Book Title: Shrutsagar 2017 04 Volume 11
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org RNI:GUJMUL/2014/66126 ISSN 2454-3705 श्रुतसागर | श्रुतसागर SHRUTSAGAR (MONTHLY) April-2017, Volume: 03, Issue: 11, Annual Subscription Rs. 150/- Price Per copy Rs. 15/EDITOR: Hiren Kishorbhai Doshi Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir BOOK-POST/PRINTED MATTER IRO YAT TERM RYSTVE IVUTI For Private and Personal Use Only सम्राट् संप्रति संग्रहालय, कोबा स्थित ब्राह्मी चार्ट आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी की पावन निश्रा में भव्य पारणा महोत्सव HOURS सौम्यमूर्ति तपस्वी 3 मुनि श्री हर्ष पद्मसागरजी म.सा. For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra RNI : GUJMUL/2014/66126 www.kobatirth.org (आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र श्रुतसागर वार्षिक सदस्यता शुल्क-रु. १५०/ अंक शुल्क - रु. १५/ * संपादक हिरेन किशोरभाई दोशी SHRUTSAGAR (Monthly) वर्ष-३, अंक-११, कुल अंक-३५, अप्रैल-२०१७ Year-3, Issue-11, Total Issue-35, April-2017 Yearly Subscription - Rs.150/Issue per Copy Rs. 15/आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. * सह संपादक जैन महावीर आराधना Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रामप्रकाश झा एवं ज्ञानमंदिर परिवार १५ अप्रैल, २०१७, वि. सं. २०७३, चैत्र-कृष्ण-४ अमृतं ISSN 2454-3705 तु विद्या केन्द्र શ્રુતસાગર For Private and Personal Use Only * संपादन सहयोगी भाविन के. पण्ड्या प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर (जैन व प्राच्यविद्या शोध-संस्थान एवं ग्रन्थालय) श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फैक्स : (079) 23276249, वॉट्स-एप 7575001081 Website : www.kobatirth.org Email : gyanmandir@kobatirth.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनक्रम रामप्रकाश झा आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी Acharya Padmasagarsuri 4 100 1. संपादकीय 2. पूजा हेतु 3. Beyond Doubt 4. प्राचीन प्रतिमानो एक महत्वपूर्ण लेख 5. चोवीसजिन स्तवन 6. विविधविषयवादः 7. ऋषभपंचाशिका 8. जैन न्यायनो विकास 9. जैन श्रुतपरंपरा - कल, आज और कल 10. समाचार सार गणि सुयशचंद्रविजयजी आर्य मेहुलप्रभसागर अतुल ज्ञानोबा मस्के किरीट के. शाह. मुनि श्री धुरंधरविजयजी डॉ. हेमन्त कुमार भाविन के. पण्ड्या * प्राप्तिस्थान * आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर, होटल हेरीटेज़ की गली में डॉ. प्रणव नाणावटी क्लीनिक के पास, पालडी अहमदाबाद - ३८०००७, फोन नं. (०७९) २६५८२३५५ * सौजन्य स्व. श्री पारसमलजी गोलिया व | स्व. श्रीमती सुरजकँवर पारसमल गोलिया की पुण्य स्मृति में हस्ते : चाँदमल गोलिया परिवार की ओर से ___बीकानेर - मुम्बई KISAm-MEED For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संपादकीय रामप्रकाश झा श्रुतसागर का यह नवीन अंक आपके करकमलों में सादर समर्पित करते हुए अपार हर्ष की अनुभूति हो रही है। इस अंक में गुरुवाणी शीर्षक अन्तर्गत योगनिष्ठ आचार्यदेव श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा. का लेख “पूजा हेतु” के आगे का अंश प्रकाशित किया जा रहा है। इस लेख में जिनेश्वर वीतराग प्रभ के पूजन करने का उद्देश्य स्पष्ट किया गया है, इस लेख से “देवं भूत्वा यजेत् देवम” सक्ति आध्यात्मिक रूप से चरितार्थ हो रही है। द्वितीय लेख राष्ट्रसंत आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के प्रवचनांशों की पुस्तक 'Beyond Doubt' से क्रमबद्ध श्रेणी के अंतर्गत संकलित किया गया है। ___ अप्रकाशित कृति प्रकाशन स्तंभ के अन्तर्गत इस अंक में दो कृतियाँ प्रकाशित की जा रही हैं। प्रथम कृति गणिवर्य श्री सुयशचन्द्रविजयजी म. सा. द्वारा संपादित “प्राचीन प्रतिमानो एक महत्वपूर्ण लेख” नामक प्रतिमालेख दिया जा रहा है तथा द्वितीय कृति आर्य श्री मेहलप्रभसागरजी द्वारा संपादित एवं खरतरगच्छीय उपाध्याय श्री जयसागरजी रचित “चोवीसजिन स्तवन” नामक स्तवन प्रकाशित किया जा रहा अन्य विशिष्ट प्रकाशन स्तंभ अंतर्गत इस अंक में कवि धनपालरचित "ऋषभपंचाशिका” का प्रकाशन ब्राह्मीलिपि में किया जा रहा है। इस कृति का लिप्यंतरण कार्य किरीटभाई के. शाह द्वारा किया गया है। आशा है ब्राह्मी लिपि के अभ्यासुओं हेतु उपयोगी सिद्ध होगा। पुनःप्रकाशन श्रेणी के अन्तर्गत इस अंक में मुनि श्री धुरंधरविजयजी द्वारा लिखित लेख “जैन न्यायनो विकास” गतांक से आगे का अंश प्रकाशित किया जा रहा है. इसमें जैन दार्शनिक ग्रन्थकारों में से श्री वीराचार्य, श्री मुनिचंद्रसूरि, श्री चंद्रसूरि, मलधारी श्री हेमचंद्रसूरि तथा वादी देवसूरि जैसे महापुरुषों के जीवन-कवन का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। डॉ. हेमन्त कुमार द्वारा लिखित “जैन श्रुतपरंपरा- कल, आज और कल” नामक लेख प्रकाशित किया जा रहा है, जिसमें श्रुत परंपरा संबंधित संक्षिप्त परिचय दिया गया है. आशा है, इस अंक में संकलित सामग्री द्वारा हमारे वाचक लाभान्वित होंगे व अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से अवगत कराने की कृपा करेंगे, जिससे अगले अंक को और भी परिष्कृत किया जा सके। For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूजा हेतु (गतांकथी आगळ...) आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी श्री वीर प्रभुए छेल्लां वखते सोळ प्रहर सुधी देशना दीधी. श्रीवीर प्रभुए जगतने तारवा माटे जे उपदेश दीधो ते कदी भुलाय तेम नथी. तेमनां कंठनु वारंवार पूजन करीने तेमनां गुण प्राप्त करवा प्रयत्न करवो ए ज पूजकोनुं खरं कर्तव्य छे. प्रभुनु हृदय पूजीने प्रभुनां हृदयनी पेठे आपणुं हृदय शुद्ध बनाववा संकल्प करवो. प्रभुए ध्यान धरीने केवळज्ञान प्रगटाव्यु ते प्रमाणे आपणे पण ध्यान धरवा प्रयत्न करवो जोइए. छद्मस्थावस्थामां प्रभुए क्षमादि अनेक गुणोने हृदयमां धारण कर्यां हतां अने मेरु पर्वतनी पेठे हृदयमां धैर्य धारण करीने उपसर्गोथी चलायमान थयां नहोता. प्रभुनां हृदयने पूजीने प्रभुनां हृदयगुणो लेवा दृढ संकल्प करवो. प्रभुनु हृदय पूजीने ते, हृदय बनाववा दररोज चांपता उपायो लेवा. प्रभुनां हृदयमा रहेलां दरेक गुणोनुं स्मरण करीने प्रभुनुं हृदय पूजवामां आवे तो पूजकोनां हृदयनी शुद्धि थइ शके. प्रभुनां हृदयने पूजीने हृदयनां प्रत्येक गुणो लेवा दृढ संकल्प करवो. हे प्रभो! तमारं हृदय जेवू निर्मळ छे तेवू मारुं हृदय करवाने माटे हुं तमारं हृदय पूजीने दृढ संकल्प करीने मारुं हृदय आजथी शुद्ध बनाववा प्रयत्न करीश. मारां हृदयमा रहेलां क्रोधादिक दोषोने हवे हुं आपनुं हृदय पूजीने दूर करवा प्रयत्न करीश. आपनां हृदयर्नु आलंबन लेइ मारुं हृदय शुद्ध करवा आजथी खरा अंतःकरणथी प्रयत्न करीश. हे प्रभो! आपनां हृदयमां प्रगट थयेल ज्ञानने प्राप्त करवा माटे मारां हृदयनी आजथी हुं शुद्धि करीश. शुद्ध हृदयनी शुद्धतानो प्रकाश खरेखर शुद्ध हृदयमां पडी शके छे. आपनां हृदयनी पूज्यता अवबोधायाथी मारां हृदयमां आपनुं हृदय ध्येयाकार रीते परिणमावीश अने आपनां हृदयनां गुणो प्राप्त करीश. एम, हृदयनी पूजा करतां दृढ संकल्प करवो. जे लोको प्रभुनु हृदय पूजे छे अने प्रभुनां हृदयनां गुणो पोतानां हृदयमां प्रगटावतां नथी तेओ प्रभुनी हृदय पूजानु माहात्म्य सम्यग् अवबोधी शकतां नथी. पत्थर पण दोरडीनां घसाराथी घसाय छे, पण जेनु हृदय खरेखर प्रभुनां हृदयनी पूजा करतां पापथी दूर न थाय तो समजवू के ते जीव हजी संसारमा घणो वखत परिभ्रमण करशे. प्रभु हृदय पूजती वखते दररोज हृदयमां विचार करवो के प्रभुनु हृदय पूजीने मारां हृदयमां में क्या क्या गुणो प्रगटाव्यां अने हजी क्या क्या गुणो प्रगटाववानां बाकी छे. दररोज प्रभुनां हृदयने पूजीने गृहस्थ जैनोए हृदयनी शुद्धता करवा प्रयत्न करवो. पूजार्नु For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर अप्रैल-२०१७ निमित्त पामीने प्रभुनां हृदय गुणो स्मरण करवानो भाव प्रगट थाय छे. छद्मस्थावस्थामां श्रीप्रभुनां हृदयमां जेवी वैराग्य दशा हती, तेवी प्राप्त करवाने माटे प्रभुनी प्रार्थना करवी. छद्मस्थावस्थामां मैत्री, प्रमोद, माध्यस्थ अने कारूण्य ए चार भावना श्रीप्रभुनां हृदयमां प्रगटी हती, तेवी चार भावनाओ पोतानां हृदयमां प्रगटाववाने माटे प्रभुनु हृदय पूजती वखते दृढ संकल्प करवो. छद्मस्थावस्थामां प्रभुनां हृदयमां जेवो शुद्ध प्रेम हतो, तेवो प्रेम धारण करवा माटे हे प्रभो! हुं तमारां हृदयर्नु अनुकरण करुं छं. हे प्रभो! तमोए सर्व जीवोने शासन रसी बनाववानी भावना हृदयमां भावी हती, तेवी भावना हे प्रभो ! हुं तमारं हृदय पूजीने भावु छु. हे प्रभो! छद्मस्थावस्थामां तमारां हृदयमां जेवी दया हती तेवी दयाने धारण करवा माटे हुं तमारां हृदयने पूजु छु. हे प्रभो! तमारां हृदयनी गंभीरता प्राप्त करवा माटे हुं तमारां हृदयने पू© छु. हे प्रभो! तमारां जेवी निःसंग अवस्था प्राप्त करवा माटे हुं तमारां हृदयने पूजु छु. हे प्रभो! तमारां हृदयनी सरलता प्राप्त करवाने माटे हुं तमारां हृदयने पूजु छु. हे प्रभो तमोए दीक्षा अंगीकार करीने हृदयमां निर्ग्रन्थ दशानां गुणो प्रगटाव्यां तेवा गुणो मारां हृदयमां प्रगटाववाने हुं तमारां हृदयने पूजु छु. हे प्रभो! आपनां हृदयमां केवळज्ञान रूप सूर्य प्रगट्यो तेवो मारां हृदयमां केवळज्ञान रूप सूर्य प्रगटाववाने हुं आपनां हृदयनी पूजा करुं छु. प्रभुनां हृदयनी पूजा करती वखते प्रभुनां हृदयनी साथे पोतानां हृदय- ऐक्य करवा भावना राखवी. प्रभुनां हृदयने अनेक गुणोनु मन्दिर मानीने तेमां प्रवेश करीने प्रत्येक गुणनुं अत्यंत प्रेमथी स्मरण करवू अने प्रत्येक गुण पोतानां हृदयमां प्रगटे एवो दृढ संकल्प करवो. प्रभुनु हृदय पूजतां मारुं हृदय शुद्ध थाय छे, एवी भावना भाववी. प्रभुनां हृदयमां पोतानुं मन जोडीने तल्लीन बनी जवू. मारां हृदयनी शुद्धि करवा माटे ज प्रभुनां हृदयनुं आलंबन खास मारे करवू जोइए. प्रभुनां हृदयनुं ध्यान धरतां प्रभुनां हृदयने पूजतां मारुं हृदय पण अभ्यास बळे अन्ते एवं थशे एवो दृढ विश्वास धारण करवो. प्रभुनां हृदयनां गुणो स्मरतां, गावतां मारां हृदयमां गुणो प्रगट थवाना ज. कारण के ध्येय जेवू हृदय बनी जाय छे. हे प्रभो! तमोए अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, परिग्रह, त्यागी आदि गुणोने हृदयमां धारण करीने परमात्म दशा प्राप्त करी तेवा गुणो प्राप्त करवाने मन, वचन अने कायानां योगथी हं प्रयत्न करवा दृढ संकल्प करुं छु अने आप- हृदय पूजीने हुं आपनां जेवां गुणो धारण करवा आजथी प्रयत्न करीश. हे प्रभो! आपनी नाभि पूजीने आपणी नाभिनां गुणो लेवा आजथी प्रयत्न करीश. For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR ___April-2017 एम पूजकोए मनमा दृढ संकल्प धारण करवो. नाभिमांथी प्रगट थयेल विचार सिद्ध थाय छे, एम लोकमां कहेवत छे. हे प्रभो! आपनी नाभि अनेक गुणोनुं स्थान छे, माटे आपनी नाभिथी पूजा करीने तेवा गुणो प्राप्त करवा प्रयत्न करुं छु, एम पूजके भावना भाववी. प्रभुनुं संपूर्ण शरीर पूजवा योग्य छे. प्रभुनां नव अंग पूजवानां हेतुओ अनेक छे. तेनुं गुरूगमपूर्वक ज्ञान ग्रहण करवू जोइए. प्रभुनी प्रतिमा उपर घरेणां आंगी होय ते वखते मनमां भावना भाववी के, अहो! प्रभुए राज्यावस्थाथी सकल शोभानो त्याग करीने दीक्षा ग्रही त्यागी थयां अने हुं तो पौगलिक घरेणा-धन वगेरेनी ममतामां लीन बनी गयो छु. प्रभु राज्यावस्थामां पण अन्तरथी न्यारा रहेतां हतां, ते प्रमाणे हुं गृहस्थावासमां आजथी न्यारो रहेवा प्रयत्न करीश. पौद्गलिक वस्तुओनी ममता त्यागीश. प्रभुने न्हवरावती वखते प्रभुनां अतिशय वगेरेनुं चिंतवन करवू. तीर्थंकर प्रभु बाल्यावस्थाथी त्रिज्ञानी हतां, सम्यक्त्व धारी हतां वगेरे गुणोनुं चिंतवन करवू. प्रभुनां दरेक अंगने पूजीने गुणो ग्रहण करवानो भाव वधारवो अने गुणो ग्रहण करवा प्रयत्न करवो. प्रभुनी अष्ट प्रकारी पूजा करतां पूजाना मुख्य उद्देशोने हृदयमां धारण करवा. अमारी बनावेली अष्ट प्रकारी पूजामां द्रव्य अने भाव पूजा- सम्यग् स्वरूप दर्शाव्यु छे. जल, चंदन, पुष्प, धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य अने फलपूजा करती वखते दरेक पूजा वखते अन्तर्मी भाव जलादि पूजानी भावना भावीने तेवा गुणो अन्तर्मां प्रगटाववा प्रयत्न करवो. भिन्न भिन्न द्रव्य पूजाना भेदोथी भिन्न भिन्न आत्माना गुणो प्राप्त करवानो उद्देश हृदयमां धारण करवो जोइए. प्रभुनी प्रतिमामां प्रभुनो आरोप करीने प्रभुनु अवलंबन करीने प्रभुना जेवा गुणो पोताना आत्मामां प्रकटाववा शास्त्रोमां भक्ति सेवा वगेरेनुं कथन करवामां आव्युं छे अने ते यथायोग्य छे. अक्षर- अवलंबन करीने जेम ज्ञाननी प्राप्ति करवामां आवे छे तेम प्रभुनी प्रतिमान अवलंबन करीने सद्गणोनी प्राप्ति करी शकाय छे. प्रभुनी प्रतिमानुं आलंबन लेवाथी प्रभुनु चरित्र खरेखर हृदय पटपर खड़े करी शकाय छे. प्रभु प्रतिमाना उत्थापको सेंकडो वर्षथी प्रयत्न करे छे तो पण सनातन जैन धर्मना कोटनी एक इंट खेरववाने माटे पण जोइए तेवा तेओ समर्थ थया नथी. प्रभुनी प्रतिमाना उत्थापको गमे तेटलो प्रयत्न करे तो पण प्रतिमानी उत्थापना करवाने माटे विजयी निवडवाना नथी. साकार वस्तुना आलंबनद्वारा निराकार गुणोनी प्राप्ति करवा समर्थता प्राप्त करी शकाय छे. प्रभु प्रतिमानी आवश्यकता संबंधी लखवामां आवे तो एक महान् ग्रन्थ लखी शकाय. (वधु आवतां अंके...) For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Beyond Doubt (Continue...) Acharya Padmasagarsuri Like Mauryaputra, even today there are many people, who are doubtful about, the existence of the Devalokal and Devas. They come to believe in the existence of the heavenly beings only when someone performs a miracle and it is only by arduous efforts one achieves success in life and capacity to perform miracles. A friend of mine, once performed a miracle amidst a large audience. A big empty vessel was kept in front of the audience at a distance of about 30 ft. The friend then told the audience to name the things they desired. Ten people got up and asked for 10 different things. The vessel was then covered by a cloth. After a while, the person, asked for the cloth to be removed and took out the things as ordered by the people and gave them their respective things. The Additional collector of that district was also a witness to this happening. He did not believe this to be true and thought it to be some kind of magic. He said 'If you shall be able to bring a certain thing which is kept in the safe of my house the key of which is with me, I shall agree that the Gods are at your service and command.” The friend meditated for hardly a minute and opening his hand showed the thing, the collector had desired him to fetch it form his safe which was locked. The collector recognised his power and become a theist. The whole incident took place before my eyes. The friend of mine explained to me, how he was able to do so. It is a very simple process and only a little effort is required to master it. Our limitations of ascetic life do not permit us to undertake such experiments. “Dharmayuga' and 'The Times of India' published the incident which took place at the Rashtrapati Bhavan in the year 1954. Dr. Rajendra Prasad, the President of India, and Pandit Jawaharlal Nehru, both were present when the incident took place. One person walked up to Dr. Rajendra Prasad and said that if His Highness went upstairs and wrote something on paper and came back he will be able to tell what he had written. The President agreed to do so and came downstairs leaving the paper upstairs, on which he wrote something. This 1 Loka- World For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR April - 2017 person took a piece of paper and wrote the very words as if it was a carbon copy of it. Pandit Nehru asked him how he was able to do so. The person said it is a science which is beyond the reach of ordinary people. Pandit Nehru then asked the person if he could read his mind. The person did the same, and wrote down the Prime Minister's wavering thoughts on a piece of paper and handed it over to the Prime Minister. Nehruji was astonished, when the person wrote down the thoughts of his unsteady mind. There are many people whom I know have accomplished such ‘Siddhis''. When Lal Bahadur Shastri was the Prime Minister and Dr. Radhakrishnan was the President of India, the following incident took place in the Rashtrapati Bhawan. A five year old Brahmin boy eloquently recited many Vedic verses and lessons in front of a jampacked audience. He had in memory the entire Vedas. All the scholars and Pandits, present there were astonished and simultaneously quite pleased with the boy. They were forced