Book Title: Sagarmal Jain Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ.सागरमल जैन C. व्यक्तित्व व कृतित्व प्रकाशक : प्राच्य विद्या पीठ, शाजापुर (म.प्र.) Jain Education Interational Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो. सागरमल जैन जीवन परिचय जन्म और बाल्यकाल प्रो. सागरमल जैन का जन्म भारत के हृदय मालव अंचल के शाजापुर नगर में विक्रम संवत् 1988 की माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था। आपके पिता श्री राजमल जी शक्करवाले मध्यम आर्थिक स्थिति होने पर भी ओसवाल समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में माने जाते थे। आपके जन्म के समय आपके पिताजी सपरिवार अपने नाना-नानी के साथ ही निवास करते थे, क्योंकि आपके दादा-दादी का देहावसान आपके पिताजी के बचपन में ही हो गया था। बालक सागरमल को सर्वाधिक प्यार और दुलार मिला अपने पिता की मौसी पानबाई से। उन्होंने ही आपके बाल्यजीवन में धार्मिक-संस्कारों का वपन भी किया। वे स्वभावतः विरक्तमना थीं। उन्होंने पूज्य साध्वी श्री रत्नकुंवरजी म.सा. के सान्निध्य में संन्यास ग्रहण कर लिया था। वे प्रवर्तनी रत्नकुंवरजी म.सा. के साध्वी संघ में वयोवृद्ध साध्वी प्रमुखा के रूप में शाजापुर नगर में ही स्थिरवास रही थी। इस प्रकार, आपका पालन-पोषण धार्मिक संस्कारमय परिवेश में हुआ। मालवा की माटी से सहजता और सरलता तथा परिवार से पापभीरूता एवं धर्म-संस्कार लेकर आपके जीवन की विकास यात्रा आगे बढ़ी। शिक्षा बालक सागरमल की प्रारम्भिक शिक्षा तोड़ेवाले भैया की पाठशाला में हुई। यह पाठशाला तब अपने कठोर अनुशासन के लिए प्रसिद्ध थी। यही कारण था कि आपके जीवन में अनुशासन और संयम के गुण विकसित हुए। इस पाठशाला से तीसरी कक्षा उत्तीर्ण कर लेने पर आपको तत्कालीन ग्वालियर राज्य के एंग्लो वर्नाक्यूलर मिडिल स्कूल की चौथी कथा में प्रवेश मिला। यहाँ रामजी भैया शितूतकर जैसे कठोर एवं अनुशासप्रिय अध्यापकों के सान्निध्य में आपने कक्षा 4 से कक्षा 8 तक की शिक्षा ग्रहण की और सभी परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। माध्यमिक (मिडिल) परीक्षा में प्रथम श्रेणी के साथ-साथ शाजापुर जिले में प्रथम स्थान प्राप्त किया। ज्ञातव्य है कि उस समय माध्यमिक परीक्षा पास करने वालों के नाम ग्वालियर गजट में निकलते थे। जिस समय इस मिडिल स्कूल में आपने प्रवेश लिया था, उस समय द्वितीय महायुद्ध अपनी समाप्ति की ओर था और दिल्ली एवं मुम्बई के मध्य आगरा-मुम्बई रोड़ पर स्थित शाजापुर नगर के उस स्कूल के पास का मैदान सैनिकों का पड़ाव-स्थल था, साथ ही उस समय डॉ. सागरमल जैन-एक परिचय : 1 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्वालियर राज्य में प्रजामण्डल द्वारा स्वतन्त्रता आन्दोलन की गतिविधियाँ भी तेज हो गई थीं। बाल्यावस्था की स्वाभाविक चपलतावश कभी आप आगरा-मुम्बई सड़क पर गुजरते हुए गोरे सैनिकों को 'वी फार विक्टोरी' कहकर प्रोत्साहित करते, तो कभी प्रजामण्डल की प्रभात-फेरियों के साथ 'भारतमाता की जय' का उद्घोष करते। बालक सागरमल ने इसी समय अपने मित्रों के साथ पार्श्वनाथ बाल मित्र-मण्डल की स्थापना की। सामाजिक एवं धार्मिक-गतिविधियों के साथ-साथ मण्डल का एक प्रमुख कार्य था- अपने सदस्यों को बीड़ी-सिगरेट आदि दुर्व्यसनों से मुक्त रखना। इसके लिए सदस्यों पर कड़ी चौकसी रखी जाती थी। परिणाम यह हुआ कि यह मित्र-मण्डली व्यसन-मुक्त और धार्मिक-संस्कारों से युक्त रही। . माध्यमिक परीक्षा (कक्षा 8) उत्तीर्ण करने के पश्चात् परिवार के लोग सब से बड़ा पुत्र होने के कारण आपको व्यवसाय से जोड़ना चाहते थे, परन्तु आपके मन में अध्ययन की तीव्र उत्कण्ठा थी। उस समय शाजापुर नगर ग्वालियर राज्य का जिला मुख्यालय था, फिर भी वहाँ कोई हाईस्कूल नहीं था। आपके अत्यधिक आग्रह पर आपके पिता ने आपकी ससुराल शुजालपुर के एकमात्र हाईस्कूल में अध्ययन के लिए आपको प्रवेश दिलाया, ज्ञातव्य है कि बालक सागरमल की सगाई इसके पूर्व ही हो चुकी थी। वहाँ प्रवेश के लगभग 15-20 दिन पश्चात् ही आप अस्वस्थ हो गये, फलतः मात्र डेढ़ माह के अल्प प्रवास के पश्चात् पारिवारिक ममता ने आपको वापस शाजापुर बुला लिया। इस प्रकार, आपका अध्ययन स्थगित हो गया और आप अल्पवय में ही सर्राफ के व्यवसाय से जुड़ गये। विवाह एवं पारिवारिक तथा सामाजिक-गतिविधियाँ आपकी सगाई तो बाल्यकाल में ही हो गयी थी और विवाह की योजना भी बहुत पहले ही बन गई थी, किन्तु आपकी सास के केंसर की असाध्य बीमारी से ग्रस्त हो जाने और बाद में उनकी मृत्यु हो जाने के कारण विवाह थोड़े समय के लिए टला तो सही, किन्तु 17 वर्ष की वय में प्रवेश करते ही वैशाख शुक्ल त्रयोदशी वि.संवत् 2005 तदनुसार 21 मई 1948 को आपको श्रीमती कमलाबाई के साथ दाम्पत्य-सूत्र में बाँध दिया गया । अल्पवय में आपके विवाह का एक अन्य कारण यह भी था कि आपकी रुचि मातृतुल्या पूज्या साध्वीश्री एवं साधु-संतों के समीप अधिक रहने की होने के कारण परिवार को भय था कि कहीं बालक मन पर वैराग्य के संस्कार न जम जाएं? इस प्रकार, किशोरवय में ही आपको गृहस्थ-जीवन और व्यवसाय से जुड़ जाना पड़ा। जो दिन आपके खेलने डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 2 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और खाने के थे, उन्हीं दिनों में आपको पारिवारिक एवं व्यावसायिक-दायित्व का निर्वाह करना पड़ा। यद्यपि आपके मन में अध्ययन के प्रति अदम्य उत्साह था, किन्तु शाजापुर में हाईस्कूल का अभाव तथा पारिवारिक और व्यावसायिक दायित्वों का बोझ इसमें बाधक था, फिर भी जहाँ चाह होती है, वहाँ कोई-न-कोई राह तो निकल ही आती है। व्यवसाय के साथ-साथ अध्ययन चार वर्ष के अन्तराल के पश्चात् सन् 1952 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से 'व्यापार विशारद' की परीक्षा उत्तीर्ण की और उसके दो वर्ष पश्चात 1954 में अर्थशास्त्र विषय से साहित्यरत्न की परीक्षा उत्तीर्ण की। उस समय आपने अर्थशास्त्र को सुगम ढंग से अध्ययन करने और स्मृति में रखने का एक चार्ट बनाया था, जिसकी प्रशंसा उस समय के एम.