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मन्दिर 3199 भगवान केसरियाजी
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ॐ श्रुतसागर | श्रुतसागर
SHRUTSAGAR (MONTHLY)
July 2018, Volume : 05, Issue : 02, Annual Subscription Rs. 150/- Price Per copy Rs. 15/EDITOR: Hiren Kishorbhai Doshi
BOOK-POST / PRINTED MATTER
ISSN 2454-3705
श्री केशरियाजी मन्दिर - ऋषभदेव
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
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प. पू. राष्ट्रसन्त आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. की निश्रा में आयोजित (शीव) सायन जैन संघ, मुंबई में श्री अभिनंदनस्वामी जिनालय की प्रतिष्ठा के ५०वें वार्षिकोत्सव की कुछ झलकें.
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आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र)
श्रुतसागर
શ્રુતસાગર
* संपादक
हिरेन किशोरभाई दोशी
SHRUTSAGAR (Monthly )
वर्ष-५, अंक-२, कुल अंक-५०, जुलाई-२०१८
Year-5, Issue-2, Total Issue-50, July-2018
वार्षिक सदस्यता शुल्क - रु.१५०/- Yearly Subscription - Rs.150/अंक शुल्क - रु. १५/-Price per copy Rs. 15/आशीर्वाद
राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. * सह संपादक
रामप्रकाश झा
एवं
ज्ञानमंदिर परिवार
१५ जुलाई, २०१८, वि. सं. २०७४, आषाढ शुक्ल ३
जैन
महावीर
आराधना
अमृतं
तु विद्या
केन्द्र,
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कोवा
ISSN 2454-3705
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* संपादन सहयोगी
राहुल आर. त्रिवेदी
प्रकाशक
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
(जैन व प्राच्यविद्या शोध-संस्थान एवं ग्रन्थालय)
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७
फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फैक्स : (079) 23276249, वॉट्स एप 7575001081 Website : www.kobatirth.org Email : gyanmandir@kobatirth.org
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अनुक्रम
1. संपादकीय
रामप्रकाश झा 2. आध्यात्मिक पदो
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी 3. Awakening
Acharya Padmasagarsuri 4. केशरीयाजी तीर्थनी एक महत्त्वपूर्ण अप्रगट कृति
सुयशचन्द्रविजयजी गणि 4. कल्याणमंदिर स्तोत्रनी पादपूर्तिओ सुयशचन्द्रविजयजी गणि 6. वडोदरा नरेशनो जैन साहित्य प्रेम मुनि श्री जिनविजयजी 7. समाचार सार
8
इक कंचन इक कामिनी, दो जग में फंदा। इनसे जो न्यारो रहे, तिनका में बंदा॥
हस्तप्रत नं. २७९२ भावार्थः- कंचन और कामिनी ये दो इस संसार के बड़े मायाजाल हैं। इन दोनों से जो अलिप्त रहते हैं, ऐसे परमयोगी का मैं सेवक हूँ।
* प्राप्तिस्थान * आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर, होटल हेरीटेज़ की गली में
डॉ. प्रणव नाणावटी क्लीनीक के पास, पालडी अहमदाबाद - ३८०००७, फोन नं. (०७९) २६५८२३५५
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संपादकीय
रामप्रकाश झा श्रुतसागर का यह नूतन अंक आपके करकमलों में समर्पित करते हुए हमें अपार प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।
इस अंक में गुरुवाणी के अन्तर्गत योगनिष्ठ आचार्यदेव श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा. की कृति “आध्यात्मिक पदो” की गाथा ३६ से ४१ तक प्रकाशित की जा रही है। इस कृति के माध्यम से साधारण जीवों को प्रतिबोध कराने का प्रयत्न किया गया है। द्वितीय लेख राष्ट्रसंत आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के प्रवचनों की पुस्तक 'Awakening' से क्रमबद्ध श्रेणी के अंतर्गत संकलित किया गया है, जिसके अन्तर्गत जीवनोपयोगी प्रसंगों का विवेचन किया गया है।
अप्रकाशित कृति के अंतर्गत इस अंक में गणिवर्य श्री सुयशचन्द्रविजयजी म.सा. के द्वारा सम्पादित दो कृतियाँ प्रकाशित की जा रही हैं, ये दोनों कृतियाँ अद्यावधि प्रायः अप्रकाशित हैं। प्रथम कृति “केशरीयाजी तीर्थमंडन श्री आदिजिन स्तवन” नामक १७ गाथाओं की लघु कृति है। इस कृति के माध्यम से कवि विनयसागरसूरिजी ने केशरियाजी तीर्थ का इतिहास व परिचय प्रस्तुत किया है। द्वितीय कृति के रूप में “कल्याणमंदिर स्तोत्रनी पादपर्तिओ" प्रकाशित की जा रही है। इसमें प्रकाशित कल्याणमन्दिर की तीनों पादपूर्तियाँ संस्कृत स्तोत्र साहित्य की विशिष्ट उपलब्धि कही जा सकती है। इनमें से प्रथम दो कृतियाँ पार्श्वनाथ प्रभु की और अजितनाथ भगवान की स्तवनारूप रचना है तथा तीसरी कृति लोंकागच्छीय ऋषि केशवजी के जीवनचरित्र पर प्रकाश डालती है। तीसरी कृति एक साम्प्रदायिक रचना होते हुए भी कवि ने इसमें किसी भी प्रकार की साम्प्रदायिक चर्चा, स्वोत्कर्ष या परनिंदा को स्थान नहीं दिया है। बल्कि स्वगुरुस्तुति का आलम्बन करते हुए गुरुतत्त्व को प्रकाशित करने का सुन्दर प्रयत्न किया है। भविष्य में भी ऐसी कृतियाँ विद्वानों की ओर से मिलती रहे, यह आशा है।
पुनःप्रकाशन श्रेणी के अन्तर्गत इस अंक में “वडोदरानरेशनो जैन साहित्यप्रेम" प्रकाशित किया जा रहा है, महाराज सयाजीराव गायकवाड के द्वारा जैन इतिहास, साहित्य, तत्त्वज्ञान आदि से सम्बन्धित संस्कृत, प्राकृत, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं में प्रकाशित ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है। इस लेख के द्वारा महाराज सयाजीराव गायकवाड का जैन साहित्य के क्षेत्र में किए गए महत्त्वपूर्ण कार्यों का परिचय प्राप्त होता है। ___आशा है, इस अंक में संकलित सामग्रियों के द्वारा हमारे वाचक अधिकाधिक लाभान्वित होंगे व अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से हमें अवगत कराने की कृपा करेंगे, जिससे अगले अंक को और भी परिष्कृत किया जा सके।
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आध्यात्मिक पदो
(हरिगीत छंद)
कारूण्य मैत्री भावना छे वेद साचा आदरो, मधुपर्कमा हिंसा कथे ते वेद श्रद्धा परिहरो; निज आत्मवत् जीवो सकल निष्पाप करणी सुख करी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी.
प्रभु नामथी पशुओ तणी हिंसा थती तरवारथी, सर्वज्ञना ए मंत्र नहि निष्पाप शास्त्रो ए नथी; सर्वज्ञ प्रभुना वदनथी कारुण्य ध्वनियो उछळी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. प्राचीन वेदोमां लख्यं साचुं सकळ नहि मानवुं, प्राचीन सहु सर्वज्ञनां वचनो नहीं मन आणवुं; प्राचीन अर्वाचीनथी साचुं ज लेवुं दिल धरी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. मुंझो न दृष्टिरागथी भूलो न भरमाया थकी, मध्यस्थ थइने पारखो साचुं मळे वेदो थकी; समभाव मनमां आदरी, जाणो परीक्षाओ करी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. आचार्य वाचक साधुओ वेदो अमारा बोलता, ते जीवता ने जागता परमात्ममर्मो खोलता; वेदो शुभंकर साध्वीओ परमार्थवृत्ति आदरी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. आत्मा अमारो वेद छे, जेमा अनन्ता गुण आत्मानुभव सहु वेद छे, पामी महन्तो सुख वर्या; अध्यात्मज्ञान ज वेद छे संसारवारिधि तरी,
भर्या,
एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी.
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी
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(क्रमशः)
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Awakening
Acharya Padmasagarsuri Bahata Pani Nirmala Bandha so ganda hoye Sadhu to ramata bhala Dag na lage koye!!
(Flowing water is pure; stagnant water is dirty; a wandering asctic is not stained).
On account of this reason, after Chaturmas is over on that day, all ascetics observing the five great principles proceed to other places.
The third reason is that it is the Jayanti (the celebration of the birth-day) of the great writer, scholar and Jain Acharya, Hemachandra Suriji who is known as Kalikala Sarvajna and who composed three crore slokas.
Hemachandracharya was born on Kartika purnima in Samvat 1145 and he undertook Deeksha in Samvat 1154; his original name was Changdeva. At the time of his undertaking Deeksha he was named Somachandra. But when he acquired Sooripada (the stage of an acharya) in 1166, he was named Hemachandracharya.
He was a genius. He became an ascetic at the age of nine and he remained austere and celibrate through out his life. With the help of his mentor, he made a deep study of the Shastras.
He was a prolific writer who wrote books on various literary subjects. He wrote valuable books such as Grammar, a Dictionary, Epic poetry and on the topics like the science of prosody; and history and achieved fame not only in Gujarat but through out India.
(Continue)
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केशरीयाजी तीर्थनी एक महत्त्वपूर्ण अप्रगट कृति
गणिवर्य श्री सुयशचन्द्रविजयजी तीर्थना इतिहास अंगे___मेवाडनी राजधानी उदयपुरथी ६५ कि.मी. दूर आवेलुं केसरियाजी तीर्थ जैनोनुं एक प्रसिद्ध तीर्थ छे, ज्यां आदिनाथ भगवाननी श्यामवर्णीय प्रतिमा बिराजमान छ। अनुश्रुति अनुसार लंकापति रावण आ प्रतिमानी पूजा करतां, परंतु लंकाना विजय बाद रामचंद्रजी ज्यारे ते प्रतिमाने पोतानी साथे लइ गया त्यारे मार्गमांज उज्जैननगरमां ते प्रतिमा स्थिर थइ जता ते ज जग्या उपर भव्य जिनालय निर्माण करी प्रतिमाने तेमां स्थापित करवामां आवी। आम वर्षो सुधी ते प्रतिमा त्यां पूजाई। कहेवाय छे के राजा श्रीपाळनो अने तेमना ७०० कोढीयाओनो कोढ रोग आ प्रतिमाना न्हवण जलथी ज दूर थयो हतो। ____ काळांतरे कोईक कारणथी ते प्रतिमा वागडदेशना वटप्रद (बडोदा) नगरमां आवी। मोगलोए अहीं आक्रमण कर्यु त्यारे पोतानो पराजय थतो जाणी नासी जता मोगलोए आ प्रतिमाने पोतानी साथे लई गाडामां पधरावी दूरना कोई जंगलमां मूकी दीधी। एक दिवस गोवाळो द्वारा ते प्रतिमानी जाण प्राप्त थता श्रीसंघे ते प्रतिमाने लावी, लेपादिथी अक्षत (अखंड) करी शुभ दिवसे महोत्सवपूर्वक जिनालयमां स्थापित करी। जे आजे पण पूजाय छे । जैनो तेमज जैनेतरो अहीं मोटी संख्यामां यात्राए आवे छे। अहींनी आदिवासी प्रजा प्रतिमानी केसरथी पूजा करता होवाथी तेने 'केसरिया आदिनाथ' के श्याम रंगना होवाथी 'काळीया बाबा'ना नामथी पूजे छ। तीर्थनी व्यवस्था अंगे__वर्षों पूर्वे सम्राट अकबरे जगद्गुरू श्रीहीरविजयसूरिजीथी प्रभावित थई तेओने केटलाक आज्ञापत्रो (फरमानो) आप्या हता। जेमांना वि. सं. १६४८ चैत्र सुद ७ (ई.स. १५९२) ना एक फरमानमां बादशाह अकबरे केसरिया आदि केटलाक तीर्थो आचार्य श्रीहीरविजयसूरिजीने अर्पण कर्यानो उल्लेख मळे छे । तो बीजा ई.सं. १६२९-३० ना फरमानमां बादशाह जहांगीरे नगरशेठ श्रीशांतिदास झवेरीने केसरिया आदि केटलाक तीर्थोनी मालिकीना हक्को आप्या नोंधायु छ।
आम आ बन्ने फरमानो परथी आ तीर्थनी मालिकी श्वेतांबर समाजनी होवार्नु प्रतीत थाय छे।
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श्रुतसागर
जुलाई-२०१८ वळी जिनालयनी प्रतिष्ठाओ अंगे पण जो विचारीए तो अहींना शिलालेखो श्वेतांबर समाज साथे गाढ संबंध धरावे छ । प्राप्त थता शिलालेखादिना उल्लेखो मुजब आ तीर्थनो जीर्णोद्धार वि. सं. १६४३ महासुद १३ना शेठ भामाशाहे करावी शिखर पर ध्वजदंड कळशनी प्रतिष्ठा करी हती। त्यारपछी वि.सं. १७३२मां विजयगच्छना आचार्य सुमतिसागरसूरिजीना शिष्य आचार्य विज(न)यसागरसूरिए तीर्थाधिपति ऋषभदेवप्रभुजीनी प्रतिष्ठा कर्यानो शिलालेख मळे छे । ते पछी पण वि.सं. १७५६मां जिनालयनी प्रदक्षिणामां ५२ जिनालयनी देरीओनी प्रतिष्ठानो उल्लेख नोंधायो छे । ___प्रतिष्ठाना संबंधमां छेल्लो शिलालेख वि.सं. १८०१ वैशाख सुद ५ नो मळे छे, जेमां आ जिनालयमां जगवल्लभ पार्श्वनाथप्रभुजीनी प्रतिष्ठा बृहद् तपागच्छना पू. सुमतिचंद्रगणिए करी तेवो उल्लेख कवि केसरकीर्ति गणिए कर्यो छे। ___महोपाध्याय विनयसागरजीनीनोंधमुजब श्रीअगरचंदजी नाहटाए केसरियाजीमां घणा एवा शिलालेखो जोया हता के जेमां प्रतिष्ठापक आचार्य तरीके विजय(मत) गच्छना आचार्य- नाम हतुं । आ मत(गच्छ) पण श्वेतांबर संघाश्रित छ । प्रस्तुत कृति अंगे
प्रस्तुत लेखमां संपादित थयेल कृति केसरियाजी आदिनाथ उपर रचायेली पद्य रचना छे। कविए काव्यना प्रारंभमां 'मां' शारदाने प्रणमी प्रभु गुण गावा माटे प्रशस्त वाणीनी प्रार्थना करी छे । माता-पिता-नगरादिना उल्लेखवाळी त्रीजी गाथा पछीनी ४ गाथाओमां कविए प्रभुना लोकोत्तर गुणोनी वर्णना करी छे, ज्यारे त्यारपछीना ७ पद्योमां प्रभुजीनी पूजाथी थता इहलौकिक लाभोनी रजुआत करी छ।
काव्यनी छेल्ली ३ गाथाओमां ऐतिहासिक कही शकाय तेवी सं. १७३३मां शेठ भोगीदासनी साथे कविए आ तीर्थनी यात्रा कर्यानी तेमज पोतानी गुरुपरंपरानी सामान्य नोंध आपी कृतिनुं समापन कर्यु छ। काव्यमां गुरुपरंपरानो उल्लेख करता कविए फक्त पोताना गुरु तरीके सुमतिसूरिजीना नामनो उल्लेख कर्यो छे । नथी त्यां तेमना गच्छनो उल्लेख के नथी उल्लेख अन्य गुरु परंपरानो । तेथी विगते तपासता अमोने कविना जीवननी केटलीक महत्त्वपूर्ण माहिती मळी छे, जे अहीं अमे वाचकोनी जाण माटे नोंधीए छीए विद्वानो ते अंगे योग्य विचारणा करे।
1. शिलालेख वांचनारनी असावधानी ने कारणे विनयसागरने बदले विजयराजसूरि’ ए वाचना दोष ___थयो छे. प्राप्त शिलालेखोमां बधे ज सुमतिसागरना शिष्य तरीके विनयसागर नाम जोवा मळे छे.