to agree that the boy recited the Vedas better than themselves. The small boy did not know how to write and his speech too was not fluent, but still he was able to recite the Vedas profoundly. The boy was able to do so due to the Samskaras? of his previous birth. This incident proves the eternity of the soul and also the theory of reincarnation is proved. Another such incident which took place in Maharashtra is worth mentioning. Near Kolhapure, in Ichalkaranti, lived a Jain householder by name Shri Roopchand, he was educated and quite intelligent and was the Director of the Sangli Bank. He once constructed a new Bungalow for his family to live in. When the family locked the house and went out, the house was set fire on many occasions and many valuable articles got burnt. A resident of Nipani, D. C. Shah, told me about the incident and said that the Bungalow is haunted by some evil spirit and asked me to do something for the people living there. Though I had not encountered anything of this kind, I went to the palatial bungalow and saw the things that were damaged and burnt, though none of the residents suffered from any injury. They could not vacate the house because then no one would come forward to buy the beautiful house and hence they continued staying there. Hearing the whole incident, I asked them to make a survey of 1 Siddhis- Achievements 2 Sanskaras-Latent qualities For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर अप्रैल-२०१७ their land, as I had my own doubts of some impurity or dead body having been cremated there. When they looked into the old records of the Municipality, they discovered that the bungalow housed a grave that lay buried under. I then asked them to perform the 'Shantisnatra'1 and construct a platform with a lamp lit on the raised platform so that the evil spirit could be pleased and cause no trouble thereafter. When they carried out the instructions, the trouble subsided. The spirit was quietened by the recitation of the “Shantisnatra' and was satisfied by the light of the lamp. In today's world, only when one sees all this with one's own eyes one believes in them and in the existence of Devas, not otherwise. Having got the doubt cleared regarding the existence of the Gods Shri Mauryaputra along with his 350 disciples got initiated in the order as a Shramana like his brothers. After hearing the 'Tripadi’ he too worked out the Dvadashanga. Thus Mauryaputra became the 7th Gandhara. Akampitaji was the next to meet Lord Mahavira. The Lord addressed him, as he addressed his elder brothers. The Lord Said, “Oh Akampita, “न ह वै प्रेत्य नरके नारकास्सन्ति” i.e. after death there is no life in hell and “नारको वै एष जायते यः शूद्रान्नमश्नाति” i.e. one who eats the food cooked by an outcaste, will be born as a hellish creature. These two contradictory statements of the Vedas are the cause of your doubt. You are doubtful whether there is the existence of hellish creatures or not.” (Continue...) 1 Shantisnatra- A kind of Prayer प्राचीन साहित्य संशोधकों से अनरोध श्रुतसागर के इस अंक के माध्यम से प. पू. गुरुभगवन्तों तथा अप्रकाशित कृतियों के ऊपर संशोधन, सम्पादन करनेवाले सभी विद्वानों से निवेदन है कि आप जिस अप्रकाशित कृति का संशोधन, सम्पादन कर रहे हैं या किसी पूर्वप्रकाशित कृति का संशोधनपूर्वक पुनः प्रकाशन रहे हैं अथवा महत्त्वपूर्ण कृति का अनुवाद या नवसर्जन कर रहे हैं, तो कृपया उसकी सूचना हमें भिजवाएँ, इसे हम श्रुतसागर के माध्यम से सभी विद्वानों तक पहुँचाने का प्रयत्न करेंगे, जिससे समाज को यह ज्ञात हो सके कि किस कृति का सम्पादन कार्य कौन से विद्वान कर रहे हैं? यदि अन्य कोई विद्वान समान कृति पर कार्य कर रहे हों तो वे वैसा न कर अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियों का सम्पादन कर सकेंगे. निवेदक- सम्पादक (श्रुतसागर) For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्राचीन प्रतिमानो एक महत्वपूर्ण लेख Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणि सुयशचंद्रविजयजी [श्रुतसागर वर्ष-३ अंक-९मां 'पींडवाडा धातु प्रतिमानां अप्रगट लेखो' (पत्रांक१०-१२) आ लेख संबंधी चित्रो भूलथी मुखपृष्ठ पर अपायेल, जे प्रतिमाचित्रो हकीकतमां आ लेखने संलग्न छे, जे पाछळथी जाण थतां आ अंकमां ते मूर्तिसंबद्ध लेख अहीं आपवामां आवे छे. तो वाचकोने अनुरोध छे के आ लेखने सुधारीने वांचवं. आ क्षति तरफ ध्यान दोरवा माटे बदल अमो गणिवर्यश्री सुयशचंद्रविजयजीनां आभारी छीए तथा आ क्षति माटे अमो क्षमाप्रार्थी छीए. धन्यवाद. - संपादक ] हमणां थोडां समय पूर्वे एक मित्रे प्रश्न कर्यो के शिलालेखोमांथी कोई विशेष नोंध क ऐतिहासिक सामग्री जेवु कशुं मळे खरुं? त्यारे तो में तेने संतोष थाय तेवां थोडा शिलालेखो परथी तेने ते अंगे समजाव्यं हतुं. आजे एवां ज एक अप्रगट शिलालेखनां माध्यमे वाचकोनुं ते बाबते ध्यान दोरीश आशा छे वाचकोने गम.. शिलालेखो, प्रतिमालेखो के प्रशस्तिओ आ बधी ज सामग्री इतिहासने जोडती एक बहुमूल्य कडी छे. जुदा-जुदा काळमां, जुदी - जुदी शैलीमां, आरस, पाषाण के धातु विगेरेथी बनावायेली ते प्रतिमा क्या श्रावके भरावी? कई सालमां भरावी? क्या गच्छनां, कई शाखानां, क्या गुरुभगवंत पासे भरावी? तेमनी गुरु के शिष्यपरंपरामां कोई, कोण थयां? प्रतिमा भरावनार श्रावकनो अन्य परिवार केटलो हतो? वळी, ते श्रावक कई ज्ञातिनो, क्या वंशनो हतो? तेनुं गोत्र विगेरे शुं हतुं ? प्रतिमाजीनी स्थापना कोनी स्मृति माटे के पुण्यादि माटे थई हती? क्या गाममां, क्या जिनालयमां ते बिराजमान कराई हती आवी घणी सामग्री वांचवा मळे. पूर्वेनां काळमां वि.सं. ११मी पूर्वेनां लेखो घणुं करी ओछी विगतवाळां हतां. पण | काळक्रमे नवी नवी विगतो उमेराता ते लेखो उपरोक्त सामग्रीथी समृद्ध थयां. पू. रमणिकविजयजी, पं. कांतिसागरजी, विद्याविजयजी, जयंतविजयजी. | जेवां घणां दिग्गज विद्वानोए आवां लेखो पर काम समपात कर्तुं छे. वधु जाणवां इच्छतां जिज्ञासुए उपरोक्त मिनी विद्वानोनां पुस्तको जोवां. उपरोक्त प्रस्तुत चित्रमां For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 11 श्रुतसागर अप्रैल-२०१७ देखाती प्रतिमा श्री संभवनाथ भगवाननी छे. तेनो लेख नीचे मुजब छे. सं.१६०५ फागुण सुदि दसमी। श्रीसमेतशिखर। गागपत्नी तूरमिनी पुत्र खेतु लघुभ्राता प्रोतमल[लेन] सं० खेतु गुरु श्रीजिनभद्रसूरि । श्रीसंभवनाथ । श्रीरुद्रपल्लीयगच्छे भ० भावतिलक प्र०। भावार्थ- गागपत्नि तूरमिनीनां पुत्र संबंधी खेतुनां नानाभाई प्रोतमले खेतुनां गुरु श्री जिनभद्रसूरिजीनां [उपदेशथी] रुद्रपल्लीगच्छनां भट्टारक भावतिलकसूरिजी पासे वि.सं. १६०५ फागण सूद १०नां संमेतशिखर पर संभवनाथ भगवाननी प्रतिष्ठा करावी. __ अहीं प्रश्न थशे 'संमेतशिखर' शब्द अहीं शा कारणथी लखायो छे? आ प्रश्ननां जवाब माटे आपणे आपेल चित्र जोइशं. आ चित्रमा मूर्तिनी पाछळनी बाजुं २ गोळ कडीओ देखाय छे. आ कडी बिंब ढाळती वखते धातुनो रस रेडवा रखाई होय तेम लागतुं नथी उलटुटुं पाछळथी ते जोडाय होय तेवु लागे छे. अहिं एक कल्पना करीए के प्रतिमाजी नानां होई पडी न जाय तेवी इच्छाथी मूर्ति पाछळनी कडीओने कोइक खीला जेवां स्थानमां परोवी राखवा आq कर्यु होय. आपणे धातुनी प्राचीन, पंचतीर्थीओमां पबासनमा राखवामां आवेलां, धातुनां नानां भगवान माटेनी आवी व्यवस्था जोतां आव्यां छीए. कदाच आपणी कल्पना मुजब ज मूर्तिनी रचना होय तो जेम श्री संभवनाथ भगवाननी एक मूर्ति आवी होय अने तेनी स्थापना एक पथ्थरमां करवामां आवी होय, ते ज रीते समेतशिखरमां निर्वाण पामेल अन्य पण १९ तीर्थंकरोनी आवी ज रीते कडीवाळी मूर्तिओ हशे. वळी ते बधानी एक आरस के धातुना पट्टमां स्थापना कराई हशे. अने ते मूळ पट्ट काळक्रमे नाश पाम्यो हशे. पण तेनो आ संभवनाथ भगवानवाळो टुकडो कदाच बची जई आपणने मळ्यो होय तेवू बने. प्रतिमा जुदी-जुदी होय तेथी जुदा-जुदां व्यक्तिने ते-ते प्रतिमा भराववानां लाभो अपाया होय, पण उपरोक्त वात माटे एकाद पुरावो मळे त्यारे ज कल्पना संगत थाय अने इतिहासनां एकाद महत्वपूर्ण पासानु रहस्य खुल्लुं थाय. For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चोवीसजिन