम०...
॥२४।। हम०...
॥२५॥ हम०...
॥२६।। हम०...
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श्रुतसागर
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फरवरी-२०२० परषदा बारइ बूझवइ परे, सुर नर नारी कोडि। श्री ऋषभदेवनी जगनी सहु हरखिइ, टाली सख[घ]ली खोडि रे ॥२७॥ हम०... गाम देश नगर पुर पाटण, महीअलि करइ विहार । भविक जीवनइ भाव धरीनइ, ऊतारइ भवपार रे
॥२८॥ हम०... वीस लाख कुमर पणइ रे, इसठि पूरव चउरासी लाख। सवि सखा लइ मान, नाभिनंदन मरुदेवी कूअर,
दिन दिननि चढतइ वानि रे ॥३०॥ हम०... समय जाणी अष्टापद शृंगि, पुहुता मननइ रंगि। तिही कणि रिषभजीइ अणसण कीधु, पाम्या सुख अभंग रे ॥३१॥ हम०... हमची गाथा सुणु नरनारी, वीस पंच खट च्यार। रिषभदेवना जे गुण गाइ, तेमा पामे भव पार रे
॥३२॥ हम०... जे नरनारी हमची गाइ, तस घरि आणंद थाइ। रोग सोग सहू दूरि जाय, मनवंछित सुख पाइरे
॥३३॥ हम०... श्री विजयसेनसूरि तपगछ नायक, महिमा मेर समान। अकबरसाही जेहनइ दिइ मान, दिन दिन चडतइ वान रे ॥३४॥ हमचडी०... विमलहर्ष शिष्य हरखि, बोलइ वचन अमृतरस तोलइ। गणि रत्नहर्ष बंधु, प्रेमविजय नाम हमची गाई अभिराम रे
॥ इति श्री हमची ऋषभदेवनी ॥
॥३५॥ हम०...
क्षतिपूर्ति गतांक (वर्ष-६, अंक-८) में पत्रांक १० पर 'कर्पट वाणिज्यमंडण चिंतामणि पार्श्वनाथ स्तवन' के कर्ता के बारे में लिखा था कि - “विमलहर्ष उपाध्यायना शिष्य मुनिविमल अने तेमना कोई शिष्य द्वारा रचना थई होय तेम जणाय छे.” इस संदर्भ में यह संशोधन योग्य है कि विमलहर्ष के शिष्य मुनि विमल और उनके शिष्य ‘भावविजय' के द्वारा इस कृति की रचना हुई है।
-- संपादक
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SHRUTSAGAR
February-2020 श्री भक्तिविजय कृत पुद्रलपरावर्त स्तवन
डॉ. शीतलबेन शाह कृति परिचय
प्रस्तुत कृति देशी भाषामां लखायेल एक बोधात्मक स्तवन छ। कवि श्री भक्तिविजय गणितानुयोग द्वारा आत्माने पोते केटलुं भटक्यो छे तेनुं भान करावे छे। श्री शांतिनाथ परमात्माने विनंती करीने कर्ता श्री कहे छे के अनंतो काळ हुं समकित पाम्या विना भटक्यो छु, तारी सेवा पण में करी नथी। तुं अमारा जेवा गरीबनो उद्धार करवामां धुरंधर छे एटले तमारी पासे आव्यो छु । पछी आखा स्तवनमां पुद्गलपरावर्त काळने सूक्ष्म गणतरीओ द्वारा दर्शावे छे। आंखना एक पलकारामां अथवा एक चपटी वगाडवामां असंख्यात समयो थाय छे । हजु बीजी रीते समयनुं मान दर्शावता कहे छे के एक कमळना ३२ पत्रोने एकसाथे सोयथी वींधे तेमां एक पत्रथी बीजा पत्रमा सोयने पसार थतां जेटलो समय लागे तेटलामां असंख्याता समयो पसार थइ जाय। एवा असंख्य समयनी एक आवलिका थाय १,६७,०२,०१६ आवलिका प्रमाण १ मुहूर्त थाय । ३० मुहूर्तनो एक दिवस, १५ दिवसनुं १ पक्ष, २ पक्षनो १ मास, २ मासनी १ ऋतु, ३ ऋतुनुं १ अयन, २ अयन- १ वर्ष, ७० लाख ५६ हजार करोड वर्षे १ पूर्व थाय। असंख्याता पूर्व- १ पल्योपम थाय। १० कोडाकोडी पल्योपमे १ सागरोपम अने २० कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण १ उत्सर्पिणी अने १ अवसर्पिणी