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ISSN 2454-3705
श्रतसागर | श्रुतसागर
SHRUTSAGAR (MONTHLY) February-2019, Volume : 05, Issue : 09, Annual Subscription Rs. 150/- Price Per copy Rs. 15/EDITOR: Hren Kishor bhat Donal
BOOK-POST/PRINTED MATTER
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अर्बुदाचलतीर्थ जिनालय का नक्सीयुक्त प्रवेशद्वार आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
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पूज्य आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा का
ॐ शिवपुरी की ओर प्रस्थान
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SHRUTSAGAR
RNI : GUJMUL/2014/66126
February-2019 ISSN 2454-3705
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र) श्रुतसागर મૃતસાગર SHRUTSAGAR (Monthly)
वर्ष-५, अंक-९, कुल अंक-५७, फरवरी-२०१९
Year-5, Issue-9, Total Issue-57, February-2019 वार्षिक सदस्यता शुल्क - रु. १५०/- * Yearly Subscription - Rs.150/अंक शुल्क - रु. १५/- * Price per copy Rs. 15/
आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. * संपादक * * सह संपादक * * संपादन सहयोगी * हिरेन किशोरभाई दोशी रामप्रकाश झा राहुल आर. त्रिवेदी
एवं
ज्ञानमंदिर परिवार १५ फरवरी, २०१९, वि. सं. २०७५, माघ शुक्ल-१०
आशा
महावीर
म
श्री
ममतं तब
शुविद्या
সুকাহক आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
(जैन व प्राच्यविद्या शोध-संस्थान एवं ग्रन्थालय)
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फैक्स : (079) 23276249, वॉट्स-एप 7575001081 Website : www.kobatirth.org Email : gyanmandir@kobatirth.org
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श्रुतसागर
फरवरी-२०१९
अनुक्रम १. संपादकीय
रामप्रकाश झा २. आध्यात्मिक पदो
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी ६ 3. Awakening
Acharya Padmasagarsuri ४. अर्बुदाचलगिरि स्तवन राहुल आर. त्रिवेदी ५. चार मंगल गीत
आर्य मेहुलप्रभसागर ६. जीवविचार सज्झाय
उपेन्द्र डी. भट्ट ७. शिवजी आचार्यना बारमास गणि सुयशचंद्रविजयजी ८. सोळमा शतकनी गुजराती भाषा मधुसूदन चिमनलाल मोदी ९. पुस्तक समीक्षा
राहुल आर. त्रिवेदी १०. समाचार
म
अनुभव चिंतामणिरतन, अनुभव है रसकूप । अनुभव मारग मोखकौ, अनुभव मोक्ष सरूप ॥
हस्तप्रत ८४५३१ भावार्थ - अनुभव चिन्तामणि रत्न के समान है, अनुभव रसों का भण्डार है, अनुभव मोक्ष का मार्ग है और अनुभव ही मोक्ष का स्वरूप है।
प्राप्तिस्थान आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर, होटल हेरीटेज़ की गली में
डॉ. प्रणव नाणावटी क्लीनीक के पास, पालडी अहमदाबाद - ३८०००७, फोन नं. (०७९) २६५८२३५५
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SHRUTSAGAR
February-2019 संपादकीय
रामप्रकाश झा श्रुतसागर का यह नवीन अंक आपके करकमलों में समर्पित करते हए हमें अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है।
प्रस्तुत अंक में गुरुवाणी शीर्षक के अन्तर्गत योगनिष्ठ आचार्यदेव श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा. की कृति “आध्यात्मिक पदो” का अन्तिम भाग गाथा १०५ से १०९ तक प्रकाशित की जा रही है। इस कृति के माध्यम से साधारण जीवों को आध्यात्मिक उपदेश देते हुए अहिंसा, सत्यपालन, आहारादि से संबंधित प्रतिबोध कराने का प्रयत्न किया गया है। द्वितीय लेख राष्ट्रसंत आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के प्रवचनों की पुस्तक 'Awakening' से क्रमबद्ध श्रेणी के अंतर्गत संकलित किया गया है, जिसके अन्तर्गत जीवनोपयोगी प्रसंगों का विवेचन किया गया है। ___अप्रकाशित कृति प्रकाशन के क्रम में सर्वप्रथम पंडित श्री राहुल आर. त्रिवेदी के द्वारा सम्पादित कृति “अर्बुदाचलगिरि स्तवन" प्रकाशित की जा रही है। श्री सिंहकुशल मुनि ने कुल १८ गाथाओं की इस लघु कृति में आबुतीर्थ का ऐतिहासिक महत्त्व तथा उसके प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन किया है। द्वितीय कृति के रूप में आर्य श्री मेहुलप्रभसागरजी के द्वारा सम्पादित “चार मंगल गीत" प्रकाशित किया जा रहा है। पाठक रत्ननिधान ने कुल २६ गाथाओं की इस कृति के माध्यम से यह स्पष्ट किया है कि अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवली प्ररूपित धर्म ही इस लोक में मंगल स्वरूप हैं। तृतीय कृति के रूप में पंडित श्री उपेन्द्र भट्ट के द्वारा सम्पादित “जीवविचार सज्झाय" प्रकाशित किया जा रहा है। इसके कर्ता श्री पद्मविजयजी गणि ने इस कृति के माध्यम से जीवों के प्रकार से सम्बन्धित स्थूल भेदों का वर्णन किया है। जिसे एक चार्ट के माध्यम से स्पष्टरूप से समझाया गया है। चतुर्थ कृति के रूप में श्री सुयशचन्द्रविजयजी गणि के द्वारा सम्पादित “शिवजी आचार्यना बारमास” प्रकाशित किया जा रहा है। इसके कर्ता श्री धर्मसिंहजी ने इस कृति में शिवजी आचार्य तथा उनकी माता तेजलदे के बीच हुई वार्तालाप के माध्यम से बारह महीनों का वर्णन करते हुए भौतिक सुख तथा आभ्यंतर समृद्धि का तुलनात्मक वर्णन किया गया है। पुस्तक समीक्षा के अन्तर्गत श्री सर्वोदयसागरजी तथा श्री उदयरत्नसागरजी म. सा. के द्वारा सम्पादित “अचलगच्छीय ऐतिहासिक रास संग्रह" की समीक्षा प्रस्तुत की जा रही है।
पुनःप्रकाशन श्रेणी के अन्तर्गत बुद्धिप्रकाश, पुस्तक ८२ के प्रथम अंक में प्रकाशित “सोलमा शतकनी गुजराती भाषा” नामक लेख का गतांक से आगे का व अन्तिम भाग प्रकाशित किया जा रहा है। इस लेख के माध्यम से सोलहवीं सदी की रचनाओं में प्रचलित गुजराती भाषा के स्वरूप तथा उच्चारणभेद का वर्णन किया गया है।
हम यह आशा करते हैं कि इस अंक में संकलित सामग्रियों के द्वारा हमारे वाचक अवश्य लाभान्वित होंगे व अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से हमें अवगत कराने की कृपा करेंगे।
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श्रुतसागर
फरवरी-२०१९ आध्यात्मिक पदो
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी (गतांक से आगे)
(हरिगीत छंद) जे आत्मभोगी महाजनो, वेदो खरा ते नवनवा, ते वेदनी छे मूर्तियो निरवद्य भावे मानवा; प्रामाण्यनीतिधारकोने वेद विद्या आवडी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी.
105 निक्षेप साते नयवडे उपदेश तत्त्वोनो थतो, निरपेक्ष जूठा वादनो संहार वेगे थइ जतो; ते वेद वाणी नवनवी उपजे उपजशे जय करी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी.
106 जगमां अनन्ती दृष्टियो, सापेक्ष नयथी जे कहे, सापेक्षथी निश्चय करी माध्यस्थ्यवृत्तिए वहे; ते ज्ञानी सघळा वेदनो मांगल्य मूर्ति जग वडी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. आत्मा अनादि काळथी, सृष्टि अनादि काळथी, इश्वर अने कर्मो अनादि काळथी समजण कथी; षट्स्थान ज्ञानी अनुभवे ते वेद विद्या मन ठरी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी.
108 सर्वोन्नति शुभ जातिनी ते वेद छ ज प्रवृत्तिथी, सहु कालमां ए मान्यता, जोशो अनुभव सहु मथी; विद्यापुरे सापेक्ष दृष्टिए भली रचना करी, शुभ बुद्धिसागरसूरिए मांगल्य मालाओ वरी.
109 सं. १९७२ भाद्रपद शुकल १ॐ शान्तिः ३
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February-2019
Awakening
(from past issue...)
Acharya Padmasagarsuri
A scholar has said: जहा पउमं जले जायं नोवलिप्पइ वारिणा।
Jaha paumam jale jayam novalippyi varina.
Just as a lotus born in water remains untouched by water, the enlightened man though born in this world remains untouched by the worldly life. He will not take interest in the transitory, sensual and physical pleasures and joys. He knows that man is a traveller not a dweller in this world. It may be possible to acquire material wealth in life. But all that will vanish one day. When a man dies even his wife who lived closest to him day and night while he was alive, would not like to sit near the dead body. The body too does not accompany the Jiva. When that is so how can wealth remain with man?
Life is like a fleeting dream. A dream lasts a few minutes; and human life may last sixty or eighty years or at the most one may live upto the age of one hundred or one hundred and twenty five years. That is the maximum limit. The wise man is he who can use as much of this illusory life as possible for a noble purpose. Lord Mahavir said: समयं गोयम! मा पमायये Samayam goyam ma pamayaye (Oh, Gautam! do not be indifferent even for a moment)
An enlightened man is a seer and a revealer. Our duty is to walk upon the path shown by him. We cannot cross the ocean of life by any other method.
