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श्रुतसागर
फरवरी-२०२० मुनि मोहनसागर कृत माणिभद्र छंद
गणि सुयश-सुजसचंद्रविजयजी जैन साहित्यमां देव-देवीओने केंद्रमा राखी नाना-मोटा घणा काव्यो बनावाया छे। जेमांनां केटलाक काव्यो तेमना स्वरूपनी वर्णनाना छे, तो केटलाक तेमनी साधना पद्धतिनी वर्णनाना, केटलाक वळी तेमना माहात्म्यनी कथा कहेनारा छे तो बीजा केटलाक उपरोक्त बे के लणेय वर्णनाना सायुज्यवाळा छ। पाछा आ काव्य संस्कृत, प्राकृतादि भाषाओमां तो रचाया खरा ज, पण तेथी' य विशेष ते जे-ते क्षेत्रनी प्रादेशिक बोलीमां पण रचाया। तेमां' य खास करी लघुकृतिओ रूपे, रास, चोपाई, छंद, आरती, गीतादि रुपे सविशेष रचाया छे।
अहीं प्रकाशित थयेल रचना उपरोक्त २ लक्षणोना संयोजनवाळी मरुगुर्जर भाषानी मिश्र रचना छे । कृतिना नाम प्रमाणे तो तेनी रचना तपागच्छना संरक्षक देव माणिभद्रजीनी वर्णना माटे कराई होवी जोइए परंतु तेम न करता कविए काव्यना शरुआतना १ थी ५० पद्यो सुधी तपागच्छ तथा लोंकागच्छना पारस्परिक संघर्ष स्वरूपनी विगते आलेखना करी छ । ज्यारे शेष १० पद्यो ज काव्यनी मूळ वस्तु वर्णना माटे फाळव्या छे। जो के आम करवा पाछळ- कविन प्रयोजन एकदम स्पष्ट थतुं नथी।
वळी बीजु “कृतं मोहनसागरेण” ए लेखन प्रशस्ति परथी कृतिकार द्वारा ज कृति लेखन थयु होवानी विद्वानो द्वारा थयेली अटकळ जो साची गणीये तो कृतिमां अन्य कृतिनी भेळसेळ थई होवानी शक्यता पण अस्थाने रहे छे । आम एक ज कृतिमां बंने जुदा-जुदा २ विषयो शा माटे कविए रजु कर्या हशे ते तपासनो विषय छे। जो के काव्यना संदर्भोने थोडा जुदी रीते विचारीए तो काव्यगत ते वर्णनक्रमनुं कारण थोडं स्पष्ट थाय छे एवं अमोने जणाय छ । चालो आपणे ते जोइए..
काव्योक्त तपागच्छ तथा लोंकागच्छना संघर्ष- मूळ मूळे तो मर्यादा छे मर्यादाना अपलापथी लोंकागच्छने भोगववी पडेली कदर्थनानी तथा मर्यादापालनने कारणे तपागच्छने मळेला माननी वातो विगते रजू करी कविए लोकव्यवहारमा सारभूत एवा मर्यादापालनथी थता गुणोनी तथा दोषोनी वातो पण पद्य क्रम १ थी ५० मां सुंदर रीते गुंथी लीधी छे। आज वर्णनक्रममां आगळ कवि आवा मर्यादापालक तपागच्छ
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