मळीने १ कालचक्र थाय। एवा अनंता कालचक्रे १ पगलपरावर्त्त थाय। द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भाव आ चारे बादर अने सूक्ष्म मळीने कुल आठ प्रकारे पुद्गलपरावर्त थता होय छ । कर्ता कहे छे के आवा अनंता पुद्गलपरावर्त हुं भम्यो छु । जे जीव सम्यक्त्वने पामे छे ते अर्द्धपुद्गलपरावर्त्तमां मोक्षने पामे छे । तेथी प्रभुने विनंती करे छे के तारी सेवा कर्या वगर अनंतो काळ भम्यो छु तो हवे तारी सेवा करवानी तक आप जेथी मारो पण आ संसार कपाइ जाय, समकित पामी जाउं तो आवो घणो काळ मारे भटकवू न पडे। कर्ता परिचय
प्रस्तुत कृतिनी रचना प्रशस्तिना आधारे आना रचयिता श्री भक्तिविजय छ। जेमना गुरु वाचक श्री शुभविजयना शिष्य श्री नयविजय छ । प्रशस्तिमां कर्तानो समय प्राप्त थतो नथी, पण कोबा ज्ञानभंडारमा संग्रहित सूचनानुसार श्री भक्तिविजयजीनी
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श्रुतसागर
फरवरी-२०२० अन्य १२ कृतिओ प्राप्त थाय छे। तेमांथी एक कृति साधुवंदना छे जेमां ते कृतिनी र.सं. १८७३ प्राप्त थाय छे । बीजी कृति त्रिशष्टिशलाकापुरुष चरित्रना परिशिष्ट पर्व पर एमनो टबार्थ मळे छे जेमां र.सं. १८२९ नो उल्लेख छ । तेमनी अन्य कृतिओना नाम आ प्रकार छे- १) कलावती सज्झाय, २) नेमराजीमती स्तवन, ३) पार्श्वजिन स्तवन-भटेवा, ४) सीमंधरजिन स्तवन, ५) सुधर्मास्वामी भास, ६) वासुपूज्यजिन स्तवन, ७) रोहिणीतप चैत्यवंदन, ८) रोहिणीतप सज्झाय, ९) चित्रसेन पद्मावती उपर टबार्थ तथा १०) सीमंधरजिन स्तवन प्राप्त थाय छे। लगभग बधी ज कृतिमां तेमना श्री नयविजयजी नामे गुरुनो उल्लेख मळे छे, पण संवत् स्थल आदि विगत प्राप्त थती नथी। दादागुरुना नाममां क्यांक गंगविजय अने परदादा गुरुमां शुभविजयजीन नाम प्राप्त थाय छे। प्रत परिचय
प्रस्तुत कृतिनुं संपादन एकमात्र प्रत राधनपुर-तंबोरी भंडारना दाबडा क्रमांक३३नी अंतर्गत प्रत क्र.-१०५२ ना आधारे करेल छ। आ प्रत क्रमांक पर घणी एकलपत्र प्रतोनो स्केन करी संग्रह करेल छे, जेना अंतर्गत पी.डी.एफ क्रमांक-७२ अने ७३ पर आ कृति प्राप्त थाय छे। १ पत्रमा लखायेल आ प्रतना अक्षर सुंदर अने सुवाच्य छ । गाथांक दंड तथा विशेषपाठ लालस्याहीथी लखायेल छ । प्रतना एक पत्र पर पंक्तिओनी संख्या १० छे । तथा प्रतिपंक्ति अक्षरसंख्या ३५-३९ छ । प्रतने अंते पुष्पिका प्राप्त न थती होवाथी लहिया विषयक माहिती अप्राप्य छ।
पुद्गलपरावर्त्त स्तवन ॥GO॥॥ देशी रसीयानी॥ शांत(ति)जिणेसर शांतगुणे करी, सेवथी लहीइ रे शांत जिणेसर। परमाधार कृपानिधि साहिबा, नित तुझ सेवे रे दांत जि० अष्टकरम वयरीना भय थकी, पाम्यो भवो भवें आर्त्त जि० । दीनो(ना)धार धुरंधर गुणनिलो, आव्यो सांभली वार्त्त जि० लोचन एक तणे वर फुरकडे, अहवा चपटी रे मांहि जि० । तेहमां समय असंख्याता होवें, कहुं वली भेदनी चाहिं जि०
॥१॥ शां०...
॥२॥ शां०...
॥३॥शां०...
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February-2020
॥४॥ शां०...
।५।। शां०...
॥६॥ शां०...
॥७॥ शां०...
॥८॥ शां०...
॥९॥ शां०...