God is not capable of taking human beings out of the ocean of life. He can only show the way to salvation. Whoever goes
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फरवरी-२०१९
श्रुतसागर
on that path crosses the ocean of life. A philosopher has said, "If there is any good action to be done, it should be done today and now. If there is any wicked action contemplated, it is better to wait till tomorrow".
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A similar thing has been said by another philosopher, "The action which we think can be done at any time will never be done. What is done now is really done.”
Some people say: “Dharma can be performed at any time. Where does it run away? We will carry it out in our old age". This is nothing but a wild goose-chase. This is nothing but chasing a mirage. There is no fixed time for doing Dharma. Our entire life should be replete with Dharma because we do not know when death overtakes us. How can we say when death overtakes us?
गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ।
Grihita iva keseshu mrutyuna dharmamacharet.
(Thinking that Death is always holding us by the hair we should carry out Dharma)
We may postpone the task of carrying out our Dharma to our old age but what will happen if death overtakes us in our youth. Even if we live long and reach old age what amount of dharma can we do then? What will be its value? Thinking of this point, a philosopher has said:
नवे वयसि यः शान्तः स शान्त इति मे मतिः । धातुषु क्षीयमाणेषु शान्तिः कस्य न जायते ॥
Navevayasi yah shantah Sa shanta iti me matih! Dhatushu kshiyamaneshu Shantih kasya na jayate!
(Only he who is peaceful and noble in his youth is really noble and peaceful. This is my opinion, because who will not be peaceful and noble in his old age when all his senses have grown weak and powerless?).
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(Continue...)
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February-2019 श्री सिंहकुशल मुनि कृत अर्बुदाचलगिरि स्तवन
राहुल आर. त्रिवेदी विश्व के प्रत्येक धर्म में तीर्थस्थानों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। जैन धर्म में तीर्थंकर भगवन्तों के च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान एवं मोक्ष इन पाँचों कल्याणकों से पावन स्थान तथा प्रभु के समवसरण स्थल, प्रभु की विहार भूमि, प्रभु के चातुर्मास स्थल एवं उनके जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं से संबंधित स्थल, मुनि भगवन्तों का साधनास्थल, व निर्वाण भूमि, किसी जिन प्रतिमा के विशिष्ट चमत्कारों के कारण प्रसिद्ध स्थान, विशिष्ट कलात्मक मंदिर व स्मारक ये सभी जैन परंपरा के पावन-पूजनीय स्थावर तीर्थ माने गए हैं। इन स्थानों की यात्रा कर मानव अपना जन्म सफल बनाता है। अतः शास्त्र में तीर्थमहिमा के लिए कहा है कि
अन्यस्थाने कृतं पापं तीर्थस्थाने विनश्यति । तीर्थस्थाने कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ॥
अन्य स्थानों पर किए गए पाप तीर्थ स्थानों की यात्रा करने और वहाँ आराधना करने से नष्ट हो जाते हैं। अतः तीर्थ स्थानों में मर्यादा का संपूर्ण पालन करना चाहिए। तीर्थयात्रा करने जाते हों, तब हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हम तीर्थ स्थान में आए हैं। यहाँ पर हम संसार-सागर से पार उतरने के लिए आए हैं, डूबने के लिए नहीं। यहाँ कर्म तोड़ने के लिए आए हैं, कर्म बांधने के लिए नहीं। अतः तीर्थ स्थानों पर अंतःकरण में शुद्ध भाव रखने चाहिए। आत्मा को पवित्र भावों से भावित करने वाले विश्व में कई तीर्थक्षेत्र हैं, उनमें से यहाँ एक तीर्थ श्रीअर्बुदाचलजी की बात करने जा रहे हैं। तीर्थ की महिमा व इतिहास से प्रायः सभी परिचित हैं। इस तीर्थ के विषय में अद्यपर्यन्त संस्कृत प्राकृत व देशी भाषा में गद्य व पद्यात्मक कृतियाँ प्राप्त होती हैं। उनमें से यहाँ प्रायः अप्रकाशित एक कृति मुनि श्री सिंहकुशल के द्वारा रचित अर्बुदाचलगिरितीर्थ स्तवन प्रकाशित की जा रही है। कृति परिचय -
कृति की भाषा मारुगुर्जर है। पद्यबद्ध इस कृति में १८ गाथाएँ हैं। कर्ता ने प्रथम गाथा में अर्बुदगिरि पर शोभायमान ऋषभजिणंद को नमस्कार किया है। कर्ता
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फरवरी-२०१९ ने प्रसिद्ध मुख्य पाँच तीर्थों का उल्लेख करते हुए शढुंजय, गिरनार, सम्मेतशिखर, अष्टापद व आबु का नाम स्मरण किया है। उसमें विमलवसही एवं लुणावसही के प्रति विशेष भक्ति प्रदर्शित की गई है। संवत् १८०५ चैत्र कृष्णपक्ष दशमी के दिन तपगच्छाधिपति श्रीविजयधर्मसूरि म.सा. तथा गीतार्थप्रवर वाचक श्री हितविजयजी म.सा. आदि गुरु भगवंतों के पावन सान्निध्य में सीरोही से आबुतीर्थ का संघ निकाला गया था। इसका वर्णन इस कृति में पाया जाता है। यात्रा के दौरान आए विषम घाट, पत्थर, कंटक, कंकर भरी सडकों के वर्णन के साथ प्राकृतिक सौंदर्य का भी वर्णन पाया जाता है।
जंबूं कदंबक करमदा बहुं चंपक वन सहकार जी।
मालती केतकी मोगरा नित भ्रमर करें गूंजार जी॥ इस प्रकार की शब्द संरचनाएँ, निर्झर, नदियों एवं वातावरण को खुशनुमा बनाने वाली शीतल हवाओं आदि का वर्णन कृति की सुंदरता में अभिवृद्धि करता हैं। कर्ता परिचय -
प्रस्तुत कृति के कर्त्ता तपागच्छीय विद्वान श्री सिंहकुशल मुनि हैं। उनके गुरु मुनि सुबुद्धिविजय और दादा गुरु धनकुशल मुनि हैं तथा उनके गुरु आचार्य श्री विजयक्षमासूरि हैं। कर्त्ता का समय कृति के आधार पर वि.१८०५ माना जा सकता है। आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा में संग्रहित सूचनाओं के आधार पर कर्त्ता की अन्य तीन कृतियाँ प्राप्त होती हैं, जिनमें आदिजिन स्तवन, महावीरजिन स्तवन एवं मुनिसुव्रतजिन स्तवन का समावेश होता है। कर्ता की अन्य कृतियों तथा शिष्यपरंपरादि के बारे में विशेष जानकारी अनुपलब्ध है। प्रत परिचय - __ प्रस्तुत कृति का संपादन आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, हस्तप्रत ग्रंथागार की प्रति क्रमांक-३००७० के आधार पर किया गया है। जिसका लेखन संवत् वि.१८११ है व इसके प्रतिलेखक पं. श्री वसंतविजयजी हैं। प्रत में कुल २ पत्र हैं, यह कृति १आ से आ पर है। प्रत के प्रत्येक पत्र में पंक्तिसंख्या १० से ११ एवं प्रतिपंक्ति अक्षरसंख्या ३३ है। अक्षर सामान्य अस्पष्ट है। यह प्रति कृति रचना के समीपवर्ती काल में लिखी गई है।
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February-2019 अर्बुदाचलगिरिस्तवन ॥O॥ अरबुद सीखर सोहामणो जिहां राजे श्री ऋषभजिणंद जी। त्रैलोक्य दीपक देहरो नीत सेवे सुरनर वृंद जी
अरबुद० ॥१॥ पंचतीरथ वडा जैन में सेंत्रुजैयनें गिरनार नारजी। श्रीसमेंतशिखर वली तिम अष्टापद अधिकार जी
अरबुद० ॥२॥ पंचतीरथ परगडो अरबुद शिखर उदार जी। विमल वसी लुणावसी सेव्यां सिवसुखनो दातार जी अरबुद० ॥३॥ श्रीविजयधर्मसूरि सरू चिरं तपगछनो गणधार जी। सीरोहीपुर वंदिया गुर गोय(म)नो अवतार जी
अरबुद० ॥४॥ हितविजय वाचक गुरु चहुं(?) गीतारथना थाट जी। मेवातल(मेवात लघु?) मरुधरा गुजरात वली मेदपाट जी अरबुद० ॥५॥ मुनीगण संघ समाजी थे परवरीया श्रीगुरुराय जी। गामाणुंगामें विहराता सीरोडीनी पाज जी
अरबुद० ॥६॥ अरबुद शिखरनी मेखला तिहां विषमा अति घणा घाट जी। खरभर कर कक्करधरा वली बहुली तरकर वाटजी
अरबुद० ॥७॥ वन झंखर कंटक तरु सहं सुगमा सुगुरु प्रशाद जी। हर्ष घणे शिखरे चढ्यो सहुं पंम्या मन उलाद जी
अरबुद० ॥८॥ जंबू कदंबक करमदा बहुं चंपक वन सहकार जी। मालती केतकी मोगरा नित भ्रमर करें गूंजार जी
अरबुद० ॥९॥ नीझर नदीयां घणा नित खलकें नरमल नीर जी। वनराजी परमल भर्या वाझें शितल सुरभी समीर जी अरबुद० ॥१०॥ संवत अढार पंचडोतरे मधु वदि दशमी भृगुवार जी। संघ सहित जिन भेटीया तिहां वरत्या जय जय कार जी अरबुद० ॥११॥ देलवाडें जिन वंदिया आदिसर विमल वीहार जी। नेमजिणंद जहारीया लुणावशी ही देखई उदार जी
अरबुद० ।।१२॥ धन्य दिवस मुझ आनो वली सफल मानव भव आज जी। विघन टल्या मंघल मील्या जांणे पांम्या त्रिभुवनराज जी अरबुद० ॥१२(१३)।।
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फरवरी-२०१९
श्रुतसागर अचगढ़े आदिनाथना चउमुख त्रिक अति सुविसाल जी। पीतल सुवरण मेलवा मण चउ देसें चउमाल जी
अरबुद० ॥१४॥ संघ भगत सहुं साचवी पडी लाभ्या श्रीठ(गुरु)राज जी। सफली यात्रा करी तिहां उतरीया काछोलीनी पाज जी अरबुद० ॥१५॥ सीरोही पउधारीया आचारीज सकल समाज जी। जंगम सुरतरु भेटतां सीधा सहुं वांछीत काज जी
अरबुद० ॥१६॥ श्रीसीरोहीना संघनी मुज महीमा वरणी न जाय जी। सह गुरुभक्ती बहुं वलीया उभी कीध सहाय जी
अरबुद० ॥१७॥ धन्नकुशल पद सेवथी वली पांमी सुबुधि पसाय जी। सिंहकुसल नित्य सुख लहे अरबुदगिरीना गुण गाय जी अरबुद० ॥१८॥ इति श्रीअर्बुदाचलगिरि स्तवनं सं.१८११ वर्षे मती माघ वदि ११ दिने ।
____पं. वसंतविजय लिखीतं ॥
क्या आप अपने ज्ञानभंडार को समृद्ध करना चाहते हैं ?