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July-2018 काव्यनी नोंध मुजब कवि विनयसूरिजी ए सुमतिसूरिना शिष्य छे। जैन परंपरानो इतिहासमां तेमज शिलालेख-ग्रंथलेखनपुष्पिका के रचनाप्रशस्ति उपरथी तेमनी परंपरा आ रीते जोडाती जणाय छे.
लोकाशाह-भूताजी-वीजाजी (विजयमत(गच्छ) ना स्थापक)-धर्मदासजीखेमसागरजी-पद्मसागरजी-गुणसागरजी-कल्याणसागरजी-सुमतिसागरजीविनयसागरजी। ___अहीं प्रश्न थशे के कृतिमां न उल्लेखायेल गच्छादिनी माहिती वगर कविने शी रीते आपणे विजयगच्छमां जोडीए छीए? तो तेनो जवाब आ प्रमाणे जाणवो। (१) कृतिमां कविना गुरु तरीके उल्लेखित सुमतिसूरिनुं नाम अन्य ग्रंथोमां तेमज
शिलालेखादि सामग्रीमां सुमतिसागरसूरि के सुमतिसूरि एवा नामे विजयगच्छनी परंपरामां विनयसूरि के विनयसागरसूरिना गुरु तरीके जोडायेलुं जोवा मळे छे. ते
ज रीते अन्य ग्रंथोमां विनयसूरिनुं नाम सुमतिसूरि साथे जोडायेलुं छे। (२) विजयगच्छनी परंपरामां थयेला कवि कल्याणसागर, कवि गुणसागर जेवा
कविओए पोताना ग्रंथनी रचनाप्रशस्तिओमां गुरुपरंपरानुं आलेखन करता क्यांक खेमसागरजीने खेमसूरि कह्या छे, तो क्यांक खेमसागरजी, तेवी ज रीते पद्मसागर, गुणसागर जेवा नामोमां पण पद्मसूरि के गुणसूरि एवा नामो लखायेला जोवा मळे छ । कदाच आवी ज तेमनी प्रणालिका रही हशे। उपरोक्त कारणथी आपणा कविए पण पोतानी कृतिमां स्पष्ट नामोल्लेख न करता सुमतिसागरसूरिने बदले सुमतिसूरि अने विनयसागरसूरिने बदले विनयसूरि कर्यु होय तेवी संभावना दृढ थाय छे। आ गच्छना अन्य विद्वानो द्वारा लखायेली ग्रंथपुष्पिकाओमां पण
आज रीते 'सागर' शब्द विहीन नामवाळी परंपरा जोवा मळे छ। (३) विजयगच्छना आचार्य सुमतिसागरसूरिना शिष्य आचार्य विनयसागरसूरिजीए
सं.१७३२मां केसरीया आदिनाथ प्रभुनी प्रतिष्ठा करी हती तेवो शिलालेख मळे छ । हवे जो आपणा कर्त्ता पोते 'विनयसूरि' एवा नामने बदले विनयसागरसूरि एवा नामथी पोताने प्रशस्तिमा ओळखावता होय तो ते क्षेत्रमा ज विचरतां तेओ प्रतिष्ठा पछीना तुरंतना वर्षमा एटले के सं. १७३३ मां अहिं फरी यात्राए पधार्या होय तेवू शक्य बने, अने ते ज प्रसंगे तेमणे आ कृतिनी रचना करी होय तेवू विचारी शकाय।
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श्रुतसागर
जुलाई-२०१८ (४) विजयगच्छना आचार्योनु विहारक्षेत्र ग्रंथोनी पुष्पिकाओ अने प्रशस्तिना आधारे
विचारीए तो तेमनी परंपराना कल्याणसागर, सुमतिसागर, विनयसागरादि
आचार्यो द्वारा सं. १७०४, १७०९, १७५२, १८२० जेवा जुदा जुदा वर्षे मेवाडना विविध जिनालयोमा प्रतिष्ठा थइ । तो बीजी बाजु आ बाजुना उदयपुर, कूकडेश्वर जेवा जुदा जुदा गामडाओमां रही कवि कल्याणसागर, कवि गुणसागर जेवा कविओए सं. १६९४ मां दान-शील-तप-भाव तरंगिणीनी, १६७६ मां वासुदेवरास जेवा अनेकविध ग्रंथोनी रचना करी, ते सिवाय रामरसायण जेवा ग्रंथोना आलेखन पण मेवाड प्रान्तमा विचरता विचरता घणा विद्वानोए कर्या । आम घणा वर्षो सुधी आ क्षेत्रमा ज्ञान-ध्यानादि माटे विजयगच्छना आचार्यो मेवाड अने आसपासना प्रदेशोमां विहारादि करता रह्या होय तेवू मानवू जोईए अने तेवा प्रसंगे तेमना चारित्रथी प्रभावित थई श्रावकोए तेमना हस्ते प्रतिष्ठा, संघ यात्रादि अनेक शुभ कार्यो कराव्या होय ते, पण बने। माटे आपणा कृतिकारश्री पण लांबा काळथी विचरता होई संघ साथे केसरियाजी गया तेवू
विचारवू अयोग्य नथी। (५) दरेक पद्य कृतिनी रचना प्रायः कोइने कोई छंदमां तेना बंधारण मुजब थती होय
छे। अहीं कविए काव्यान्तमां 'कळश' स्वरूपे काव्य- समापन क£ छ। हवे कदाच तेना स्वरूप बंधारण मुजब 'सागर' के तेना पर्यायार्थी शब्दथी कृतिनी रसाळताने ठेस पहोंचती हशे। तेथी कविने 'विनयसूरि' के 'सुमतिसूरि' एम नामोल्लेख करवो वधु योग्य लाग्यो होय तेवू कल्पी शकाय।
उपरोक्त दरेक मुद्दा पर चिंतन करता कृतिकार विनयसूरि पोते ज विनयसागरसूरि होई केसरियाजी तीर्थना प्रतिष्ठापक छे तेवू पण स्पष्ट थाय छे। प्रत परिचय -
प्रस्तुत कृति संबंधी एकमात्र प्रत आचार्य श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबामां उपलब्ध छ । प्रत क्रमांक ५८२५९ पर पाना नं. २८ थी २९ सुधी प्रस्तुत कृति आलेखायेली छे। आ प्रतमां कुल ४१ पत्रो छे। प्रारम्भ वच्चे अने अन्तना पानाओ न होवाथी प्रत अपूर्ण छ। लिपिविन्यास, लेखनकला तथा कागळ आदिना आधारे आ प्रत विक्रमनी १९मी सदीनी होय तेम लागे छ । प्रत्येक पत्रमा १७ पंक्तिओ अने प्रत्येक पंक्तिमा ३८ थी ४६ अक्षरो छ। लेखन कार्य सुंदर अने स्वच्छ अक्षरोमां करेलुं छे । प्रतमां गेरू लाल रंगथी अंकित विशेष पाठ छे। अशुद्ध पाठोने पीळा रंगथी
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July-2018 संशोधित पण करेला छ।
प्रान्ते संपादनार्थे प्रस्तुत कृतिनी हस्तप्रत नकल आपवा बदल आचार्य श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर (कोबा)ना व्यवस्थापकोनो खूब खूब आभार।
३ऋषभ...
४ऋषभ...
॥ केशरीयाजी तीर्थमंडन श्री आदिजिन स्तवन ॥ सरस वचन द्यौ सारदा जी, तवस्युं ऋषभजिणंद, विघ्रा(घ्ना)पद-भययभंजणौ जी, वंस इख्यागै चंद ऋषभ जुहारीयै जी, दरस सरस सुखकंद, मन हरखित होवै घणू जी, देखत परमामनंद २ ऋषभ... (आंकणी) वनीतापुर सुरपुर समो जी, नाभि-नरिंद सुरराज, मरूदेव्या साची सती जी, जनम्यो सुत सिरताज जगबंधव जगजीवनो जी, जगपति सिववुर-साथ, जंगम-तीरथ जगगुरू जी, जगतारण जगनाथ देवादिक सेवै सदा जी, गावै प्रभुगुणग्राम, कामकुंभ चिंतामणि जी, वंछित पूरणहार
५ ऋषभ... त्रिभुवनमै महिमा घणी जी, अतिसयवंत जिणंद, चिहुं दिसना संघ आवही जी, पूरणत्रिभुवनवं(चं)द
६ ऋषभ... अघ चूरै पूरै कामना जी, सुरतरुकंद समान, मूरख नर पंडित हूआ जी, सुमरत प्रभु-अवधांन नरपत(ति) राजसिरी लहै जी, धण हीणा धन सार, रूप हीण पांमै सही जी, कामदेव अवतार पिक-वयणी मृगलोचनी जी, कनकवरण सुकमाल, पुत्रवती भणी लहै जी, सेवै चरण त्र(त्रि)काल
९ ऋषभ... घर पुरवर थिति थोभणो जी, पुत्र महासुखकार, चरणकमल तुम्ह सेवतां जी, पांमै सुत सुकुमार
७ऋषभ...
८ऋषभ...
१० ऋषभ...
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श्रुतसागर
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सब्द रूप रस गंधनी जी, फरस सरस सुखकार, भोग लहै मनवंछिया जी, सेवत चरण उदार जनपद सहस बत्तीसना जी, अधिपति सैवै राय, षटि(ट) खंडपति पदवी तणौ जी, पामै तुम्ह पसाय
देवविमान सुहामणा जी, नाटक नाना छंद, इंद्रादिक संपत्ति लहै जी, पूजित ऋषभजिणंद सिवसुख वंछक मानवी जी, तुम्ह पद सेवै जेह, ते तूठां त्रिभुवनधणी जी, सो पांमै सिवगेह
संवत सतर तेतीसै (१७३३) समै जी, भोगीदास उछाह, जात करावी भावसुं जी, लीधो लक्ष्मी-लाह
,
सूध भावै जिन पूजीया जी, जनम सफल मुझ आज, ध (धु) लेवापुरवर धणी जी, भेट्या श्रीजिनराज कलस- ऋषभदेव प्रतीत आंणी ध्यान ध्यावै एकमना, मनोवंछित लहै कमला सुख पामै आसना, धूलेवमंडन दुरियखंडन विकट विघन आपद हरै, श्रीसुमतिसूरि पसाव लहिकै श्रीविनयसूरि इम उच्चरै
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११ ऋषभ...