SHRUTSAGAR पोयणपत्र बत्रीस संख्या वली, उपर दीजे रे सोय जि० । वर जोद्धार पुरष कर कुंतस्युं, वींधी जे वली जोय जि० एक पलासथी अन्य पलासमें, वींधी न जाइ रे कुंत जि० । तेतलामांहि वर जिनपती कहें, समय असंख्याता हुंत जि० एहवें समय असंख्याते होवे, आवलिका एकमांन जि० । दवरक वींटिइं टचिं अंगुली लही, शुद्ध ए आवीली सांन जि० वर एककोडि सडसठलख वली, दोयसहस सोल प्राहिं जि० । एवं संख्याइं आवली होवें, मुहुरत एकण मांहि जि० इम कही त्रीसमुहुर्ते अहोनिसि, अहोनिसी पन्नरें पक्ख जि० । द्वय पक्षे एक मास मांन छे, द्वयमासे रितु दक्ष जि० त्रिभुवन मांनि एक अयन कह्यो, द्वय अयने एक वर्ष जि० । छपनसहस सितरलख कोडस्युं, वरसें पूरवहर्ष जि० पूर्व असंख्याते पल्योपम, षट भेदे वली तेह जि० । दसकोडाकोडि पलिओवमें, सागरोपम कडं नेह जि० कोडाकोडवरसागर वीसथी, जातें एम कहाय जि० । उत्सर्पिणी अवसर्पिणी एकज, कालचक्र इम थाय जि० एहवें अनंते कालचक्रे होवें, एक पुद्गल परावर्त्त जि० । तेतलामांहि समकित निधी लहें, तजी मिथ्यात्व आवर्त जि० अर्द्धपुद्गलपरियट्टण ते करे, जे कह्या आठ प्रकार जि० । समकितभानु हृदय उदये थकें, लहें शिवगती परकार जि० एहवा कालमांहि हुं बहु भम्यो, विण सेवा तुझ एक जि० । अनुदिन दिजिइं तुम पय सेवना, करीय मया अतिरेक जि० वाचक वर शुभ सिस कवि नय तणो, भक्ति नमें नित पाय जि० । स्वामि स्नेहल लोचन देखीने, सेवक आनंद थाय जिणेसर
॥इति पुद्गलपरावर्त स्तवनं ॥
॥१०॥ शां०...
॥११॥ शां०...
॥१२॥ शां०...
॥१३॥ शां०...
॥१४॥ शां०...
॥१५॥ शां०...
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फरवरी-२०२० स्तुति-स्तोत्रादि-साहित्यमा क्रमिक परिवर्तन
पुण्यविजयजी म.सा. (गतांकथी आगळ..)
उपर जणावेल स्तुतिओ पछी आचार्य श्री सिद्धसेनकृत कल्याणमंदिर स्तोत्र अने आचार्य श्री मानतुंगकृत भक्तामर स्तोत्र आदि स्तोत्रो आवे छे। आ स्तोत्रोमां गौरवभर्या अने सूक्ष्म बुद्धि गम्य तत्वज्ञान- स्थान भक्तिरसे लीधुं छे अने आ जातनी अभिरुचि वधतां महाकवि श्री धनपाल, महाकवि बिल्हण, कविचक्रवर्ती श्रीपाल, गूर्जरेश्वर महाराजा श्री कुमारपाल, महामात्य श्री वस्तुपाल, आचार्य श्री जिनप्रभ, आचार्य श्री मुनिसुंदर आदिए ऋषभ पंचाशिका आदि जेवी अनेकानेक भक्ति रसभरी कृतिओ जैनदर्शनने अथवा जैन साहित्यने अर्पण करी छ।
आ पछी चित्रविचित्र स्तुति-स्तोत्र-साहित्य- स्थान आवे छे। आ विभागमां सेंकडो जैनाचार्य तेम ज जैन मुनिओए फाळो आप्यो छे। तेम छतां खरतरगच्छीय आचार्य श्री जिनप्रभे विधविध भाषामय अने विधविध छंदोमय चित्रविचित्र स्तुतिस्तोत्र-साहित्यना सर्जनमां जे विशाळ फाळो आप्यो छे ए सौथी मोखरे आवे छे। आ आचार्यना जेटलुं विपुल अने विविध प्रकारचं स्तुति स्तोत्र-साहित्य कोईए सयुं नथी एम कहेवामां अत्रे जराये अतिशयोक्ति थती नथी। ___उपर्युक्त स्तुति-स्तोत्रादिने लगतुं समग्र साहित्य मोटे भागे संस्कृत भाषामां गूंथायुं छे। जोके महाकवि श्री धनपाल, आचार्य श्री जिनदत्तसूरि वगेरे विद्वानोए प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषामां केटलांक स्तुति-स्तोलोनी रचना करी छे पण तेनुं प्रमाण संस्कृत-भाषाबद्ध स्तोत्रो करतां बहु ज ओछु छ। ___ लगभग आचार्य जिनप्रभसूरिना जमाना पहेलांथी स्तुति-स्तोत्रादि साहित्यमां भाववाही भक्ति रस आणवाने बदले एनुं स्थान पांडित्यदर्शने लीधुं, अर्थात विधविध भाषा, विधविध छंदो अने विधविध यमक-श्लेष-चित्रालंकारमय कृतिओ गूंथावा लागी त्यारथी ए स्तोत्रोमां कल्याणमंदिर स्तोत्र, भक्तामर स्तोत्र, ऋषभपंचाशिका, वीतराग स्तोत्र, रत्नाकरपच्चीसी आदि स्तोत्रोना जेवी भाववाहिताए गौणरूप लीधुं अने तेनुं मुख्य स्थान लगभग शब्दाडंबरे लीधुं । आ कहेवाने अर्थ ए नथी के उपर्युक्त आलंकारिक कृतिओमां भक्तिरस नथी ज होतो; एमां भक्तिरस होय छे तो खरी ज, परंतु बाह्य शाब्दिक तेम ज आर्थिक चित्रविचित्रता शोधवा जतां आंतर भक्तिरस