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा में आगम, प्रकीर्णक, औपदेशिक, आध्यात्मिक, प्रवचन, कथा, स्तवन-स्तुति संग्रह आदि विविध प्रकार के साहित्य प्राकृत, संस्कृत, मारुगुर्जर, गुजराती, राजस्थानी, पुरानी हिन्दी, अंग्रेज़ी आदि भाषाओं में लिखित विभिन्न प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित अतिविशाल बहुमूल्य पुस्तकों का संग्रह है, जो हमें किसी भी ज्ञानभंडार को भेंट में देना है. यदि आप अपने ज्ञानभंडार को समृद्ध करना चाहते हैं तो यथाशीघ्र संपर्क करें. पहले आने वाले आवेदन को प्राथमिकता दी जाएगी.
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पाठक रत्ननिधान विरचित
चार मंगल गीत
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February-2019
आर्य मेहुलप्रभसागर
जगत में चार मंगल हैं
१. अरिहन्त भगवान् मंगल हैं ।
३. साधु भगवंत मंगल हैं।
यहाँ मंगल से लोकोत्तर मंगल का आशय है, लौकिक मंगल एकान्त एवं आत्यंतिक नहीं होते। अतः शास्त्रों में लौकिक मंगल से पृथक् अलौकिक मंगल की प्ररूपणा है। जो कभी अमंगल नहीं होते और स्थायी शान्ति तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करते हैं ।
२. सिद्ध भगवान् मंगल हैं।
४. सर्वज्ञप्ररूपित धर्म मंगल है।
प्रस्तुत चार मंगलों में प्रथम दो मंगल आदर्शरूप हैं। अरिहंत और सिद्ध पूर्ण आत्मविशुद्धि अर्थात् सिद्धता के आदर्श होने से आदर्श मंगल है, जबकि साधु साधकता के आदर्श मंगल हैं। साधु पद में आचार्य और उपाध्याय भी समाहित हो जाते हैं। सबसे अंतिम मंगल सर्वज्ञ-प्ररूपित धर्म हैं। इसी धर्म के प्रभाव से पूर्ववर्ती अन्य पदों की प्रतिष्ठा है।
साधक को यह प्रतीति हो कि अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवली - प्ररूपित धर्म ही इस लोक में मंगल स्वरूप है ।
प्रस्तुत अद्यावधि प्रायः अप्रकाशित कृति का जैन गुर्जर कविओ में उल्लेख नहीं है। खरतरगच्छ साहित्य कोश में इन चार गीतों का क्रमांक- ५९०० से ५९०३ तक है। कर्ता परिचय -
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रचनाकार खरतरगच्छीय पाठक श्री रत्ननिधानजी महाराज हैं। आप युगप्रधान दादा गुरुदेव श्री जिनचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य हैं। वि.सं. १६४९ में युगप्रधान प्रवर के साथ आप भी लाहौर पधारे थे। वहीं फाल्गुन सुदि द्वितीया को उपाध्याय पद प्रदान किया गया था। आपका नाम अनेक प्रशस्तियों में प्राप्त होता है ।
वाचक श्री गुणविनयजी महाराज रचित कर्मचन्द्र वंशप्रबन्ध वृत्ति के अनुसार पाठक रत्ननिधानजी व्याकरण विषय के प्रकाण्ड विद्वान थे। महोपाध्याय श्री समयसुंदरजी महाराज रचित रूपकमाला चूर्णि का संशोधन भी आपने किया था।
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श्रुतसागर
फरवरी-२०१९ आपके शिष्य श्री रत्नसुंदरजी महाराज रचित स्तवनादि भी प्राप्त होते हैं। ___आपकी बीस से अधिक रचनाओं की प्रतिलिपि मेरे पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरिजी महाराज के संग्रह में है। प्रति परिचय -
प्रस्तुत प्रति की दो भिन्न प्रतिलिपियाँ राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर से महेन्द्रसिंहजी भंसाली (जोधपुर-जैसलमेर) के सहयोग से साभार प्राप्त हुई है। __ आदर्श 'अ' संज्ञक प्रति गोटका संख्या २९०६३ की पत्र संख्या २२२ की दोनों तरफ लिखित है। यह प्रति वि. सं. १६६३ के नूतनवर्ष अर्थात् कार्तिक सुदि प्रतिपदा के दिन लिखित है। प्रतिलेखक ने प्रति के अंत में स्वयं के नाम का निर्देश नहीं किया है। परंतु गोटका में लिखी गई शेष रचनाएँ अनेक खरतरगच्छीय मुनिवरों द्वारा लिखित हैं। प्रति जीर्ण है। अक्षर पुरुषार्थ से पठनीय है। यह कृति रचना के समीपवर्ति काल में लिखित है।
पाठांतर हेतु इसी प्रतिष्ठान के गोटका संख्या ३०३६७ की पत्र संख्या ३०९ आ से ३११ अ तक सुंदर अक्षरों में लिखित पत्र से लिए गए हैं।
प्रथम मंगल गीत
(राग-धन्यासिरी) O॥ पहिलउ मंगल जांणीइजी', अरिगंजण अरिहंत जगगुरु । नित परभातई पूजिइ', भयभंजण भगवंत जगगुरु
पहिलउ० ॥१॥ अमर भमर गण जेहना, सेवइ पय अरिविंद जगगुरु । छत्रत्रय सिरि सोहता, चामर ढालइ इंद जगगुरु
पहिलउ० ॥२॥ समोसरण सिंहासनइं, बइसी जिन हितकाजी जगगुरु । दियइ धरम नी देसना, बोहइ परषद बार जगगुरु
पहिलउ० ॥३॥ च्यारि तीस अतिसय भला, वचन तणा पइंतीस जगगुरु । ए अद्भुत रिधि पेखतां, पूजइ आस जगीस जगगुरु । पहिलउ० ॥४॥ भवसायर तारण तरी, न धरइ दोष अढार जगगुरु । लोक अलोक प्रकासतउ, केवलन्यान उदार जगगुरु पहिलउ० ॥५॥ १. जाणियइजी, २. पूजियइ, ३. पाय, ४. अरविंद, ५. जन, ६. हितकार, ७. परिषद, ८. अतिसइ 'अ',
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February-2019 तीरथ विमलाचल वडउ, नदीय मांहि सुरसिंधु जगगुरु । तिम देवन मइ जिन वडउ, जगजीवन जगबंधु जगगुरु पहिलउ० ॥६॥
चरण कमल जिनवर तणा, सरण करउ सहु कोइ जगगुरु । रत्ननिधान इसु कहइ, भवि भवि ज्युं सुख होइ जगगुरु पहिलउ० ॥७॥
॥ इति प्रथम मंगल गीतं ॥१॥ द्वितीय मंगल गीत
(राग-गउडी) बीजउ मंगल मनि ध्याईजइ, सिद्ध अलेष अरूपजी । अजर अमर मन वचन अगोचर, झिगमिग ज्योतिसरूपजी१४ बीजउ० ॥१॥ आठ करमना कंद निकंदी, पुहता मुगति मझारइजी। न्यान दंसण समकित सुख वीरज, पंचानंतक धारइजी बीजउ० ॥२॥ सर्व१६ जीवनइ भागि अनंतइ, जेहनउ छइ परिमाणजी। निराकार निरंजण निरुपम, गुण इगतीस- निहाणजी बीजउ० ॥३॥ सिद्ध नी अवगाहन उत्कृष्ट ९, तिन्नि सया तेत्रीसजी। धनुष त्रिभाग अछइ परिपूरण, एम कहइ जगदीसजी बीजउ० ॥४॥ अक्षय अव्यय नित अकलंकित, सिद्ध सरण करीजइजी। पाठक रत्ननिधान कहइ२१ इम, सिवसुख लील वरीजइजी२२ बीजउ० ॥५॥
॥ इति द्वितीय मंगल गीतं ॥२॥
तृतीय मंगल गीत
(राग-केदारो) समता रस भरि झीलता रे, पंच महाव्रत धार । सुमति गुपति नित साचवइ रे, न्यान तणा भंडार रे भवियां वंदं धन अणगार, ए२३ त्रीजउ मंगल सार रे, भवियां० ॥आंकणी।। पांचे इंद्री२४ वसि करी रे, वरजइ पंच प्रमाद। बारे२५ भेदे तप तपइरे, न धरइ मनि विखवाद रे
भवियां ॥२॥ ९. तीरथि, १०. नदी, ११. सरणि, १२. इस्युं, १३. अरूपीजी, १४. ज्योतिसरूपीजी, १५. दरसण, १६. सरव, १७. परमाणजी, १८. इकतीस, १९. उतकृष्टी, २०. सिद्धह, २१. कह, २२. विरीजइजी 'अ', २३. एतउ, २४. इंद्रीय, २५. बारह,
॥१॥
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फरवरी-२०१९ वसति पात्र आहार ना रे, दूषण बइतालीस। जे टालइ पालइ क्रिया रे, दिन प्रति विसूयावीसरे भवियां० ॥३॥ धरम पंथ उपदेसता रे, बोहइ भवियण वृंद। विचरइ गामागर पुरइं रे, जंगम सुरतरु कंद रे
भवियां० ॥४॥ त्रिकरण सुद्धइ समरिइ रे, जुगवर जंबुसामि । प्रभव सिज्जंभव गणधरू रे, नवनिधि हुइ जसु नामि रे भवियां० ॥५॥ थूलभद्र मुनि जगि जयउ रे, दुक्कर दुक्कर कार। जिनसासनि२८ उन्नतकरू२९ रे, वयरसामि गणधार रे भवियां० ॥६॥ जीवदया प्रतिपालता रे, परघल पुण्यनिधान । भगति धरी गुण एहना रे, पभणइ रत्ननिधान रे भवियां० ॥७॥