१२ ऋषभ...
१३ ऋषभ...
१४ ऋषभ...
१५ ऋषभ...
१६ ऋषभ...
१७ ऋषभ...
।। इति श्रीऋषभदेवजी स्तवनं ।।
*
प्राचीन साहित्य संशोधकों से अनुरोध
श्रुतसागर के इस अंक के माध्यम से प. पू. गुरुभगवन्तों तथा अप्रकाशित कृतियों के ऊपर संशोधन, सम्पादन करनेवाले सभी विद्वानों से निवेदन है कि आप जिस अप्रकाशित कृति का संशोधन, सम्पादन कर रहे हैं अथवा किसी महत्त्वपूर्ण कृति का नवसर्जन कर रहे हैं, तो कृपया उसकी सूचना हमें भिजवाएँ, जिसे हम अपने अंक के माध्यम से अन्य विद्वानों तक पहुँचाने का प्रयत्न करेंगे, जिससे समाज को यह ज्ञात हो सके कि किस कृति का सम्पादन कार्य कौन से विद्वान कर रहे हैं? इस तरह अन्य विद्वानों के श्रम व समय की बचत होगी और उसका उपयोग वे अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियों के सम्पादन में कर सकेंगे.
निवेदक सम्पादक (श्रुतसागर)
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कल्याणमंदिर स्तोत्रनी पादपूर्तिओ
गणिवर्य श्री सुयशचन्द्रविजयजी कल्याणमंदिर स्तोत्र संस्कृतभाषा- एक महा-प्रभावशाळी स्तोत्र छे, किंवदंति अनुसार आचार्य श्रीसिद्धसेन दिवाकरसूरिजीए ज्यारे उज्जैनना महादेवमंदिरमां शिवलिंगनी समक्ष स्तवना रूपे आ स्तोत्रनी रचना करी त्यारे स्तोत्रना प्रभावथी ते शिवलिंगमांथी श्रीअवंतिपार्श्वनाथप्रभुना बिंब- प्रगटीकरण थयु । त्यारपछी तो आ स्तोत्रनो प्रभाव-प्रचार खूब खूब वध्यो। काव्यना पद्योनी रसाळता, प्रवाहकता तथा शब्दलालित्यादिथी प्रभावित थई अनेक विद्वानोए पण आ काव्य उपर ऊंडु खेडाण कर्यु । कोईए कल्याणमंदिर स्तोत्र उपर नानी-मोटी टीका बनावी, तो कोईए अवचूरि, कोईए बालावबोधनी रचना करी, तो कोईए टबार्थनी, तो वळी कोई विद्वाने आज स्तुति पद्योने केन्द्रमा राखी जैनधर्मवर स्तोत्र, विजयक्षमासूरिलेख जेवा पादपूर्ति काव्योनी रचना करी, प्रस्तुत लेखमां प्रकाशित त्रणे काव्यो पण कल्याणमंदिर स्तोत्र पर विविध विद्वानो वडे रचायेल पादपूर्ति काव्यो ज छ । माटे सौ प्रथम आपणे पादपूर्तिकाव्यनो परिचय मेळवीशुं। पादपूर्ति काव्य एटले शुं? ____पाद एटले श्लोकनुं चरण, तेनी पूर्ति एटले पूरQ-ते ज पादपूर्तिकाव्य. पादपूर्तिकाव्योमां जे काव्यनी पादपूर्ति करवानी होय तेवा श्लोकना चार चरणमांथी एकाद निश्चित चरणने शब्दथी यथावत् स्वरूपे राखी शेष त्रण चरणो विशेष पात्र के प्रसंगने उद्देशीने नवा रचाय छे, एटले के मूळ काव्य- १ चरण जूनु, ज्यारे शेष ३ चरणो नवा, आम ४ चरणोना संमिश्रणथी पद्य पूर्ण थयु । हवे ज्यारे श्लोकार्थनी दृष्टिए विचारीए छीए त्यारे जे जूनुं चरण छे ते मूळकाव्यमा उल्लेखित पात्र के प्रसंग विशेष माटे रचायु हतुं पछी ते ज चरण ज्यारे नवा पात्र के प्रसंगने उल्लेखता नवा ३ चरणोनी साथे जोडायं त्यारे ते चोथा जना चरणनो अर्थ पण ते नवा पात्र के प्रसंगना संदर्भमां खूलतो देखाय तेवा काव्यने ज कहेवाय पादपूर्ति काव्य । आपणे त्यां आवी एक के बे चरणवाला पादपूर्ति काव्य विशेष जोवा मळे छे । तेमा'य खास करी चोथा चरणनी पादपूर्तिना काव्यो वधु रचाया छ । क्वचित् प्रथम चरणनी, तो क्वचित् चारेय चरणोनी पादपूर्तिवाळी पण रचनाओ मळे छे खरी।
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___15
श्रुतसागर
जुलाई-२०१८ प्रस्तुत कृति अंगे
__ अत्रे प्रकाशित काव्यमार्नु पूर्वे अप्रकाशित प्रथम काव्य उपर छेल्ली नजरे जोता प्रभू पार्श्वनाथनी स्तवना रूपे रचायेल पादपूर्ति काव्य ज जणाय छे । परंतु सूक्ष्मद्दष्टिथी जोता संपूर्ण कृति जाणे कल्याणमंदिर स्तोत्रनी संस्कृत भाषामांजरचायेली समश्लोकी रचना जणाशे। कविए काव्यना जे ते पद्योना भावोने ते ज स्वरूपे राखी कृतिनो जाणे शब्ददेह बदल्यो होय तेवू कृति वांचता अनुभवाय छे । जो के तेटला ज शब्दोमां, ते ज छंदमेळादि जाळवी शब्दान्तर करवू ते कोई सामान्य कवि- गजु नथी। शब्दभंडोळ बहोळो होय, काव्यत्व सहज होय त्यारे ज आवी रचना संभवी शके । कृतिनुं एकंदरे सुंदर सर्जन थयु होवा छताय मूळ पद्योना भावो लाववामां कवि क्यांक उणा पण उतर्या छे तेवं बे-त्रण जग्याए देखाय छे । अहीं कृतिनो विशेष परिचय न आपता अमे थोडा शब्दनो कोश पाछळ मूक्यो छे वाचको तेनाथी ज संतोष पामशे। ____ बीजी कृति कल्याणमंदिरना प्रथम श्लोकना चारे चरणोनी पादपूर्तिवाळी रचना छ । कविए अजितनाथ प्रभुनी स्तवनाना उद्देशथी प्रस्तुत कृतिनी रचना करी छ । कृति रसाळ तो छ साथे साथे सरळ पण छे । आ कृतिनुं पुनः प्रकाशन करवानो हेतु कृतिनी शुद्ध वाचना छ।
लीजी पूर्वे अप्रकाशित कृति लोंकागच्छीय ऋषि केशवना चरित्रनुं यत्किंचित आलेखन करती कल्याण मंदिरनी पादपूर्तिमय रचना छे । कविए नवा त्रण चरणोनी रचना द्वारा ज्यारे ऋषि केशवजीना चरित्रनी वर्णनानो प्रयास कर्यो छे त्यारे मूळ कल्याणमंदिर स्तोत्रना चोथा चरणनी पादपूर्तिनो अर्थ पण ऋषि केशवजीना जीवनचरित्रना उपलक्षमां खुलतो अहीं जोई शकाय छे। जो के कवित्वनी दृष्टिए विचारीए तो तेम करवामां रचना थोडा अंशे निरस थई होय तेवू पण लागे छे। थोडा काव्योमां तो कविनेय पोतानी कल्पनाना विस्तारने आलेखवामां लांबी कडाकूट करवी पडी हशे तेवू जोई शकाय छे । कदाच तेथी ज कविए अथवा अन्य कोई विद्वाने कृतिना आशयने स्पष्ट करवाना उद्देशथी ज टबो एटले टबार्थ रच्यो होय तेवू बने । टबा वगर अमारा माटे पण कृतिने समजवी अघरी ज हती।
कविए काव्य मां फक्त ऋषि केशवजीना चारित्रनु संक्षिप्तमां आलेखन कर्यु छे तेवू नथी, ते सिवाय पण विविध पहेलिकाओ, विभिन्न उपमाओ जेवी बहुविध साहित्यिक सामग्रीथी काव्यने सुंदर पण बनाव्यु छ । ऐतिहासिक तथ्योने रजू करता
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SHRUTSAGAR
16
July-2018
कविए ऋषि केशवजीना मातापिता, वंश, गुरु परिवारादिनो तो ट्रंकमां उल्लेख कर्यो ज छे साथे पोतानी गुरुपरंपरानी नोंध आपवानुं पण कवि त्यां चूक्या नथी । अहीं श्रुतसागरमां सर्व प्रथमवार टबानुं प्रकाशन करायुं छे तेथी वाचकोना अभ्यासार्थे अमारे श्लोकोना सार (भावार्थ) आपवो जोईए पण समयमर्यादा अने स्थानलाघवने मान आपी वाचको जाते ज कृतिनो अभ्यास करे तेवी आशा छे।
टबा अंगे थोडुं -
टबो एटले टबार्थ. वि.सं. १५मी थी शरू थये साहित्यना आ प्रकारमां मूळ कृतिनुं आलेखन कर्या पछी ते लखेल छूटा पाडेला दरेक शब्दोनी उपर तेनो समानार्थी शब्द के तेनी नजीकना पर्यायार्थी शब्दनुं लेखन कराय छे। ते शब्दालेखनने ज टबो कहेवाय. अमे अहीं ते छूटा पाडेला शब्दोने क्रमांक आपी दीधो छे । ते क्रमांक मूळ श्लोकमां शब्द उपर जोई शकाशे । ज्यारे तेनो टबो श्लोकनी नीचे तेटलामां ज शब्दनंबर पर शोधी शकाशे। जो के टबाकार अहीं बधा ज शब्दोना विशेष अर्थोनुं आलेखन न करता मूळना ज शब्दोने पर्यायार्थ रूपे प्रयोजे छे।
कृतिकार - प्रथम रचना १८ मी सदीना कवि कनकविलाशनी रचना छे. तेओ उपा. सुमतिसिंघुरजीना शिष्य उपा. कनककुमारजीना शिष्य छे । कविए पोते तेमनी परंपरा वर्णवी होवा छता तेमना गच्छनी काव्यमां नोंध नथी। अनुमानथी प्रायः तेओ खरतरगच्छनी होवानी संभावना छे. ज्यारे बीजी कृति अज्ञात कर्तृक छे । कृतिनी हस्तप्रत परथी कृतिकार १७मी सदी पूर्वे थया होवा जोईए तेतुं कही शकाय । छेल्ली कृति १८मी सदीमां थयेली लोंकागच्छना कवि प्रेमजीनी रचना छे । काव्यरचना पण त्यारनी ज छे। जो के कविनी गुरूपरंपरा अहीं पण उल्लेखित थई होवाथी कविनो समय विगेरे माहिती मळी शके खरी पण अमारा विहारादिने कारणे अमे ते अंगे विशेष प्रयत्न करी शक्या नथी ।
प्रतपरिचय- कल्याणमंदिर स्तोत्रनी प्रथम पादपूर्तिनी प्रत खंभातना जैनशाळा अंतर्गत शेठ मणीलाल पीतांबरदास हस्तलिखित प्रतना संग्रहनी छे, तेनी फोटो कोपी आपवा बदल शेठ शांतिलाल मणीलालना परिवार जनोनो, प्रो. कांतिभाईनो, मनुदादा नो तेमज जैन शाळाना ट्रस्टीओनो खूब खूब आभार ।
अन्य प्रकाशित बन्ने कृतिओ श्री हेमचंद्राचार्य ज्ञानमंदिर, पाटणना हस्तलिखित प्रत संग्रहनी छे। ते बन्ने कृतिओनी हस्तप्रत फोटोकॉपी आपवा बदल
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श्रुतसागर
जुलाई-२०१८ श्री हेमचंद्राचार्य ज्ञानमंदिरना व्यवस्थापक यतिनभाई आदि ट्रस्टीओनो खूब खूब आभार।
॥१॥
॥२॥
॥३॥
श्री समस्याबद्धनिबद्धं कल्याणमन्दिराख्यं स्तोत्रम् कल्याणभाजनमघस्य विनाशहेतुं त्रस्तस्य भीतिशमकं जिनपादयुग्मम् । निम्ने भवाब्धिसलिले पततां जनानां पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य शक्तो न वाक्पतिरपि प्रथितुं गुणानां यस्यात्मना मुदितनाकिगणेष्वजस्रम् । कर्तुः सुखस्य जनताखिलपङ्कहर्तु स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये सामान्यतोऽपि जिनराज! तव स्वरूपं मादृक्कथं कथयितुं भवतीह शक्तः? । सम्यग् यथा 'करटदस्युशिशुर्दिनान्धो रूपं प्ररुपयति किं किल धर्मरश्मेः? ॥३॥ अज्ञाननाशनवसादपि देव ! 'भूस्पृक् संख्यां गुणस्य न च ते विदधातुमीशः। कल्पाद्यथोज्जितजलस्य तथा प्रसिद्धो मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः? ॥४॥ उत्कण्ठितोऽस्मि तव देव! नुतिं विधातुं मन्दोऽप्यहं प्रवरकान्तगुणालयस्य । विस्तार्य बाहुयुगलं पृथुकोऽपि किं नो विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाऽम्बुराशेः? ॥५॥ सज्ज्ञानिनामपि गुणा भुवि ये न गम्या 'स्तादृग्गुणेषु कथितुं मम काऽत्र शक्तिः? । प्रारम्भ एष न विमृश्य मया कृतो भो! जल्पन्ति वा निजगिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥ दूरे स्तुतिर्भवतु देव ! तवाऽभिधा वै सन्त्रायते भवभयादपि जीवचक्रम् । 'शुक्रार्कदीधितिकदम्बकतप्तमान्प्री णाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ स्वान्ते स्थिते भवति नश्यति कर्मजालं सम्पादितं भवभवेषु च जन्तुनैव । तूर्णं भुजङगमघटेव सुमध्यदेश मभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य त्यज्यन्त एव सहसा पुरुषा यतीन्द्र! घोरैररिष्टनिचयैस्तव दर्शनेऽपि। मार्तण्डमण्डलविकाश(शि?)वरप्रभाते चोरैरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः ॥९॥ निस्तारकः कथमधीश! जने जनानां त्वां धारयन्ति हृदि यद् भवतस्तरन्तः । "मुक्ता दृतिर्बुडति नाऽम्भसि यहि नित्य मन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ॥१०॥ 'सर्वादयोऽमरगणा हतशक्तिसारा-जाता यतोऽपि मदनो निधनीकृतः स। निर्वापितो हुतवहः सलिलेन येन पीतं न किं तदपि दुर्धरवाडवेन? ॥११॥ 1. स्तादृग्गुणान् कथयितु, 2. जन्तूनां हि १ ब्रह्मा, २ घुवड, ३ मानव, ४ बाळक, ५ जेठ मास, ६ वनमयूर, ७. नौका, ८. शंकर,विष्णु, ९. अग्नि.