ए. अर्थशास्त्र के छात्रों ने भी की थी। इसी बीच, आपका पत्र-व्यवहार इलाहाबाद के सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री भगवानदास जी केला से हुआ। उन्होंने श्री नरहरि पारिख के मानव अर्थशास्त्र के आधार पर हिन्दी में मानव अर्थशास्त्र लिखने हेतु आपको प्रेरित किया था। तब आप हाईस्कूल भी उत्तीर्ण नहीं थे और आपकी वय मात्र बीस वर्ष की थी। इस समय आपके एक नये मित्र बने- सारंगपुर के श्री मदनमोहन राठी। इसी काल में आपने धार्मिक परीक्षा बोर्ड, पाथर्डी से जैन सिद्धान्त विशारद की परीक्षा उत्तीर्ण की। सन् 1953 में शाजापुर नगर में एक प्राइवेट हाईस्कूल प्रारम्भ हुआ। यद्यपि अपने व्यावसायिक क्रिया-कलापों में व्यस्त होने के कारण आप उसके छात्र तो नहीं बन सके, किन्तु आपके मन में अध्ययन की प्रसुप्त भावना पुनः जाग्रत हो गई। सन् 1955 में आपने अपने मित्र श्री माणकचन्द्र जैन के साथ स्वाध्यायी छात्र के रूप में हाईस्कूल की परीक्षा दी। वय में माणकचन्द्र आपसे तीन वर्ष छोटे थे, फिर भी आप दोनों में गहरी दोस्ती थी। यद्यपि आप नियमित अध्ययन तो नहीं कर सके, फिर भी अपनी प्रतिभा के बल पर आपने उस परीक्षा में उच्च द्वितीय श्रेणी के अंक प्राप्त किये। अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने के परिणामस्वरूप आपके मन में अध्ययन की भावना पुनः तीव्र हो गयी। इसी अवधि में व्यवसाय के क्षेत्र में भी आपने अच्छी सफलता और कीर्त्ति अर्जित की। पिताजी की प्रामाणिकता और अपने सौम्य व्यवहार के कारण आप ग्राहकों का मन मोह लिया करते थे। परिणामस्वरूप, आपको व्यावसायिक क्षेत्र में अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हई। अल्प वय में ही आपको शाजापुर नगर के सर्राफा एसोसिएशन का मंत्री बना दिया गया। पारिवारिक और व्यावसायिक-दायित्वों का निर्वाह करते हुए भी आपमें अध्ययन डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 3 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की रुचि सदैव जीवन्त रही, अतः आपने सन् 1957 में इण्टर कामर्स की परीक्षा दे ही दी और इस परीक्षा में भी उच्च द्वितीय श्रेणी के अंक प्राप्त किये। यह आपका सद्भाग्य ही कहा जायेगा कि चाहे व्यवसाय का क्षेत्र हो या अध्ययन का, असफलता और निराशा का मुख आपने कभी नहीं देखा, किन्तु आगे अध्ययन का क्रम पुनः खण्डित हो गया, क्योंकि उस समय शाजापुर नगर में कोई महाविद्यालय नहीं था और बी.ए. की परीक्षा स्वाध्यायी छात्र के रूप में नहीं दी जा सकती थी। अतः, एक बार पुनः आपको व्यवसाय के क्षेत्र में ही केन्द्रित होना पड़ा, किन्तु भाग्यवानों के लिए कहीं-न-कहीं कोई द्वार उद्घाटित हो ही जाता है। उस समय म.प्र. शासन ने यह नियम प्रसारित किया कि 25,000 रु. की स्थायी राशि बैंक में जमा करके कोई भी संस्था महाविद्यालय का संचालन कर सकती है, अतः आपने तत्कालीन विधायक श्री प्रताप भाई से मिलकर एक महाविद्यालय खुलवाने का प्रयत्न किया और विभिन्न स्रोतों से धनराशि की व्यवस्था करके बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' महाविद्यालय की स्थापना की और स्वयं भी उसमें प्रवेश ले लिया। व्यावसायिक-दायित्व से जुड़े होने के कारण आप अधिक नियमित नहीं रह सके, फिर भी बी.ए. परीक्षा में बैठने का अवसर तो प्राप्त हो ही गया। इस महाविद्यालय के माध्यम से सन् 1961 में बी.ए. की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की। इस समय आप पर व्यावसायिक, पारिवारिक और सामाजिक दायित्व इतना अधिक था कि चाहकर भी अध्ययन के लिए आप अधिक समय नहीं दे पाते थे, अतः अंकों का प्रतिशत बहुत उत्साहजनक नहीं रहा, तो भी शाजापुर से जो छात्र इस परीक्षा में बैठे थे, उनमें आपके अंक सर्वाधिक थे। आपके तत्कालीन साथियों में श्री मनोहरलाल जैन एवं आपके ममेरे भाई रखबचन्द्र प्रमुख थे। परिवार और समाज गृही-जीवन में सन् 1951 में आपको प्रथम पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, किन्तु दुर्दैव से वह अधिक समय तक जीवित नहीं रह सका। अगस्त 1952 में आपके द्वितीय पुत्र नरेन्द्रकुमार का जन्म हुआ। सन् 1954 में पुत्री कु. शोभा का और 1957 में पुत्र पीयूषकुमार का जन्म हुआ। बढ़ता परिवार और पिताजी की अस्वस्थता तथा छोटे भाई-बहनों का अध्ययन-इन सब कारणों से मात्र पच्चीस वर्ष की अल्पवय में ही आप एक के बाद एक जिम्मेदारियों के बोझ से दबते ही गये। उधर, सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में भी आपकी प्रतिभा और व्यवहार के कारण आप पर सदैव एक के बाद दूसरी जिम्मेदारी डाली जाती रही। इसी अवधि में आपको माधव रजत जयंती वाचनालय, शाजापुर का सचिव, हिन्दी साहित्य डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 4 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समिति, शाजापुर का सचिव तथा कुमार साहित्य परिषद और सद-विचार निकेतन के अध्यक्ष पद के दायित्व भी स्वीकार करने पड़े। आपके कार्यकाल में कुमार साहित्य परिषद् का म.प्र. क्षेत्र का वार्षिक अधिवेशन एवं नवीन जयंती समारोहों के भव्य आयोजन भी हुए। इस माध्यम से आप बालकवि बैरागी, पदमश्री डॉ. लक्ष्मीनारायण शर्मा आदि देश के अनेक साहित्यकारों से भी जुड़े। इसी अवधि में आप स्थानीय स्थानकवासी जैन संघ के मंत्री तथा म.प्र. स्थानकवासी जैन युवक संघ के अध्यक्ष बनाये गये। सादड़ी सम्मेलन के पश्चात स्थानकवासी जैन युवक संघ के प्रान्तीय अध्यक्ष के रूप में आपने म.प्र. के विभिन्न क्षेत्रों का व्यापक दौरा भी किया तथा जैन समाज की एकता को स्थायित्व देने का प्रयत्न किया। एम.ए. का अध्ययन और व्यवसाय में नया मोड़ इन गतिविधियों में व्यस्त होने के बावजूद भी आपकी अध्ययन की अभिरुचि कुंठित नहीं हुई, किन्तु कठिनाई यह थी कि न तो शाजापुर में स्नातकोत्तर कक्षाएं खुलनी सम्भव थी और न इन दायित्वों के बीच शाजापुर से बाहर किसी महाविद्यालय में प्रवेश लेकर अध्ययन करना ही, किन्तु शाजापुर महाविद्यालय के तत्कालीन प्राचार्य श्री रामचन्द्र ‘चन्द्र' की प्रेरणा से एक मध्यम मार्ग निकाला गया और यह निश्चय हुआ कि यदि कुछ दिन नियमित रहा जाये, तो अग्रिम अध्ययन की कुछ सम्भावनाएं बन सकती हैं। उन्हीं के निर्देश पर आपने जुलाई 1961 में क्रिश्चियन कालेज, इन्दौर में एम.