॥ इति तृतीय मंगल गीतं ॥३॥
चतुर्थ मंगल गीत
(राग-धन्यासिरी) धरम खरउ जिनवर तणउ, तुम्ह१ करउ चतुर चित लाई रे। अविहड संबल जीवनइ, नित ए परलोक सखाई रे
धरम० ॥१॥ भाई हो, दशे२ दृष्टांते दोहिलउ, मानव भव आलि म हारउ रे। मन मरकट जिम चंचलू, चपलाई करतउ वारउ रे
धरम० ॥२॥ निज स्वारथि५ सहूइ सगउ, पणि साथि न कोई आवइ रे। एकलडउ ए जीवडउ, गति आपकमाई जावइ२६ रे
धरम० ॥३॥ राजरिद्धि रमणी तणउ, जिउ गरव करीजइ केहा रे। राचीनइ वलि विरचितां, ए झटकि दिखाडइ छेहा रे
धरम० ॥४॥ कामभोग रस वाहिया, जिउ करमपासि आलूझइ रे। जिउं माखी खेलई खली, भाई आगलि विपति न सूझइ रे तनु धन जोवन कारिमउ, भाई जिम संध्या नो वानो रे। मूरख भोला प्राणीया, कहि कीजइ केम गुमानो रे
धरम०॥६॥ २६. विसवीस, २७. जंबूस्वामि, २८. जिणसासण, २९. उन्नतिकरु, ३०. तेहना, ३१. तुम्हि, ३२. करहु, ३३. दस, ३४. चंचलो, ३५. सवारथ, ३६. जावेइ, ३७. विरचता, ३८. वाहियउ,
धरम० ॥५॥
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१९
सुर नर रिद्धि जस फूलड़ा, सिवसुख मीठा फल जासो रे ।
धरम कलपतरु सेवीयइ, जिम सफल फलइ मन आसोरे चउथउ मंगल ध्रम सही, जिनधरम सरण छइ साचउरे । लोकमाहि उत्तम अछइ, जिनधरमि" भविक तुम्ह राचउरे श्री जिनचंद वखाणिया, मंगल४२ च्यार महंतो ४३ रे । रत्ननिधान सदा भाइ, ए थाज्यो जगि जयवंतो ४४ रे
सं. १६६३ वर्षे काती सुदि १ दिने
शहर
शौरीपुर तीर्थ
शियापुर
फताहाबीरा
कंडोल
आगरा
रुनकता
फरह
बरारी
मथुरा
चौमुहा
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॥ इति चतुर्थ मंगल गीत ॥ ४ ॥
३९. जास, ४०, आस, ४१. जिनधरम 'अ', ४२. ए मंगल, ४३. महंत, ४४. जयवंत ।
छाता
कोशी
होर्डल
मित्रल (औरंगाबाद)
पलवल
द्वंदसा (गदपीर)
वल्लभगद
राष्ट्रसंत प.पू. आचार्यश्री पद्मसागरसूरिजी म.सा. की विहार यात्रा
दिनांक
१० से २६-०२-१९
२७-०२-१९
२८-०२-१९
०१-०३-१९
०३ से ०६-०३-१९
०७-०३-१९
०८-०३-१९
०८-०३-१९ (शाम) ०९ से ११-०३-१९
कि.मी.
१७
१७
१९
१८
१७
१५
१६
८
१८
१४.५
१६
८.५
१४
१५
१४
१२
१०
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February-2019
१७-०३-१९
१८-०३-१९
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धरम० ॥७॥
१२-०३-१९
१३-०३-१९
१३-०३-१९ (शाम)
१४-०३-१९
१५ से१६-०३-१९
धरम० ॥८॥
धरम० ॥९॥
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श्री पद्मविजयजी गणि कृत जीवविचार सज्झाय
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फरवरी-२०१९
उपेन्द्र डी. भट्ट
मोक्षप्राप्ति माटेनी टिकिट या पास ते समकित छे । समकितनी प्राप्ति माटे जिनभाषित जीवादि ९ तत्त्वोनुं ज्ञान अने श्रद्धा आवश्यक छे । प्रत्येक तत्त्वने विस्तृत पणे जाणवा माटे महापुरुषोए एक - एक तत्त्व पर अनेक ग्रंथो रच्या छे, यथा ९ तत्त्वोमां सर्वप्रथम जीवतत्त्वने व्यवस्थित अने विस्तारथी जाणवा माटे जीवविचार जेवा प्रकरणनी रचना थई । तेवा ग्रंथोने पण समझवा त्यार पछीना विद्वानोए तेना पदार्थोने देशी गद्य-पद्योमां वर्णव्या । तेवी ज एक कृति एटले कविवर श्रीपद्मविजयजी रचित ‘जीवविचार सज्झाय' जेनुं अत्रे संपादन करवामां आवे छे।
जीव विचारना माध्यमे जीवोनी उत्पत्ति वगेरेनो बोध थाय छे अने ते-ते स्थाने रहेला जीवोनी विराधनाथी बचवाना प्रयासो थई शके छे। आना माध्यमे ५ दानमां शिरमोर एवा अभयदान देवामां जीव प्रवृत्त थाय छे अने अन्य जीवोने अभयदान आपी जीव स्वयं शाश्वतपणे अभय पदनो भोक्ता बनी शके छे । कृति परिचय:
प्रस्तुत कृति श्री पद्मविजयजी द्वारा विरचित मारुगुर्जर भाषामां पद्यबद्ध १३ गाथाओमां रचायेली छे। कृतिमां यत्र-तत्र प्राकृत शब्दोनो पण उपयोग थयेलो जोवा मळे छे। आ कृतिमां जीव प्रकार संबंधी स्थूल भेदोनुं संक्षिप्त वर्णन जोवा मळे छे I कर्ताए कृतिना प्रारंभे "ऋषभादिक जिनवर चउवीस चरण कमल तसनामी सीस" कहीने परमात्मा श्री ऋषभदेव आदि २४ तीर्थंकरोनुं मंगलस्मरण कर्तुं छे। त्यारबाद श्री गुरुगम आगम अनुसारी जीवविचारना भेद कह्या छे ।
कर्ता परिचय:
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श्री पद्मविजयजी महाराजथी आज कोण अजाण छे. जेमनी पूजाओ, देववंदनो, सज्झायो अने स्तवनादि ठेर-ठेर गवाय छे तेवा तपागच्छना समर्थ विद्वाननी पद्मपराग आज सर्वत्र प्रसरेली जोवा मळे छे । कवित्व जेमने परंपरामां प्राप्त थयुं हतुं । गुरु, दादागुरु आदि परंपरामां प्रायः बधा गरु भगवंतो नामांकित कविओ हता । तेमनी पूर्व परंपरा अकबर प्रतिबोधक श्री हीरविजयसूरिजी तेमना शिष्य श्रीसेनसूरिजी तत्
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SHRUTSAGAR
__February-2019 शिष्य श्रीसिंहसूरिजी तत् शिष्य श्रीसत्यविजयजी तत् शिष्य श्रीकर्पूरविजयजी तत् शिष्य श्रीखिमाविजयजी तत् शिष्य श्रीजिनविजयजी तत् शिष्य श्रीउत्तमविजयजी अने तेमना शिष्य श्रीपद्मविजयजी थया । तेमनी रचाएली स्तुति, स्तवन, सज्झाय, रास आदि १५० करता पण वधु कृतिओ मळे छे। पद्मविजयजीनी अधिकतम कृतिओ मारुगुर्जर भाषामां प्राप्त थाय छे। कविनो संक्षिप्त परिचय:
अमदावादनी शामळापोळमां रहेता गणेश नामना श्रीमाळी वणिकने त्यां भार्या झमकुथी वि.सं.१७९२ भाद्रपद शुद बीजना दिवसे पुत्रनो जन्म थयो तेनु नाम पानाचंद राखवामां आव्यु । आमनी छ वर्षनी उमर थता मातानुं अवसान थयु । वि.सं. १८०५ महा शुद पांचमने दिवसे उत्तमविजयजी पासे राजनगरमां दीक्षा लीधी नाम पद्मविजय राखवामां आव्यु । गुरु पासे शास्त्राभ्यास, सुरतमां सुविधिविजय पासे शब्दशास्त्र, काव्यालंकारादिनो अभ्यास तथा ताराचंद संघवीनी सहायथी न्यायशास्त्रनो अभ्यास कर्यो । तपागच्छना विजयधर्मसूरि भट्टारके राधनपुरमा वि.सं. १८१०मां पंडित पद आप्यु. वि.सं. १८२५मां नवसारी चोमासु करी उत्तमविजयजी गुरु साथे राजनगरमां आव्या, त्यां वि.सं. १८२७ना दिवसे उत्तमविजयजी कालधर्म पाम्या, पछी पोते वि.सं. १८३०मां साणंद चोमासु करी राजनगरमा त्रण चोमासा कर्या । त्यार पछी पाटण आवी त्यांथी प्रेमचंद लवजीए सिद्धाचलजीनो संघ काढ्यो, तेनी साथे सिद्धाचल गया। वि.सं.१८५३ राजनगर चोमासुं कर्यु, अहीं श्रीमाळी लक्ष्मीचंद शेठे सहस्रफणा पार्श्वनाथनी प्रतिष्ठा वि.सं.१८३४ महा वद पांचमने सोमवारे करावी, तेमां ४७२ जिनमूर्तिओ अने ४९ सिद्धचक्रनी प्रतिष्ठा करी। पछी राजनगरना ओसवाल हर्षचंद संघवीए सिद्धाचलनो मोटो संघ काढ्यो । वि.सं. १८५७मां सम्मेतशिखरनो जीर्णोद्धार कराव्यो । यात्रामा कविए विमलाचल (पालीताणा)नी तेर वार, गिरनारनी त्रण वार, शंखेश्वरनी एकवीस वार, गोडी प्रभुनी त्रण वार, तारंगाजीनी पाँच वार अने आबुजीनी एक वार यात्रा करी. पोताना जीवनकाळमां ५५००० जेटली नवी गाथाओ रची। पाटणमा वि.सं. १८६२ चैत्र शुद चौथ बुधवारना दिवसे कालधर्म पाम्या।
_ (जैन गूर्जर कविओ भाग-६. पृष्ठ-४७)
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फरवरी-२०१९ प्रत परिचय:
प्रस्तुत कृतिथी संबंधित प्रत आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबामां उपलब्ध छ । हस्तप्रत संख्या ५०२८२ना आधारे आ कृतिनुं संपादन करवामां आव्यु छे। आ प्रति मात्र एक पानानी छे आ प्रतनी लेखनशैलीना आधारे प्रतिलेखन वर्ष वि.सं.१९वीं अनुमानित कही शकाय। आ प्रत श्री शिवविजयजी गणिए श्रीपद्महर्ष गणि अने श्रीराजहर्ष मुनिना पठनार्थे लखी छे । आ प्रतनी लेखनशैली सुंदर, स्पष्ट अने सुवाच्य छ।
जीवविचारसज्झाय
॥१॥
॥२॥
॥३॥
॥४॥
O॥ ऋषभादिक जिनवर चउवीस, चरण कमल तस नामी सीस। बोलिसु चउदस जीव विचार, श्री गुरुगम आगम अनुसारि सुखिम बादर एगिंदीया बिति, चउरिंदी विगलिंदीया। सन्निअसन्नि पंचिंदीया, पज्जेअर चउदस भेदया नारय तिरि नरसुर गति चार, दुग चउदस तिदु जीवविचार । सन्नि असन्नि दुग-दुग गती, सन्नि पणिंदी दुग चउगती पण सुखिम थावर सवि लोइ, बादर निज निज थानिक होइ। सग पुढवी नारय सुर बार, बादर दग वणसइ सुविचार नारइ सग पूढवी सिधसिला, बादर पुढवीकायक भला। बादर तेउकाय नर लोइ, वाउ तिलोइ विगल तिरिलोइ विगलिंदी थावर नारया, तह असन्नि नपुंसक कह्या । नर तिरी तिवेयदु देव दुवेय, तदुवरि देवलोइ नरवेय कर्मबद्ध चउ प्रत्यय थाय, मिथ्या अविरति योग कषाया। पण बारस पणदस पणवीस, हेतु सतावन कहइ जगदीस हेतु सतावन नरगति होइ, आहारक दुग विण तिरि जोइ। उरलाहार वेय दुग विना, नारइ इगवन सुर बावना चिहुं गतिथी आवइ नर तीरी, तिम चिहुं गति जाइ नर तिरी। नारइ नारय सुर नवि थाय, तिम सुर सुर नारय नवि थाय
॥५॥
॥६॥
||७||
॥८॥
॥९॥
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॥१०॥
SHRUTSAGAR जुगला तेउ वाउ तमतमा, नवि तिहाथी नरगति उत्तमा। तेरइ सुर आठइ सुरलोक, तिहांथी पामइ नर तिरी लोक ते उपरि सुरलोकह चवी, ते पुण पामइ गति मानवी। ये नर चरम सरीरी होइ, पंचम गति नियमई लहइ सोइं
॥११॥ श्री गुरु हीरविजय गछधणी, विजयसेन तस पटि दिनमणी। विजयदेवगुरु तस पटधार, चिर प्रतिपु जगि जय जयकार
॥१२॥ चिहुं गति जीव विचार सज्झाय, समरतां निज मन रहि ठाइ। पदमविजय कवियण इम भणइ, जिनशासननि जाउं भावणइ
॥१३॥ इति सज्झाय समाप्तः। पंडित श्री पदमविजय गणि कृतं ॥ ग. पद्महर्ष । मु. राजहर्ष वाचनार्थं ग. शिवविजय लिखितं । योधपूर नगरे ||
श्रुतसागर के इस अंक के माध्यम से प. पू. गुरुभगवन्तों तथा अप्रकाशित कृतियों के ऊपर संशोधन, सम्पादन करनेवाले सभी विद्वानों से निवेदन है कि आप जिस अप्रकाशित कृति का संशोधन, सम्पादन कर रहे हैं अथवा किसी महत्त्वपूर्ण कृति का नवसर्जन कर रहे हैं, तो कृपया उसकी सूचना हमें भिजवाएँ, जिसे हम अपने अंक के माध्यम से अन्य विद्वानों तक पहुँचाने का प्रयत्न करेंगे, जिससे समाज को यह ज्ञात हो सके कि किस कृति का सम्पादनकार्य कौन से विद्वान कर रहे हैं? इस तरह अन्य विद्वानों के श्रम व समय की बचत होगी और उसका उपयोग वे अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियों के सम्पादन में कर सकेंगे.
निवेदक सम्पादक (श्रुतसागर)
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4.अतीर्थ सिद्ध -3.तीर्थ सिद्ध 2.अतीर्थकर सिद्ध 1.तीर्थंकर सिद्ध
5.गृहस्थ सिद्ध 6.अन्यलिंग सिद्ध 7.स्वलिंग सिद्ध 8.सीलिंग सिद्ध 9.पुलिंग सिद्ध
जीवविचार
मुक (15)
10.नपुंसक लिंग सिद्ध
-15.अनेक सिद्ध ।
--14.एक सिद्ध 13.बुद्ध बोधित सिद्ध 12.स्वयं बुद्ध सिद्ध
11.प्रत्येक बुद्ध सिद्ध
जीवविचार प्रकरण
1.जलचर(4) 1.चतुष्पद (4) 2.उरपरिसर्प (4)-2.स्थलचर(12)-तिथंच (20)
3.भजपरिसर्प (4)
3.बेचर (4)
1.भरत क्षेत्र (15)
2.महाविदेह क्षेत्र (15) 3.ऐरावत क्षेत्र (15)
1.कर्मभूमिज(45)
मनुष्य(303)
2.अकर्मभूमिज(90)
पंचेन्द्रिय (535)
1.हिमवंत (15)2.हिरण्यवंत (15)3.हरिवर्ष(15)
4.रम्यक(15) 5.देवकुरु(15)
6.उत्तरकुरु(15) 1.हिमवंत पर्वत स्थित(84) 2.शिखरी पर्वत स्थित(84)
3.अन्तर्वीपज(168)
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भेदवृक्ष
1. साधारण वनस्पतिकाय (4)
2 प्रत्येक वनस्पतिकाय (2)
-नारकी (14)
त्रस (541)
-देव (198)
1. रत्नप्रभा (2)
- 2. शर्कराप्रभा (2)
- 3. बालूकप्रभा (2)
4. धूमप्रभा (2)
5. पंकप्रभा (2)
6. तमः प्रभा (2)
1. पृथ्वीकाय (4)
2. जलकाय (4)
3. अग्निकाय (4)
4. वायुकाय (4)
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(7. तमस्तमः प्रभा (2)
ज्योतिष्क (20)
23
5. वनस्पतिकाय (6)
द्वीन्द्रिय (4)
त्रीन्द्रिय (4)
- चतुरेन्द्रिय (4)
-भवनपति देव (50) - व्यंतर (16) व्यंतर (52) वाणव्यंतर (16)
- तिर्यग्जृंभक (20)
-चर ज्योतिष्क (10) - अचर ज्योतिष्क (10)
वैमानिक (76)
-भवनपति देव (20)
- परमाधामी (30)
स्थावर (22)
1. कल्पोपपन्न (48)
2. कल्पातीत (28)
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संसारी (563)
- देवलोक वैमानिक (24) - लोकांतिक (18)
- किल्बिषक (6)
-ग्रैवेयक (18) अनुत्तर (10)
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शिवजी आचार्यना बारमास
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फरवरी-२०१९
गणि सुयशचंद्र विजय
ऋतु वर्णनने समावता अनेकानेक गद्य-पद्य वर्णनो आपणने विविध ग्रंथोमां जोवा मळे छे। ऋतुओना सापेक्षपणे मानवमनमां उद्भवती विरहनी वेदना, प्रणयनी उत्कटता, मिलननी आतुरता विगेरे विगेरे लागणीओनुं पद्य गद्य स्वरूपे प्राकृत, संस्कृत तथा गुर्जरादि भाषाओमां वर्णन गुंथेलुं आपणे त्यां जोई शकीए छीए । मेघदूत महाकाव्य, वसंतविलास फागु विगेरे रचनाओ ऋतु वर्णन साथे आंतरिक भावोनो चितार आलेखती नानी मोटी घणी रचनाओ प्रसिद्ध छे ।
उपर वर्णावायेली रचनाओनी जेम ज बारमासा काव्यने पण ऋतुवर्णन संज्ञक काव्य कहीशुं. बारेमासना प्राकृतिक वर्णनोनी साथे कथा (कृति) नायकनी साभ्यंतर लागणीओनुं चित्रण अहीं रजू कराय छे। प्रस्तुत कृतिमां माता तेजलदेना पक्षे आपणे जोई शकी के कई रीते माता तेजलदे पुत्र शिवकुमारने संसारना भौतिक सुखोनुं तथा संयमजीवनना कष्टोनुं वर्णन समजावता बारे महिनाना वर्णनने गुंथी काढे छे। तो सा पक्षे पुत्र शिवजीकुमार ते ज मासना वर्णनने कई रीते आभ्यंतर समृद्धिना उपलक्षमां आयोजी पोतानी संयम ग्रहण करवानी तलपने माता पासे रजू करे छे ते पण अहीं समजवा मळशे. कृतिने बीजी रीते संवादात्मक रचना पण कही शकाय । कविए मातापुत्रना संवादने ओछा पण रसाळ शब्दोमां अहीं गुंथी काढ्यो छे । वाचको मूळ कृतिथी ज रसास्वाद मेळवे ते माटे फक्त बीजु क्रियापदादिमां वपरायेला इकार वाला कहि, वीनवि, चैत्रमि, तपि वगेरे प्रयोगो ध्यानार्ह छे, जे वाचको ध्यानमां ले ।
प्रस्तुत कृतिनी रचना कवि धर्मसंघ(धर्मसिंघ ) जीए करी छे । कृतिमां तेमना के पूज्य आचार्य शिवजीना गच्छादि विशे कशी माहिती मळती नथी परंतु तेमने सत्ता समय तथा मळता अन्य ग्रंथादिना प्रमाणो उपरथी आचार्य शिवजी तथा धर्मसिंघजी लोंकागच्छनी परंपरामां थयेला मुनि भगवंतो छे। आचार्य शिवजीना जीवन उपर आ कृति सिवाय आचार्य शिवजी मुनि रास तथा सलोको एम बे अन्य रचनाओ जैन गुर्जर कविओमां नोंधायेली छे विशेष विगतो माटे विद्वानोने ते ग्रंथ जोवा भलामण ।
