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SHRUTSAGAR
14
April -2017
संघपति अभयचंद्र के निकाले हुए यात्रासंघ के साथ आपने मरुकोट महातीर्थ की यात्रा की। फरीदपुर नगर में आपने कई ब्रह्म-क्षत्रियों को जैन बनाया, सिंधुपंजाब आदि प्रदेशों में जैन धर्म का प्रसार, अप्रसिद्ध तीर्थ इत्यादि अनेक वृत्तांत से गुंफित विस्तृत वर्णन वाला पत्र विज्ञप्ति त्रिवेणी के नाम से रचकर संवत् १४८४ माघ सुदि १० को आचार्य जिनभद्रसूरिजी महाराज को भेजा था। जो प्रकाशित है। तत्कालीन अनेक नगरों और तीर्थों के नाम इस पत्र में प्राप्त होते हैं।
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आचार्य श्री जिनभद्रसूरिजी महाराज के श्रुतसंरक्षण के भगीरथ कार्य में उपाध्याय जयसागरजी महाराज का भी पूरा सहयोग रहा था।
आपका शिष्य परंपरा भी विशाल रही है। शिष्यों में मेघराज गणी, सोमकुंजर, रत्नचंद्रोपाध्याय आदि नाम सुविख्यात है। शिष्य परंपरा में भक्तिलाभोपाध्याय, पाठक चारित्रसार, ज्ञानविमलोपाध्याय, श्रीवल्लभोपाध्याय आदि अनेक विद्वान हुए हैं।
प्रति परिचय
चौबीस जिनेश्वर स्तवन नामक हस्तलिखित कृति की प्रतिलिपि राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर संग्रहालय से महेन्द्रसिंहजी भंसाली (अध्यक्ष जैन ट्रस्ट, जैसलमेर) के शुभप्रयत्न से प्राप्त हुई है। जोधपुर में इस पुस्तकनुमा हस्तलिखित प्रति क्रमांक ३१२२५ में अनेक लघु-दीर्घ रचनाओं के साथ प्रस्तुत कृति पृष्ठ संख्या २७९ पर लिखी हुई है। प्रति के हर पृष्ठ पर प्रायः उन्नीस पंक्ति और हर पंक्ति में लगभग बारह अक्षर है । अक्षर सुंदर व स्पष्ट है। अक्षरमिलान व पाठांतर आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा के प्रति क्रमांक ४७५२२ से लिए गये है। एतदर्थ वे साधुवादार्ह हैं।
जयसागरोपाध्याय विरचित
श्री चोवीसे जिन स्तवन
सयल जिणेसर प्रणमुं पाय, सरसति सामणि द्यो मति माय । हीयडै समरूं श्रीगुरु नाम, जिम मनवंछित सीझै काम चौवीसै जिणवर माय पिता, नाम ठांम लंछण जे हुता । पांचे बोले करी प्रधान, करिस तवन मुंकी अभिमान' पहिला प्रणमुं ऋषभजिणंद, नाभिराय मरुदेवी नंद । ऊंची काय धनुष पांच सै, वृषभ लंछण वनिता वसै
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