ए. दर्शन-शास्त्र के विद्यार्थी के रूप में प्रवेश लिया। इन्दौर में अध्ययन करने में आवास, भोजन आदि की अनेक कठिनाइयॉ रहीं। सर्वप्रथम आपने चाहा कि क्रिश्चियन कालेज के सामने नसियाजी में स्थित दिगम्बर जैन छात्रावास में प्रवेश लिया जाय, किन्तु वहाँ आपका श्वेताम्बर कुल में जन्म लेना ही बाधक बन गया, फलतः क्रिश्चियन कालेज के छात्रावास में प्रवेश लेना पड़ा। वहाँ नियमानुसार छात्रावास के भोजनालय में भोजन करना आवश्यक था, किन्तु उसमें शाकाहारी और मांसाहारी-दोनों प्रकार के भोजन बनते थे और चम्मच तथा बर्तनों का विवेक नहीं रखा जाता था। कुछ दिन आपने मात्र दही और रोटी खाकर निकाले, किन्तु अंत में विवश होकर छात्रावास छोड़ दिया। कुछ दिन इधर-उधर रहकर गुजारे, अंत में राजेन्द्र नगर में मकान लेकर रहने लगे। कुछ दिन पत्नी को भी साथ ले गये, किन्तु पारिवारिक स्थिति में यह सुख अधिक सम्भव नहीं था। फिर भी, आपने अपने अध्ययन-क्रम को निरन्तर जारी रखा। सप्ताह में दो-तीन दिन इन्दौर और शेष समय शाजापुर। डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 5 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी भाग-दौड़ में आपने सन् 1962 में एम.ए. पूर्वार्द्ध और सन् 1963 में एम.ए. उत्तरार्द्ध की परीक्षाएँ न केवल प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की, अपितु तत्कालीन पश्चिमी मध्यप्रदेश के एकमात्र विश्वविद्यालय विक्रम विश्वविद्यालय की कला संकाय में द्वितीय स्थान भी प्राप्त किया। ज्ञातव्य है कि उस समय कला संकाय में सामाजिक विज्ञान संकाय भी समाहित थी। एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् आपके जीवन में एक निर्णायक मोड़ का अवसर आया। सन् 1962 में मोरारजी देसाई ने स्वर्ण-नियन्त्रण अधिनियम लागू किया, फलस्वरूप स्वर्ण-व्यवसाय प्रतिबन्धित व्यवसाय के क्षेत्र में आ गया और इस व्यवसाय को प्रामाणिकतापूर्वक कर पाना कठिन हो गया और चोरी-छिपे धन्धा करना आपकी प्रकृति के अनुकूल नहीं था, अतः आपने अपने व्यवसाय को एक नया मोड़ देने का निश्चय किया। आपका छोटा भाई कैलाश, जो उस समय एम.काम. (अंतिम वर्ष) में था, उसके लिए भी स्वतंत्र व्यवसाय का प्रश्न था, अतः आपने स्वर्ण के व्यवसाय के स्थान पर कपड़े का व्यवसाय प्रारम्भ करने का निश्चय किया। कठिनाई यह थी कि इन दोनों व्यवसायों को किस प्रकार संचालित किया जाय, क्योंकि अभी भाई कैलाश को अपना अध्ययन पूर्ण कर लौटने में कुछ समय था। दर्शनशास्त्र के अध्यापक एक ओर प्रबुद्ध वर्ग का आग्रह था कि दर्शन जैसे विषय में प्रथम श्रेणी एवं प्रथम स्थान में स्नातकोत्तर परीक्षा पास करके भी व्यावसायिक कार्यों से जुड़े रहना- यह प्रतिभा का सम्यक् उपयोग नहीं है, तो दूसरी ओर पारिवारिकपरिस्थितियाँ और दायित्व व्यवसाय के क्षेत्र का परित्याग करने में बाधक थे। वस्तुतः, सरस्वती और लक्ष्मी की उपासना में से किसी एक के चयन का प्रश्न आ खड़ा हुआ था। यह आपके जीवन का निर्णायक मोड़ था। स्वर्ण-नियन्त्रण कानून लागू होना आदि कुछ बाह्य-परिस्थितियों ने भी जीवन के इस निर्णायक मोड़ पर आपको एक दूसरा ही निर्णय लेने को प्रेरित किया, फिर भी लगभग 50 वर्षों से सुस्थापित तथा अपने पूरे क्षेत्र में प्रतिष्ठित उस व्यावसायिक प्रतिष्ठान को एकाएक बन्द कर देना न सम्भव ही था और न ही परिवार के हित में । यह भी संयोग था कि सन् 1964 के मध्य में म.प्र. शासन की ओर से दर्शनशास्त्र के व्याख्याताओं के कुछ पदों के लिए चयन की अधिसूचना प्रसारित हुई। अब यह निर्णय की घड़ी थी। एक ओर माता-पिता और परिजन व्यवसाय से जुड़े रहने का आग्रह करते थे, तो दूसरी ओर अन्तर में छिपी ज्ञानार्जन की ललक व्यवसाय डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 6 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से निवृत्ति लेकर विद्या की उपासना हेतु प्रेरित कर रही थी। आपके भाई कैलाश, जो उस समय उज्जैन विक्रम विश्वविद्यालय में एम.काम. के अन्तिम वर्ष में थे, उससे आपने विचार-विमर्श किया और उसके द्वारा आश्वस्त किये जाने पर आपने दर्शनशास्त्र के व्याख्याता के रूप में शासकीय सेवा स्वीकार करने का निर्णय ले लिया। फिर भी, पिताजी का स्वास्थ्य और व्यवसाय का विस्तृत आकार ऐसा नहीं था कि आपकी अनुपस्थिति में केवल पिताजी उसे सम्भाल सकें, ये अन्तर्द्वन्द्व के कठिन क्षण थे। लक्ष्मी और सरस्वती की उपासना के इस द्वन्द्व में अन्ततोगत्वा सरस्वती की विजय हुई और दुकान पर दो मुनीमों की व्यवस्था करके आप शासकीय सेवा के लिए चल दिये। आपकी प्रथम नियुक्ति महाकौशल महाविद्यालय जबलपुर में हुई। संयोग से वहाँ आपके पूर्व परिचित उस समय के आचार्य रजनीश (बाद के भगवान् ओशो) उसी विभाग में कार्यरत थे। आपने उनसे पत्र व्यवहार किया और दीपावली पर्व पर लक्ष्मी की अन्तिम आराधना करके सरस्वती की उपासना के लिए 5 नवम्बर, 1964 को जबलपुर के लिए प्रस्थान किया। बिदाई दृश्य बड़ा ही करूण था। पूरे परिवार और समाज में यह प्रथम अवसर था, जब कोई नौकरी के लिये घर से बहुत दूर जा रहा था। मित्रगण और परिजनों का स्नेह एक ओर था, तो दूसरी ओर आपका दृढ़ निश्चय। पिताजी की माँग पर बड़े पुत्र को उनके पास रखने का आश्वासन देकर अश्रुपूर्ण ऑखों से बिदा ली। जबलपुर में जिस पद पर आपको नियुक्ति मिली थी, वह पद वहाँ के एक व्याख्याता के प्रमोशन से रिक्त होना था, किन्तु वे जबलपुर छोड़ना नहीं चाहते थे। तीन दिन प्राचार्य के कार्यालय के चक्कर लगाये, किन्तु अन्त में शिक्षा सचिव से हुई मौखिक चर्चा के आधार पर प्राचार्य ने आपको एक पत्र दे दिया, जिसके आधार पर आपको ठाकुर रणमत्तसिंह कालेज, रीवाँ में दर्शनशास्त्र के व्याख्याता का पद ग्रहण करना था। रीवाँ आपके लिए पूर्णतः अपरिचित था, फिर भी आचार्य रजनीश आदि की सलाह पर तीन दिन जबलपुर में बिताने के पश्चात् रीवा के लिए रवाना हुए। यहाँ विभाग में डॉ. डी.डी. बन्दिष्टे का और महाविद्यालय के डॉ. कन्छेदीलाल जैन आदि अनेक जैन प्राध्यापकों का सहयोग मिला। एक मकान लेकर दोनों समय ढाबे में भोजन करते हुए आपने अध्यापन कार्य की इस नई जिन्दगी का प्रारम्भ किया। पहली बार आपको लगा कि पढने-पढ़ाने का आनन्द कुछ और है, किन्तु रीवाँ का यह प्रवास भी अधिक स्थायी न बन सका। शासन द्वारा वहाँ किसी अन्य व्यक्ति को भेज दिये जाने के कारण आपको आदेशित डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय :7 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया कि आप महारानी लक्ष्मीबाई स्नातकोत्तर महाविद्यालय ग्वालियर जाकर अपना पदभार ग्रहण करें । 'प्रथम ग्रासे मक्षिका पातः' की उक्ति के अनुसार शासकीय सेवा का यह अस्थायित्व और एक शहर से दूसरे शहर भटकना आपके मन को अच्छा नहीं लगा और एक बार मन में यह निश्चय किया कि शासकीय सेवा का परित्याग कर देना ही उचित है, किन्तु प्रो. बन्दिष्टे और कुछ मित्रों के समझाने पर आपने इतना माना कि आप ग्वालियर होकर ही शाजापुर जाएंगे। ग्वालियर जाने में आपके दो-तीन आकर्षण थे, एक तो म.