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प्रान्ते संपादनार्थे प्रस्तुत कृतिनी हस्तप्रत जेरोक्ष आपवा बद्दल श्रीनित्य-मणिजीवन-जैन ज्ञानभंडार (चाणस्मा) ना व्यवस्थापक ट्रस्टीगणनो खूब खूब आभार ।
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शिवजी आचार्यना बारमास
॥८०॥ राग-सारंग मल्हार ॥ हींडोलणानी देसी ॥
श्री जिनवर पयकमल प्रणमी, पामी सहिगुरु पसाय । श्रीशिवजी गछराज गाउं, बारमास उछाय नवि-नगरि संघवी अमरसी, तेजलदे तस नारि । तास नंदन जन-आनंदन, नामि शिवजीकुमार श्रीरतनागु(ग)रु चरण वंद्या, पाम्या मन वैराग । मातनि जई वीनवि, तव मात कहि धरी राग सुसनेहा नंदन मानो रे शिवजी कुमार (ए आंकणी)
दू
राग धरी माता कहि, सांभलि शिवजी कुमार । बार [र]स खेली करी, पछि लेज्यो संयमभार [ ढाल] चित्त प्रमोदि चैत्र मासि, खेलो बाग मझारि । मचकुंद पाडल मालती, तीहं मधुकर गुंजार सार नीर सुगंध शीतल, स्वाद त्रिविध समीर । तेणि दिन साधुनि मलीन गात्रि, अहो नसि रहेवं वीर
दूहा
संयम सूंदर प्रेमरस, नव विधि सीयल बाग । कृपा-कमल वर चैत्रमि, खेलूं जल वइराग
ढाल
वैसाख फूल्यो फूटरो’, द्रुम धर्यो भर सणगार । कोयल मधुरा स्वर करि, रस रस लीइ सहिकार केसर कस्तु(स्तू)री कपूर चंदन, धोल ललित शरीर । अंबरस धृत-खंडरसमां, तेणि दिन जमो माहरा वीर
१. हंमेश, २. सुंदर, ३. लिप्त, लेपायेल,
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February-2019
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सुसनेहा.......॥६॥
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सुसनेहा... || ९ ||
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फरवरी-२०१९
॥१०॥
श्रुतसागर
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दूहा धर्म तरुवर सत्य फल, कोयल दया सुभाष । चंदन घोल विराग रस, तेणि टाढो मास वैशाख
ढाल जेठ मासि दिन दिन तपि, तेणि तपि कोमल काय । नीरमल वासित नीर जोईइ, जोईइ सीतल छाय पर घरि गोचरी करी नि पीवां, उष्ण जल विध-सार। तुम सकोमल केम भावि, मानोजी बोल बिच्यार
॥११॥
ससनेहा... ॥१२॥
दूहा
जिनवचन सीतल तरु, जिनगुण जल सुखदाय। सोए जल पीतां झीलतां, जेठ तपइ नहीं माय
॥१३॥
ढाल
आसाढ मासि मेघ केरी, घटा घन वरसंत। वीजली झमकि वीरह चमकि, मोर मुख विकसंत
॥१४॥ पीउ पीउ शबद सूमंत पंथी, आवि घरि उलसंत । तेणि दिन नीज घरि, छोडि नंदन, कीउं परदेश चलंत ससनेहा... ॥१५॥
दूहा परदेसी संसार हि, जिनधरम हि थिर वास। वलभ-मंदिर सोइ अछि, तेणि भलो आसाढो मास
॥१६॥ ढाल श्रावण आयो रूप लाओ, झरमर वरसि मेह। पय पावडी सरि लाल लोबडि, भीजि नवली देह ससनेहा...॥१७॥ पीउ पीउ सबद जगावि चातुक, वलभ उपरि नेह, । धरा पलव जलद गजि(र्जि), मयण बंदु' वरसंत । मनरंग वधि वीर तेणि दिन, राखq थिर करी चंत ससनेहा...॥१८॥ ४. सुगंधी, ५. झबकइ-चमकवू, ६.चमक्ककइ-डंखवू, ७. आनंदित थाय. ८. पादुका, ९. बारीक ऊननी
ओढणी, १०. पालव? ११. बिंदु, 1. टिप्पणमां आ पंक्ति वधारानी हशे अथवा उपरनी लीटीनी अवेजीमां रचाई हशे.
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February-2019
॥१९॥
॥२०॥
ससनेहा...॥२१॥
दूहा थिर चित हि सीद्धांतमि, वलभ जिनसूं रंग। श्रावण मासि साधुनि, माई दिन दिन हि उछरंग
ढाल पंच रूपी भाद्रवि, वर भर्या सर जलधार। द्रुमलता ललितांकुरांकित, भूमिरंग अपार सार पजूसणपर्व आवि, पर्वमांहि परधान । आगि नंद बिसारी नींको, मि२ सांभलूं कल्प-व्याख्यान
दूहा पंच महाव्रत प्रेमसूं, धरी मन उछाय। भादवि जिनवचन सुंदर, संभलावू मोरी माय
ढाल मास आसो आवियो, घरि घरि रंग अपार । दीपमालिकापर्व आवि, आवि घरि वहुआरि१३ वहुआरि आवि माट४ भावि, हरख पामि माय। वचन नंदन मात केरुं, मानोजी इछाना राय
॥२३॥
॥२३(२४)।
ससनेहा...॥२४(२५)॥
दूहा
सुंदर संयम सुंदरी, वल्लभ लील विलास । चित्त धरुं सा वल्लभा, तेणि सुंदर आसो मास
॥२५(२६)।
ढाल
॥२६(२७)॥
कारतीक(कि) मासि कृपासागर, आवि अन्नप्रवाह। उछाह ५ पांमि मेदनी, मोहनी मनि लगाय गाय गीत रंग संदर, सरस भोजन सार। सजन पोषो मा संतोषो, हुं विनवं वारंवार
ससनेहा... ॥२७(२८)।
१२. हुं, १३. वहु, १४.माटलं, १५.उत्साह,
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श्रुतसागर
फरवरी-२०१९
दहा
॥२८(२९)।
॥२९(३०)।
सुसनेहा...॥३०(३१)॥
॥३१(३२)॥
वल्लभ श्री जिनराजनी, मधुर सकोमल भास। आतम अमृत सींचीइ, तेणि कारतिक लील विलास
ढाल मागसिर निज मात रूडी, निरखि नंद को रूप। जूं चंद दरसम कमल विकसि, त्युं रिद्धि फूल अनूप मुक्ताफल के हार सोभि, मुद्रिकासु रतन । सजन आसा पूरि साजन, मानोजी वीर वचन
दूहा सत्यवचन मुखि बोलीइ, कीजि पर उपगार । मागसिर मासि साधुनि, माइ सोभि ए सणगार
ढाल पोस मासि पोसीइं, वर कोमल नवली काय । उष्ण भोजन साक सरसां, जमो करीय पसाय उष्ण जल अंघोल मरजन ६, तेल फूल चंपेल। मुखवास घोल तंबोल कोमल, पोसीइ सरीर की वेल
दहा सरीर-वेल इउं९ सींचीइ, तप-संयमरस सार। क्रोध कषाय नीवारीइ, तेणि पोस मास सुखकार
ढाल माघ मासि मोहोल केरां, अछि सुख अपार । नील पीत सुपंचवरणी, पंभरी सुविचार संसारनां सुख देखो नंदन, हठ म करो वीर । तेणि दिन साधुनि वीहार करतां, सीतए वाहि२२ शरीर
॥३२(३३)॥
सुसनेहा...॥३३(३४)
॥३४(३५)॥
॥३५(३६)॥
सुसनेहा..॥३६(३७)।
१६. मर्दन, १७. चमेली, १८. घोळवं, १९. एम, २०. महेल, २१. पांभरी-वस्त्र विशेष, २२. व्याप्त (ठंडी लागवी),
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February-2019
॥३७(३८)।
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दूहा व्रत-मंदिर संयम-सिरि, सेज संतोषसु राग। उन मंदिरमि खेलति, सीत न लागि माघ
___ ढाल फागुण मास वसंत प्रगट्यो, रसीक के मनि रंग। फाग गावि फूंटरां, करि धरि सुंदर चंग माल५ लाल गुलाल दीलि, लिधचूयाचंद (?) । मन्न-वल्लभ मित्र सरसा, होरी हो खेलो जू नंद
दूहा ग्यान गुलालि धर्मसु, वल्लभ दरसन चंगु । फागुण संघ वसंतमि, जिनगुण गाउं सुधंग७
॥३८॥
ससनेहा...॥३९॥
॥४०(४२)।
ढाल
ए बार मास रचना भली, सांभलो शिवजी कुमार। जे रंग लागो चित्तसूं, ते नूतरि“ रे लगार
॥४१(४२)। मात अनुमति लेइ करीनि, लीधो संयम भार। संवत सोल अठासीए (१६८८), संघ सोपीउ गच्छनो भारसुसनेहा...।।४२ (४३)।। ए बारमास सहिगुरु केश, संभलि सुविचार। भणि गणि मनि प्रेमसं, संपति लहि ते सार
॥४३(४४)। श्रीसहिगुरु मुनि देवजी, मि पामी तास पसाय। बार मास गच्छनायकजीना, गाया मनि उछाह
॥४४(४५)। धर्मसंघ मुनि भणि भावि, उदिपुर मझार। श्री शिवजी गणि चिरं प्रतपो, संघ सहु जयकार सुसनेहा...॥४५(४६)। ॥ इति श्री शिवजी आचार्यना बारमास संपूर्णः॥ लेखक पाठक्योः शुभं भवतु ॥
श्रीरस्तु ॥ कल्याणमस्तु ॥छ॥
२३. शय्या, २४. ते, २५. माळा, २६.?, २७. शुद्ध अंगे ? 28. न उतरे
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फरवरी-२०१९ सोळमा शतकनीगुजराती भाषा
मधुसूदन चिमनलाल मोदी (गतांकथी आगळ...)