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SHRUTSAGAR
February-2020 ढंकाई जाय छे अथवा झांखो पडी जाय छ ।
आ प्रमाणे संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषामां रचाता स्तुति-स्तोत्रादिसाहित्ये लगभग सोळमी सदीमां नवो पलटो खाधो, जेने परिणामे जे स्तुति-स्तोत्रादिसाहित्य संस्कृत, प्राकृतादि भाषामां निर्माण थतुं हतुं ते अनुक्रमे वधारे ने वधारे गुजराती भाषामां गूंथातुं चाल्यु। आनी असर एटले सुधी थई के न्यायाचार्य श्रीमान यशोविजयोपाध्याय अने तेमना सहाध्यायी श्रीमान विनयविजयोपाध्याय जेवाने पण आ जातनुं विपुल स्तुति-स्तवनादि-साहित्य सर्जवानी आवश्यकता जणाई अथवा एम कहीए के फरज पडी। आ बधाने परिणामे गुजराती भाषाना स्तुति-साहित्यमां ढगलाबंध चैत्यवंदन, स्तुति, स्तवन, देववंदन, पूजाओ, भास, गीत, फाग वगेरे कंई कई प्रकारनी कृतिओनो उमेरो थयो।
आ सिवाय भिन्न भिन्न देशमां पादविहारथी विचरता जैनाचार्यादिए ते ते देशनी भाषामां केटलीक रचनाओ करेली छे, अर्थात् गुजराती, हिंदी, मारवाडी, पंजाबी, कच्छी, दक्षिणी, फारसी वगेरे अनेक भाषामां अनेकानेक कृतिओनी रचना करी छ। आ बधी कृतिओ जोके घणी थोडी मळे छे, तेम छतां ते द्वारा देश-काळ अने प्रजानी असर साहित्य उपर केवी अने केटली थाय छे एनुं माप आपणने मळी रहे छ ।
आ बधा कथननो सार ए छे के, एक काळे आपणे स्तुति-साहित्यना विषयमां क्यां हता अने त्यांथी खसता खसता आजे क्यां आव्या ? तेम ज एने अंगे आपणे केवू अने केटलुं परिवर्तन अनुभव्यु? एनो ख्याल आवी शके।
एक काळे स्तुतिनुं स्वरूप तीर्थंकरदेवना चरित अने उपदेशने श्रद्धापूर्वक जीवनमां उतारवु ए हतुं । ते पछी ए महापुरुषने, तेमना धर्म अने तत्त्वज्ञाननी झीणवटथी परीक्षा करी, ओळखवा सुधी आपणे आव्या, अर्थात् विशुद्ध श्रद्धाबळथी खसी आपणे तर्कनी सराणे चढ्या । ते पछी वळी कालांतरे आपणे ए महापुरुषना जीवननी, धर्मनी के तेमना तत्त्वज्ञाननी तर्क द्वारा सूक्ष्म परीक्षा करवानुं बुद्धिने कष्टदायक कार्य दूर मूकी भक्तिरसमां भळ्या । खरे ज, आथी आपणे प्रज्ञानी तीव्र कसोटीथी कंटाळीने बुद्धिनी मंदतामां प्रवेश कर्यो, एम नथी लागतुं? आ पछी अनुक्रमे पाछा हठता हठता छेवटे आपणे विविध भाषा, छंद, अलंकार आदि साथे संबंध धरावता शब्दाडंबरमां आवी थोभ्या।
(क्रमशः) ["श्री जैन धर्म प्रकाश, सुवर्ण महोत्सव विशेषांक, चैत्र, सं. १९९१]
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फरवरी-२०२० प्राचीन पाण्डुलिपियों की संरक्षण विधि
राहुल आर. त्रिवेदी (गतांक से जारी) भौतिक अपघटन
पाण्डुलिपियाँ प्रायः समय बीतने पर भौतिक रूप से क्षीण हो जाती हैं। भौतिक अपघटन के प्रमुख कारण प्रकाश, ताप, नमी व रखरखाव में उपेक्षा है। जहाँ प्रकाश, ताप और नमी पाण्डुलिपियों में प्रकाश-रासायनिक परिवर्तन व ऑक्सीकृत परिवर्तन लाते हैं, वहीं अनुचित रख-रखाव उन्हें अत्यधिक क्षति पहुँचाता है। इन घटकों के प्रभाव से कागज पीला पड़ जाता है व धीरे-धीरे इतना अधिक क्षतिग्रस्त हो जाता है कि उसे थोड़ा सा छूने पर भी टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। (क) प्रकाश