स्तवन आर्य मेहुलप्रभसागर कृति परिचय __चतुर्विध संघ के लिए उभय समय प्रतिक्रमण का विधान है। प्रतिक्रमण के छः आवश्यकों में से द्वितीय चतुर्विंशति आवश्यक में उन पवित्र आत्माओं को वंदनास्तवना की जाती है जिन्होंने अष्टकर्म रूपी शत्रुओं को पराजित कर मोक्षसुख को प्राप्त कर लिया है। उत्तराध्ययन सूत्र में परमात्मा महावीर ने स्तवन करने से जीव क्या प्राप्त करता है? इसके उत्तर में फरमाया है थयथुइमंगलेणं भंते! जीवे किं जणयइ? थयथुइमंगलेणं नाणदंसणचरित्तबोहिलाभंजणयइ । नाणदंसणचरित्तबोहिलाभसंपण्णे य जीवे अंतकीरियं कप्पविमाणोववत्तियं आराहणं आराहेइ। ___अर्थात् स्तव, स्तुति मंगल से जीव को ज्ञान, दर्शन, चारित्र, बोधिलाभ की प्राप्ति होती है एवं ज्ञान, दर्शन, चारित्र, बोधिलाभ से युक्त आत्मा आराधनायुक्त बनता है। उस आराधना से अंतःक्रिया मोक्ष को प्राप्त करता है, भवितव्यता परिपक्व न हुई हो तो सौधर्मादि वैमानिक देवलोक में आरोहण करता है फिर मुक्ति सुख को प्राप्त होता है। प्रस्तुत चौबीस जिन स्तवन में वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों के भक्ति निमित्त पांच बोल के द्वारा स्तवना की गई है। तीर्थंकरों के नाम, जन्म स्थान, माता-पिता और लांछन का वर्णन कर वंदना की गयी है। प्रस्तुत स्तवन प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं में गेय हैं। अंत में चौबीस तीर्थंकरों के शुद्ध नाम स्मरण से भव-भव में आपकी सेवा प्राप्त हो । बोधि बीज की प्राप्ति हो यह प्रार्थना की है। प्रायः अद्यावधि अप्रकाशित इस स्तवन की रचना विक्रम संवत् १४९३ में हुई है। कर्ता परिचय उपाध्याय जयसागरजी महाराज खरतरगच्छाचार्य श्री जिनराजसूरीश्वरजी महाराज के सुशिष्य थे। इनका आचार्य पद काल वि.सं. १४३३ से १४६१ तक का है। अतः उसी समय आपकी दीक्षा उनके कर-कमलों से संपन्न हुई। संवत् १४७५ में श्रुतसंरक्षक आचार्यों में मुर्धन्य श्री जिनभद्रसूरीश्वरजी महाराज ने आपको उपाध्याय पद से विभूषित किया। For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 13 श्रुतसागर अप्रैल-२०१७ आप सुकवि, गीतार्थ, प्रभावक थे। लक्षण साहित्य के आप विद्वान थे। संवत् १५०३ पालनपुर में रचित पृथ्वीचंद चरित में आपने अपनी दीक्षा, विद्या और पददाता गुरुओं का उल्लेख किया है तत्पट्टशाद्वलवक्षःस्थलकौस्तुभसन्निभः। श्री जिनराजसूरीन्द्रो योऽभूद्दीक्षागुरु मम ॥३॥ तदनु च श्रीजिनवर्द्धनसूरिः श्रीमानुदैदुदारमनाः। लक्षणसाहित्यादिग्रन्थेषु गुरु मम प्रथितः ॥४॥ श्रीजिनभद्रमुनीन्द्राः खरतरगणगगनपूर्णचन्द्रमसः। ते चोपाध्यायपदप्रदानतो मे परमपूज्याः ॥५॥ आपकी गृहस्थ अवस्था का परिचय अर्बुद प्राचीन जैन लेख संदोह भाग-२ के शिलालेख क्रमांक ४४२, ४४९, ४५५, ४५६, ४५७ और पाटण जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह के शिलालेख क्रमांक ५५२ के अनुसार ओसवाल दरड़ा गोत्रीय संघपति खीमसिंह के पुत्र हरिपाल की पत्नी सीता के पुत्र आसराज की भार्या सोषू के आप पुत्र थे। संघपति मंडलिक जिसने आबु महातीर्थ पर खरतरवसही नामक जैन मंदिर का निर्माण करवाया, वे आपके गृहस्थावस्था के भाई थे। लेखांक ४५५ द्रष्टव्य है ॥ सं० १५१५ वर्षे आषाढ वदि १शुक्रे श्रीअर्बुदगिरिमहातीर्थे ..... तत्पुत्र हरिपाल भा० सीतादे पुत्र सा० आसराज भार्या सोषू तत्पुत्र श्रीजयसागरोपाध्यायबांधवेन संघाधिपतिमंडलिकेन ..... परिवारसहितेन श्रीनवफणपार्श्वनाथबिंब कारितं प्रतिष्ठितं श्रीखरतरगच्छाधीश्वरश्रीजिनभद्रसूरिपट्टालंकार श्रीजिनचंद्रसूरिभिः॥ आपके द्वारा रचित संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और मरुगुर्जर भाषा में अनेक कृतियां प्राप्त होती है। जिनमें सं.१४७८ में पाटण में रचित पर्वरत्नावली, संदेह दोहावली टीका, गुरुपारतंत्र्य वृत्ति, उपसर्गहर वृत्ति, भावारिवारण वृत्ति, नेमिजिन स्तुति टीका, सर्वाधिष्ठायी स्तोत्र टीका, उक्ति समुच्चय आदि ग्रंथ प्राप्त होते हैं। ___ गेय रचनाओं में गिरनार, खंभात, मांडवगढ, शंखेश्वर, मरुकोट, नागद्रह, जीरापल्ली, नगरकोटादि सहित चैत्यपरिपाटी स्तव, विनती स्तवन, जिनकुशलसूरि सप्ततिका, वयरस्वामी रास, गौतमस्वामी चतुष्पदिका, नेमिनाथ विवाहलो, अर्बुद तीर्थ विज्ञप्ति, पंचवर्गपरिहार पार्श्व स्तोत्र, चौबीस जिन कालगर्भित स्तवन आदि पचासों रचनाओं से साहित्य को समृद्ध किया। For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org SHRUTSAGAR 14 April -2017 संघपति अभयचंद्र के निकाले हुए यात्रासंघ के साथ आपने मरुकोट महातीर्थ की यात्रा की। फरीदपुर नगर में आपने कई ब्रह्म-क्षत्रियों को जैन बनाया, सिंधुपंजाब आदि प्रदेशों में जैन धर्म का प्रसार, अप्रसिद्ध तीर्थ इत्यादि अनेक वृत्तांत से गुंफित विस्तृत वर्णन वाला पत्र विज्ञप्ति त्रिवेणी के नाम से रचकर संवत् १४८४ माघ सुदि १० को आचार्य जिनभद्रसूरिजी महाराज को भेजा था। जो प्रकाशित है। तत्कालीन अनेक नगरों और तीर्थों के नाम इस पत्र में प्राप्त होते हैं। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य श्री जिनभद्रसूरिजी महाराज के श्रुतसंरक्षण के भगीरथ कार्य में उपाध्याय जयसागरजी महाराज का भी पूरा सहयोग रहा था। आपका शिष्य परंपरा भी विशाल रही है। शिष्यों में मेघराज गणी, सोमकुंजर, रत्नचंद्रोपाध्याय आदि नाम सुविख्यात है। शिष्य परंपरा में भक्तिलाभोपाध्याय, पाठक चारित्रसार, ज्ञानविमलोपाध्याय, श्रीवल्लभोपाध्याय आदि अनेक विद्वान हुए हैं। प्रति परिचय चौबीस जिनेश्वर स्तवन नामक हस्तलिखित कृति की प्रतिलिपि राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर संग्रहालय से महेन्द्रसिंहजी भंसाली (अध्यक्ष जैन ट्रस्ट, जैसलमेर) के शुभप्रयत्न से प्राप्त हुई है। जोधपुर में इस पुस्तकनुमा हस्तलिखित प्रति क्रमांक ३१२२५ में अनेक लघु-दीर्घ रचनाओं के साथ प्रस्तुत कृति पृष्ठ संख्या २७९ पर लिखी हुई है। प्रति के हर पृष्ठ पर प्रायः उन्नीस पंक्ति और हर पंक्ति में लगभग बारह अक्षर है । अक्षर सुंदर व स्पष्ट है। अक्षरमिलान व पाठांतर आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा के प्रति क्रमांक ४७५२२ से लिए गये है। एतदर्थ वे साधुवादार्ह हैं। जयसागरोपाध्याय विरचित श्री चोवीसे जिन स्तवन सयल जिणेसर प्रणमुं पाय, सरसति सामणि द्यो मति माय । हीयडै समरूं श्रीगुरु नाम, जिम मनवंछित सीझै काम चौवीसै जिणवर माय पिता, नाम ठांम लंछण जे हुता । पांचे बोले करी प्रधान, करिस तवन मुंकी अभिमान' पहिला प्रणमुं ऋषभजिणंद, नाभिराय मरुदेवी नंद । ऊंची काय धनुष पांच सै, वृषभ लंछण वनिता वसै For Private and Personal Use Only 11211 ॥२॥ ॥३॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 15 अप्रैल-२०१७ ॥४॥ ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ ॥८॥ ॥९॥ श्रुतसागर बीजा अजित अयोध्या ठांम, गज लंछण प्रणमुं अभिराम। जितशत्रु विजया राणी पुत्र, जेणे जीता सगला शत्र तीजा संभव सुखदातार, सावत्थी नयरी अवतार । पिता जितारथ सेना' माय, हय लंछण सोवनमय काय चोथो चिहुंगति भंजन साम, विनिता नयरी जेहनु ठाम । संवर पिता सिद्धारथ माय, प्लवगरे लंछन अभिनंदन राय समरूं समति जिणेसर देव, लंछण क्रोंच करै जस सेव। नयरी जास भली कोसला, मेघ पिता माता मंगला कोसंबी नयरी धरराय, राणी सुसीमा जेहनी माय । पदमप्रभु प्रणमुंजिणराय, पदम लंछण रतुपल काय स्वस्तिक लंछण सामि सुपास, तूठो टालै गर्भावास। पयठ नरेसर पृथिवी माय, वाणारसी नयरी वर ठाय ससि लंछण चंद्रप्रभु देव, चोसठ इंद्र करे जसु सेव। महसेन पिता माता लक्ष्मणा', नयरी जेहनी चंद्रायणा काकंदी नयरी अभिराम, लंछण मगर सुविधिजिन नाम । सुग्रीव पिता माता जसु राम, पुप्फदंत बीजो तसु नाम सीतल सहजै सुख दातार, भद्दलपुर स्वामी अवतार । दृढरथ राजा नंदामाय, श्रीवच्छ लंछण प्रणमुंपाय श्रेयांस कहीयै अग्यारमो, खडगी लंछण भावि नमो। सीहपुरी राजा श्री विष्णु, माता जेहनी सुणीयै विष्णु चंपानयरी वसुपूज्य राय, जयादेवी राणी जसु माय । वासुपूज्य जिणवर बारमो, महिष लंछन भावै नमो कंपिलपुर राजा कृतवर्म, सामा राणी अछै सुधर्म । सुयर लंछण सामी विमल, वूठो आपै पदवी अमल अयोध्या नयरी उत्तमठांम, अनंतनाथ सामी नुं नाम । सीहसेन सुजसा जसु माय, सीचाणुं लंछण तसु पाय रतनपुरी राजा श्री भांण, सुव्रता राणी मात सुजाण । मुगतिपुरी नो सुधो साथ, वज्र लंछण प्रणमुं धर्मनाथ ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 16 ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२३॥ SHRUTSAGAR April -2017 शांतिनाथ सोलमो जिणंद, जास प्रसंसा करै सुरिंद । मृग लंछण गजपुर जस ठांम, विश्वसेन अचिरा माय नुं नाम ॥१८॥ कुंथुनाथ प्रथ्वी सुप्रसिद्ध २, तूठो आपै पदवी सिद्ध। सुरराय माता जसु सिरी, लंछण छाग नयरी जइपुरी ४ गजपुर नयरी सुदर्शनराय, देवी राणी अरिजिन माय। लंछण नंदावर्त प्रधान, त्रीस धनुष सामी नुं मान मिथुला नगरी महिमा घणी, राजा कुंभ पुत्री तसु तणी। प्रभावती राणी तसु माय, कलस लंछण प्रणमुमल्लिराय ॥२१॥ राजग्रही राजा श्री सुमित्र, पदमावती राणी नो पत्र। मुनिसुव्रत लंछण काछबो, प्रणमुंभावै जिन वीसमो ॥२२॥ विप्रा राणी राजा विजय, मिथुला नयरी नृपजण अजय । नीलोत्पल लंछण जसु संग, कनकवर्ण नमि नो छे रंग'५ सौरीपुर स्वामी श्री नेम, मुक्तिवधू जिण परणी खेम। समुद्रविजय शिवादेवी नंद, शंख लंछण प्रणमुं आणंद ॥२४॥ अश्वसेन पिता वामा माय, वाणारसी लंछण नागराय। तेवीसमो जिणेसर पास, प्रगट प्रभावै पूरै आस ॥२५॥ श्री सिद्धारथ त्रिसला माय, कुंडणपुर लंछन मगराय। वर्द्धमान जिण चौवीसमो, कर जोडीने भावे नमो ॥२६॥ चोवीसे जिणवर ना नाम, बोल्या सुध समरण ना काम। भव भव मांगू एहज सेव, बोधबीज साची जिनदेव संवत चवदे सौ त्राणवो, खरतर गच्छनायक अभिनवो। श्रीजिनभद्रसूरि सुपसाय, पभणै श्री जयसागर उवझाय ॥२८॥ ॥ इति चोवीस तीर्थंकर स्तवन संपूर्णम् ।। पाठांतर १. अभिराम, २. जितारि ससेना, ३. कपि, ४. छठो, ५. रक्तोत्पल, ६. प्रतिष्ठ, ७. लछणा, ८. थुणीयै, ९. श्यामा राणी सदा, १०. सुखदाय, ११. हथणापुर, १२. पूहवी परसिद्ध, १३. अविचल, १४. गजपुरी, १५. निमि जिन प्रणमूं मनै रंग । ॥२७॥ For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविधविषयवादः अतुल ज्ञानोबा मस्के अज्ञातकर्तृकोऽयं लघुग्रन्थः अद्यावधिरप्रकाशितो भाति। अस्मिन् लघुग्रन्थे अनेकान् प्रश्नान् समुपस्थाप्य जैनपरम्परामनुसृत्य प्रमाणभूतग्रन्थान् पर्यालोच्य समादधति ग्रन्थकारः स्वयमेव। यद्यपि ग्रन्थनाम नोपलभ्यते ग्रन्थे तथापि ग्रन्थगतविषायान् पर्यालोच्य अस्याः कृतेः नाम “विविधविषयवादः” इति स्थापितम्। अस्मिन् ग्रन्थे शुद्धक्षायिकनिरूपणम्, अशुद्धक्षायिकनिरूपणम्, रात्रौ प्रदीपविचारः, युगपज्जिनजन्मविचारः इत्येतान् दशविकल्पान् उत्सर्गापवादेन प्रत्यपादीत् ग्रन्थकारः । हस्तप्रतपरिचयः __इयं हस्तप्रतिः छह-कोटी-स्थानकवासी-जैनज्ञानभण्डार-माण्डवी (कच्छ) तः सम्प्राप्ता। हस्तप्रतस्थितिरुत्कृष्टा वर्तते । हस्ताक्षरं शोभनं दृश्यते। अस्य ग्रन्थस्य ४ पत्राणि (फोलीओ), प्रतिपत्रे ११ पङ्क्तयः, प्रतिपङ्क्तौ सम्भाविताक्षराणि २६ विद्यन्ते। ग्रन्थकर्तृविषये कापि विज्ञप्तिः नोपलभ्यते। सम्पादने आदौ सम्पूर्णः ग्रन्थः लिप्यन्तरितः। तदुत्तरं व्याकरणगतक्षतयः निष्कासिताः। विशेषनामानि नाम ग्रन्थनाम, व्यक्तिनाम, ग्रन्थकर्तुः नाम पृथ्वक्षरे स्थापितम्। ग्रन्थगतानि उद्धरणानि [Italic] मध्ये प्रदर्शितानि । तत्र तत्र विषयनिर्देशोऽपि [ ] अस्मिन् कोष्ठके कृतः। अपेक्षितः पाठः ( ) अस्मिन् कोष्ठके न्यस्तः। यद्यपि लघुग्रन्थः तथापि बह्वर्थप्रतिपादकत्वाद्वाचकोपयोगी भवेदिति आशासे। क्षतयः सूचयन्ति विद्वांसः। __[शुद्धक्षायिकनिरूपणम् ] [१] ननु सप्तक्षये क्षायिकमित्युक्तत्वात् सति क्षायिके कथं कृष्णश्रेणिकौ नरकं जग्मतुरिति। उच्यते-द्विधा क्षायिकं शुद्धमशुद्धं च। तत्रानयोरशुद्धं क्षायिकं तस्य सादिसपर्यवसितत्वाद् इत्यविरोधः। यदुक्तं नवपदप्रकरणवृत्तौ-क्षायिकस्य शुद्धाशुद्धभेदेन द्विभेदत्वात्। तत्रापायसद्व्यविकलानां भवस्थकेवलिनां मुक्तानां च या सम्यग्दृष्टिः तच्छुद्धं क्षायिकम्। तस्य च साद्यपर्यवसानत्वान्नास्त्यैव भङ्गः । यदाह गन्धहस्ती-भवस्थकेवलिनो द्विविधस्य सयोगायोगिभेदस्य सिद्धस्य च दर्शनमोहनीयसप्तकक्षयाविर्भूता प्रकटीभूता सम्यग्दृष्टी(ष्टिः) सादिरपर्यवसानेति । For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 18 April-2017 [अशुद्धक्षायिकनिरूपणम्] या त्वपायसहचारिणि श्रेणिकादेरिव सम्यग्दृष्टिस्तदशुद्धक्षायिकम्, तस्य च सादिसपर्यवसानत्वाद् अस्ति प्रतिपातः । यदुक्तं गन्धहस्तिना तत्र या च अपायसद्र्व्यवर्तिनि अपायोऽमनिज्ञानांशः सद्व्याणि शुद्धसम्यक्त्वदलिकानि तद्वर्तिनी श्रेणिकादी न च सद्र्व्यापगमे भवत्यपायसहचारिणि सा च सादिसपर्यवसाना चेति। केवलज्ञानोत्पत्तौ अपायक्षयेऽपायो मतिज्ञानासस्तत् क्षयेऽश्री भवति न प्रथम कषायोदये तत्काले तदुदयाभावात् तत् क्षये एव तस्योत्पत्तिरित्यलं प्रसङ्गेन इति। शुद्धाशुद्धक्षायिकं द्विभेदं देवानामेकस्मिन् नाटके चतुर्वर्षसहस्राणि गच्छन्तीति श्रीपार्श्वचरित्ने प्रा(प्रो)क्तमस्ति। [रात्रौ प्रदीपविचारः] । [२] ननु साधूनामनशने रात्रौ प्रदीपः क्रियते न वा? उच्यते- क्रियते। श्रीआवश्यकबृहद्वत्तौ परिस्थापनाधिकारे ३०० पत्रेऽनशनिनो दीपकरणस्य प्रतिपादितत्वात्। [युगपज्जिनजन्मविचारः] [३] ननु जम्बुद्वीपे एकस्मिन् समये उत्कृष्टतः कियतां जिनानां जन्म? उच्यतेचतुर्णामेव जिनानां युगपज्जन्म । तथाहि—मेरोः पूर्वापरशिलातलयो· द्वे एव सिंहासने भवतः। तत्र द्वं(द्वौ) तौ द्वावेवाभिषिच्यते दक्षिणोत्तरयोस्तु तदानी दिवससद्भावान्न भरतैरावतयोर्जिनोत्पत्तिरर्धरात्रे एव जिनोत्पत्ति इति जम्बूद्वीपे उत्कृष्टपदेऽपि जिनचतुष्टयजन्मेति। [विकलेन्द्रियरुधिरविचारः] [४] ननु विकलेन्द्रियाणां रुधिरं भवति वा न वा? उच्यते-भवत्येव । श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तौ द्वितीयस्थाने प्रथमोद्देशके प्रतिपादितमस्ति। [क्षयोपशमिकसम्यक्त्वविचारः] । [५] ननु अनादिकालाज्जन्तुः सम्यक्त्वं लभते तदा किं क्षयोपशम(मि)कं सम्यक्त्वं प्रथमतो लभते? किं वा उपशम(मि)कं सम्यक्त्वम्? उच्यते-अतिविशुद्धो जीवः क्षायोपशमिकम्, मन्दविशुद्धस्तु औपशमिकम् । यदुक्तं श्रीबृहत्कल्पे। तथाहिइयमत्र भावनाद्विविधस्तत्प्रथमतया सम्यग्दर्शनप्रतिपत्तातिविशुद्धो मन्दविशुद्धश्च । तत्र For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर अप्रैल-२०१७ योऽतिविशुद्धः सोऽपूर्वकरणमारूढो मिथ्यात्वं पुञ्जीकरेति कृत्वा च अनिवृत्तकरणे प्रविष्टः तत्र प्रथमकरणतया क्षायोपशमिकं सम्यग्दर्शनमासादयति सम्यक्त्वपुञ्जोदयात्। यस्तु मन्दविशुद्धः सोऽपूर्वकरणमप्यारूढस्तीव्राध्यवसायाभावान्न मिथ्यात्वं त्रिपुञ्जीकर्तुमलं ततो (s)निवृत्तकरणमुपगतोऽन्तरकरणं कृत्वा तत्र प्रविष्टस्तत्र प्रथमतया उपशमसम्यग्दर्शनमनुभवति अन्तरकरणं च अन्तर्मुहूर्तप्रमाणमतः तदद्धाक्षयेऽन्येषां पुद्गलानामभावतो मिथ्यात्वमेति इति प्रथमतो जीवः क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वम् उपशमसम्यक्त्वं वा लभते इति। जम्बूद्वीपे एकस्मिन् समये उत्कृष्टपदे चतुर्णामेव जिनानां युगपज्जन्म। यदुक्तं समवायाङ्गसूत्रवृत्तौ-जंबुद्दीवेणं भंते! उक्कोसए चउ तित्थंकरासुमुप्पज्जंति। मेरोः पूर्वापरशिलातलयोढ़े द्वे एव सिंहासने भवतः, तौ द्वावेवाभिषिच्येते द्वयोर्द्वयोर्जन्मेति दक्षिणोत्तरयोस्तु तदानी दिवससद्भावान्न भरतैराव तयोर्जिनोत्पत्तिरर्धरात्रे एव जिनोत्पत्तिरिति। [साधूनां दिवा शयनविचारः] [६] ननु साधूनां दिवसे शयनं कल्पते न वा? उच्यते-उत्सर्गतो न कल्पते एव । परं मार्गपरिश्रान्तग्लानादीनां दिवा शयनं कल्पते एव। श्रीओघनियुक्तिसूत्रे ४१८ गाथायां प्रतिपादितमस्ति। [लब्ध्यपर्याप्तकविचारः] [७] ननु लब्ध्यपर्याप्तकाः करणापर्यप्ताकाश्च कथं भवन्ति? उच्यते सो लद्धिऽपज्जत्तो जो मरइ अपूरिय सपज्जत्ति । लद्धिपज्जत्तो सो पुण जो मरइ ताओ पूरित्ता ॥१॥ न जवि पूरेइ परं पूरिस इह करणअपज्जत्तो। सो पुण करणपज्जत्तो जेणं ता पूरिआ हूंति ॥२॥ ___ अपर्याप्तका द्विधा लब्ध्याकरणैश्च तत्र यै(ये)ऽपर्याप्तका एव सन्तो म्रियन्ते पुनः स्वयोग्यपर्याप्तीः सर्वापि समर्थये ते ते लब्धापर्याप्तकाः। [करणापर्याप्तकविचारः ] ये पुनः करणानि शरीरेन्द्रियादीनि न तावन्निवर्तयन्ति अवश्यं पुरस्तान्निवर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्तकाः। इह चैवमागताः लब्ध्यपर्याप्तका अपि नियमादाहारशरीरेन्द्रिय पर्याप्तिपरिसमाप्तावेव म्रियन्ते नार्वाक् यद् आगामिभवायुर्व(4)ध्वा नियन्ते सर्वे एव देहिनस्तच्च आहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपर्याप्तानामेवेति । For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 20 April-2017 [समवसरणमानविचारः] [८] ननु बारसजोयणमुसभे, समवसरणं च नेमिजिण(ण) जाव। दो दो गाउ(ऊ) ऊणं, पासे पणकोसचउ वीरे ॥१॥ इयं गाथा छूटकपत्रे लिखिता प्रवर्तमाना च दृश्यते । परं प्रमाणमप्रमाणम् उच्यते। अप्रमाणमेवेति सम्भाव्यते प्रमाणीभूतशास्त्रेष्वसत्वाद्। आवश्यकनियुक्त्यादि श(शा)स्त्रानुक्तत्वेनाङ्ग(ग)मविरुद्धत्वाच्च आवश्यके योजनमानमेवोक्तम् । ननु तत्र सामान्यतया योजनप्रमाणं प्रतिपादितं परं क्वापि ग्रन्थे ऋषभदेवस्य नाम ग्राहं योजनप्रमितमुक्तं न वा? उच्यते-श्रीहेमाचार्य श्रीआदिनाथचरित्ने तृतीयसर्गे योजनप्रमाणस्यैवोक्तत्वात् । तत्पाठश्चायम् ततः समवसरणस्य अवनीमेकयोजनाम् अमृजन् वायुकुमाराय यं मार्जितमानिन इति। [मुक्ताफलादीनां सचित्ताचित्तविचारः] [९] ननु केचिद्वदन्ति विद्धमुक्ताप्रवालानि प्रासुकानि अविद्धानि तु सचित्तानि तत्सत्यमसत्यं वा? उच्यते-मुक्ताफलानि विद्धानि अविद्धानि च स्वस्थानच्युतानि सर्वाण्यपि प्रासुकान्येव एवं मणिसुवर्णरत्नं संष(शङ्ख)प्रवालादीन्यपि। तथा चोक्तमनुयोगद्वारसूत्रे से किं तं लोए तिविहे पन्नत्ते तं सचित्ते अचित्ते मीसए । से किं तं सचित्ते तिविहे पन्नत्ते? दुपयाणं चउपयाणं अपयाण दुपयाणं दास दास दासीणं चउपयाणं आसाणं हत्थीणं अपयाणं बंभयाण अंव्यद्गगाणं आयांसवाणं से किं तं अचित्ते? सुवण्णमणिमु त्तिअसंखसिलप्पवालरयणाइणि लोइए आहिए इति । [साधुत्वविचारः] [१०] ननु ज्ञानं दर्शनचारित्राणामभावेऽपि व्यवहारतः साधव एते इति कथ्यते न वा? उच्यते-कथ्यते । यदुक्तमावश्यकहरिभद्रवृत्तौ वदनाध्ययने । तथाहि दंशणनाणचरित्तेत्ति । प्राकृतसै(शै)ल्याच्छांदसत्वाच्च ज्ञानदर्शनचारित्राणां तथा तपोविनययोनिच्चकालपासच्छति। सर्वकालं पार्श्व तिष्ठन्ति सर्वकालपार्श्वस्था नित्य कालग्रहणमित्वरप्रमादव्यवच्छेदार्थं तथा इत्वरप्रमादा निश्चयतो ज्ञानाद्यप्रमत्तेऽपि व्यवहारतस्तु साधव एवेति । इति व्यवहारतः साधवः । इति ॥ लि.भाइडायाचंदेन ॥श्रीः ॥श्रीः ॥श्रीः ॥ For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ऋषभपंचाशिका ब्राह्मी लिपिमां एक प्रयास Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किरीट के. शाह. ब्राह्मीलिपिने उजागर करवा माटे श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर द्वारा श्रुतसागर मेगेझिन दर महिने नियमित प्रकाशित थाय छे, तेनां ओक्टोम्बर २०१६मां श्री आदिनाथ वंदना शीर्षकथी कवि श्री धनपालकृत ‘ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि' जेनी २१ गाथा प्राकृत भाषामा छे अने देवनागरी लिपिनी जग्याए ब्राह्मी लिपिमां गाथाबद्ध करी. ते छपाई गयुं ते पछी कवि श्री धनपालनी बीजी कृति 'ऋषभपंचाशिका' नी ५० गाथाने ब्राह्मी लिपिमां गाथाबद्ध करी, जे परम पूज्य आ. श्री पद्मसागरसूरिजी म.सा.नां कृपापात्र परम पूज्य आचार्य श्री अजयसागरसूरिजीनी प्रेरणाथी श्रुतसागर मासिकनां माध्यमथी वाचकवर्गनां करकमलोमां प्रस्तुत छे. अगाउ पण जणावी चुक्यो छु के हुं कोई लिपि विशेषज्ञ नथी के नथी विद्वद्भोग्य साहित्य रची शकुं तेवो सक्षम अने नथी ब्राह्मी लिपिनां पुरातन शिलालेखो उकेली शकुं तेवी कुशळता धरावनार. परंतु पूर्वे विद्वानोए ब्राह्मी लिपिनां छेल्ले मूळाक्षरोनां मरोड-आकार नक्की कर्यां, ते मुजब कोम्प्युटर द्वारा कक्को - बाराक्षरी तैयार कराव्यां अने ते मुजब कोई पण भाषानां काव्यो, स्तोत्रो के कथानको आलेखाय तो ब्राह्मी लिपि लुप्त थवामां छे तेने कंईक अंशे आवती पेढी माटे टकावी शकाशे, तेवां आशयथी कोम्प्युटरनां माध्यमथी भारत देशनी सौथी प्राचीन एटले के ई.स. त्रीजी सदी पूर्वेनी अने लिपिओनी जननी ब्राह्मी लिपिमां प्राकृत भाषानी कृतिओ मुद्रित करवानो प्रयत्न कर्यो छे. घणी व्यक्तिओने आ प्रयत्न निरर्थक लाग्यो छे अने लागे तेनां पण कारणो तेओ पासे हशे, परंतु मारो तो एकज आशय छे के जैन जगतमां अवतरेल युगादिदेव श्री ऋषभदेव द्वारा प्रदत्त अने ब्राह्मी द्वारा झीलायेल आ ब्राह्मी लिपिने प्रकाशमां लाववानो एक मात्र आशय छे. आ कार्यनां प्रयत्नमां मार्गदर्शन तेमज प्रुफरिडींग करी आपनार पू. आ. श्री शीलचंद्रसूरिजीनां शिष्यरत्न पू. श्री कल्याणकीर्तिविजयजी म.सा. तेमज प.पू. आ. श्री ॐकारसूरिजी समुदायनां पू. आ. श्री मुनिचंद्रसूरिजीनी सूचनाथी तेमनां ज समुदायनां ज्ञानपिपासु साध्वीजी श्री समर्पण श्रीजी म.सा. सहायक थयां छे तेओनो For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 22 SHRUTSAGAR April -2017 ऋणी छु, तेमज कोबा(गांधीनगर)स्थित आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिरनां सर्वे विद्वद्वर्योनो आ तके आभार मानु छु. ब्राह्मी लिपिने प्रकाशमां लाववानां प्रयत्नमा क्षतिओ रही गई होय, तो विद्वानो योग्य प्रतिभाव आपे तेवी आग्रहभरी नम्र विनंती. CETf ऋषभ पंचाशिका ६. Ek- httld dl TAJBIA जय जंतु कप्पपायव, चंदावय रागपंकयवणस्स। AJJERUNHF RJHUF 18 1 ॥१॥ सयलमुणिगामगामणि, तिलोअचूडामणि नमो ते ॥१॥ EL TIEJIEJL} EJL{FISIITTI जय रोसजलणजलहर, कुलहर वरनाणदंसणसिरीणं । ४ाgtL5J IJE AIAFI LLI ॥२॥ मोहतिमिरोहदिणयर, नयर गुणगणाण पउराणं ॥२॥ 16 +0d BLPAN'' +SPAPLI४ दिट्ठो कह वि विहडिए, गंठिम्मि कवाडसंपुडघणंमि। ४DICIATI FIE४ ॥३॥ मोहंधयारचारयगएण दियणरुव्व तुमं ॥३॥ o'xt8FI ÉIG 4LSTILLELEI भविअकमलाण जिणरवि, तुहदंसणपहरिसूससंताणं । 60 .:. dur ४४::: ॥४॥ दढबद्धा इव विहडंति, मोहतमभमरविंदाइं JIUf E४४ लट्ठत्तणाभिमाणो, सव्वो सव्वट्टसुरविमाणस्स । ॥४॥ For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर www.kobatirth.org 23 6.: IL IC‡J^{6FU5LEZ 18 पइं नाह नाहिकुलगरघरावयारुम्मुहे नो d'K2JL85456J4 AL}+k£४ L:: पइं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिंतादुल्लहमुक्खसुक्खफलए, अउव्वकप्पदुमे । 1 +lk 16 ॥६॥ जयगुरूत्था इव पओत्था ॥६॥ अवइन्ने कप्पतरू, प्र{Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra SHRUTSAGAR mpöthday:: बंधुविहत्तवसुमई, सोहसि पसाहिअंसो, www.kobatirth.org 24 _Kkb† 4f r' ४ ] ॥११॥ धीर पडिवन्नो ॥११॥ जह तं तह को अन्नो, निअमधुरं tut_utty'*_ +€J+'IC JA£ t जाहिं । उवसामिआ Y6\661£¥{JJq[uget b कज्जलकसिणाहिं जयगुरु अवगूढविसज्जिअरायलच्छिबाहच्छडाहिं It वच्छरमच्छिन्नदिन्नधणनिवाहो । YIK ু'त्र +€ अभणंत च्चिअ कज्जं, ४° 6' kb:J"F मुणिणो वि तुहल्लीणा, .II&f97_VY_YY3IK KAY97 अणज्जा, देसेसु तए Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व पवन्नमोणेणं । 186 18 नमिविनमी तह भद्दं से सेअंसस्स, जेण तवसोसिओ BEAK 1861 YLI वरिसंते निव्वविओ, मेहेण ICC AEE ॥१३॥ परस्स साहंति सप्पुरिसा ॥१३॥ April 2017 For Private and Personal Use Only ny A£¥F_dJI76 1 rJt + गुरुआणा चलणसेवा, न निष्फला होइ कइआ ardh koti'l I' ॥१२॥ ॥१२॥ to ↓ खेअराहिवा जाया । ४ ॥ १४॥ वि ॥१४॥ निराहारो । BIRY K॥१५॥ व वणदुमो तं सि ॥१५॥ (वधु आवतां अंके...) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन न्यायनो विकास (गतांक से आगे...) मुनि श्री धुरंधरविजयजी आ सिवाय रन्तप्रभसूरि, महेश्वराचार्य, सोमप्रभसूरि, उदयप्रभदेव, प्रद्यम्नाचार्य, मुनिदेवसूरि, सोमचंद्र पंडित, मेरुतुंगाचार्य, मुनिभद्रसूरि, गुणरत्नसूरि, मुनिसुन्दरसूरि, धर्मसागर उपाध्याक वगेरेए अनेक स्थले आ वादने माटे सूरिजीनी अनेक प्रकारे प्रौढ कीर्तिनी विख्याति करी छे. यशश्चन्द्रे तो आ वादना सम्पूर्ण प्रसंगर्नु वर्णन आपतुं 'मुद्रितकुमुदचन्द्र प्रकरण रच्यु छे, जे घणु रोचक छे. तेमनामां ग्रन्थरचनानी शक्ति पण अद्भूत हती. तेओए जैन न्यायना प्रवेश माटे उपयोगमां आवे तेवो ३७४ सूत्र प्रमाणे 'प्रमाणनतत्त्वालोकालंकार' नामनो न्यायनो मूलग्रन्थ आठ परिच्छेदमां रच्यो छे. तेना पर तेओश्रीए ज 'स्याद्वादरत्नार' नामनी विस्तृत वृत्ति लखी छे, तेनुं प्रमाण ८४००० हजार श्लोक जेटलुं छे. तेमां दार्शनिक विषयो- सुन्दर खंडनमंडनात्मक स्वरूप छे. जो के ते वृत्ति हालमा सम्पूर्ण उपलब्ध नथी तो पण जेटली उपलब्ध छे तेटली सारी रीते प्रकाशमां आवेल छे. ते वृत्तिनुं काठिन्य पण घणु समजायेल छे. तेमां प्रवेशार्थे तेमना शिष्य रत्नप्रभसूरिजीए 'रत्नाकरावतारिका' नामनी लघु वृत्ति मूलसूत्र पर रची छे. तेमां ‘स्याद्वादरत्नाकर'नी खूब गंभीरता बतावी छे. तेओए तथा अन्य आचार्योए ‘स्याद्वादरत्नाकर'ना घणा वखाण कर्या छे. 'स्याद्वादरत्नाकर'नी रचनामां वादि देवसूरिजीना बे शिष्यो भद्रेश्वरसूरि अने रत्नप्रभसूरिजीए सहकार आप्यो हतो. आ माटे तेओए ज लख्यु छे के – किं दुष्करं भवतु तत्र मम प्रबन्धे, यत्रातिनिर्मलमति: सतताभियुक्तः। भद्रेश्वरः प्रवरसूक्तिसुधाप्रवाहो, रत्नप्रभश्च भजते सहकारिभावम् ॥ १८-१९ श्री अमरचंद्रसूरिजी अने श्री आनंदसूरिजी आ बन्ने आचार्यो विक्रमनी बारमी सदीमां थया. तेमणे सिद्धराजनी सभामां बाल्यावस्थामां ज वादोने हरावी विजय मेळव्यो हतो, तेथी सिद्धराजे तेओने अनुक्रमे 'सिंहशिशुक' अने 'व्याघ्रशिशुक' एवां बिरुद आप्यां हतां. श्री अमरचंद्रसूरिजीए 'सिद्धान्तार्णव' नामनो ग्रन्थ रच्यो छे. डॉ. शतीशचंद्र विद्याभूषण, उपरना बे बिरुदने आधारे-महातार्किक गंगेशोपाध्याये 'तत्त्वचिन्तामणि' नामनो नव्यन्यायनो महाग्रन्थ रच्यो छे, तेमां व्याप्तिस्वरूप पर लखतां व्याप्तिनां बे लक्षणोनुं नाम 'सिंह-व्याघ्र लक्षण' एवं आप्यु छे, कदाय ते बे लक्षणो उपरोक्त बे महातार्किकोनी मान्यतानां For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 26 SHRUTSAGAR April-2017 होय, - एम अभिप्राय बतावे छे. २०. श्री देवभद्रसूरिजी आ आचार्य बारमी सदीने अन्ते थया. तेमणे न्यायावतार' पर टिप्पण रच्यु छे. मुनिचंद्रसूरिजीथी तेओए प्रतिष्ठा प्राप्त करी हती. पोताना गुरु श्रीचंद्रसूरिजीनी 'संग्रहणी' पर वृत्ति रची छे. तेमां नीचेना ग्रन्थोनां उल्लेख अनेअवतरणो आप्यां छः 'अनुयोग द्वारचूर्णि, हारिभद्री ‘अनुयोगद्वार टीका, गन्ध हस्ति हारिभद्री तत्त्वार्थटीका, मलयगिरि-बृहत्संग्रहणीवृत्ति, हारिभद्री बृहत्संग्रहणीवृत्ति, भगवतीविवरण, विशेषणवती, सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्ति वगेरे. २१. श्रीमलयगिरिजी तेओ तेरमी शताब्दिनी शरूआतमां थयानो संभव छे. तेओ एक समर्थ टीकाकार हता. एनेक आगमो पर तेओए टीका लखी छे. तेमनी टीका घणी सरल अने तलस्पर्शी होय छे. घणा कठिन विषयो पण तेओनी कलमथी सहेला बनी गया छे. ज्योतिषना पण तेओ असाधरण ज्ञाता हता. सूर्यप्रज्ञप्ति, चंद्रप्रज्ञप्ति, ज्योतिषकरंडक वगेरे ज्योतिष ग्रन्थो पर तेओए टीका रची छे. ज्योतिष सम्बन्धना केटलाएक विषयोना स्पष्टीकरण माटे प्रत्यक्ष जोवा माटे विहार करीने तेओ नेपालमा हता. 'धर्मसंग्रहणीवृत्ति' थी तेओ सारा न्यायवेत्ता हती ते साबीत थाय छे. छ हाजर श्लोक प्रमाण ‘मुष्टि नामनुं व्याकरण पण तेमणे बनावेल छे. २२. शतार्थिक श्री सोमप्रभसूरजी तेओ तेरमी शताब्दिमां थया. तेओ एक विख्यात विद्वान हता. तेमी कवित्वशक्ति अद्भूत हती. तर्कशास्त्रमा पण तेओ निपुण हता. जो के तेओनो कोई पण न्यायग्रंथ के न्यायनो प्रसंग उपलब्ध नथी तो पण तेओनां प्रभाव अने प्रतिभा अपूर्व हतां, तेनु ठेर ठेर वर्णन मळे छे. 23. कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचंद्रसूरिजी तेमनो जन्म वि. सं. ११४५ नी कार्तिकी पूर्णिमाने दिवसे थयो हतो. तेमनी दीक्षा ११५० माघ शु. १४ ने शनिवारे आचार्य पद ११६२ मां अने १२२९मां स्वर्गवास थयो. तेओ एक समर्थ महापुरुष हता. अनेक राजाओ तेमना भक्त हता. तेमना शक्ति अने ज्ञान अजोड हता. तेमना समयमां परदर्शनीओनो विशेष विरोध हतो. तो पण तेमणे पोतानी अद्भुत प्रतिभाथी अनेक वखत तेओने पराभूत कर्या हता. तेमना नामथी, जीवनथी के कवनथी कोई पण विद्वान अणजाण हशे एम कही शकाय नहि. For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर अप्रैल-२०१७ तेमनी कलम सर्वोतमुखी हती. कोईपण विषय एवो नथी के जेमां तेमनी कलम के प्रतिभा न चाली होय. न्याय विषयमां तेमणे 'प्रमाणमीमांसा' स्वोपज्ञ वृत्ति युक्त, 'अन्ययोगव्यवच्छोदिका, ‘अयोगव्यच्छेदिका, 'श्री वीतरागस्तवप्रकाश' वगेरे ग्रन्थो रच्या छे. तेमनी कलम घणी सखत सचोट अने असरकारक छे. तेमनुं एक एक वाक्य हृदयमां सोंसरु ऊतरी जाय छे. तेमना लखाणथी तेमने जैनदर्शननी केटली दाझ हती ए स्पष्ट समजाय छे. तेमनो प्रमाणमीमांसा' ग्रन्थ पांच अध्याय प्रमाण हतो. हालामां प्रथम अध्यायना बे आह्निक तथा बीजा अध्यागर्नु एक आह्निक एटलं मळे छे. तेटलामां पण तेओश्रीए घणोः ज संग्रह कर्यो छे. ते उपरथी समजी शकाय छे के सम्पूर्ण ग्रन्थ केटलो विस्तृत हशे? तेमनी ‘अन्ययोगव्यवच्छेदिका' उपर श्रीमल्लिषेणसूरिजीए ‘स्वाद्वादमंजरी' नामनी सुन्दर टीका बनावी छे. हालमां जैनदर्शनमां ते छूटथी वंचाय छे. तेमनी लखाण शैली उदयनाचार्यने मळती छे. तेओ 'अनुशासन' न्ते आवे एवा ग्रन्थो रचता. तेमनो एक वादानुशासन नामनो ग्रन्थ हतो, हालमां ते मळतो नथी. जैन-न्यायनो सूर्य श्रीहेमचन्द्रसूरिजीना समयमां जैनशासनरूपी नभस्तलना मध्यमां पहोंची मध्याह्ननां प्रचंड किरणोने प्रसारतो हतो. श्री जैन सत्यप्रकाश वर्ष-७, दीपोत्सवी अंकमांथी साभार (क्रमश...) क्या आप अपने ज्ञानभंडार को समृद्ध करना चाहते हैं ? पुस्तकें भेंट में दी जाती हैं आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा में आगम, प्रकीर्णक, औपदेशिक, आध्यात्मिक, प्रवचन, कथा, स्तवन-स्तुति संग्रह आदि विविध प्रकार के साहित्य तथा प्राकृत, संस्कृत, मारुगुर्जर, गुजराती, राजस्थानी, पुरानी हिन्दी, अंग्रेज़ी आदि भाषाओं की भेंट में आई बहुमूल्य पुस्तकों की अधिक नकलों का अतिविशाल संग्रह है, जो हम किसी भी ज्ञानभंडार को भेंट में देते हैं. यदि आप अपने ज्ञानभंडार को समृद्ध करना चाहते हैं तो यथाशीघ्र संपर्क करें. पहले आने वाले आवेदन को प्राथमिकता दी जाएगी. For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन श्रुतपरंपरा - कल, आज और कल डॉ. हेमन्त कुमार यह प्रायः सर्वमान्य तथ्य है कि जैन परम्परा की श्रुत-संपदा किसी भी अन्य भारतीय धार्मिक परम्परा की अपेक्षा विपुलता, विविधता एवं गुणवता की दृष्टि से कम नहीं है. विभिन्न भाषयिक एवं विविधविषयक उच्चकोटि की रचनाओं से जैन मनीषी अतिप्राचीन काल से ही माँ भारती के भंडार को समृद्ध करते आये हैं. जैन धर्म के चतुर्विध संघ में श्रमण-श्रमणी एवं श्रावक-श्राविका ये मुख्य अंग हैं. श्रमण-श्रमणी संसारत्यागी एवं मोक्षमार्ग के साधक होते हैं. गृहस्थ जीवन व्यतीत करने वाले श्रावकश्राविकाओं के लिए वे धर्मपथ प्रदर्शक, आराध्य एवं संघगुरु होते हैं. इन विषयातीत, निष्परिग्रही एवं निरारंभी श्रमणों की विशेषता ज्ञान-ध्यान-तपोरक्त रहना है. उनका प्रयत्न सदैव अभीक्षण-ज्ञानोपयोग में संलग्न रहना होता है. स्वाध्याय उनके तपानुष्ठान का महत्वपूर्ण अंग होता है. अतएव अति प्राचीन काल से ही अनगिनत आचार्य एवं मुनिराज साहित्य सृजन में प्रमुख योग देते आये हैं, तो साहित्य के संरक्षण व प्रतिलेखन में अनगिनत श्रावक-श्राविकाओं ने विविध प्रकार से सहयोग प्रदान कर जिनवचन रूप श्रुतसाहित्य के विरासत को आने वाली पीढी को सौंपा है. वीतराग परमात्मा के द्वारा प्ररूपित अर्थपूर्वक देशना सुनकर परंपरा से जान-समझकर, चिंतन-मनन कर, उनके बाद के श्रमण भगवंतों ने जीवविज्ञान, आत्मविज्ञान, कर्मविज्ञान, पुद्गलविज्ञान, विश्वरचना तथा जड-चेतन के स्वाभाव का निरूपण सुंदर ढंग से किया गया है. ये ग्रंथ पामर जीवों के समझने में भी अत्यन्त दुष्कर हैं. इनके निर्माण की तो बात ही क्या? यही कारण है कि ये ग्रन्थ समस्त विश्व के लिए आदरणीय बन सके हैं. इन ग्रन्थों के पीछे सचमुच साक्षीभाव ही है. कर्ताभाव न होने के कारण यह अनेक प्रकार के दूषणों से रहित हैं. ग्रंथरचना की विशिष्ट परंपरा जैनसंघ में प्राचीनकाल से गतिमान है. “नामूल लिख्यते किंचित्” इस न्याय के अनुसार बिना आधार के कुछ भी नहीं लिखना चाहिए. इस परम्परा का जैन श्रमणों ने सुन्दर रीत से निर्वाह किया है. जिसके कारण इन ग्रन्थों का आज भी सर्वत्र अध्ययन किया जाता रहा है. अनेकानेक ग्रंथों का अध्यन-मनन कर ग्रंथरचना का कार्य आज भी चल रहा है. श्री महावीर प्रभु ने जो देशना दी, उसे सर्वप्रथम गणधरों ने सूत्रबद्ध किया. उन For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 29 श्रुतसागर अप्रैल-२०१७ सूत्रों में गूंथित देशना को उन्होंने अपने शिष्य-प्रशिष्य के अध्ययन हेतु दिया. इन आगमों को क्रमशः वीर संवत नवमी दसवीं सदी के बाद श्रमणवर्गों ने एकत्र होकर इसे लिपिबद्ध किया. जो वल्लभी वांचना के नाम से जाना जाता है. उसके बाद इन आगमों को पंचांगी में चूर्णि-भाष्य-टीका आदि के माध्यम से पुनः स्पष्टता की गई. समय समय पर महापुरुषों ने पुस्तकों के आधार से इस ज्ञान को यहाँ तक पहुँचाया है. कुछ समय तक यह आगमज्ञान अनुप्रेक्षा तथा स्वाध्याय के द्वारा अणिशुद्ध व अखंड रहा, परन्तु भगवान महावीर के निर्वाण के लगभग ९०० वर्षों के बाद एक बार व्यापक दुष्काल के कारण मुनिविहार का क्रम अवरुद्ध हो गया. स्वाध्याय, पुररावर्तन तथा अध्ययन की प्रक्रिया छिन्न-भिन्न हो गई. जिसके कारण कंठस्थ श्रुत का काफी बड़ा अंश विस्मृत हो गया. इस विस्मृति में से श्रुत को सुरक्षित रखने के लिए ही क्षमाश्रमण द्वारा भगीरथ कार्य का आरम्भ किया गया. यह मूल्यवान विरासत कुछ अंशों में आज अपने संघ तक अखंड रूप से चली आ रही है. ___ जैन गृहस्थ देव-शास्त्र-गुरु का उपासक होता है. जिनेन्द्रदेव के पश्चात् आम्नायानुमोदित धर्मशास्त्र और साधु रूपी गुरु ही उसकी शक्ति के सर्वोपरि पात्र होते हैं. उनके दैनिक आवश्यक नित्यक्रम में स्वाध्याय और दान का महत्वपूर्ण स्थान है. श्रद्धापूर्वक धर्मशास्त्रों का नित्य कुछ काल अध्ययन करना स्वाध्याय है, और साधु-साध्वी आदि सभी सत्पात्रों की आहार-अभय-औषधि-शास्त्र रूप चतुर्विध दान से सेवा करना दान है. अतः स्वतः भी और गुरुओं की प्रेरणा से भी जैन गृहस्थ साधु-साध्वियों को, अन्य त्यागी व्रतियों को तथा जिनमंदिरों को शास्त्रों की प्रतियाँ लिखाकर दान करने में सदैव उत्साहपूर्वक प्रवृत होते रहे हैं. परिणामस्वरूप देश के प्रायः प्रत्येक जिनालय में एक छोटा-मोटा शास्त्र-भंडार विकसित होता रहा. अनेक भट्टारकीय पीठों, मठों, वसदियों, उपश्रयों आदि में अच्छे ग्रंथसंग्रह केन्द्र बने और संरक्षित रहे. इस प्रकार