अउनो ओ बन्यानुं क्रियापदनुं रूप में आ लेखना प्रथम भागमां टांक्यु छे अने ए पण जोवानुं छे के अउना उनो अने ओनो प्रास पण छे । रूपबंध छंदमां अउनो विवृत
ओ उच्चार करवो पडे छे तेनो दाखलो हुं पंदरमां सैकाना शालिसूरिना विराटपर्वमांथी टांकू छुः (पत्र १ ब. पं. १३ हाथप्रत)
द्रुतविलंबित। भमरडउ मरिवा अणबीहतउ पसरि पइसइ केतकिई हतउ। कठिन कंटक कोडि कुटीरडइ पडिउ वेधि पछइ पुणि आरडइ ।। गयउ गेहि सु कीचक नीच थिउ मनि सु मार्गण मन्मथ नेमि थिउ। अरति अंगि अनंग-तणी घणी हृदय सा षुटकइ मृगलोयणी॥ टलवलइ जिम निर्जलि मांछली वलवलइ अति अंगि वली वली। झषइ लांषइ लावर आकुलउ विरहि विह्वल वांतर वाउलउ। सघण सूकडि सइरि सु सिंचीइ पवणपूरिहिं बीजण वीजई कमलने दलि साथर पारिउ मरइ कीचक सन्मथ-आफरिउ॥
ऊपरनां बधां स्वरयुग्म वाचक तपासशे तो मालम पडशे के स्वरयुग्म अइ, अउ, एक दीर्घ, बे ह्रस्व, एक ह्रस्व एम तेना विशिष्ट उच्चारने लीधे वपरातुं हतुं । सामान्य बोलाववामां विवृत ए अने ओ तरीके तेनो उच्चार थतो होइ, धीमे धीमे ते उच्चार लेखनप्रकार लखाणमां ऊतारवा प्रवृत्ति थवा लागी। ऊपरनामां कमलनेमां तो लहिया ए सं. १६०४मां अइनो ऊच्चार प्रमाणे ए लखी ज दीधो छ । आ स्वरयुग्मो लखाणने नवां जूनां साबीत करवा स्वतंत्र प्रमाण तरीके नहि पण अनुवादी प्रमाण तरीके लेखवां जोईए अने स्वतंत्र प्रमाण तरीके ते काळना भाषा-प्रयोग ज गणावा जोईए।
साथे साथे श्री. नरसिंहरावना Lectures II P. 22.नुं विधान; as ओ for अउ marks the beginning of modern Gujarati-the earlist time of
ओ being V. S. 1750 or thereabout मारी सं.१५८२नी मृगांकलेखारासनी हाथपोथीमां अउ ओ घणीवार आवे छे । सं.१५८३नी भगवद्गीतानो गुजराती टबो आ वातने टेको आपे छे। अइनो ए थवानो पण आज काळ छ; अने अर्वाचीन
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February-2019 गुजराती तरफनो संपूर्ण ढाळ अढारमाना नहि पण सत्तरमाना पूर्वार्ध पछी आवे छे। सोळमा सैकानुं गुजराती संक्रान्तिकाळ- जूनुं गुजराती छे। पंदरमा सैकाना अनुषंगी शब्दो सोळमानी पहेली वीशी पछी जवल्लेज देखा दे छे अने रहई तो गूम ज थइ जाय छे। __ भाषाशास्त्रनुं धोरण उच्चार ऊपर होवू जोइए; नहि के लेखनप्रकार ऊपर ए अर्वाचीन अने यथार्थ स्वीकृत सिद्धांत छ। आ दृष्टिथी जोइए तो श्री. नरसिंहराव Lectures ll P. 69 Thus we are safe in fixing the period of the final establishment of ए-ओ between 1700 and 1750 v. S. ए लेखन बाबतमां सिद्धांत खरो होय पण उच्चार बाबतमां तो नथी ज। जो एम ज होय तो अंग्रेजीमां स्पेन्सर, शेक्सपीअरथी ते मेसफील्ड शॉ अने वेल्स सुधीने अर्वाचीन अंग्रेजीनो युग कही शकीए नहि; कारण के शेक्सपीरनी प्रथम मुद्रित आवृत्तिनी जोडणी अने अत्यारनी जोडणीमां घणाय फेरफार मालम पडे छ । मध्य-अंग्रेजीमां भाषानां रूपोमां फेरफार छे तेथी ज तेनो युग जुदो पडे छे। गुजरातीमां सत्तरमा सैका (वि. सं.) पूर्वार्धना छेडाथी वलण अर्वाचीनता तरफ ज छे; एटले त्यारथी ज अर्वाचीन गुजरातीनो युग एम विभाग होवो जोइए। श्री. नरसिंहरावे Lectures ll P. 129.