प्रकाश के कारण कागज का अपघटन होना आम बात है। प्रकाश में पराबैंगनी किरणों की उपस्थिति अपघटन की दर को बढ़ावा देती है, हालाँकि यह भी माना जाता है कि कागज, कपड़े व चित्रों का क्षय दृश्य-प्रकाश से भी होता है। प्रकाश प्राकृतिक हो या कृत्रिम, वस्तु पर अवश्य प्रभाव डालता है। कृत्रिम प्रकाश की तीव्रता कम होती है, इसीलिए इसमें पराबैंगनी किरणें भी कम होती हैं। यह अधिक समय के पश्चात् हानि पहुँचाती है। यह भी देखा गया है कि कई बार प्रकाश कागज के रंग को पीला करने की अपेक्षा फीका कर देता है।
यह भी देखा गया है कि ताप के कारण भूरा हो चुका कागज प्रकाश के द्वारा प्रभावित पुराने कागज की भाँति प्रतीत होता है। अतः यह माना जाता है कि कागज के रंग का परिवर्तित होना प्रकाश व ताप का मिला जुला प्रभाव होता है। फीका व पीला होने की प्रक्रिया साथ-साथ चलती रहती है व इनमें से जो क्रिया अधिक प्रभावी होती है, उसीके अनुसार रंग परिवर्तन होता है।
पराबेंगनी किरणों से युक्त प्रकाश प्रायः अधिक विनाशकारी होता है। 360 nm. से कम प्रकाश उत्सर्जन से अपघटन की दर अत्यधिक बढ़ जाती है। यह भी देखा गया है कि कागज पर प्रकाश का प्रभाव उसमें उपस्थित अम्लीयता व कागज के पदार्थ पर निर्भर करता है। रंग व स्याही भी प्रकाश से प्रभावित होते हैं । इस अपघटन
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February-2020 के सामने कार्बन स्याही अन्य स्याहियों की अपेक्षा उत्कृष्ट व टिकाऊ होती है।
(ख) ताप
____ ताप भी कागज पर क्षयकारी प्रभाव डालता है। अधिक समय तक ताप के प्रभाव से कागज को हानि पहुँचती है। सामान्यतया यह कहा जा सकता है कि अधिक ताप के सम्पर्क में आने पर कागज थोडे समय में ही पीला व क्षीण पड़ जाता है। कम तापमान क्षय की प्रक्रिया को शिथिल कर देता है। (ग) नमी ___ कागज में उपस्थित नमी भी उसके स्थायित्व को प्रभावित करती है। नमी की कमी कागज को शुष्क कर देती है व इसे कमजोर बना देती है, वहीं दूसरी ओर, अधिक नमी के कारण, कागज नम व गीला हो जाता है। अधिक नमी, सूक्ष्म जीवों को भी विकसित करती है।
20-24°C तापमान व ५५ प्रतिशत अपेक्षित आर्द्रता कागजी सामग्री के संरक्षण के लिए उपयुक्त होती है। यदि इस प्रकार की जलवायु २४ घण्टे व पूरे वर्ष नियंत्रित रखी जाए तो निम्नस्तर का कागज भी अधिक समय तक अच्छी अवस्था में रह सकता है। कला वस्तुओं व वीथिकाओं का वातानुकूलन ही एक मात्र जलवायु नियंत्रण का उपाय है। रासायनिक अपघटन ___कागज के रासायनिक व भौतिक अपघटन में भेद करना अत्यन्त कठिन है। यह धारणा केवल बोध के लिए है कि एक निश्चित प्रकार का अपघटन, उदाहरण के लिए प्रकाश, ताप व नमी के कारण हुए अपघटन के अंतर्गत आता है। जबकि ये सभी कारक रासायनिक परिवर्तन भी करते हैं। रासायनिक अपघटन के अन्तर्गत उन कारकों को रखा गया है, जो वातावरण में उपस्थित रसायनों के कारण घटित होते हैं। (क) अम्लीयता
यह तथ्य है कि सेल्यूलोज पर अम्ल का प्रभाव होने पर कागज क्षीण व रंगहीन हो जाता है। अम्लीय गैस, धुआँ व धूल, वातावरण में ही उपस्थित रहते हैं। अम्लीय स्याही पाण्डुलिपि को हानि पहुँचाती हैं।
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श्रुतसागर