प्र. स्थानकवासी जैन युवक संघ की ग्वालियर शाखा के प्रमुख श्री टी.सी. बाफना आपके पूर्व परिचित थे, दूसरे प्रो. जी. आर. जैन से भी आपका पूर्व परिचय था और आप 'जैन सापेक्षतावाद और आधुनिक विज्ञान विषय पर शोधकार्य करने की दृष्टि से उनसे अधिक गहराई से विचार-विमर्श करना चाहते थे, अतः 27 नवम्बर 1964 को मात्र 17 दिन के रीवाँ प्रवास के पश्चात् आप ग्वालियर के लिए रवाना हुए। ग्वालियर पहुँचने पर आप मान - मन्दिर होटल में रुके और प्रातः महाविद्यालय के प्राचार्य प्रो. एम. एम. कुरैशी और विभागाध्यक्ष डॉ. एस. एस. बनर्जी से मिले। दोपहर में आपने टी.सी. बाफना और प्रो. जी. आर. जैन से मिलने का कार्यक्रम बनाया। जब प्रो. जी. आर. जैन से मिले, तो उनका पहला प्रश्न था - कहाँ रुके हो ? यह बताने पर उनका पहला वाक्य था- तुम सामान लेकर आ जाओ और तत्काल ही उन्होंने एक हाल की साफ-सफाई कर आपके रहने की व्यवस्था अपने ही घर में कर दी। संध्या को महाविद्यालय के दर्शन-विभाग के व्याख्याता डॉ. अशोक लाड़ और वाणिज्य विभाग के श्री गोविन्ददास माहेश्वरी आपसे मिलने आये । इनसे प्रथम परिचय ही ऐसा रहा कि आप तीनों गहरे मित्र बन गये। एक ही दिन में परिवेश ही बदल गया और शाजापुर वापस लौट जाने का विकल्प समाप्त हो गया । दिसम्बर में शीतकालीन अवकाश के पश्चात् जनवरी 1965 में आप छोटे पुत्र, पुत्री और पत्नी को लेकर ग्वालियर आ गये । यद्यपि आपके लिए अध्यापन का कार्य बिल्कुल नया था, किन्तु पर्याप्त परिश्रम और विषय की पकड़ होने से आप शीघ्र ही छात्रों के प्रिय बन गये । संयोग से, महाविद्यालय में उसी वर्ष दर्शनशास्त्र की स्नातकोत्तर कक्षाएं प्रारम्भ हुई थीं, अतः आपने कठिन परिश्रम करके छात्रों को न केवल महाविद्यालय में पढ़ाया, बल्कि घर पर बुलाकर भी उनकी तैयारी कराते रहे। सभी का परीक्षाफल भी अच्छा रहा, अतः शीघ्र ही एक सुयोग्य अध्यापक के रूप में आपकी ख्याति हो गयी । . I ग्वालियर में जब मनोविज्ञान का स्वतंत्र विषय प्रारम्भ हुआ, तो आपने डॉ. सागरमल जैन- एक परिचय : 8 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रारम्भ में उसके अध्यापन का दायित्व भी दर्शनशास्त्र के अध्यापन के साथ-साथ सम्भाला। आपने 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार- दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन. जैसा व्यापक विषय लेकर पीएच. डी. की उपाधि हेतु अपना पंजीयन करवाया और शोध-प्रबन्ध लिखने की तैयारी में जुट गये। इसी सन्दर्भ में जैन और बौद्ध परम्परा के मूल ग्रन्थों, विशेष रूप से जैन आगमों और बौद्ध त्रिपिटक - साहित्य का अध्ययन प्रारम्भ किया । अध्यापक के रूप में पुनः मालव-भूमि में ग्वालियर में आपका प्रवास पूरे तीन वर्ष रहा। इसी अवधि में आपका चयन म.प्र. लोक सेवा आयोग से हो चुका था और उसमें वरीयताक्रम में आपको प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था । सूची में सर्वोच्च स्थान पर होने के कारण सहायक प्राध्यापक के रूप में आपकी पदोन्नति करने के लिए शासन प्रतीक्षारत था। उधर, परिवार के लोग भी यह चाहते थे कि ग्वालियर जैसे सुदूर नगर की अपेक्षा शाजापुर के निकटवर्ती उज्जैन, इन्दौर आदि स्थानों पर आपका स्थानान्तरण हो जाये। संयोग से, तत्कालीन उपशिक्षा मंत्री श्री कन्हैयालाल मेहता आपके परिजनों के परिचित थे, अतः नवम्बर 1967 में आपको शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय इन्दौर स्थानान्तरित किया गया एवं जुलाई 1968 में सहायक प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष बनाकर आपको हमीदिया महाविद्यालय, भोपाल भेज दिया गया। वैसे तो इन्दौर और भोपाल- दोनों ही आपके गृहनगर शाजापुर से नजदीक थे, किन्तु इन्दौर की अपेक्षा भोपाल में अध्ययन की दृष्टि से अधिक समय मिलने की सम्भावना थी, अतः आपने 1 अगस्त 1968 को हमीदिया महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष का पद ग्रहण किया। इस महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र विषय प्रारम्भ ही हुआ था और मात्र दो छात्र थे, अतः प्रारम्भ में अध्यापन कार्य का अधिक भार न होने से आपने शोध- प्रबन्ध को पूर्ण करने का प्रयत्न किया और अगस्त 1969 में लगभग 1500 पृष्ठों का बृहद्काय शोधप्रबन्ध परीक्षार्थ प्रस्तुत कर दिया। विभाग में छात्रों की अत्यल्प संख्या और महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र विषय के उपेक्षित होने के कारण आपका मन पूरी तरह नहीं लग पा रहा था, अतः आपने दर्शनशास्त्र को लोकप्रिय बनाने का बीड़ा उठाया । संयोग से, आपके भोपाल पहुँचने के बाद दूसरे वर्ष ही भोपाल विश्वविद्यालय की स्थापना हो गयी और आपको दर्शनशास्त्र विषय की अध्ययन समिति का अध्यक्ष तथा कला संकाय एवं विद्वत्-परिषद का सदस्य बनने का मौका मिला। आपने पाठ्यक्रम में समाजदर्शन, धर्मदर्शन जैसे रुचिकर डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 9 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नपत्रों का समायोजन किया, साथ ही छात्र और महाविद्यालय की परिस्थितियों के अनुरूप मुस्लिम-दर्शन और ईसाई - दर्शन के विशिष्ट पाठ्यक्रम निर्धारित किये। एक ओर संशोधित पाठ्यक्रम और दूसरी ओर आपकी अध्यापन-शैली के प्रभाव से छात्र - संख्या में वृद्धि होने लगी । स्थिति यहाँ तक पहुँच गई की बी.