॥८॥
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___18 अप्राकृतं प्रचुररम्यगुणैरिष्ठं त्वां संश्रिता जिनवरेन्द्र! कथं मनुष्याः?। जन्मोदधिं विकटमत्र तरन्ति तूर्णं चिन्त्यो न हन्त महतां यदिवा प्रभावः ॥१२॥ त्यक्तो मुदा प्रथमतो भवता हि मन्यु-निर्नाशिताः किल कथं जिन! कर्मभिल्लाः? । मथ्नाति वाऽत्र भुवने प्रबला त्वनुष्णा नीलद्रुमाणि विपिनानि न किं हिमानी? ॥१३॥ योगीश्वरा जिन ! सनाऽप्यवलोकयन्ति त्वां ब्रह्मरूपमतुलं हृदयाम्बुजेऽत्र । १ मेध्यस्य चोज्ज्वलरुचेरपरं हि किं य-दक्षस्य सम्भवि पदं ननु कर्णिकायाः? ॥१४॥ स्वामिन्! त्वदीय भजनाद् भविका लभन्ते सद्योपहाय करणं वरमुक्तिमार्गम्। त्यक्त्वा "विरोचनवशाद् दृषदः स्वभावं चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः ॥१५॥ मध्ये सनैव भविकाः परिचिन्तयन्तिः त्वां यस्य तस्य विलयं प्रकरोषि कस्मात्? । स्वामिंस्तथोचितमिदं गतपक्षपाता-यद्विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावाः ॥१६॥ विद्वद्भिरेष पुरुषः परिचिन्तितो वै विश्वप्रभो! तव धिया हि समप्रभावः। पाथोऽङ्गिनाऽमृतधिया परिपीयमानं किं नाम नो विषविकारमपाकरोति? ॥१७।। अज्ञाननाशनिपुणं हि कुतीर्थिनोऽपि त्वामाश्रिता जलशयादि विदा जिनेन्द्र! । दृग्दोषवद्भिरपि किं जिन! पाण्डुकम्बु-र्नो गृह्यते विविधवर्णविपर्ययेण? ॥१८॥ त्वद्देशनास्ववसरो जिन! सन्निकर्षा-दास्तां 'पुमान् वसुमपि प्रकरोत्यशोकम्। प्रत्युद्गते खतिलके "सकरालिकोऽपि किंवा व(वि)बोधमुपयाति न जीवलोकः? ॥१९॥ १६साध्यैः प्रभो! "सुमनसां विहिता सुवृष्टिः १“चोद्यं पुरो भवति वृन्तमधः कथं ते?। नित्यं त्वयीश! शुभभक्तिमतां नृणां वा गच्छन्ति नूनमध एव हि बन्धनानि ॥२०॥ अस्ताघगूढपथसिन्धुसमुद्भवायाः पीयूषतां प्रकथयन्ति गिरस्तव ज्ञाः। अस्या हि पानवशतः प्रमद(दा)श्रिता यद्भव्या व्रजन्ति तरसाऽप्यजरामरत्वम् ॥२१॥ गीर्वाणचामरचया जिन! खात् पतन्तो दूरात् प्रणम्य कथयन्ति जनान् तु जाने। कुर्वन्ति ये वरनतिं जिनकुञ्जराय ते नूनमूद्धंगतयः खलु सु(शु)द्धभावाः ॥२२॥ अस्ताग(घ)भाषितवरं “शितरत्नवर्ण सिंहासने स्थितमहो! भुवनेश्वर! त्वाम्। प्रीत्या हि भव्यशिखिनः सरवं पिबन्ति चामीकरादिशिरसीव नवाम्बुवाहम् ॥२३॥ स्वीयाङ्ग सम्भवशितद्युतिमण्डलेन प्रोद्गच्छताऽदलरुचिर्य भ[वन्] न्वशोकः । अभ्यर्णतोऽथ यदि वा तव नाथ! नूनं नीरागतां व्रजति को न सचेतनोऽपि? ॥२४॥ 1.जनं० (आवो पाठ संभवी शके खरो?), 2. ते स्वाङ्ग० (आवो पाठ संभवी शके खरो?) १०. अग्नि, ११. अग्नि, १२. विष्णु, १३. ज्ञानथी, बुद्धिथी, १४. वृक्ष, १५. वृक्ष सह, १६. देव, १७. पुष्प, १८. आश्चर्य, १९. हर्षयुक्त, २०. श्याम.
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श्रुतसागर
जुलाई-२०१८ सेवस्व भो! जिनवरं परिमुच्य तन्द्रा-मेत्याऽऽशु वै शिवपुरीसुखदं सदैव । वक्ति न्विदं स्फुटतरं भुवने जनाय मन्ये नदन्नभिनभः सुरदुन्दुभिस्ते ॥२५॥ विश्वेषु पूज्य! भवता सुविकाशितेषु नक्षत्रयुक्कुमुदिनीपतिरस्तकान्तिः । मुक्ताकदम्बकसमुल्लसितोद्धछत्र-व्याजात्त्रिधा धृततनुर्बुवमभ्युपेतः ॥२६॥ आत्मीयकेन सततं भृतविष्टपेन "राढाप्रतापयशसामिव मण्डलेन। २२रत्नार्जुन द्विजपतिप्रविनिर्मितेन शालत्रयेण भगवन्नभितो विभासि ॥२७।। माला जिनेन्द्र! विनमद्विबुधेश्वराणां त्यक्त्वा सुरत्नखचितान् प्रतरांश्च मौलीन्। अंहिद्वयं तव भजन्त्यथवा परस्मिन्त्वत्सङ्गमे सुमनसो न रमन्त एव ॥२८॥ जन्मोदधेरपि जिनेन्द्र! पराङ्गमुखोऽपि भव्यास्तटं नयसि यत् खलु पृष्ठसिक्तान्। युक्तं रसापघटकस्य स तस्य एत-च्चित्रं विभो! यदसि कर्मविपाकशून्यः ॥२९।। लोकेश्वरोऽपि जनतारक! चासि नि(:)स्वः किं वा प्रभो! सकरणोऽकरणोऽपि यत्त्वम् । स्वामिन्! विवर्णविदितेऽपि सनैव मक्षु ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्वविकाशहेतुः ॥३०॥ सामस्त्यपूरितवियन्ति रजांसि यानि प्रोदीरितानि कमठेन हठेन कोपात् । तैस्ते तनोरपि विभो! प्रहता न कान्ति-म्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा ॥३१।। पर्य(र्ज)न्यसम्भवविदुस्तरवारि वैरान्मुक्तं शठेन कमठेन तडित्प्रयुक्तम् । बभ्रे च यन्मिलित रौद्रघनान्धकारं तेनैव तस्य जिन ! दुस्तरवारिकृत्यम् ॥३२॥ २"विण्मौलिमालिविकृताङ्गविकीर्णकेश-भीतिप्रदाऽऽननसमुद्भवदुग्रवह्निः । भूतोत्करः प्रतिजिनं समुदीरितो यः सोस्याऽभवत् प्रतिभवं भवदुःखहेतुः ॥३३॥ मास्त एव कृतिनो भुवनाधिपेन्द्र! ये पूजयन्ति विधिना सततं त्रिसन्ध्यम् । भक्तिप्रफुल्लहृदया हसिताक्षिपद्माः पादद्वयं तव विभो! भुवि जन्मभाजः ॥३४॥ मन्ये जिनेश ! सकले भवसागरेऽस्मिन्प्राप्तोऽथ कर्णविषयं भ्रमतो न मे त्वम्। शीघ्रं श्रुतेऽपि रुचिरे तव नाममन्त्रे किं वा विपद्विषधरी सविधं समेति? ॥३५॥ पूर्वे भवेऽपि तव पादयमं न नाथ! या(जा)नेऽर्चितं जनमनोरथदानविज्ञम्। तस्माद् भवेऽत्र शतदुःखपरम्पराणां जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम् ॥३६॥ मोहान्धकारयुतदृष्टिपथेन नूनं दृष्टो मया नहि विभो! प्रथमं कदाचित् । मा माऽऽधयस्त्वतितरां खलु पीडयन्ति प्रोद्यत्प्रबन्धगतयः कथमन्यथैते? ॥३७।। २१. कांति, २२. चांदी, २३. स्वर्ण, २४. मनुष्य
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July-2018
॥३८॥
॥३९॥
दृष्टः श्रुतोऽपि च मया ननु पूजितोऽपि भक्त्या धृतो हृदि कदापि हि नैव मन्ये । दुःखास्पदं जनसुमित्र! च तेन जातो यस्मात् क्रिया प्रतिफलन्ति न भावशून्याः त्वं देव! दुःखिजनपालक! हे जिनेश! सो(सौ) भाग्यपुण्यविपणे! सततं मयीश! । सच्छ्रद्धया नततनौ करुणां प्रणीय दुःखाङ्कुरोद्दलनतत्परतां विधेहि भूयिष्ठवीर्यसदनं गतपङकवृन्दं सम्प्राप्य नासितविपक्ष "चणावदातम् । त्वत्पादपद्ममपि वै प्रणिपात"मोघो वध्योऽस्मि चेद् भुवनपावन! हा हतोऽस्मि गीर्वाणनायकसुपूजित! विश्ववन्द्य!, सद्भव्यपालक ! विभो! विजितारिवर्ग! । संरक्ष नाथ! करुणाकर! मां प्रसीद सीदन्तमद्य भयदव्यसनाम्बुराशेः स्वामिन् ! त्वदंह्रिनलिनस्य फलं शुभं मे भक्तेर्विभो ! यदि किलाऽस्ति गुणालयस्य । त्वत्किङ्करस्य विगतान्यविभोस्तु तत् स्याः, स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि ॥४२॥ एवं विशिष्टसुधियो विधिना जिनेश!, हर्षोत्करेण हि विकाशितकायदेशाः । त्वद्वक्रनिर्मलकुशेशयबद्धवेध्या(:) ये संस्तवं तव विभो ! रचयन्ति भव्याः नृनयनकैरवचन्द्र!, स्वर्ण(र्ग) विलाशे (से)न पूर्णशं लात्वा । ते मुक्तकल्कनिचया-अचिरान् मोक्षं प्रपद्यन्ते
॥४१॥
श्रीमत्पाठकमुख्यः, कनककुमारा जयन्ति भूपीठे । तेषां विनयेनेदं, कनकविलाशेन संरचितम्
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॥४३॥
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॥४५॥
॥ इति श्री समस्याबन्धनिबद्धं कल्याणमन्दिराख्यं स्तोत्रं समाप्तम् ॥ लिखितं च उ० श्रीसुमतिसिन्धुरजी विनेयोपाध्याय - श्रीकनककुमारजीगुरूणां प्रसादात् कनकविलाशेन । शिष्य-प्रशिष्यादि (भिः) वाच्यमानं कामदं स्यात् ।
संवत १७४६ समायां चैत्रासिततृतीयायां हस्तार्के, संशोध्यं विद्वद्भिर्हितवद्भिस्सूचकत्वमपनीय । कृपां प्रणीय ममोपरि, कनकविलाशो हि वक्तीदम्
कल्याणमंदिरस्तवप्रथमश्लोकपादपूर्तिगर्भितअजितजिनस्तुतिः
कल्याणमन्दिरमुदारमवद्यभेदि, पादद्वयं तव नमामि जिनेश्वराऽहम् । सर्वार्थसाधक! मुदा विजयाङ्गजात !, त्रातत्रिविष्टप! भवाद् गजराजचिह्न ! ॥१॥
२५. प्रसिद्ध चारित्रवाळा, २६. आळसु
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|४||
श्रुतसागर