Middle Gujarati V. S. 1650-1750 अने Modern Gujarati V. S. 1750 and after कहुं छे ते अयथार्थ छे कारणके फक्त जोडणीना धोरण पर ज ते युग जुदो पाडवामां आव्यो छे।
एक वस्तु कहेवी रही जाय छे करइन गुजरातमां करि थयुं अने काठियावाडमां करे रूप थो हवे करिमांथी करे न थई शके एटले काठियावाडी करे ए गुजराती करिने हांकी काढ्यु ए मतमंडन खोटु छे । करइनुं करि अने करेना दाखला एक ज युगमां करइनी साथे ज मले छे; अने फक्त ते लेखनशैलीना विकल्पो छे अने भाषाशास्त्रीय मतमंडन माटे प्रधानस्थान भोगवता नथी। कदाच रा. शास्त्रीए आ करइना करि अने करेना मतमंडन माटे Lectures ll. P 32 ध्यानमा राखी 'नागीचाणाना पावळीआ' वाळा लेखमां काठियावाडी असरनुं सूचन कर्यु होय एम लागे छे । ए सूचन खोटुं छे। श्री. बधेका रा. शास्त्री जेम शास्त्रीय नथी एटले तेमने माटे कांइ कहेवार्नु रहेतुं नथी।
बुद्धिप्रकाश, पुस्तक ८२, अंक १मांथी साभार
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श्रुतसागर
फरवरी-२०१९ पुस्तक समीक्षा
राहुल आर.त्रिवेदी पुस्तक नाम - अचलगच्छीय ऐतिहासिक रास संग्रह संकलन कर्ता - श्री पार्श्व (श्रीपासवीर धुल्ला “पार्श्व”) सह संपादक - श्री सर्वोदयसागरजी म.सा., श्री उदयरत्नसागरजी म.सा. प्रकाशक - अचलगच्छ जैन संघ ट्रस्ट, सुरत प्रकाशन वर्ष - आवृत्ति-- कुल पृष्ठ - २६+४+५५६=५८६ मूल्य भाषा - गुजराती
दुनिया की सभी संस्कृतियों में भारतीय संस्कृति प्राचीनतम है। इस संस्कृति की धरोहर का जतन करने में जैन साहित्य का अमूल्य योगदान रहा है। आगमकाल से लेकर वर्तमान समय तक जैन विद्वानों के द्वारा अत्यधिक मात्रा में साहित्य की रचनाएँ हुई हैं। वे साहित्य गद्य-पद्यरूप अनेक प्रकारों में पाये जाते है। उनमें प्रबंध, व्याख्यान और रास का प्रमाण अधिक रहा है। देशी कृतियों में रास' प्रकार की जैन कृतियाँ विशेषरूप से पाई जाती हैं। इस विषय में अचलगच्छीय विद्वानों का योगदान उल्लेखनीय है। अचलगच्छीय विद्वानों के द्वारा ‘रास' प्रकारबद्ध कृतियों के संग्रहरूप पुस्तक प्रकाशित हुई है, जिसका नाम “अचलगच्छीय ऐतिहासिक रास संग्रह है। इस पुस्तक के संपादक श्री पार्श्व के द्वारा पूर्व में “अचलगच्छ लेख संग्रह” नामक एक पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। पुनः उनके मन में सभी अचलगच्छीय विद्वानों के द्वारा रचित रास कृतियों को एकत्र करने की इच्छा हुई किंतु संयोगवशात् कार्य अधूरा रहा। अंततः इस कार्य को मुनि श्री सर्वोदयसागरजी म.सा. और मुनिश्री उदयरत्नसागरजी म.सा. ने सहयोग देकर सुसंपन्न किया।
पुस्तक के प्रारंभ में संकलन कर्ता ने विद्वानो के द्वारा रचित जैन ऐतिहासिक रासों से सम्बन्धित विशिष्ट साहित्य का विस्तृत परिचय तथा संकलनादि कार्य में सहयोगी विद्वानों तथा ज्ञानभंडारों का उल्लेख किया है। इस ग्रंथ को सात खंडों में अलग-अलग
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SHRUTSAGAR
February-2019 विषयों के साथ विभाजित किया गया है। प्रथम एवं द्वितीय खंड में ऐतिहासिक रासो अने पद्यो- पर्यालोचन' एवं मुख्य पाट परंपरा' पृष्ठ संख्या-१ से १३४ तक वर्णित है। तृतीय खंड में गौण परंपरा' पृष्ठ संख्या-१३४ से १४८ तक वर्णित है। चतुर्थ खंड में 'धर्मप्रेमी श्रावकोना सुकृत्यो अने सलोको' पृष्ठ संख्या-१४९ से २७८ तक दिया है। पंचम खंड में 'अचलगच्छीय गुर्वावली तथा स्तवनो' पृष्ठ संख्या-२७९ से ४०० तक वर्णित है। छठे खंड में चैत्य परिपाटी केवलनाणी अने अन्य रचनाओ पृष्ठ संख्या४०१ से ४६२ तक दिया गया है। सातवें खंड में अन्य गच्छोनी रचनाओ' इस विषय के अंतर्गत महत्त्वपूर्ण ११ परिशिष्टों में विद्वानों की रचनावली तथा पट्टावली का वर्णन पृष्ठ संख्या-४६३ से ५५५ तक किया गया है। अचलगच्छ के इतिहास आलोकित करनेवाले काव्य, स्तुति, कवित्त, वधावो, पूजा, तीर्थमाला, चैत्यपरिपाटी व बृहत् चैत्यवंदनों का समावेश किया गया हैं।
अंत में लिखा है कि-“साठ वर्षों के अथक परिश्रम के परिणामस्वरूप, १००० से अधिक लोगों के सहयोग से, ५० से अधिक ज्ञानभंडारो में से प्राप्त ४००० हस्तलिखित प्रतों के आधार पर अचलगच्छ के ९०० वर्षों के इतिहास को अमूल्य-अलौकिक ३०० से भी अधिक ऐतिहासिक कृतियों का अद्भुत संग्रह याने प्रस्तुत पुस्तक “रास संग्रह।”
इस पुस्तक की छपाई बहुत सुंदर ढंग से की गई है। आवरण भी कृति के अनुरूप बहुत ही आकर्षक बनाया गया है। ग्रंथ में विषयानुक्रमणिका के साथ अनेक प्रकार के परिशिष्टों में अन्य कई महत्त्वपूर्ण सूचनाओं को संकलित करने के कारण प्रकाशन बहूपयोगी सिद्ध होता है।
इस पुस्तक के माध्यम से अनेक महान कृतियों की प्राप्ति हुई है। संघ, विद्वद्वर्ग तथा जिज्ञासुजन इस प्रकार के उत्तम प्रकाशन से लाभान्वित होंगे। इस प्रकार विद्वद्वर्यों की सर्जनयात्रा जारी रहे ऐसी शुभेच्छा है।
अन्ततः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि प्रस्तुत प्रकाशन जैन साहित्य के जिज्ञासुओं को प्रतिबोधित करता रहेगा। इस कार्य की सादर अनुमोदना के साथ कोटिशः वंदन।
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श्रुतसागर
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फरवरी-२०१९
समाचारसार
पूज्य राष्ट्रसंत आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा का
शाजापुर, ग्वालियर व शिवपुरी नगर में भव्य प्रवेश प्रभु नेमिनाथ भगवान की कल्याणक भूमि शौरीपुर की प्रतिष्ठा हेतु जाते हुए पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्य भगवन्त श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. आदिठाणा का दि. १२-१-२०१९ शनिवार को मध्यप्रदेश के शाजापुर नगर में मंगलमय प्रवेश हुआ। मीडिया प्रभारी मंगल नाहर ने बताया कि समाज में सद्भावना, प्रेम, मैत्री और एकता का सन्देश देने के उद्देश्य से देश के कई नगरों और महानगरों का भ्रमण करते हुए आचार्यदेव आज शाजापुर पहुंचे। यहाँ नगरजनों ने जीवाजी क्लब में पूज्य आचार्यश्री का स्वागत किया। यहाँ से पूज्य आचार्यश्री ओसवालशेरी जैन उपाश्रय पहुँचे। श्री लोकेन्द्र नारेलिया, सुरेश जैन, सपन जैन, तेजमल जैन, त्रिलोकचंद जैन, पारस मांडलिक, मनोज गोलेछा, नरेश कोठारी, महेश जैन, राजू तातेड़, अजय कोठारी, आशुतोष चोपड़ा, विजय नाहर तथा मनीष जैन सहित बड़ी संख्या में जैन समाज के लोग शामिल हुए। मुम्बई से प्रारम्भ हुई यह पदयात्रा देश के कई स्थानों का भ्रमण करती हुई शनिवार को शाजापुर पहुंची।
पूज्य आचार्यश्री ने अपने शिष्यमंडल के साथ दि. १४-१-२०१९ सोमवार को मध्यप्रदेश के ग्वालियर शहर में मंगलमय प्रवेश किया। सराफा बाजार स्थित जैन श्वेताम्बर उपाश्रय भवन में परम पूज्य आचार्य भगवन्त ने अपने मधुर और हृदयस्पर्शी प्रवचन से उपस्थित जनसमुदाय को मन्त्रमुग्ध कर दिया। उन्होंने अपने प्रवचन में कहा कि धर्म की राह पर चलने के लिए इन्द्रियों के ऊपर नियन्त्रण करना जरूरी है, क्योंकि इन्द्रियाँ ही पाप के द्वार हैं। आचार्यश्री ने अपने प्रवचन में जीवन को सरल और साकार बनाने के लिए छोटे-छोटे उपायों पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि व्यक्ति को वर्तमान में जीना चाहिए। भूतकाल से दुःखी होकर या भविष्य की चिन्ता करके वर्तमान को नष्ट नहीं करना चाहिए। प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया निश्चित रूप से होती है। हमें अपनी सोच सदैव सकारात्मक रखनी चाहिए। सकारात्मक सोच ही मनुष्य को जीवन में सफल बना सकती है। इस अवसर पर पूर्वमन्त्री एवं विधायक श्रीमती यशोधरा राजे सिंधिया ने पूज्य आचार्यश्री के प्रवचनों का लाभ लिया तथा उनसे आशीर्वाद ग्रहण किया। विधायक प्रवीण पाठक, श्रीसंघ के अध्यक्ष निर्मल कोठारी, अजय नाहटा, सुशील श्रीमाल एवं पारसमल पारेख भी उपस्थित थे।
दि. ३० नवंबर २०१८ को पूज्य आचार्यश्री ने शिवपुरी में प्रवेश किया, जहाँ उनकी प्रारम्भिक शिक्षादीक्षा हुई थी, शिवपुरी के वी.टी.पी. उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में पूज्य आचार्यश्री ने अपनी बाल्यावस्था की मधुरस्मृतियों को ताजा किया। वर्ष १९४९-५० में जब पूज्य आचार्यश्री मात्र १६ वर्ष के थे, तब इस विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने हेतु आए थे, उस समय इसे गुरुकुल कहा जाता था। पूज्य आचार्यश्री ने कहा कि यहाँ उन्हें जो संस्कार मिले, उन्हीं संस्कारों की वजह से वे आध्यात्मिक मार्ग की ओर बढ़े और जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। इस दौरान कई संस्मरण सुनाए और स्वयं को पढ़ानेवाले गुरुओं का स्मरण किया। आयोजन के दौरान स्कूल के संचालक कमीटी के डॉ. नीमा जैन, प्रवीण कुमार, यसवंत जैन आदि ने गुरुपूजन किया और अन्त में श्री आर. के. जैन ने आभार प्रदर्शन किया। आयोजन के दौरान पूज्य आचार्यश्री के शिष्य पूज्य गणिवर्य प्रशान्तसागरजी म. सा., मुनि श्री भुवनपद्मसागरजी म. सा., श्री पुनीतपद्मसागरजी म. सा. तथा श्री ज्ञानपद्मसागरजी म. सा. ने छात्रों को आशीर्वाद प्रदान किए तथा पुरस्कार वितरण करवाए। यह पुरस्कार समाजसेवी श्री तेजमल सांखला ने बँटवाए।
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पूज्य आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा शिवपुरी में वी.टी.पी. उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के
अध्यापकों व छात्रों के साथ
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