फरवरी-२०२० औद्योगिक इकाईयों से उत्पन्न सल्फर डाइऑक्साइड व मोटरगाडियों के द्वारा निकला नाइट्रोजन ऑक्साइड कागज के रासायनिक अपघटन का मुख्य कारण है । सल्फर डाइऑक्साइड ऐसे कागज को भी अपघटित कर देता है, जिसमें प्रचुर मात्रा में सेल्यूलोज उपस्थित होता है। पाण्डुलिपियों को अच्छी तरह से बंद कबाटों में रखने से वातावरण में उपस्थित गैसों से इनका अच्छी तरह से बचाव होता है। ___धूल के कण भी कागज को हानि पहुँचाते हैं। उसके तीक्ष्ण कण न केवल भौतिक हानि पहुँचाते हैं, बल्कि रासायनिक अभिक्रिया भी उत्पन्न करते हैं। वास्तव में धूल एक निष्क्रिय पदार्थ नहीं है, इसमें अम्लीय व धात्वीय आयन उपस्थित होते हैं, जो कभी-कभी क्षयकारी साबित होते हैं। धूल के कण नमी को भी आकर्षित करते हैं, जो रासायनिक व जैविक अभिक्रियाओं को बढ़ावा देती है। (ख) स्याही का प्रभाव ____ पाण्डुलिपियों में दो प्रकार की स्याही का उपयोग पाया गया है, आइरन गॉल इन्क व कार्बन इन्क । अधिकांशतः यह पाया गया है कि कागजी दस्तावेज, पाण्डुलिपियाँ व चित्र जिन्हें आइरन गॉल स्याही से लिखा गया हो, वे क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। परिणाम स्वरूप कागज का भौतिक अपघटन होता है। कागज पाण्डुलिपियों का वास्तविक अपघटन होने के उपरान्त, लेखन फफूंदग्रस्त हो जाता है व शब्दों के कोने भूरे पड जाते हैं। कई बार स्याही के कारण सटे हुए अन्य कागज भी प्रभावित हो जाते है। यह सिद्ध हो चुका है कि आइरन गॉल स्याही प्रबल अम्लीय होती है, इसका pH मान 2 से 3.7 के बीच होता है।
आइरन गॉल स्याही के निर्माण में प्रयुक्त होने वाला सबसे लोकप्रिय धात्वीय लवण फेररस सल्फेट था, इसका प्रयोग कार्बन स्याही में मिलाने के लिए भी किया जाता था। फेररस सल्फेट, गेलोटिनिक अम्ल से अभिक्रिया करके आइरन-गैलोटेनेट्स व सल्फ्यूरिक अम्ल बनाता है। बचा हुआ फेरस सल्फेट फेरिक ऑक्साइड व सल्फ्यूरिक अम्ल में परिवर्तित हो जाता है तथा सामान्यतः नहीं बिगडने वाले अधिक सेल्यूलोज वाले कागज को भी क्षतिग्रस्त कर देता है।
(क्रमशः)
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February-2020
पुस्तक समीक्षा
रामप्रकाश झा
पुस्तक नाम : आवश्यकनियुक्ति श्रीतिलकाचार्य लघुवृत्ति टीकाकार : तिलकाचार्य संशोधक : पुण्यकीर्तिविजयजी गणि संपादक : पुण्यकीर्तिविजयजी गणि प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन, अहमदाबाद प्रकाशन वर्ष : वि.सं. २०६३ मूल्य : १५०/पृष्ठ : भाग-१=१२+५०७, भाग-२=१८+२०५-११०० भाषा : प्राकृत+संस्कृत विषय : षडावश्यक निरूपण.
आवश्यकसूत्र की नियुक्ति के ऊपर अद्यावधि अनेक टीकाओं की रचना हुई है, जैसे- माणिक्यशेखरसूरि की दीपिका टीका, हरिभद्रसूरि की शिष्यहिता टीका, धीरसुंदर गणि की अवचूर्णि, ज्ञानसागरसूरि की अवचूर्णि तथा जिनदास महत्तर की चूर्णि आदि। परन्तु श्री तिलकाचार्य की इस लघुवृत्ति में यत्र-तत्र सुन्दर लालित्यपूर्ण दृष्टान्तकथाओं का संयोग होने से विषयवस्तु को आत्मसात् करने में अत्यन्त सरलता रहती है।
इस दृष्टि से यह वृत्ति विद्वानों हेतु अत्यन्त उपयोगी व ग्राह्य है । आवश्यकसूत्र तथा उसके ऊपर भद्रबाहुस्वामी के द्वारा प्राकृत भाषा में रचित नियुक्ति तथा अज्ञातकर्तृक भाष्य के ऊपर संयुक्त रूप से इस लघुवृत्ति की रचना की गई है।
श्रमण भगवान महावीरस्वामी ने तीर्थ की स्थापना की। ‘उपन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' इन तीन पदों के आधार पर गणधरों द्वारा द्वादशांगी की रचना की गई और स्याद्वाद की स्थापना हुई। यह स्याद्वाद मत पाँचवें आरे के अन्त तक चले, इस हेतु से गण की अनुज्ञा पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामी को दी ।
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श्रुतसागर