जुलाई-२०१८ आप्तौघ! तावकमिदं भविनः प्रसुनै-(ताभयप्रदमनिन्दितमङिघ्रपद्य्। अभ्यर्च्य निर्वृतिपदं नियतं गुणज्ञाः सौख्येन पावनमलं विमलाः श्रयन्ति ॥२॥ यस्मिन् प्रभाकरसमानविशालतेजाः विश्वप्रभो ! जयतु ते कथिता प्रसिद्धा। संसारसागरनिमज्जदशेषजन्तु-त्राण! त्वया स समयः प्रवराऽङ्गिरक्षा ॥३॥ जीयात् सदाऽजितबला सुरसेविता सा सौख्यश्रियं वितनुते भविनः पदं या। संसारवारिधिपतज्जनसन्ततीनां पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य
__कल्याणमंदिरस्यचतुर्थपादगृहीतसमस्या[बंध]स्तोत्रम् ron ॥ ॐ नमः सिद्धाय ॥
श्रीआचार्यजी ऋषि श्रीकेशवजीनुं संस्तवन करिस्युं । श्री गौतमनइ प्रणमीनइ। गौतम कहेवा छइ? 'साधुप्रभं गणरविं वरसोमवाक्यं संशुद्धमङ्गल सदर्थ बुधप्रबोधम् । "वीरस्य शिष्य सुखदं गणिगौतमाख्यं पोतायमान मभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१॥
१) साधुनइ विषइ प्रभावंत, २) गणसूर्य, ३) वरसोमवाक्यं केहतां अमृत, तन्मय वचन, ४) संशुद्ध-निर्मल, ५) सदर्थ-द्वादशाङ्गश्रुतार्थ जाण, ६) तीर्थंकरनो प्रतिबोध छइ जेहनइ, ७) महावीर शिष्य माहि, ८) सुखदाता, ९) गणधर गौतम, १०) पुत्र तुल्य अथवा नौ तुल्य, ११) प्रणमीनइ, १२) जिनेश्वर श्रीमहावीरना ॥१॥ 'यस्य श्रुतं 'गुरुपदं गुरुदत्तशोभं 'शुक्राह्निजन्म वशनिर्मलसंवरश्रीः। "श्रीकेशवस्य गणराजयशोमुनीश स्तस्या हमेष १ १२किल संस्तवनं करिष्ये ॥२॥
[युग्मम्] १) जेहनु, २) श्रुतं-सांभल्यु, जांण्यु, ३) गुरुपद, ४) गुरु श्रीकर्मसीजीइ दत्त शोभा, ५) शुक्रदिने जेहनो जन्म छइ, ६) वंशे छइ निर्मल संवरनी श्रीः-लक्ष्मीः , ७) श्रीकेशवजी, ८) गच्छराज यशः मुनिना ईश-स्वामी, ९) तेहर्नु, १०) हुं, ११) एष, १२) किल-सत्ये, १३) संस्तवन करिष्यु ॥२॥ 'सोऽयं गुरुर्भवति यः पदमध्यवर्ती को वा सुखी जगति? "का कमला सुरम्या? । 'लक्ष्माऽगजापतिसुतस्य विवस्वदाद्यं रूपं "प्ररूपयति किं किल धर्मरश्मेः ॥३॥
१) ते, २)ए, ३)गुरु, ४)होइ, ५)जे पदमध्य वरती अक्षरे नाम छइ। ६) कोण सुखी जगमाहि? सश्रीकः, ७)-कोण स्त्री सुरम्या? सुकेशा, ८) लंछन-शशक अगजा
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___ July-2018 कहतां नदी, तेहनो पति-समुद्र, तेहनो पुत्र चंद्र तेहनो लंछन, ९) पंडितः किस्यु आद्य रुप?, (१०) प्ररूपयति-कहइ छइ, ११) किस्यु, १२) किल-सत्ये, १३) सूर्यन, विवस्वाननुं एटलइ प्रथम रूप विवस्वान् ॥३॥ 'ग्रामे पुरे तव 'मुनीन्द्र! समागमे "हि, भव्या "जना “दधति संयमदानधर्मम् । १ सङ्ख्या च "तस्य पुरुषेण 'सुबुद्धिनाऽपि “मीयेत केन जलधेनु रत्नराशिः॥४॥
१) गामे नगरे, २) तुम्हारइ, ३) हे मुनींद्र, ४) आववइ, ५) हि-निश्चय, ६) भव्य, ७) जन, ८) करइ, ९) संयमदानधर्म-देशविरति सर्वविरति दानादि धर्म, १०) संख्या, ११) तेहनी, १२) पुरुषे, १३) सुबुद्धिवंते पण, १४) मान कीजइ, कोणे? अपि न कोणइ, दृष्टांतो यथा-ननु जलधिनो रत्नराशि कोणे मान कीजइ? ॥४॥ 'युष्मत्क्रमाश्रितजनो 'गिरिधारिधीर! यः पुण्यधीर्वदति ते गुणविस्तरं सः। 'चित्रं किमत्र वरमन्दिरसुस्थिताख्यो विस्तीर्णतां कथयति "स्वधिया "म्बुराशेः ॥५॥
१) तुम्हारा क्रम-चरणाश्रित् जन-मनुष्य, २) वासुदेवनी परि धीर, ३) जे पवित्र बुद्धिवंत, ४) बोलइ, ५) ते-तुम्हारा, गुण विस्तार ते, ६) आश्चर्य, ७) किस्युं इहां दृष्टांतो यथा- ८) वर मंदिर लवण सुट्ठिउ देव, ९) विस्तारपणु, १०) कहइ, ११) पोतानी, १२) बुद्धिइ समुद्रनुं ॥५॥
श्रेयःसृजन्! सदनिमेषविलोकनीय! अल्पश्रुता वचनयोगयुता यतीश!। 'ज्ञानादिराजितगुणान् 'तव विश्वशुद्धान् ‘जल्पन्ति वा निज गिरा "ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥
काव्य प्रति राशि[नाम]गर्भित स्तुति कहिस्यु, १) हे कल्याणकर ! हे सत्पुरुषे अनिमेष विलोकनीय !, २) थोडा श्रुतवंत, ३) वचनयोगयुक्त, ४) हे यतीश !, ५) ज्ञानादिगुणनइ, ६) तुम्हारा, ७) विश्वनिर्मलनइ, ८) बोलइ, ९) वा-विकल्पे १०) पोतानी वाणीइ, ११) ननु-वितर्के, १२) पंखीया पण बोलइ, ॥६॥ मेषराशिः 'श्रीकर्मसिंहगणिपट्टविभो! व्रतीश! 'नामाऽपि ते वृषवतां जगतीष्टकीर्तेः। 'चित्तं प्रमोदयति "भव्यशरीरभाजां प्रीणाति पद्मसरसः १ सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥
१) श्रीपूज्य कर्मसीजीनइ पाटि विभो! हे व्रतीश!, २) नाम पण, ३) तुम्हारो, ४) धर्मवंतनइ, ५) जगद्वल्लभ कीरतिर्नु, ६) मननइ हर्ष उपजावइ, ७) रूडा शरीरवंतनइ, ८) तृपति करइ, ९) पद्मसरनो, १०) सरस, ११) वायु पण ॥७॥ वृषराशिः २
त्वत्सङ्गतौ मधुरनाद! पवित्रजन्तोः ये केऽपि गौरव गुणा 'मिथुनी भवन्ति । "दोषाश्च यान्ति भुजगा इव “मध्यभाग- मभ्यागते वनशिखण्डनि "चन्दनस्य ॥८॥
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श्रुतसागर
जुलाई-२०१८
१) तुम्हारी संगते, २) हे मधुरनाद !, ३) पवित्र प्राणीनइ, ४) जे के पण मोटा, ५) गुण, ६) मिथुनी भवन्ति-भेला थाइ, ७) च-पुनः, दोष होइ ते जाइ, ८) सर्पनी परे, ९) मध्यभागे, १०) आवे थकइ, ११) वनमयूरे, १२) चंदनमध्यदेशे (श) समीपे ॥८॥ मिथुनराशिः ३ 'त्यज्यन्त `एव 'पुरुषा ৺हृदऽकर्क' शेश ! 'रोगैरमङ्गलकरैर्भवतीहदृष्टे । 'पृथ्वीभृतां प्रचलिते च बले हि लोके 'चौरैरि' वाशु पशवः "प्रपलापमानैः ॥९॥
१
१) त्यजीइ-मुकाइए, २) एव - निश्चय, ३) पुरुषा, ४) हे हियइ कोमल!, ५) हे ईश ! -स्वामिन्, ६) रोगे विघ्नकारीइ तुम्हे इहां दीठे, दृष्टांत यथा ७) राजानां प्रचलिते-चढे बल देखीनइ, ८) चोरे, ९) आशु - सीघ्र, १०) पशुनी परि, ११) नाशतइ ॥ ९ ॥ कर्कराशिः ४ 'हृद्भक्तिवांश्च `नरसिंहमुने! 'जडात्मा 'नाम्नस्तव 'स्तवमहं 'प्रतनौमि ‘सारम्। 'यद्वा घनो नभसि गर्जति चैष गाढ- ४ मन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः॥१०॥
१
१
१) हृदभक्तिवंत, २) हे श्रीकेशव मुने !, ३) जड आत्मा, ४) नामनो, ५) तुम्हारो, ६) स्तवन हुं, ७) विस्तारुं, ८) सार-प्रधान, दृष्टांत यथा- ९) यद्वा घन-मेघ, १०) आकाशे, ११) गाजइ, १२) ए, १३) अति हि, १४) अंतर्गत वायुनो ते किलसत्ये अनुभाव छइ ॥१०॥ सिंहराशिः ५
'कन्याभवादिनृगणो 'हतकीर्त्तिमानो यस्मिन् 'स्मरेऽपि भवता 'स जितः 'क्षणेन। ‘यद्वारि वह्निशमकं 'जलधेः समस्तं पीतं न किं तदपि १२ दुर्धरवाडवेन ? ॥११॥
१) वेदव्यासादि नरना गण, २) हतकीर्त्तिमान थया, ३) ये स्मर-कामनइ विषइ, ४) पण, ५) तुम्हे, ६) ते जित्यो, ७) क्षणमाहि । दृष्टांत यथा-८) जे वारि अग्नि शमावइ, ९) समुद्रनुं सघलुं, १०) पीधुं नही, ११) किं, १२) ते वारि अगस्ति पीधुं ॥११॥ कन्याराशिः ६
'ये त्वां श्रिता `अतुल! 'केशवसाधुनाथं 'दूरस्थिताः 'सविनया ‘उपगाश्च शिष्याः। 'पात्राशनानि मधुराणि सदा लभन्ति “चिन्त्यो न "हंत "महतां यदि वा प्रभावः ॥१२॥
१) जे तुम्हनइ आसर्या, २) हे तुला रहित ! ( अथवा ) अः- कृष्णः, तत्तुल्यः, ३) केशव-साधुनाथनइ, ४) दूर रह्या, ५) विनय सहित, ६) उपगा- समीपस्था, ७) शिष्य, ८) पात्र अशन मधुर, ९) सदा पामइ, १०) चिंतव्यो न जाइ, ११) हंतकोमलामन्त्रणे, १२) महतां - मोटानो प्रभाव ॥ १२॥ तुलाराशिः ७
'वर्णातिसाध्य! 'सततं`ननुवृश्चिकाङ्क ! "ध्वस्ता स्त्वया "निबिडकर्मचयाः ‘कथं चेत्। "क्रोधं विना? "बत पुनर्दहतीह विश्वे "नीलद्माणि विपिनानि न किं हिमानी ॥१३॥
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July-2018 हे स्तुति करी साध्य !, २) निरंतर, ३) ननु-वितर्के, ४) वृश्चिकनी परि अल्प रीस, ५) बाल्या, ६) तुम्हे, ७) कठिन कर्मना समूह, ८) किम ते, ९) क्रोध पखइ, १०) बत पुनर्दहइ इहां विश्वनइ विषइ, ११) नीलाद्रुम १२) एहवा वननइ १३) न किम हिम ॥१३॥ [वृश्चिक राशिः ८] 'गङ्गेव पुत्रनिधिदा 'सुखदा धनुर्भू-स्त्वज्जन्मदा 'सुजननी नवरङ्गदे 'हि। 'कोठारिवंशसवितो यदि वा 'किमन्य- दक्षस्य सम्भविपदं ननु कर्णिकायाः॥१४॥