ए. प्रथम वर्ष में लगभग सौ से भी अधिक छात्र होने लगे और परिणामस्वरूप, अध्यापन कक्ष छोटे पड़ने लगे । अन्ततोगत्वा महाविद्यालय के एक छोटे हाल में दर्शनशास्त्र की कक्षाएँ लगने लगीं। यह आपकी अध्यापन-शैली और छात्रों के प्रति आत्मीयता का ही परिणाम था कि सम्पूर्ण मध्यप्रदेश में दर्शनशास्त्र के विद्यार्थियों की संख्या की दृष्टि से आपका महाविद्यालय सर्वोच्च स्थान पर आ गया। लगभग 300 छात्रों को प्रतिदिन पाँच-पाँच पीरियड पढ़ाकर महाविद्यालय के कर्त्तव्यनिष्ठ अध्यापकों में आपने अपना स्थान बना लिया। महाविद्यालय में प्रवेश समिति, टाईम-टेबल समिति, छात्र परिषद् तथा परीक्षा सम्बन्धी गतिविधियों से भी आप शीघ्र ही जुड़ गये और इस सम्बन्ध में प्राचार्य के द्वारा दिये गये दायित्वों का प्रामाणिकता के साथ निर्वाह किया। मात्र यही नहीं, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान विषयों के प्रारम्भ होने पर आपने उनकी कक्षाओं में भी अध्यापन किया। इस प्रकार, एक प्रबुद्ध और कर्त्तव्यनिष्ठ अध्यापक के रूप में आपकी छवि उभरकर सामने आई। आपने दर्शनशास्त्र में अन्य अध्यापकों के पदों के सृजन और दर्शनशास्त्र के स्नातकोत्तर अध्ययन प्रारम्भ किये जाने के लिए भी प्रयत्न प्रारम्भ किये और इसमें आपको सफलता भी मिली। आपको श्री प्रमोद कोयल जैसा योग्य साथी मिल गया । स्नातकोत्तर कक्षाओं के खोलने के सम्बन्ध में भी शासन सहमत हो गया, किन्तु इसी बीच आपको प्रतिनियुक्ति पर पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान में निदेशक बनकर बनारस आना पड़ा। फिर भी, आपकी एवं आपके साथी प्रमोद कोयल की पहल असफल नहीं रही और शासन ने हमीदिया महाविद्यालय में स्नातकोत्तर कक्षाएँ प्रारम्भ करने का निर्देश दे ही दिया । भोपाल में दर्शनशास्त्र अध्ययन समिति के अध्यक्ष होने के नाते आपको प्रो. चन्द्रधर धर्मा, प्रो. एस. एस. बारलिंगे जैसे सुप्रसिद्ध दार्शनिकों के आतिथ्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस अवधि में 2500 वीं महावीर निर्वाण शताब्दी के प्रसंग पर रायपुर, उज्जैन, इन्दौर, पूना और उदयपुर के विश्वविद्यालयों द्वारा व्याख्यान एवं संगोष्ठियों में भाग लेने हेतु आप आमन्त्रित किये गये। जब आप भोपाल में ही थे, तब दर्शनशास्त्र के पुनश्चर्या पाठ्यक्रम हेतु एक माह के लिए आप पूना विश्वविद्यालय गये । वहाँ प्रो. एस. एस. बारलिंगे के द्वारा दर्शनशास्त्र विभाग में डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 10 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक जैन चेयर स्थापित करने के प्रयासों में आप भी सहयोगी बने। पूना के जैन समाज के अग्रगण्यों, विशेष रूप से श्री नवलमलजी फिरोदिया के सहयोग से वहाँ जैन चेयर की स्थापना भी हुई। फिरोदियाजी और प्रो. बारलिंगे की हार्दिक इच्छा थी कि आप पूना की जैन चेयर को सम्भालें, किन्तु नियति को कुछ और ही मंजूर था। पं. दलसुखभाई मालवणिया का आदेश था कि आप पार्श्वनाथ विद्याश्रम की चरमराती हुई स्थिति को सम्हालने के लिए वाराणसी जाएं। आपके सामने एक कठिन समस्या थी, एक ओर स्थायित्वपूर्ण शासकीय सेवा तथा घर-परिवार और अपने लोगों के निकट रहने का सुख, तो दूसरी ओर घर-परिवार से दूर एक चरमराती हुई जैन विद्या संस्था को सम्भालने का प्रश्न । उस समय पार्श्वनाथ विद्याश्रम की प्रतिष्ठा तो थी, किन्तु उसकी आर्थिक स्थिति डाँवाडोल थी, अतः कोई भी वहाँ रहना नहीं चाहता था, फिर भी एक जैन विद्या संस्थान के उद्धार का निश्चय लेकर आपने तत्कालीन संचालन समिति के अध्यक्ष श्री शादीलालजी जैन एवं कोषाध्यक्ष गुलाबचन्दजी जैन को आश्वासन दिया कि यदि आप लोग मेरी प्रतिनियुक्ति का आदेश म.प्र. शासन से निकलवा सकें और संस्थान की अर्थ-व्यवस्था के सुधार हेतु प्रयत्न करें, तो मैं विद्याश्रम आ जाऊंगा । तत्कालीन बंगाल के उप मुख्यमंत्री विजयसिंह नाहर के प्रयत्नों से आपकी प्रतिनियुक्ति के आदेश निकले और आपने 1979 में पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान में निदेशक का कार्यभार ग्रहण कर लिया। विद्यानगरी काशी में आपके काशी आगमन से संस्थान को एक नव जीवन मिला और आपने अपने श्रम से विद्याश्रम को एक नये कीर्त्तिमान पर लाकर खड़ा कर दिया । पार्श्वनाथ विद्याश्रम में आपके आगमन ने जहाँ एक ओर विद्याश्रम की प्रगति को नवीन गति दी, वहीं दूसरी ओर आपको अपने अध्ययन के क्षेत्र में भी नवीन दिशाएं मिलीं। विद्याश्रम को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय संस्कृति और इतिहास विभाग, कला इतिहास विभाग, हिन्दी विभाग, दर्शन विभाग, संस्कृति और पालि विभाग आदि में शोध - छात्रों के पंजीयन की सुविधा मिली हुई है, अतः आपको इन विविध विषयों के शोध छात्र उपलब्ध हुए । शोध- छात्रों के मार्ग-दर्शन हेतु यह आवश्यक था कि निर्देशक स्वयं भी उन विषयों से परिचित हों, अतः आपने जैनधर्म-दर्शन के अलावा जैन - कला, पुरातत्व और इतिहास का भी अध्ययन किया । प्रामाणिक शोधकार्य के लिए द्वितीय श्रेणी के ग्रन्थों से काम नहीं चलता है, मूल ग्रन्थों का अध्ययन आवश्यक होता है। डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 11 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपने शोध-छात्री एवं जिज्ञासु विदेशी छात्रों के हेतु मूल ग्रन्थों के अध्ययन की आवश्यकता का अनुभव किया, अतः आपने परम्परागत शैली से और आधुनिक शैली से मूल ग्रन्थों का अध्ययन किया और करवाया। मूल ग्रन्थों में आगमों के साथ-साथ विशेषावश्यकभाष्य, सन्मतितर्क, आप्तमीमांसा, जैन तर्कभाषा, प्रमाणमीमांसा, न्यायावतार (सिद्ध ऋषि की टीका सहित), सप्तभंगीतरंगिणी आदि जटिल दार्शनिक ग्रन्थों का भी सहज और सरल शैली में अध्यापन किया। आपके सान्निध्य में ज्योतिषाचार्य जयप्रभविजयजी, मुनि हितेशविजयजी, साध्वी श्री सुदर्शनाश्रीजी, साध्वी प्रियदर्शनाश्रीजी, साध्वीश्री सुमतिबाई स्वामी और उनकी शिष्याएं, साध्वीश्री प्राणकुंवरबाई स्वामी एवं उनकी शिष्याएँ, साध्वीश्री शिलापीजी, मुमुक्षु बहन मंगलम् आदि अनेक साधु-साध्वियों एवं वैरागी भाई-बहनों ने आगमों के साथ-साथ इन दार्शनिक ग्रन्थों का अध्ययन किया। विविध साधु-साध्वियों के अध्यापन के साथ-साथ आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भी जाकर जैनधर्म दर्शन सम्बन्धी प्रश्नपत्रों का अध्यापन कार्य करते रहे हैं। अनेक विदेशी छात्र भी अध्ययन एवं अपने शोध-कार्यों में सहयोग हेतु आपके पास आते रहते हैं। एक पोलिश प्राध्यापक ने आपके साथ तत्त्वार्थ-भाष्य का अध्ययन किया। विद्याश्रम में आपको श्रमण के संपादन एवं प्रूफ रीडिंग के साथ-साथ अपने शोध-छात्रों द्वारा लिखे निबन्धों तथा विविध शीर्षस्थ विद्वानों के ग्रन्थों के संपादन, प्रकाशन और प्रूफरीडिंग का कार्य करना पड़ा। इसका सबसे बड़ा लाभ आपको यह हुआ कि जैनधर्म, दर्शन, साहित्य, कला, इतिहास आदि की विविध विधाओं में आपकी गहरी पैठ हो गई। प्रतिष्ठा और पुरस्कार हमीदिया महाविद्यालय, भोपाल में कार्य करते समय भी आपकी राष्ट्रीय स्तर की अनेक संगोष्ठियों और कान्फ्रेंसों में जाने का अवसर मिला, जहाँ आपने अपने विद्वत्तपूर्ण आलेखों एवं सौजन्यपूर्ण व्यवहार से दर्शन एवं जैनविद्या के शीर्षस्थ विद्वानों में अपना स्थान बना लिया। जब आप भोपाल में थे, तभी प्रो. बारलिंगे के विशेष आग्रह पर आपको न केवल दर्शन परिषद के कोषाध्यक्ष का भार सम्भालना पड़ा, अपितु दार्शनिक त्रैमासिक के प्रबन्ध संपादक का दायित्व भी ग्रहण करना पड़ा था, जिसका निर्वाह वाराणसी आने के पश्चात् भी सन् 1986 तक करते रहे। कालक्रम में आप अ.