फरवरी-२०२० इसी परम्परा में वडगच्छ के आचार्य श्री सर्वदेवसूरीश्वरजी महाराज हुए। उनकी पाट परम्परा में आचार्य धर्मघोषसूरि के शिष्य आचार्य चक्रेश्वरसूरीश्वरजी महाराज हुए। चक्रेश्वरसूरीश्वरजी के छः शिष्य आचार्य हुए- सुमतिसिंहसूरि, बुद्धिसागरसूरि त्रिदशप्रभसूरि, तीर्थसिंहसूरि, शिवप्रभसूरि तथा कीर्त्तिप्रभसूरि । इनमें से शिवप्रभसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य श्री तिलकाचार्य ने वि. १२९६ में आवश्यकनियुक्ति के ऊपर इस लघुवृत्ति की रचना की।
श्री तिलकाचार्य ने उपर्युक्त लघुवृत्ति के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों की भी रचना की है। जैसे वि. १२६२ में प्रत्येकबुद्ध चरित्र, वि. १२७४ में जितकल्पसूत्र वृत्ति, वि. १२७७ में सम्यक्त्वप्रकरण वृत्ति, वि. १३०४ में सामाचारी, श्राद्धप्रतिक्रमण सूत्रवृत्ति, साधुप्रतिक्रमण सूत्रवृत्ति, पाक्षिकसूत्र अवचूरि, पाक्षिक क्षामणक अवचूरि, श्रावक प्रायश्चित सामाचारी, चैत्यवन्दन लघुवृत्ति तथा दशवैकालिक सूत्रवृत्ति आदि।
श्री तिलकाचार्य रचित इस टीका का सम्पादन व संशोधन श्री पुण्यकीर्तिविजयजी गणि ने किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रत श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानभंडार, पाटण से प्राप्त हुई है, जो वि. १५७० में लिखी गई है तथा पाठान्तर के लिए वि. १४९१ में लिखित एल.डी. इन्डोलोजी से प्राप्त प्रत का उपयोग किया गया है। इन प्रतों के अतिरिक्त छाणी तथा खम्भात से प्राप्त दो अन्य प्रतों का भी उपयोग किया गया है। [] में दिए गए पाठ शुद्धप्राय तो हैं, परन्तु किसी भी हस्तप्रत में प्राप्त नहीं हुए हैं, __इस प्रकार इस ग्रन्थ का अभ्यास ज्ञानावरणीय, दर्शन-मोहनीय तथा चारित्र मोहनीय कर्मों का क्षय कर सिद्धिपद की प्राप्ति में सहायक बने, यही प्रभु से प्रार्थना है तथा परम पूज्य पुण्यकीर्तिविजयजी गणि म. सा. से करबद्ध निवेदन है कि इस प्रकार की विशिष्ट कृतियों का संपादन कर साधु-साध्वीजी भगवन्त, विद्वदवर्ग तथा श्रीसंघ को उपकृत करते रहें। ___ यह ग्रन्थ प्रताकार छुटे पन्नों में मुद्रित होने के कारण परम पूज्य साधु-साध्वीजी भगवन्तों के अध्ययन-मनन हेतु अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा, विहार में ले जाने में सरलता रहेगी तथा जिस पाठ का अभ्यास चल रहा हो, उतने ही पृष्ठ विहार में साथ रख सकेंगे।
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February-2020 समाचारसार जिनशासन के महान प्रभावक, राष्ट्रसन्त श्रद्धेय गुरुदेव पूज्य आचार्य श्रीमद् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा की निश्रा में
कैयल तीर्थ देवालय का १०१वाँ ध्वजारोहण सम्पन्न पूज्य आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा की पावन निश्रा में दि.७२-२०२० शुक्रवार को कैयल तीर्थ के देवालय में १०१वाँ ध्वजारोहण सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर पूज्य आचार्यदेव श्री हेमचन्द्रसागरसूरिजी म. सा., पूज्य गणिवर्य श्री प्रशान्तसागरजी म. सा., पूज्य मुनि श्री पुनीतपद्मसागरजी म. सा., पूज्य मुनि श्री भुवनपद्मसागरजी म. सा., पूज्य मुनि श्री ज्ञानपद्मसागरजी म. सा. तथा बाल मुनि श्री पार्श्वपद्मसागरजी म. सा. उपस्थित थे।
योगनिष्ठ आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी महाराज की साम्राज्यवर्त्तिनी पूज्य साध्वीवर्या श्री कल्पगुणाश्रीजी म. सा., पूज्य साध्वी श्री कल्परत्नाश्रीजी म. सा., पूज्य साध्वी श्री हर्षनंदिताश्रीजी म. सा., साध्वीवर्या श्री नलिनयशाश्रीजी म. सा., साध्वी श्री अनंतदर्शनाश्रीजी म. सा., साध्वी श्री श्रुतयशाश्रीजी म. सा., तथा साध्वी श्री जितयशाश्रीजी म. सा. उपस्थित थीं।
