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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चोवीसजिन स्तवन आर्य मेहुलप्रभसागर कृति परिचय __चतुर्विध संघ के लिए उभय समय प्रतिक्रमण का विधान है। प्रतिक्रमण के छः आवश्यकों में से द्वितीय चतुर्विंशति आवश्यक में उन पवित्र आत्माओं को वंदनास्तवना की जाती है जिन्होंने अष्टकर्म रूपी शत्रुओं को पराजित कर मोक्षसुख को प्राप्त कर लिया है। उत्तराध्ययन सूत्र में परमात्मा महावीर ने स्तवन करने से जीव क्या प्राप्त करता है? इसके उत्तर में फरमाया है थयथुइमंगलेणं भंते! जीवे किं जणयइ? थयथुइमंगलेणं नाणदंसणचरित्तबोहिलाभंजणयइ । नाणदंसणचरित्तबोहिलाभसंपण्णे य जीवे अंतकीरियं कप्पविमाणोववत्तियं आराहणं आराहेइ। ___अर्थात् स्तव, स्तुति मंगल से जीव को ज्ञान, दर्शन, चारित्र, बोधिलाभ की प्राप्ति होती है एवं ज्ञान, दर्शन, चारित्र, बोधिलाभ से युक्त आत्मा आराधनायुक्त बनता है। उस आराधना से अंतःक्रिया मोक्ष को प्राप्त करता है, भवितव्यता परिपक्व न हुई हो तो सौधर्मादि वैमानिक देवलोक में आरोहण करता है फिर मुक्ति सुख को प्राप्त होता है। प्रस्तुत चौबीस जिन स्तवन में वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों के भक्ति निमित्त पांच बोल के द्वारा स्तवना की गई है। तीर्थंकरों के नाम, जन्म स्थान, माता-पिता और लांछन का वर्णन कर वंदना की गयी है। प्रस्तुत स्तवन प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं में गेय हैं। अंत में चौबीस तीर्थंकरों के शुद्ध नाम स्मरण से भव-भव में आपकी सेवा प्राप्त हो । बोधि बीज की प्राप्ति हो यह प्रार्थना की है। प्रायः अद्यावधि अप्रकाशित इस स्तवन की रचना विक्रम संवत् १४९३ में हुई है। कर्ता परिचय उपाध्याय जयसागरजी महाराज खरतरगच्छाचार्य श्री जिनराजसूरीश्वरजी महाराज के सुशिष्य थे। इनका आचार्य पद काल वि.सं. १४३३ से १४६१ तक का है। अतः उसी समय आपकी दीक्षा उनके कर-कमलों से संपन्न हुई। संवत् १४७५ में श्रुतसंरक्षक आचार्यों में मुर्धन्य श्री जिनभद्रसूरीश्वरजी महाराज ने आपको उपाध्याय पद से विभूषित किया। For Private and Personal Use Only
SR No.525321
Book TitleShrutsagar 2017 04 Volume 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiren K Doshi
PublisherAcharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
Publication Year2017
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size3 MB
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