ये विविध शास्त्र-भंडार और जैन साहित्य के संरक्षण के सफल-साधन सिद्ध हुए. आधुनिक युग के प्रारम्भ में ही जबसे पाश्चात्य विद्वानों ने भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य आदि का विधिवत् अध्ययन प्रारम्भ किया तो धीरे-धीरे जैन शास्त्रभंडारों ने भी उनका ध्यान आकर्षित किया. अनेक जैन ग्रंथभंडारों के पांडुलिपियों के शोधखोज एवं अध्ययन का अभूतपूर्व कार्य प्रारम्भ हुआ. इस संदर्भ में आवश्यकता प्रतीत होने लगी कि कम से कम प्रत्येक महत्वपूर्ण जैन शास्त्रभंडार में संगृहीत ग्रंथों की For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir April-2017 SHRUTSAGAR परिचयात्मक ग्रंथसूचियाँ आधुनिक शैली में तैयार की जायें. ग्रंथसूचियों के लाभ विद्वानों को अविदित नहीं हैं. अपनी साहित्य संपदा एवं हस्तलिखित ग्रंथों का लेखाजोखा जानना मात्र ही नहीं, प्रायः प्रत्येक भंडार में एकाधिक अप्रकाशित रचनाएँ प्राप्त होती हैं, कभी-कभी तो ऐसी विरल रचनाएँ भी प्राप्त हो जाती हैं, जिनके अस्तित्व की जानकारी तो ग्रंथांतरों से थी किन्तु वह कहीं भी उपलब्ध नहीं थी. इसके अतिरिक्त, किसी भी ग्रंथ के आधुनिक पद्धति से सुसंपादित संस्करण का निर्माण करने के लिए विभिन्न भंडारों में प्राप्त उसकी प्रतियों का मिलान करने से पाठभेदों के प्रक्षिप्त या त्रुटित अंशों आदि का निर्णय करने में बड़ी सहायता मिलती है. शास्त्र-दान करने वाले और प्रतिलिपिलेखक की पुष्पिकाओं से अनेक रचनाओं के रचनाकाल-निर्धारण में सहायता मिलती है और मूल लेखक के विषय में, दानप्रेरक गुरु, दाता श्रावक या श्राविका, लिपिकार आदि के व देश-काल आदि के संबंध में अनेक महत्वपूर्ण तथ्य प्राप्त हो जाते हैं. भाषा एवं लिपि के विकास का अध्ययन करने में भी विभिन्न कालीन एवं विभिन्न क्षेत्रीय प्रतिलिपियाँ उपयोगी होती हैं. पूज्य राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी की प्रेरणा व आशीर्वाद से स्थापित एवं संचालित आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, (जैन व प्राच्यविद्या शोध संस्थान एवं ग्रंथालय) कोबा में संगृहीत लगभग दो लाख से अधिक हस्तप्रतों के सूचीकरण का कार्य जारी है. यह कार्य यहीं कम्प्युटर आधारित आधुनिक तकनीकी की सहायता से विकसित सूचीकरण प्रणाली, जो आजतक की सबसे विस्तृत व विकसित सूचीकरण पद्धति है, के द्वारा सूचीकरण का कार्य किया जा रहा है. लगभग ५० से अधिक भागों में प्रकाशित होने वाली इस ग्रंथसूची के अभी तक इक्कीस भाग प्रकाशित हो चुके हैं. इस प्रकार की सूचियों के निर्माण करने कार्य बड़ा धैर्य, श्रम एवं समयसाध्य तो होता ही है, कदाचित् निरस भी होता है. इस कार्य के प्राचीन लिपि के विशेषज्ञों, जो विभिन्न भाषा एवं विषयों के भी मर्मज्ञ हैं, के द्वारा किया जा रहा है. पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी महाराज ने अपने एक लाख पचास हजार से भी अधिक किलोमीटर की पदयात्रा के क्रम में भारत भर के गाँ-गाँव में वर्षों से उपेक्षित ज्ञानभंडारों तथा उसमें संगृहीत हस्तप्रतों के अस्त-व्यस्त स्थिति को देखा. उनका हृदय द्रवित हो उठा, अपने श्रुतविरासत को संरक्षित करने की भावना जाग्रत हो उठी तथा उन भंडारों के संचालकों को समझा-बुझा कर जिस स्थिति में हस्तप्रत For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 31 श्रुतसागर अप्रैल-२०१७ मिले उसी स्थिति में संग्रह करने का कार्य किया और आज वह संग्रह जैन जगत को गौरव प्रदान करने वाला भारतवर्ष का सबसे बड़ा हस्तप्रत संग्रह केन्द्र बन गया है. पूर्वधर पू. आ. श्री आर्यरक्षितसूरिजी महाराज ने पृथक् अनुयोग की व्यवस्था की, जिसके कारण पूर्व पुरुषों की परम्परा के द्वारा जैन आगमों की शुद्ध विरासत हमें प्राप्त हो सका है. श्री अभयदेवसूरिजी ने नवांगी टीका, षड्दर्शनवेत्ता श्रीहरिभद्रसूरिजी ने योग तथा न्याय के सुंदर ग्रंथ, कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचंद्राचार्यजी ने व्याकरण, छंद, अलंकार आदि का विपुल सर्जन किया, लघु हरिभद्र के नाम से विख्यात पू. उपाध्यायश्री यशोविजयजी ने न्याय के ग्रंथों की रचना की. उपरांत, ज्योतिष, वैदक आदि विषयों के ग्रन्थसर्जन में जैनमुनियों का बहुत बड़ा योगदान रहा है. ऐसे ही विशाल योगदान आगमसाहित्य के संपादन-संशोधन के क्षेत्र में पू. आ. श्री सागरानन्दसूरिजी, मुनि श्री पुण्यविजयजी, मुनि श्री जिनविजयजी, मुनि श्री जंबुविजयजी आदि का नाम सम्मान पूर्वक लिया जाता है, तो आगमसाहित्य के संरक्षण के क्षेत्र में राष्ट्रसन्त आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी द्वारा किए जा रहे कार्य से आने वाली पीढ़ी लाभान्वित होगी तथा उनका नाम जैन साहित्य गगन में देदीप्यमान नक्षत्र की तरह सदैव चमकता रहेगा. क्षतिसुधार श्रुतसागर वर्ष-३ अंक-१० में 'छिन्नू जिनवरारौ स्तवन' नामक लेख (प्रत्रांक-२३, पंक्ति-२०,२१) में गाथा-१ में भूल से ऐसा छप गया था “ध्यांन श्रुतदेवता तणो हियडै धरी, सयल जिनरायना पाय प्रणमी करी।” इस सन्दर्भ में पाठकों से अनुरोध है कि इसे इस प्रकार सुधारकर पढ़ें. “सयल जिनरायना पाय प्रणमी करी, ध्यांन श्रुतदेवता तणो हियडै धरी।” इस क्षति की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करने के लिए हम मुनि श्री मेहुलप्रभसागरजी के आभारी हैं तथा इसके लिए हम पाठकों से क्षमाप्रार्थी हैं। For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाचारसार भाविन के. पण्ड्या मुनि श्री हर्षपद्मसागरजी महाराज के ४० दिवसीय उपवास का पारणा विभिन्न समारोहपूर्वक सान्नद सम्पन्न परम पूज्य, परमोपकारी राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. की पावन निश्रा में कोबातीर्थ में ४० दिवसीय उपवास का पारणा महोत्सव सम्पन्न हुआ. राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के प्रशिष्य तथा श्रुतोपासक आचार्य श्री अजयसागरसूरिजी के शिष्य तपस्वीरत्न मुनिवर्य श्री हर्षपद्मसागरजी के वीसस्थानक तप की सुदीर्घ तपस्या अंतर्गत ४० उपवास के त्रीदिवसीय पारणा महोत्सव का दिनांक २१ से २३ मार्च तक विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों के साथ आयोजन किया गया. ___ मुनिवर्य श्री हर्षपद्मसागरजी की ४० उपवास की सुदीर्घ तपस्या चली. वीसस्थानक तप की १५वीं गौतमस्वामी के छठू से होने वाली ओली पूज्यश्री ने एक साथ की, इसके साथ ही एकांतर उपवास से किए हुए २० स्थानक तप की भी पूर्णाहुति हुई. इसी बीच गतवर्ष भी पूज्यश्री ने अत्यंत कठीन श्रेणी तप भी किया था. स्त्रीदिवसीय महोत्सव में दिनांक २१ मार्च के शुभदिन प्रातः ८:३० बजे से वीसस्थानक पूजा का आयोजन हुआ. दिनांक २२ मार्च के शुभदिन प्रातः ८:३० बजे से वीसस्थानक पूजन का आयोजन हुआ. पारणोत्सव के मुख्य समारोह के पावन अवसर पर दिनांक २३ मार्च को प. पू. परमोपकारी राष्टसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी, समतासधानिधि आ. श्री वर्धमानसागरसूरिजी, आ. श्री अमृतसागरसूरिजी, ज्योतिर्विद् आ. श्री अरुणोदयसागरसूरिजी, आ. श्री विनयसागरसूरिजी, आ. श्री हेमचन्द्रसागरसूरिजी, आ. श्री विवेकसागरसूरिजी, श्रुतोपासक आ. श्री अजयसागरसूरिजी, पंन्यासप्रवर श्री महेन्द्रसागरजी, गणिवर्य श्री प्रशान्तसागरजी आदि ठाणा तथा योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धसागरसूरीश्वरजी के समुदाय की प्रमुख साध्वीयां आदि श्रमण-श्रमणी तथा अनेक गुरुभक्तों-श्रावकों की समुपस्थिति में पारणा महोत्सव सानन्द सम्पन्न हुआ. उसके बाद विशिष्ट मज्जन विधानयुक्त अठारह अभिषेक का आयोजन किया गया. पारणा के बाद साधर्मिक भक्ति के निमित्त नवकारशी का सुन्दर आयोजन किया गया. त्रीदिवसीय कार्यक्रम में उपस्थित होने हेतु भारतभर के गुरुभक्त पधारे थे. सभी कार्यक्रम पूर्ण धार्मिक वातावरण में हर्षोल्लासपूर्वक सम्पन्न हुए. *** For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूज्य गुरुभगवंतश्री से आशीर्वाद ग्रहण करते हुए गुजरातराज्य के गृहमंत्री श्री प्रदीपसिंह जाडेजा पूज्य गुरुभगवंतश्री के साथ चर्चामग्न गृहमंत्रीजी For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Registered Under RNI Registration No. GUJMUL/2014/66126 SHRUTSAGAR (MONTHLY). Published on 15th of every month and Permitted to Post at Gift City So, and on 20th date of every month under Postal Regd. No. G-GNR-338 issued by SSP GNR valid up to 31/12/2018. DEVELOPMENT OF INDIAN SCRIPTS BRAHMI IMPLEMEN MULA MELASTANI WA ALLA GUPTATE LEMMIK MEMHW M W W E- 7 +C 4+C3- GE SA Halle ** can w RUOVOHKO Totec DWUO HO N om Orronoon meer>> Ar** Ong TEQORANH on ment - > 5 De-E FUO OR HO