गंगानी परि पुत्रनिधि दाता, २) सुखदाता, ३) धनुर्भू, ४) तुम्हारो जन्मदाता, ५) भली जननी नवरंगदे, ६) हि-निश्चय, ७) हे कोठारिवंशसूर्य !, ८) किस्युं अन्य, ९) अक्षणो संभवि-पद, १०) ननु कर्णिका ज होइ ॥१४॥ [धनुराशिः ९]
श्रीपूज्यकर्महरिहस्तमुपेत्य यूयं पूज्या भवेत मकरध्वजतुल्यरुपाः । "प्राप्यौं षधिं भुवि गिरीशसमानवर्णं चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः ॥१५॥
१) श्रीपूज्य कर्मसीजीनो हस्त पामीनइ तुम्हे, २) पूज्य थया, ३) काम तुल्य रूप । दृष्टांत यथा- ४) पामीनइ, ५) औषधि, ६) भूमि विषइ, ७) मेरु सरिखो वर्णसौवर्णपणु, ८) ततकाल धातुभेदा ॥१५॥ [मकरराशिः १०] 'पूज्याः प्रशस्तचरणाः श्रुतपूर्णकुम्भाः आयान्ति “यत्र जगती भविना(नो) रमेशाः। वैरं विरोधमखिलं क्षयमेति तत्र यद्विग्रहं ११प्रशमयन्ति महानुभावाः ॥१६॥
१) पूज्य, २) रूडा चरण-चारित्र, ३) ज्ञानपूर्ण कुंभ, ४) आवइ, ५) जिहां, ६) पृथिवीना प्राणिनइ, ७) लक्ष्मीपति, ८) वैर विरोध समस्त क्षय जाइ, ९) तिहां, १०) जे विग्रह, ११) ते उपशमावइ महापुरुष ॥१६॥ [कुम्भराशिः ११] 'मीनाङ्कके[ ]! 'विभो! (?)तव नामकं यत् स्वर्गापवर्गसुखदं व्रतिनां च वन्द्यम्। 'विघ्नापहं तनुभृतां “जनवल्लभं तत् किं नाम 'नो विषविकारमपाकरोति? ॥१७॥
१) हे मीनलक्षण !, २) प्रभुनो, ३) पापवारक जे, ४) स्वर्ग-मुक्तिसुखदायक, ५) व्रति मध्ये वन्द्यं, ६) विघ्नहर, ७) प्राणिनइ, ८) जन-प्रिय, ८) ते, १०) किम, ११) नाम, १२) नही, १३) विष-विकार दूरि करइ, टालइ जे ॥१७॥ [मीनराशिः १२] भव्यैर्जनै जगति संयमशुद्धधर्मः लक्ष्मीपते! गणपते! “हि सदा विधेयः। अज्ञानमन्दमतिभिर्बहुकर्मभारै ! गृह्यते विविधवर्णविपर्ययेण ॥१८॥ १) भव्य जीवे, २) जगति, ३) संयमशुद्धधर्म, ४) लक्ष्मीपते ! हे गच्छपते !, ५)
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श्रुतसागर
जुलाई-२०१८ हि-निश्चय, सदा कर्तव्य, ६) अज्ञान मंदबुद्धिइ, ७) घणा कर्मभारवंत पुरुषे, ८) न ग्रहवाइ, ९) घणा वर्ण-दर्शन विपर्ययइ करी ॥१८॥ 'दिव्यत्त्रिविक्रम! विभो! सुखमाकरस्य क्षीराश्रवां “मुदिरनाद! 'गिरं तवेमाम् । 'प्रीत्योपकर्ण्य विबुधो रमते नितान्तं "किंवा विबोधमुपयातिन जीवलोकः? ॥१९॥
१) शोभना त्रिण ज्ञानादि, ते विषइ पराक्रम, २) प्रभो, ३) सुखमाकरस्य कहेता अति महिमावंतनी, ४) क्षीर सरिखी, ५) हे मेघनाद!, ६) तुम्हारी ए गिरा-वाणी, ७) प्रीति(थी) सांभलीनइ, ८) पंडित तथा देव, ९) रमइ-रति पामइ, १०) नित्यं, ११) तो किम, वा-विकल्पे, १२) प्रतिबोध न पामइ, १३) जीवलोक, पामइ ज ॥१९॥
धर्मोपदेशमनिशं पुरुषोत्तमस्य 'कुर्युर्न ये वधरता मुखरा मनुष्याः। "बद्ध्वा च ते जडधियो भवदुःखदानि गच्छन्ति नूनमध एव हि बन्धनानि ॥२०॥
१) धर्मोपदेश निरंतरं, २) पुरुषोत्तम श्रीकेशवजीनो, ३) न करइ जे हिंसारता मुखरा, ४) मनुष्य, ५) बांधीनइ ते जडमति, ६) भवदुःख आपइ एहवा, ७) जाइ निश्चय हेठा ज, ८) कर्म-बंधन करी ॥२०॥ 'नेनाख्यनन्दन ! 'नरोत्तम! तीर्थनाथ! दत्तं त्वया "सुमनसा वरसंविभागम्। "प्राप्येति सम्मदधरा गुण साधुरूपं, ११भव्या व्रजन्ति "तरसाऽप्य जरामरत्वम् ॥२१॥
१) हे साह नेनाना पुत्र !, २) हे केशव !, ३) हे तीर्थनाथ !, ४) दीधउ तुम्हे, ५) सुमनि, ६) रूडो संविभाग, ७) पामीनइ सीघ्र, ८) हर्षवंत, ९) गुणयुक्त, १०) साधुरूप, ११) भव्य जीव पामइ, १२) वेगइ, १३) अजरामरपणुं ॥२१॥ 'रूपर्षि-जीव-'वरसिंह-यशोवदाख्य श्रीरूपसिंह- कमलापति- कर्मसिंहपट्टेश! केशवविभो! तव सेवकाः स्युः। ते नूनमूर्ध्वगतयः खलु शुद्धभावाः॥२२॥
१) रूप ऋषि, जीव ऋषि, २) वरसिंहजी २(?), ३) जसवंतजी, ४) श्रीरुपसिंहजी, ५) दामोदर, ६) कर्मसिंहजी, ७) पट्टप्रभु, ८) केशवजी विभु, ९) तुम्हारा सेवक जे होइ, १०) ते निश्चय ऊर्ध्वगति, ११) निश्चय शुद्धभावाः ॥२२॥ 'सर्वप्रियं सकलनाद- दयाघनौघं त्वां संस्थितं पृथु-समोन्नतपट्टिकायाम् । 'पश्यन्ति नाथ! "विबुधाः पुरुषोत्तमं वैचामीकरादिशिरसीव नवाम्बुवाहम् ॥२३॥
१) मेहनी उपमा-सर्वप्रिय, २) रूडउ नाद, ३) दया-जलौघ, ४) तुम्हने, बिठां, ५) पिहुली, समी, उंची पाटि, ६) देखइ, ७) हे नाथ!, ८) पंडित, ९) पुरुषोत्तमं, १०)
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July-2018 वै-पादपूरणे, ११) सुवर्णगिरिना शिखरनइ विषइ, १२) नवो-नूतन जाणइ मेह ॥२३॥ 'व्याख्यानमेव जिनवाक्यकथाभिरामं श्रुत्वा मुदा श्रवण-चित्तहरं “नराणाम् । 'युष्मन्मुखा दमलसाधुगणाधिराज! "नीरागतां व्रजति को न सचेतनोऽपि? ॥२४॥
१) वखाण, एव-निश्चय, २) जिन वचन कथा अभिराम, ३) सांभलीनइ हरखि, ४) कर्ण-चित्त हरइ, ५) नरनां, ६) तुम्हारा मुखथकी, ७) हे निर्मलसाधुगणमाहि अधिराज, ८) नीरागपणु, ९) पामइ, १०) न कोण ज्ञान सहितो, अपि पामइ ॥२४॥ 'किं कोकिलाकलरवो मधुमासि नित्यं किं वारिदस्य निनदः 'किमु वंशजातः । 'नादो मया मनसि माय! १°मुनीश! किंवा मन्ये "नदन्नभिनभ: सुरदुन्दुभिस्ते ॥२५॥
१) किम कोकिलनो मधुर नाद, २) चैत्र मासे, ३) नित्य, ४) कइ(किं) मेहनो नाद, ५) किं वंशनाद, ६) नाद, ७) मइ, ८) मननइ विषइ, ९) लक्ष्मीपति, १०) मुनीश, ११) कइ वा मानु, १२) बोलतो आकाशमाहि, १३) देवदुंदुभि ते तुम्हारो ॥२५॥ 'सिद्धान्तशब्दनयशास्त्रविशालधीश! 'संसारतारक! विभो ! भवतः समीपे। ज्ञानत्रिकं मुनिजनो भुवि लातुमिच्छु-°ाजा त्रिधा धृततनुर्बुवमभ्युपेतः ॥२६।।
१) हे सिद्धांत-व्याकरण-न्यायशास्त्र-विस्तारबुद्धिमाहि, ईश!-स्वामी!, [हे] महापंडित!, २) हे संसारतारक ! हे प्रभो ! तुम्हारइ पासइ, ३) ज्ञाननिक, ४) साधुजन, ५) पृथिवीनइ विषइ, ६) लेवु(वा) इछतो, ७) छल थकी, ८) त्रिण शरीर-उदारिक १ तेजस २ कार्मण ३ धरी निश्चय समीपि रह्यो ॥२६॥ 'लोङ्काख्यगच्छनगरे 'श्रुतसारराशौ साध्वादिवर्णरुचिरे शमशुद्धसेतौ। 'लोकत्रिके 'सुखकरे व्रततत्त्वरत्न शालत्रयेण भगवन्नभितो विभासि ॥२७॥
१) श्रीलोंकागच्छ नगरनइ विषइ, २) ज्ञान-धनराशिनइ विषइ, ३) साधु आदि च्यार वर्णे करी शोभिते, ४) क्षमारूप निर्मल मार्गे, ५) त्रिण लोकनइ विषइ, ६) सुख करे, ७) व्रत ३-अहिंसा १ सत्य २ परिग्रह त्याग ३, तद्रूप रत्नमय त्रिण कोटे करी, ८) हे भगवन्! अभितो-पासइ थका, ९) विभासइ छो ॥२७॥
विन्ध्याचले गजगणा गगने शकुन्ता-हंसा यथा सरसि नाथ! रतिं लभन्ति । "ये सन्ति भव्यभविनो ‘बत किं तथा ते “त्वत्सङ्गमे "सुमनसो नरमन्त एव ॥२८॥
१) विन्ध्यगिरिनइ विषइ, २) हस्तिसमूह, ३) आकाशे पंखीया, ४) हंस जिम सरनइ विषइ, ५) हे नाथ !, ६) रति पामइ, ७) जे छइ भव्य प्राणी, ८) बत
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श्रुतसागर
जुलाई-२०१८ कोमलामंत्रणे, ९) किम तिम ते, १०) तुम्हारइ संगमे, ११) भला मनवंत, १२) न रमइ(?) १३) किन्तु रमइ ज ॥२८॥ 'त्वं श्रीपतिर्गणपतिर्नरसङ्घपूज्यः शास्त्रोक्तशिष्टि चतुरङ्गिगुरुक्रमस्थः । 'आज्ञेश्वरोऽपि जनपाल! "सुमन्त्रिभृत्त्यः चित्रं विभो! ' यदसि कर्मविपाकशून्यः ॥२९॥
१) राजानी उपमा माह-तुम्हे लक्ष्मीपति, गणपति, नरसिंघे पूजित, २) सिद्धांत शास्त्रोक्त आज्ञा, ३) चतुरंगि कहेता दानादि ४, तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप-४, तथा साध्वादि ४, ४) गुरु परंपराए छइ, ५) आज्ञा प्रमाणे [इ]श्वर, ६) प्रजापाल, ७) भला मंत्रि सेवक, ८) आश्चर्य, ९) विभो, १०) जे भणी कर्म विपाक शून्य ए आश्चर्य ॥२९॥ 'तंबा सुतेन गलभूषण शत्रुनाथे, पर्जन्य पुष्फ(ष्क) सुत सूत नया मुखाभे। १२क्षीरोद सूपति सहोदर पट्टसूर्ये "ज्ञानं त्वयि स्फुरति "विश्वविकाशहेतुः ॥३०॥