भा. दर्शन परिषद् के वरिष्ठ उपाध्यक्ष बने। हमीदिया महाविद्यालय के दर्शन विभागाध्यक्ष एवं पार्श्वनाथ विद्याश्रम के निदेशक के रूप में कार्य करते हुए आपकी प्रतिभा को सम्मान के अनेक अवसर डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 12 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपलब्ध हुए। न केवल आपके अनेक आलेख पुरस्कृत हुए, अपितु आपके शोध-ग्रन्थ जैन, बौद्ध और गीता के आचारों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-1 एवं भाग-2 को प्रदीपकुमार रामपुरिया पुरस्कार से तथा जैन भाषादर्शन को स्वामी प्रणवानन्द दर्शन पुरस्कार से सम्मानित किया गया। आपको प्राप्त सम्मानों की सूची बड़ी लम्बी है। इसे अलग से दिया जा रहा है। डॉ. सागरमल जैन पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी के निदेशक तो रहे ही, उसके साथ-साथ वे जैन-विद्या की अनेक संस्थाओं से भी जुड़े हुए हैं। वे आगम, अहिंसा, समता और प्राकृत संस्थान, उदयपुर के भी मानद निदेशक रहे हैं, जहाँ आपके मार्गदर्शन में प्रकीर्णक साहित्य का अनुवाद का कार्य हुआ है। अ.भा. जैन विद्वत् परिषद् के तो आप संस्थापक रहे हैं, वर्षों तक आप इसके उपाध्यक्ष रहे हैं। जैन-विद्या के क्षेत्र में जब और जहाँ कहीं भी कोई योजना बनती है, मार्ग-निर्देशन हेतु आपका स्मरण अवश्य किया जाता है। वस्तुतः, आप विद्वान् तो हैं ही, किन्तु एक सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं। आपके द्वारा राष्ट्रीय स्तर की अनेक कान्फ्रेंसो और संगोष्ठियों का सफलतापूर्वक आयोजन हुआ है। जैनधर्म के आचार्यों एवं साधु-साध्वियों ने विपुल संख्या में आपसे अध्ययन एवं शोधकार्य किया है, उनकी संख्या 300 से अधिक ही है। देश-विदेश की यात्रा देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों ने और जैन संस्थाओं ने आपके व्याख्यानों का आयोजन किया। बम्बई, कलकत्ता, मद्रास, अहमदाबाद, पाटण, उदयपुर, जोधपुर, दिल्ली उज्जैन, इन्दौर आदि अनेक नगरों में आपके व्याख्यान आयोजित किये जाते रहे हैं, साथ ही आप विभिन्न विश्वविद्यालयों में विषय-विशेषज्ञ के रूप में भी आमन्त्रित किये जाते रहे हैं। यही नहीं, आपको एसोशिएशन आफ वर्ल्ड रिलीजन्स 1985 में तथा पार्लियामेन्ट आफ वर्ल्ड रिलीजन्स 1993 में जैन धर्म के प्रतिनिधि वक्ता के रूप में अमेरिका में आमन्त्रित किया गया। पार्लियामेन्ट आफ वर्ल्ड रिलीजन्स के अवसर पर न केवल आपने वहाँ अपना निबन्ध प्रस्तुत किया, अपितु अमेरिका के विभिन्न नगरों-शिकागो, न्यूयार्क, राले, वाशिंगटन, सेनफ्राँसिस्को, लासएन्जिल्स, फिनिक्स आदि में जैनधर्म के विविध पक्षों पर व्याख्यान भी दिये। इस प्रकार, जैनधर्म-दर्शन और साहित्य के अधिकृत विद्वान् के रूप में आपका यश देश एवं विदेश में प्रसारित हुआ। सन् 1995 से 2000 तक आपको अनेक बार यू.एस.ए. अमेरिका में पर्युषण व्याख्यान के लिए आमन्त्रित किया गया। मार्च 2009 में आपको लन्दन विश्वविद्यालय में जैनयोग पर व्याख्यान हेतु आमन्त्रित डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 13 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया। देश और विदेश के अनेकों विश्वविद्यालय में आपके व्याख्यान हुए हैं। सत्यनिष्ठा निरन्तर कार्यरत रहते हुए आपने अनेक ग्रन्थों, लघु पुस्तिकाओं और निबन्धों के माध्यम से भारती के भण्डार को समृद्ध किया है। आपने लगभग 150 से अधिक ग्रन्थों की लगभग एक लाख पृष्ठों की सामग्री को संपादित एवं प्रकाशित करके नया कीर्तिमान स्थापित किया है। आपके निर्देशन में जैन ई-लायब्रेरी का प्रोजेक्ट चल रहा है, जिसमें लगभग तीन हजार जैन-ग्रन्थों के दस लाख पृष्ठों की सामग्री सहज उपलब्ध हो रही है, साथ ही आपके निर्देशन में पचास से अधिक शोधार्थियों ने पीएच.डी. एवं डी.लिट के हेतु शोधकार्य किया है। आपके चिन्तन और लेखन की विशेषता यह है कि आप सदैव साम्प्रदायिकअभिनिवेशों से मुक्त होकर लिखते हैं। आपकी 'जैन एकता' नामक पुस्तिका न केवल पुरस्कृत हुई, अपितु विद्वानों में समादृत भी हुई। बौद्धिक ईमानदारी एवं सत्यान्वेषण की अनाग्रही शैली आपने पं. सुखलालजी संघवी और पं. दलसुखभाई मालवणिया के लेखन से सीखी। यद्यपि सम्प्रदायमुक्त होकर सत्यान्वेषण के तथ्यों का प्रकाशन धर्मभीरू और आग्रहशील समाज को सीधा गले नहीं उतरता, किन्तु कौन प्रशंसा करता है और कौन आलोचना, इसकी परवाह किये बगैर आपने सदैव सत्य को उदघाटित करने का प्रयत्न किया है। उसके परिणामस्वरूप तटस्थ चिन्तकों, विद्वानों और साम्प्रदायिक- अभिनिवेशों से मुक्त सामाजिककार्यकर्ताओं में आपके लेखन ने पर्याप्त प्रशंसा अर्जित की। आज यह कल्पना भी दुष्कर लगती है कि एक बालक, जो 15-16 वर्ष की आय में ही व्यावसायिक और पारिवारिक दायित्वों के बोझ से दब-सा गया था, अपनी प्रतिभा के बल पर विद्या के क्षेत्र में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेगा। आज देश में जैन-विद्या के जो गिने-चुने शीर्षस्थ विद्वान् हैं, उनमें अपना स्थान बना लेना-यह डॉ. सागरमल जैन जैसे अध्यवसायी, श्रमनिष्ठ और प्रतिभाशाली व्यक्ति की ही क्षमता है। यद्यपि वे आज भी ऐसा नहीं मानते हैं कि यह सब उनकी प्रतिभा एवं अध्यवसायिता का परिणाम है। उनकी दृष्टि में यह सब मात्र संयोग है। वे कहते हैं- "जैन-विद्या के क्षेत्र में विद्वानों का अकाल ही एकमात्र ऐसा कारण है, जिससे मुझ जैसा अल्पज्ञ भी सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेता है," किन्तु हमारी दृष्टि में यह केवल उनकी विनम्रता का परिचायक है। आप अपनी सफलता का सत्र यह बताते हैं कि किसी भी कार्य को छोटा डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 14 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत समझो और जिस समय जो भी कार्य उपस्थित हो, पूरी प्रामाणिकता के साथ उसे पूरा करने का प्रयत्न करो । आपके व्यक्तित्व के निर्माण में अनेक लोगों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। पूज्य बाबाजी पूर्णमलजी म.सा. और इन्द्रमलजी म.सा. ने आपके जीवन में धार्मिक-ज्ञान और संस्कारों के बीज का वपन किया था। पूज्य साध्वीश्री पानकंवरजी म.