दि. २-२-२०२० को परमपूज्य राष्ट्रसन्तश्री ज़ोरनंग जैन संघ में पधारे। चैत्यपरिपाटी के साथ चतुर्विध संघ का पावन पदार्पण हुआ। संघ के बुजुर्ग व प्रमुख श्री अभयभाई ने बताया की ७० वर्षों के बाद पूज्य गुरुभगवंत यहाँ पधारे हैं, यह हमारा परम सौभाग्य है।
लाभार्थी परिवार द्वारा लघुशांति स्नात्र महापूजन का आयोजन किया गया, जिसमें जीवदया के क्षेत्र में श्रद्धालुओं ने लाभ लिया तथा सन्ध्या में परमात्मा श्री चंद्रप्रभस्वामी की सभी भक्तों ने सामूहिक आरती की।
दि. ३-२-२०२० को कैयल गाँव में प. पू. राष्ट्रसन्तश्री का भव्यातिभव्य प्रवेश सम्पन्न हुआ, जिसमें जैन समाज, पाटीदार समाज तथा गाँव के अन्य ज्ञातियों के द्वारा प. पू. गुरु भगवन्त का भव्य स्वागत किया गया।
प. पू. राष्ट्रसन्तश्री जी की निश्रा में भव्य रथयात्रा का आयोजन किया गया,
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श्रुतसागर
फरवरी-२०२० जिसमें रथ, हाथी, घोड़ा, बग्गी, बैन्ड, शहनाई तथा भिन्न-भिन्न नृत्यमंडलियों के साथ इस शोभायात्रा ने सम्पूर्ण गाँव में परिभ्रमण किया। प्रातः १०:३० बजे यह शोभायात्रा धर्मसभा में परिवर्तित हो गई। उपस्थित श्रद्धालुओं ने पूज्य राष्ट्रसन्तश्री के हृदयस्पर्शी प्रवचन का लाभ लिया। प्रवचन के दौरान प. पू. राष्ट्रसन्तश्री ने श्रीसंघ की वृद्धि हो, दिनोंदिन श्रीसंघ की प्रगति हो तथा संघ के द्वारा समाज में उत्तम कार्य किए जाएँ, यह मंगल आशीर्वाद प्रदान किया।
प्रत्येक दिन अलग-अलग विशिष्ट पूजन का आयोजन किया गया, जिसमें फलों तथा नैवेद्यों के बड़े-बड़े थाल अर्पित किए गए। श्राविकाओं हेतु विशेष कार्यक्रम सांझी मेंहदी वितरण का कार्यक्रम आयोजित हुआ। रात्रि में संगीतकार श्री पियुषभाई शाह के द्वारा भक्ति-भावना का सुन्दर कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया। __प. पू. राष्ट्रसन्तश्री को कांबली वोहराई गई, जिसका लाभ श्री हेमन्तभाई आर. शाह ने लिया तथा मन्दिर की कायमी ध्वजा का लाभ श्री वाडीलाल धरमचंद शाह ने लिया।
पूज्यश्री के प्रवचन का सुंदर आयोजन हुआ, श्रोताओं ने मन्त्रमुग्ध होकर प्रवचन का लाभ लिया। प्रवचन के अंत में पज्यश्री ने विशेष रूप से साधारण क्षेत्र के लिए प्रेरणा की और सकलसंघ ने दिल खोलकर लाभ लिया। तत्पश्चात् संघ के ट्रस्टी श्री जनकभाई एल. शाह, श्री अतुलभाई एम. शाह, श्री सुनीलभाई पी. शाह तथा श्री धनालाल एन. शाह एवं चैत्यपरिपाटी के लाभार्थी परिवार द्वारा पूज्य राष्ट्रसंतश्री, आचार्य हेमचंद्रसागरसूरिजी तथा गणिवर्य प्रशांतसागरजी महाराज साहेब की जय जयकार करते हुए कांबली वोहराई गई।
श्रीसंघ की तरफ से पधारे हुए श्रद्धालुओं व अतिथियों के लिए दि. ३-२-२०२० से दि.७-२-२०२० तक नवकारशी, दोपहर की साधर्मिक भक्ति तथा शाम के चौविहार का आयोजन किया गया।
माघ शुक्लपक्ष-१३, शुक्रवार, दि. ७-२-२०२० को शौरीपुर तीर्थोद्धारक प्राचीन श्रुतसंरक्षक राष्ट्रसन्त पूज्यपाद आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के द्वारा शताब्दिवर्ष को प्राप्त कैयल जिनालय की तीर्थ के रूप में उद्घोषणा की गई।
_(अनुसंधान पृ. १५ पर)
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श्री कैयल तीर्थ में आयोजित सत्तरभेदी पूजन तथा १०श्वाँ ध्वजारोहण
कार्यक्रम
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