१) गौसुतो - वृषभ, २) इन-ईश्वर, ३) गलभूषण-सर्प, ४) शत्रु-गरूड, ५) नाथे-श्रीकेशवे, ६) पर्जन्य-मेघ, ७) पुष्क-जल, ८) सुत-कमल, ९) सू-ब्रह्मा, १०) तनया-सरस्वती, ११) मुखाभरणे, १२) क्षीरसमुद्र, १३) सू-लक्ष्मी, १४) पतिदामोदर, १५) तेहनो भाई, १६) श्रीकर्मसिंहजी नइ पाटि सूर्य, १७) ज्ञान तुम्हारइ विषइ स्फूरइ, १८) विश्वप्रकाशहेतुः ॥३०॥ 'जन्त्वार्तिदः कलहवैरसमस्तयुद्धैः क्रोधोऽ परेण "पुरुषेण सपद्य जेयः। "मुक्तिक्षमार्जवगुणैर्भवता मुनीन्द्र! °ग्रस्तस्त्व मीभिरय मेव परं दुरात्मा ॥३१॥
१) जीवनइ आर्तिदाता, २) राडि वैर सर्व युद्धे करी, ३) क्रोध, ४) अन्य, ५) पुरुषे, ६) ततकाल, ७) न जीताइ, ८) निर्लोभ, क्षमा, ऋजु गुणे करी तुम्हे, ९) हे मुनींद्र!, १०) ग्रस्यो-जीत्यो, ११) एणि क्षमादि गुणे, १२) ए(व?) निश्चय, प्रकृष्ट दुरात्मा जे भणी क्रोधः प्रियनाशक ॥३१॥ 'माधुर्यवाग्धर! धराधरधर्मधीर! तीर्थाधिनाथनिभ! मन्युकृशानुनीर!। यस्ते भवेत् खलकृताविनयो मुनीन्द्र! तेनैव तस्य जिन! ‘दुस्तरवारिकृत्त्यम् ॥३२॥
१) हे मधुरवाणीधर!, पर्वत सम धर्मनइ विषइ धीर!, तीर्थंकर सम!, क्रोधअग्निनइ विषइ नीर!, २) जे तुम्हारो होइ, ३) खल-दुर्जननो कर्यो अविनय, ४) हे मुनींद्र!, ५) तेणि अविनये करी, ६) तेहनइ ज, ७) हे जिन !, ८) तरवारिनुं कृत्य होइ, एतलइ अविनीतनो अविनय तेहनइ दुख दिइ ॥३२॥
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July-2018 'दिव्यद्वपुर्गुणसमुद्र! शशाङ्कसौम्य! विद्यावतो भवत इष्टविधेतीशः(श!)। 'यो येन मन्दमतिना विहितो"ह्यमर्षः सोऽस्या भवत् प्रतिभवं भवदुःखहेतुः ॥३३॥
१) हे दीपत्तो(ता) शरीर(वाळा)!, २) हे गुणसमुद्र!, ३) चंद्रनी परि सौम्य!, ८) विद्यावंतनो, ५) तुम्हारो, ६) रूडी क्रिया जेहनी, ७) व्रतिना ईशनो, (हे व्रतीश!) ८) जे जेणि, ९) मंदमतिए, १०) कर्यो, ११) हि-निश्चय अमर्षः, १२) ते तेहनइ, १३) हुउ, १४) भव प्रति दुःखनो हेतुः ॥३३॥ 'सेव्यं सतामिह परत्रिक सौख्यकारं मार्गप्रदं शिवपदस्य "सुरागशंदम्। नौसन्निभं भवति "दुःखदके दमीश! पादद्वयं तव विभो! १ विजन्मभाजः ॥३४॥
१) सेव्य छइ, २) सत्पुरुषनइ, ३) इहां, ४) परभवे, ५) सुखकारी, ६) मार्गदायक, ७) मोक्षपदनो, ८) सुरतरु सम सुख दिइ, ९) नावा तुल्य, १०) होइ, ११) दुःखसमुद्रना विषइ, १२) हे दमीश्वर, १३) पादयुग, १४) तुम्हारो, १५) हे प्रभो!, १६) पृथिवीनइ विषइ प्राणीनइ ॥३४॥ 'सारङ्गपाणि'चरणाचल विश्वरूपं विश्वेश्वरं वृषभवंशवतंसमेनम् । श्रीकेशवं गु(ग?)रुडवाहन मेव दृष्ट्वा किं वा विपद्विषधरी "सविधं समेति ॥३५॥
वासुदेव श्रीकृष्णनी उपमा – १) सारंग धनुष करे छइ तथा कमल सरिखा कर छइ, २) चरण कहेता चारित्र, अथवा चरण-पाद अचल छे, ३) विश्व तुल्य, ४) विश्वनइ विषइ ईश्वर, ५) वृषभ वंशनइ विषइ मोटा, मेन-एहनइ, लक्ष्मीपतिनइ, ६) श्रीकेशवजीनइ, ७) गरुड वाहन, अमृतमय वचन(?) ८) निश्चय देखीनइ, ९) किम, १०) विपदा रूप सर्पिणी, ११) पासइ आवइ, १२) निश्चय न आवइ ॥३५॥ 'युष्मादृशाः 'सुगुरवो गुणवारिधीशाः प्राप्ता “मया प्रबलपुण्यवशेन यस्मात् । “सम्यक्पराभवरुजामपि नो हि "तस्मात् जातो निकेतन महंमथिताशयानाम् ॥३६।।
१) पूज्य सरिखा, २) भला गुरु, ३) गुण-स्वयंभूरमण, ४) पाम्या, ५) मइ, ६) घणइ पुन्यइ, ७) जे भणी, ८) सकल पराभव रोगनो, ९) नही निश्चय, १०) ते भणी, ११) थयो, १२) घर, १३) हुं, १४) मथित आशयनो, एतलइ दुःखनो घर न थयो ॥३६॥ 'अस्मिन् परत्र 'सुभगाः शशिसौम्यरूपा- स्त्वत्पादपङ्कजरताः ५परमाप्तपद्माः । भव्या भवेयुरभया जिनभक्तिभाजः 'प्रोद्यत्प्रबन्धगतय: १ कथमन्यथैते ॥३७॥
१) इह परभवे, २) इष्टा, ३) चंद्रसौम्यरूप, ४) तुम्हारा पदपंकज रा(र)ता, ५) प्रकृष्ट पाम्या लक्ष्मी, ६) भव्य होइ, ७) भय रहित, ८) श्रीकेशवजीनी भक्ति
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श्रुतसागर
जुलाई-२०१८ करणहार, ९) उद्योतवंत गति, १०) किम अन्यथा ते होइ? ॥३७॥
आप्तोक्तपाठपठनं श्रवणं च शीलं चारित्रदुष्करतपो धृतमेव सर्वम्। 'गच्छाधिराज! जिन! ते हि विनाज्ञया किं यस्मात् क्रिया प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ॥३८॥
१) सिद्धांत भणवउ, सांभलवउ, २) ब्रह्मचर्य, ३) चारित्र-तप धर्यु, ४) सर्व, ५) हे गच्छाधिराज! श्री केशवजी!, ६) तुम्हारी आज्ञा विना किस्यु ते, ७) जे भणी, ८) क्रिया, ९) भाव शून्य फलइ नहीं। एतलइ तुम्हारी आज्ञा सहित क्रिया प्रमाण छइ ॥३८॥ 'त्वं नाथ! 'सद्वसुमते! सुमते! सुनेतः! "सर्वासुमत्सुखद! धर्मकथाप्रदातः!। 'कृत्वा कृपां भविजने ‘सुनते नतेश! "दुखाङ्कुरोद्दलनतत्परतां विधेहि ॥३९॥
१) तुम्हे हे नाथ!, २) भला चारित्र विषइ मति, ३) हे सुमते!, ४) हे सुस्वामिन्! ५) हे सर्व जीव सुखदायक! धर्मकथाना दाता!, ६) करीनइ कृपानइ, ७) भविजन विषइ, ८) सुनम्यानइ, ९) हे नम्या छइ ईश!, १०) दुःखांकुर दलवानइ तत्परपणुं करउ ॥३९॥ 'सुज्ञानरत्नजलधे! 'शमिनां शरण्य! मन्ये मया सुमनसा “मनुजेन कृत्या। प्राप्ता रमेन्द्र! 'गुरुभक्ति रियं यतो "नो विन्ध्योऽस्मिचे द्रुवनपावन! हाऽहतोस्मि ॥४०॥
१) हे सुज्ञानरत्नसमुद्र!, २) हे साधुनइ शरण्य, ३) मानवू, ४) मइ भलइ मनि, ५) मनुष्ये करवा योग्य, ६) पामी, ७) हे रमापते!, ८) गुरुभक्ति , ९) ए, १०) जे कारणथी, ११) नही, १२) निष्फल छु, एतलइ सफल, १३) हे भुवनपावन! हा अहतोऽस्मि-अहत सुखी छु ॥४०॥
अष्टाब्धिसम्पदतिशेषधरर्षिनाथ! षट्त्रिंशदिष्टगुणमण्डित! वर्यगात्र!। रक्षस्व वी(विट्ठलमुने! "भविनं भुवीश! सीदन्त मद्य भयदव्यसनाम्बुराशेः ॥४१॥
१) हे आठ संपदा, सात अतिशेष धारक! ऋषिनाथ!, २) हे छत्रीस गुणे विराजित वरगात्र!, ३) राखउ, ४) श्रीकेशव मुने!, ५) भव्यनइ, ६) भूमिनइ विषइ हे ईश!, ७) सीदातानइ, ८) आज, ९) भयकारी कष्ट समुद्रथी ॥४१॥ 'सूर्येन्दु हस्तिजलजा हि मृगे भशत्रु- शङ्खा म्बु कूर्म खग वायु गिरीश खड्गि। १"पाथोधिभूमि गुणराजितसाधुनाथ: "स्वामी! त्वमेव भुवनेऽत्र "भवान्तरेऽपि ॥४२॥
१) सूर्य, २) चंद्र, ३) गज, ४) कमल, ५) सर्प, ६) मृग, ७) सिंह, ८) शंख, ९) पाणी, १०) कुर्म, ११) पक्षी, १२) वायु, १३) मेरु, १४) खड्गि, १५) समुद्र, १६) भूमि, १७) गुण विराजित साधुपति, १८) स्वामी तुम्हे ज अत्र भुवने, १९)
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July-2018
SHRUTSAGAR भवांतरे पण ॥४२॥ 'सन्तोषशीलसुधियो निजसेवकार्थ-दानैकपिङ्गसदृशो 'वरपात्रलाभम् । 'दीवं पुरं शिवकरं किल ते श्रयन्ति ये संस्तवं तव विभो! रचयन्ति भव्याः ॥४३॥
१) संतोष शील सुधीनो, २) पोताना सेवकनइ दान देवानइ विषइ धनद सरिखानो, ३) प्रधान पात्र लाभनइ, ४) दीव नगरनइ, ५) कल्याणकरनइ, ६) किल ते जन, ७) आश्रय पामइ, ८) जे संस्तव तुम्हारु प्रभो, ९) रचइ, १०) भव्य प्राणिनः ॥४३॥
श्रीमद्गणेशशिष्य प्रेम विनिर्मित गिरिधरनुतिपठनात्। 'भय-दुःखानां भव्या-'अचिरान् मोक्षं प्रपद्यन्ते
॥४४॥ १) श्रीमान् पूज्य ऋषि श्रीगणेशजी, २) तस्य शिष्य ऋषि प्रेमजी, ३) निपजावीउ, ४) श्रीकेशवजीनी स्तुति भणता, ५) भय दुःखना, ६) भव्यजीव, ७) ततकाल मोक्ष पामइ ॥४४॥
॥ इति श्रीकल्याणमन्दिरचतुर्थपादगृहितसमस्यास्तोत्रम् ॥ || श्री ६आचार्यजी ऋषि श्रीइकेशवजीनी स्तुतिः पूज्य ऋषि श्रीगणेशजी तस्य शिष्य प्रेमजीमुनिना कृता || लेखक पाठकयो(:) शुभं भवतु ॥ श्रीः ॥
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पुस्तकें भेंट में दी जाती हैं आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा में आगम, प्रकीर्णक, औपदेशिक, आध्यात्मिक, प्रवचन, कथा, स्तवन-स्तुति संग्रह आदि विविध प्रकार के साहित्य तथा प्राकृत, संस्कृत, मारुगुर्जर, गुजराती, राजस्थानी, पुरानी हिन्दी, अंग्रेज़ी आदि भाषाओं की भेंट में आई बहुमूल्य पुस्तकों की अधिक नकलों का अतिविशाल संग्रह है, जो हम किसी भी पाठशाला, ज्ञानभंडार को भेंट में देते हैं. संग्रह की सूची भी उपलब्ध है.