सा. को तो आप अपनी संस्कारदायिनी माता ही मानते हैं। आपने डॉ. सी.पी. ब्रह्मों के जीवन से, एक अध्यापक में दायित्वबोध एवं शिष्य के प्रति अनुग्रह की भावना कैसी होनी चाहिये- यह सीखा है। पं. सुखलालजी और पं. दलसुखभाई को आप अपना द्रोणाचार्य मानते हैं, जिनसे प्रत्यक्ष में कुछ नहीं सीखा, किन्तु परोक्ष में जो कुछ आप में है, वह सब उन्हीं का दिया हुआ मानते हैं। आपकी चिन्तन और प्रस्तुतीकरण की शैली बहुत कुछ उनसे प्रभावित है। आपने अपने पूज्य पिताजी से व्यावसायिक-प्रामाणिकता और स्पष्टवादिता को सीखा, यद्यपि आप कहते हैं कि स्पष्टवादिता का जितना साहस पिताजी में था, उतना आज भी मुझमें नहीं है। पत्नी आपके जीवन का यथार्थ है। आप कहते हैं कि यदि उससे यथार्थ को समझने और जीने की दृष्टि न मिली होती, तो मेरे आदर्श भी शायद यथार्थ नहीं बन पाते। सेवा और सहयोग के साथ जीवन के कटु सत्यों को भोगने में, जो साहस उसने दिलाया, वह उसका सबसे बड़ा योगदान है। आप कहते हैं कि शिष्यों में श्यामनन्दन झा और डॉ. अरूणप्रताप सिंह ने जो निष्ठा एवं समर्पण दिया, वही ऐसा सम्बल है, जिसके कारण शिष्यों के प्रत्युपकार की वृत्ति मुझमें जीवित रह सकी, अन्यथा वर्तमान परिवेश में वह समाप्त हो गई होती। मित्रों में भाई माणकचन्द्र के उपकार का भी आप सदैव स्मरण करते हैं। आप कहते हैं कि उसने अध्ययन के द्वार को पुनः उद्घाटित किया था। समाज-सेवा के क्षेत्र में भाई मनोहरलाल और श्री सौभाग्यमलजी जैन वकील सा. आपके सहयोगी एवं मार्गदर्शक रहे हैं। आप यह मानते हैं कि "मैं जो कुछ भी हूँ, वह पूरे समाज की कृति हूँ, उसके पीछे अनगिनत हाथ रहे हैं। मैं किन-किन का स्मरण करूँ, अनेक तो ऐसे भी होंगे, जिनकी स्मृति भी आज शेष नहीं है।" वस्तुतः, व्यक्ति अपने-आप में कुछ नहीं है, वह देश, काल, परिस्थिति और समाज की निर्मिति है। जो इन सबके अवदान को स्वीकार कर उनके प्रत्युपकार की भावना रखता है, वह महान् बन जाता है, चिरजीवी हो जाता है, अन्यथा अपने ही स्वार्थ एवं अहं में सिमटकर समाप्त हो जाता है। डॉ. सागरमल जैन- एक परिचय : 15 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्त सम्मानों की सूची 1. प्रदीपकुमार रामपुरिया पुरस्कार, वर्ष 1986 2. प्रणवानन्द पुरस्कार (जैन भाषा दर्शन पर), वर्ष 1987 3. डिप्टीमल पुरस्कार, वर्ष 1992 4. आचार्य हस्ति पुरस्कार, वर्ष 1994 5. प्रदीपकुमार रामपुरिया पुरस्कार, (द्वितीय बार ) वर्ष 1998 6. विद्यावारिधि सम्मान, वर्ष 2003 7. कला मर्मज्ञ सम्मान, वर्ष 2006 8. उ.प्र. शासन सम्मान (प्राकृत ग्रन्थ के लिए) 9. जैना का अध्यक्षीय सम्मान, वर्ष 2007 वर्ष 2007 10. वागर्थ सम्मान (म. प्र. शासन), 11. गौतम गणधर सम्मान, वर्ष 2008 12. आचार्य तुलसी प्राकृत सम्मान, वर्ष 2008 13. विद्याचन्द्र सूरी सम्मान, वर्ष 2011 इसके अतिरिक्त म.प्र. के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंहजी, बाबूलालजी गौर और वर्त्तमान मुख्यमंत्री शिवराजसिंह जी ने भी सम्मानित किया है । पदस्थापनाएं 1. अध्यक्ष - कुमार साहित्य परिषद्, शाजापुर 2. सचिव - हिन्दी साहित्य समिति, शाजापुर 3. सचिव 4. अध्यक्ष 5. अध्यक्ष 6. कोषाध्यक्ष 7. व्याख्याता दर्शनशास्त्र म.प्र. शासन शिक्षा सेवा 8. सहायक प्राध्यापक- म.प्र. शासन, शिक्षा सेवा 9. प्रोफेसर दर्शनशास्त्र - म.प्र. शासन, शिक्षा सेवा 10. निदेशक - पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी 11. मानद् निदेशक - आगम, अहिंसा, समता प्राकृत संस्थान उदयपुर 12. संस्थापक निदेशक प्राच्य विद्यापीठ, 13. वरिष्ठ उपाध्यक्ष शाजापुर अ. भा. दर्शन परिषद् माधव रजत जयन्ती वाचनालय, शाजापुर अ.भा. स्थानकवासी युवक संघ, मध्यप्रदेश शाखा सद्विचार निकेतन, शाजापुर - अ.भा. दर्शन परिषद् - --- डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 16 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन 1983 1986 11986 डॉ. सागरमलजी जैन सा. के मार्गदर्शन एवं निर्देशन में शोधार्थियों द्वारा किए गए . शोधकार्यों का विवरण - क्र. शोधार्थी शोध का विषय 1. डॉ. भिखारीराम यादव जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगीयनय की आधुनिक 1983 व्याख्या (का.हि.वि.वि., वाराणसी) 2. डॉ. अरूणप्रताप सिंह जैन और बौद्ध भिक्षुणी संघ का उद्भव, विकास एवं स्थिति (का.हि.वि.वि., वाराणसी)। 3. |डॉ. रविशंकर मिश्र महाकवि कालिदासकृत मेघदूत और जैन कवि 1983 | मेरूतुंगकृत जैन मेघदूत का साहित्यिक अध्ययन (का.हि.वि.वि., वाराणसी) ___4. महो. चन्द्रप्रभसागर सयमसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व (हिन्दी साहित्य |1986 सम्मेलन, प्रयाग द्वारा महोपाध्याय की पदवी हेतु) (का.हि.वि.वि., वाराणसी) 5. डॉ. रवीन्द्रनाथ मिश्र जैन कर्म सिद्धान्त का ऐतिहासिक विश्लेषण (का.हि.वि.वि., वाराणसी) 6. डॉ. रमेशचन्द्र गुप्त तीर्थकर, बुद्ध और अवतार की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन (का.हि.वि.वि., वाराणसी) 7. डॉ. कमलप्रभा जैन प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन : [1986 एक अध्ययन (का.हि.वि.वि., वाराणसी) 8. डॉ. महेन्द्रनाथ सिंह उत्तराध्ययन और धम्मपद का तुलनात्मक अध्ययन (का.हि.वि.वि.. वाराणसी) 9. डॉ. त्रिवेणीप्रसाद सिंह जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में मानव व्यक्तित्व का वर्गीकरण 1987 (का.हि.वि.वि., वाराणसी) 10./ डॉ. उमेशचन्द्र सिंह जैन आगम साहित्य में शिक्षा, समाज एवं अर्थव्यवस्था 1987 (का.हि.वि.वि., वाराणसी) 11. डॉ. रज्जन कुमार जैनधर्म में समाधिमरण की अवधारणा |1987 (का.हि.वि.वि., वाराणसी) 12. डॉ.(श्रीमती) रीता सिंह प्राकृत और जैन संस्कृत साहित्य में कृष्ण कथा 11989 (का.हि.वि.वि., वाराणसी) 13. डॉ. इन्द्रेशचन्द्र सिंह जैन साहित्य में वर्णित सैन्यविज्ञान एवं युद्धकला (का.हि.वि.वि., वाराणसी) 14. डॉ. श्रीनारायण दुबे जैन अभिलेखों का सांस्कृतिक अध्ययन (का.हि.वि.वि., वाराणसी) |1986 1990 1990 डॉ. सागरमल जैन- एक परिचय : 17 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1991 11991 1992 15/ डॉ.(श्रीमती)संगीता झा धर्म और दर्शन के क्षेत्र में आचार्य हरिभद्र का अवदान |1990 (का.हि.वि.वि., वाराणसी) 16/ डॉ. धनंजय मिश्र हरिभद्र का योग के क्षेत्र में योगदान 11991 | (का.हि.वि.वि., वाराणसी) 17 डॉ.