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वडोदरा नरेशनो जैन साहित्य-प्रेम
मुनि श्रीजिनविजयजी भारतना वर्तमान आर्यनृपतिओमां वडोदराधीश श्रीमान सयाजीराव महाराजनी विद्याविलासिता अने साहित्यप्रियता जगजाणीती छे । एमणे पोतानी प्रजामां ज्ञान प्रचार माटे जेटली लागणी बतावी छे अने जेटली महेनत लीधी छे तेटली बीजा कोई नृपतिए लीधी नथी। केवळ पोतानी प्रजानी दृष्टिए ज नहि पण आखी भारतीय प्रजाना ज्ञान अने संस्कारना विकास माटे पण एमणे अनेकविध साहित्य प्रवृत्तिओ उभी करी छे अने ते द्वारा ज्ञानना विविध प्रदेशोना अभ्यासना मार्गो खुल्ला कर्या छे । ए मार्गोमां एक मार्ग ग्रंथ प्रकाशननो पण छे । वडोदरा राज्यनी अने ते साथे आखा भारतनी प्रजा विश्वना विविध विषयो अने विचारोनुं ज्ञान मेळवी शके ते माटे श्रीमाने आखं एक पुस्तक प्रकाशन खातुं ज उभु कर्यु छे, अने ते द्वारा अनेक ग्रंथो संस्कृत, प्राकृत, गुजराती, मराठी आदि भाषाओमां प्रकट कराव्ये जाय छे। श्रीमानना ए सार्वदेशीय पुस्तक प्रकाशन कार्यमां जैन साहित्यने पण केटलो बधो सारो फाळो मळ्यो छे तेनी एक टुंक यादी, जैन साहित्य संशोधकना अभ्यासुओनी जाण खातर, अहिं आपीए छीए।
जैनोनी प्राचीन संस्कृतिनु मुख्य केन्द्र गणातुं अने गुजरातनुं गौरववंतु जूनुं पाटनगर अणहिलपुर पाटण श्रीमान सयाजीराव महाराजना आधिपत्य नीचे आवेलुं होवाथी, त्यांना जूना जैन भंडारो तरफ श्रीमाननी दृष्टि वळे ए स्वाभाविक हतुं। तेथी श्रीमाने पोतानी कारकिर्दीनी व्हेली शुरुआतमां ज गुजरातना जाणीता विदेही साक्षर श्री मणिलाल नभुभाई द्विवेदीने पाटणना भंडारो तपासवानुं अने तेमांथी इतिहास, साहित्य, तत्त्वज्ञान आदिनी दृष्टिए जे उत्तमोत्तम ग्रंथ जणाय तेमनां गुजराती मराठी भाषांतरो करी करावी प्रसिद्ध करवानं काम सोंप्यु । श्रीमाननी आज्ञा प्रमाणे साक्षर मणिलाले प्रथम पाटणना बधा भंडारो जोइ करी तेमांना भिन्न-भिन्न विषयोना ग्रंथोनी एक यादी बहार पाडी अने ते साथे भाषांतर करवा लायक केटलांक ग्रंथोनी तारवणी करी। ए तारवणीमांथी लगभग नीचे जणावेला पंदर ग्रंथोनां भाषांतरो छपावी प्रसिद्ध करवामां आव्यां। १ बुद्धिसागर
संग्रामसिंहकृत. २ समाधिशतक
जिनसेन गुणभद्रकृत. ३ नीतिवाक्यामृत
सोमदेवसूरिकृत. ४ भोजप्रबंध ५ षड्दर्शनसमुच्चय
हरिभद्रसूरिकृत. ६ कुमारपाल प्रबंध
जिनमंडनोपाध्यायकृत
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SHRUTSAGAR
७ योगबिंदु ८ अनेकांतवादप्रवेश
९ द्वयाश्रयमहाकाव्य
१० विक्रमचरित्र
११ सुकृतसंकीर्तन
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१२ कुमारपालचरित्र
१३ चतुर्विंशतिप्रबंध
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हरिभद्रसूरिकृत हरिभद्रसूरिकृत हेमचंद्राचार्यकृत
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अरिसिंहकृत जयसिंहसूरिकृत
राजशेखरसूरिकृत
१४ काव्यकल्पलता (मराठी)
अमरचंद्रसूरिकृत
१५ नीतिवाक्यामृत (मराठी)
सोमदेवसूरिकृत
ए समय पछी ज्यारे सेंट्रल लाईब्रेरीना अंगे संस्कृत डीपार्टमेंट खोलवामां आव्युं अने तेना लाइब्रेरीयन तरीके जैन साक्षर सद्गत् श्री चिमनलाल डाह्याभाई दलाल एम. ए. नी योजना करवामां आवी त्यारे श्रीमाने फरी एकवार पाटणना जैन भंडारोने वधारे बारीकीथी जोवा माटे भाई श्री दलालने आज्ञा करी । श्रीयुत दलालने पोताना निरीक्षणमां जणायुं के ए भंडारोमां तो एटली बधी अमूल्य संपत्ति भरी पडेली छे के तेने जो मूळ रूपमां ज प्रकट करवामां आवे तो तेनाथी भारतना प्राचीन ज्ञानभंडारोनो जगतने विशेष ख्याल आवे तेम छे। तेथी तेमणे एक विस्तृत विज्ञप्ति द्वारा श्रीमानने ए बधी हकीकत निवेदन करी. तेना परिणामे महाराजाए एक आखी जुदी पौर्वात्य ग्रंथमाळा (ओरिएन्टल सीरीझ)ज चालु करवानी स्वतंत्र आज्ञा करी । भाईश्री दलाल ज ए ग्रंथमाळाना प्रथम उत्पादक अने संपादक बन्या. तेमणे पाटणना भंडारोमांथी प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश अने प्राचीन गुजराती भाषाना अनेकानेक उपयोगी अने अलभ्य-दुर्लभ्य ग्रंथो चुंटी काढ्या । पाटणना जैन भंडारोना विशेष गवेषक अने उद्धारेच्छुक मुनिवर प्रवर्तक श्रीकांतिविजयजी महाराज अने तेमना साहित्योपासक शिष्यवर श्री चतुरविजयजी महाराजे भाई श्रीदलालना कार्यमां भंडारो जोवा करवानी घणी अनुकूळता करी आपी, एटलुं ज नहिं पण जे ग्रंथो भाई दलाले छपाववा माटे नक्की कर्या तेमना संशोधन कार्यमां पण प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष एवी अनेक प्रकारनी निष्काम सहकारिता करी बतावी । ए ग्रंथमाळानो प्रारंभ थयो त्यारे आ पंक्तिओन लेखक पण केटलाक समय सुधी वडोदरामां स्थित हतो । श्री चिमनलाले एक साथे अनेक ग्रंथोनुं संपादन, संशोधन अने मुद्रणकार्य चालु कर्तुं हतुं । तेमांथी एक मोटा ग्रंथनुं-सोमप्रभाचार्य विरचित प्राकृत कुमारपाल प्रतिबोधनं संशोधन कार्य अमने, तथा मंत्री यशःपाल विरचित मोहराजपराजय नामना नाटक ग्रंथनुं कार्य मुनिवरश्री चतुरविजयजीने पण वळगाड्यं हतुं । कमनसीबे भाईश्री दलालनुं अकाळे अवसान
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श्रुतसागर
जुलाई-२०१८
थयुं अने तेथी तेमना अथाग परिश्रम अने ऊंडा अभ्यासनुं जे सुंदर फळ जैन साहित्यना प्रकाशनने मळवानुं हतुं ते एक रीते अकाळे ज करमाइ गयुं । छतां श्रीमान महाराजानी शुभ ज्ञाननिष्ठाथी ए कार्य आगळ चालु ज छे अने एमां एक सुयोग्य जैन पंडित श्रीयुत लालचंद भगवानदास गांधीनी सेवा भळेली छे, तेथी हजी पण जैन ग्रंथोने ए ग्रंथमाळामां आदर मळतो रहेशे एवी आशा छे ।
ए ग्रंथमाळामां अद्यावधि नीचे जणावेलां जैन ग्रंथरत्नो उत्तम रीते प्रकट थयां छे अने देशविदेशना प्रसिद्ध पुस्तकालयोमां सुंदर स्थान पाम्यां छे
I
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१ *जैनमहामात्य वस्तुपाल विरचित नरनारायणानन्द काव्य ।
२ *बालचंद्रसूरि विरचित वसन्तविलास काव्य ।
३ मंत्री यशःपाल विरचित मोहराजपराजय नाटक संशोधन मुनि चतुरविजयजी । ४ सोमप्रभाचार्य विरचित कुमारपाल प्रतिबोध. संशोधक मुनि जिनविजयजी ।
५ *जयसिंहसूरि रचित हम्मीरमदमर्दन नाटक ।
६ *अनेक विद्वानकृत संग्रह प्राचीनगूर्जर काव्यसंग्रह |
७ *धनपाल पंडितकृत पंचमीकहा (अपभ्रंशग्रंथ) ।
८ *रामचंद्र विद्वान् कृत नलविलास नाटक. संशोधक पंडित लालचंद भ. गांधी ।
९ जैसलमेरीय जैन ग्रन्थभण्डार सूचि (दलाल अने गांधी) ।
१० अपभ्रंश काव्यत्रयी ।
११ न्याय प्रवेश सटीक (हरिभद्रकृत टीकायुक्त) ।
१२ पाटणना भंडारोनी ग्रंथसूचि ।
उपरनी यादीमां जे नाम छे ते तो खास जैन विद्वानोना बनावेला जैन ग्रंथोनां ज छे. ए उपरांत अजैन विद्वानोना बनावेला, पण खास जैन भंडारोमांथी ज मळी आवेलाजैन भंडारो सिवाय बीजे कोइ ठेकाणे नहि जणाएला- एवां जे ग्रंथो गायकवाड ओ. सीरीझमां छपाएला छे, तेमनी संख्या तो ए करतांय वधारे छे. जगद्-दुर्लभ्य ए ग्रंथोने काळना मुखमांथी आजसुधी साचवी राखवानुं महत्पुण्य जेम जैन ज्ञान भंडारना संरक्षकोने घटे छे तेम अंधकाराच्छादित भूगर्भमांथी बहार काढी फरी जगत आगळ मूकवानुं सत्पुण्य वडोदरा नरेश श्री सयाजीरावने घटे छे. तथास्तु.
जैन साहित्य संशोधक, खंड ३, अंक १ से साभार
* आ निशानीवाळा ग्रंथो सद्गत् दलालनां संपादित करेला छे.
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समाचारसार
सायण जैन संघ में जिनालय का ५०वाँ वार्षिकोत्सव सम्पन्न मुंबई महानगर के सायण जैनसंघ में जिनालय के ५०वें वार्षिकोत्सव का आयोजन राष्ट्रसंत प.पू. आचार्य भगवन्त श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. की शुभ निश्रा में सम्पन्न हुआ. आठ दिनों तक चलनेवाले इस कार्यक्रम में विविध कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। इस हेतु दि. १२-६-१८ मंगलवार को परम पूज्य आचार्य भगवन्त श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. का भव्य प्रवेश हुआ, इसी दिन कुम्भस्थापन, दीपप्रागट्य, ज्वारारोपण का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ तथा श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक पूजा का आयोजन हुआ। दि. १३-०६-१८ बुधवार को सखी ग्रुप की बहनों के द्वारा श्री आदिनाथ पंचकल्याणक पूजा का आयोजन किया गया। दि. १४-६-१८ गुरुवार को देवाधिदेव परमात्मा श्री अभिनन्दनस्वामी का विशिष्ट अभिषेक किया गया। पूज्य गुरु भगवन्त के व्याख्यान के दरम्यान १८अभिषेक का चढ़ावा तथा अन्त में श्री आदिनाथ पंचकल्याणक पूजा का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।
दि.१५-६-१८ शक्रवार को आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म. सा. के ३३वें स्वर्गारोहण दिवस के निमित्त गुणानुवाद सभा का आयोजन किया गया तथा दोनों जिनालयों में १८अभिषेक किए गए। दि. १६-६-१८ शनिवार को मातुश्री कंचनबेन हंसराजभाई मेहता की तरफ से श्री शान्तिनाथ पंचकल्याणक पूजा का आयोजन किया गया। दि. १७६-१८ रविवार को जैन श्रेयस्कर मंडल के भाईयों की तरफ से सामूहिक स्नात्र महोत्सव का आयोजन किया गया। दि. १८-६-१८ सोमवार को अखंड सौभाग्यवती जीवंतिकाबेन यशवंतराय शाह परिवार की तरफ से श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक पूजा का आयोजन किया गया तथा दि. १९-६-१८ को धीरजलाल नरसिंहदास घडियानी परिवार की तरफ से श्री सत्तरभेदी पूजा का आयोजन किया गया, मंगलमुहूर्त में जिनालय के शिखर पर ध्वजारोपण का कार्यक्रम हुआ, श्रीसंघ का स्वामीवात्सल्य किया गया, विजयमुहूर्त में श्री दलछाराम मगनलाल शाह परिवार की तरफ से श्री लघु शांतिस्नात्र का आयोजन किया गया तथा सन्ध्याकाल में जिनालय में प्रभुजी की विशिष्ट अंगरचना की गई.
समस्त कार्यक्रम प. पू. राष्ट्रसन्त आचार्य भगवन्त श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. की पावन निश्रा में सम्पन्न हुए तथा उपस्थित श्रद्धालुओं ने आठो दिन इस सम्पूर्ण कार्यक्रम में हर्षोल्लासपूर्वक भाग लिया। प. पू. गुरु भगवंत ने अपने शिष्य परिवार के साथ वहाँ उपस्थित होकर सभी श्रद्धालुओं को आशीर्वाद प्रदान किए.
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प. पू. राष्ट्रसन्त आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. की निश्रा में आयोजित (शीव) सायन जैन संघ, मुंबई में श्री अभिनंदनस्वामी जिनालय की
प्रतिष्ठा के ५०वें वार्षिकोत्सव की कुछ झलकें.
KAROOKarorolae
रमा सतीश शाह आंखों पर पट्ट कर बनाती हैं गणेशजी कीमति
मानिसवर्ड रिकॉर्ड
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