(श्रीमती)गीता सिंह | औपनिषदिक साहित्य में श्रमण परम्परा के तत्त्व (का.हि.वि.वि., वाराणसी) 18/ डॉ.(श्रीमती अर्चना |भाषा दर्शन को जैन दार्शनिकों का योगदान |पाण्डेय | (का.हि.वि.वि., वाराणसी) 19/ डॉ. (श्रीमती) मंजुला जैन दार्शनिक ग्रन्थों में ईश्वर कर्तृत्व की समालोचना |1992 भट्टाचार्य (का.हि.वि.वि., वाराणसी) 20/ डॉ. रवीन्द्रकुमार |शीलदूत एवं संस्कृत दूतकाव्यों का तुलनात्मक अध्ययन |1992 (का.हि.वि.वि., वाराणसी) 21/ डॉ.के.वी.एस.पी.बी. वैखानस जैन योग का तुलनात्मक अध्ययन आचार्युलु | (का.हि.वि.वि., वाराणसी) 22 डॉ. जितेन्द्र बी.शाह द्वादशार नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन 1992 (का.हि.वि.वि., वाराणसी) 23 श्री असीमकुमार मिश्र | ऐतिहासिक अध्ययन के जैन स्रोत और उनकी प्रामाणिकताः एक अध्ययन (का.हि.वि.वि., वाराणसी) 24/ श्री मणिनाथ मिश्र जैन चम्पू काव्यों का समीक्षात्मक अध्ययन 1997 (का.हि.वि.वि., वाराणसी) (का.हि.वि.वि., वाराणसी) 25| श्रीमती कंचनसिंह पार्वाभ्युदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन 1997 (का.हि.वि.वि., वाराणसी) 26| साध्वी उदितप्रभाश्रीजी जैनधर्म में ध्यान की विकास यात्रा जैन विश्वभारती वि.वि. (महावीर से महाप्रज्ञ तक) .. लाडनूं (राज.) 27 साध्वी दर्शनकलाश्रीजी जैन साहित्य में गुणस्थान की। जैन विश्वभारती वि.वि. अवधारणा लाडनूं (राज.) 28| साध्वी प्रियलताश्रीजी जैनधर्म में त्रिविध आत्मा की | जैन विश्वभारती वि.वि. अवधारणा लाडनूं (राज.) 29/ साध्वी प्रियवंदनाश्रीजी जैनधर्म में समत्वयोग जैन विश्वभारती वि.वि. लाडनूं (राज.) 30| श्रीमती विजयागोसावी जैन योग और पातंजल योगसूत्रः | जैन विश्वभारती वि.वि. एक अध्ययन लाडनूँ (राज.) 1996 (मुंबई) डॉ. सागरमल जैन- एक परिचय : 18 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31|श्री रणवीरसिंह भदौरिया गीता में प्रतिपादित विभिन्न योगों का जीवाजी विश्वविद्यालय, वालियर) तुलनात्मक अध्ययन ग्वालियर 32 साध्वी दिव्याजनाश्रीजी संवेगरंगशाला : एक अध्ययन | जैन विश्वभारती वि.वि. लाडनूँ (राज.) 33 साध्वी मोक्षरत्नाश्रीजी आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कार | जैन विश्वभारती वि.वि. और संस्कार विधि लाडनूं (राज.) 34 साध्वी विचक्षणश्रीजी विशेषावश्यक के गणधरवाद और जैन विश्वभारती वि.वि. निववाद का समीक्षात्मक अध्ययन लाडनूँ (राज.) 35 | साध्वी विजयश्रीजी जैन श्रमणी संघ का अवदान जैन विश्वभारती वि.वि. लाडनूं (राज.) 36 साध्वी स्थितप्रज्ञाश्रीजी पिण्डनियुक्ति का समीक्षात्मक | जैन विश्वभारती वि.वि. अध्ययन लाडनूं (राज.) 37 साध्वी प्रीतिदर्शनाश्रीजी आचार्य यशोविजयजी का | जैन विश्वभारती वि.वि. आध्यात्मवाद | लाडनूं (राज.) 38 श्री प्रवीण जोशी भारतीय चिन्तन में कर्त्तव्य और विक्रम वि.वि. उज्जैन अधिकार की अवधारणा 39 श्री संजीव जैन गणधरवाद का दार्शनिक अध्ययन विक्रम वि.वि. उज्जैन 40 साध्वी प्रतिभाजी जैन संघ को श्राविकाओं का अवदान जैन विश्वभारती वि.वि. (प्रथम) लाडन (राज.) 41 साध्वी संवेगप्रज्ञाश्रीजी पंचसूत्र का समीक्षात्मक अध्ययन जैन विश्वभारती वि.वि. | लाडनूं (राज.) 42 साध्वी ज्योत्सनाजी रत्नाकरावतारिका में बौद्धदर्शन की | जैन विश्वभारती वि.वि. समीक्षा लाडनूं (राज.) 43 |साध्वी प्रतिभाजी आराधनापताका में समाधिमरण जैन विश्वभारती वि.वि. (द्वितीय) लाडनूँ (राज.) 44. साध्वी प्रमुदिताश्रीजी जैन दर्शन में संज्ञा की अवधारणा जैन विश्वभारती वि.वि. लाडनूं (राज.) 45.आशीष नागर राधा तत्त्व विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन 46.कु. तृप्ति जैन . जैनदर्शन में तनाव प्रबन्धन जैन विश्वभारती वि.वि. लाडनूं (राज.) प्रस्तुत 47 नवीन बुधोलिया महात्मा गांधी का दर्शन विक्रम विश्वविद्यालय, | उज्जैन प्रिस्तुत डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 19 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1995 5. कु बेबी अनौपचारिक समग्र मार्गदर्शन - 1 डॉ. श्यामनन्दन झा कुन्दकुन्द और शंकर के दर्शनों का तुलनात्मक 1973 अध्ययन 2 | साध्वी प्रियदर्शनाश्रीजी आनन्दघन का रहस्यवाद 1982 3 साध्वीश्री सुदर्शनाश्रीजी आचारांगसूत्र का नैतिक दर्शन 1982 4 |साध्वीश्री प्रमोदकुमारीजी इसिभासियाई सूत्र का दार्शनिक अध्ययन 1991 5. साध्वी विनीतप्रज्ञाश्रीजी उत्तराध्ययनसूत्र-एक अनुशीलन 2001 6. डॉ. सरेश सिसौदिया जैन धर्म के सम्प्रदाय वाराणसी से प्रस्थान के समय कार्यरत शोध छात्रों की सूची - 1. श्रीमती शुभा तिवारी पउमचरियं में सामाजिक चेतनाः एक समीक्षात्मक अध्ययन 2. श्री वीरेन्द्र नारायण तिवारी प्रमुख स्मृतियाँ तथा जैनधर्म में प्रायश्चित्त-विधि 3. श्री दयानन्द ओझा |जयोदय महाकाव्य का आलोचनात्मक अध्ययन 4. कुमकुम राय धर्मशर्माभ्युदय काव्यः एक अध्ययन | सोमेश्वरदेव कृत कीर्तिकौमुदी का आलोचनात्मक अध्ययन 6. कु. आभा |आख्यानक मणिकोश का आलोचनात्मक अध्ययन 7. हनुमानप्रसाद मिश्र जैन प्रायश्चित्त-विधि इनमें से किन छात्रों को पी-एच.डी. प्राप्त हई, या नहीं, यह ज्ञात नहीं हो सका है। वर्तमान में कार्यरत शोध छात्र1. साध्वी सौम्यगुणाश्री जैनविधि-विधानों का समीक्षात्मक जैन विश्वभारती वि. (डी.लिट. हेतु) अध्ययन वि. लाडनूँ (राज.) 2. मुनि मनीषसागरजी जैनदर्शन में जीवन प्रबन्धन के तत्त्व जैन विश्वभारती वि.वि. लाडनूं (राज.) 3. साध्वी कनकप्रभाश्रीजी |पंचाशक प्रकरण : एक अध्ययन जैन विश्वभारती वि.वि. लाडनूं (राज.) 4. साध्वी सम्यकप्रभाश्री जैनदर्शन में षडावश्यक : एक विवेचन जैन विश्वभारती वि.वि. लाडन (राज.) 5. साध्वी स्नेहांजनाश्री द्रव्य गुणपर्यायनो रास जैन विश्वभारती वि.वि. लाडनूं (राज.) 6. साध्वी श्रद्धांजनाश्री ध्यानशतक (टीकासहित) विक्रम वि.वि., उज्जैन (सभी के शोध-प्रबन्ध प्रायः पूर्ण हो चुके हैं।) - का.हि.वि.वि.एम.ए.दर्शन (अन्तिमवर्ष) की परीक्षा हेतु प्रस्तुत लघु शोध-प्रबन्धों की सूची क्र. नाम | विषय 1.| उदयप्रताप सिंह | जैनधर्म में समाधिमरण | 1979-80 वर्ष डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 20 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन 2. अवधेश कुमार सिंह | दं सिस्टम आव वैल्यूज इन जैन फिलासफी । 11979-80 3. कृष्णकान्त कुमार जैनधर्म के सम्प्रदाय 1980 4. ताड़केश्वर नाथ जैनधर्म में मोक्ष एवं मोक्षमार्ग 1980 | रामाश्रयसिंह यादव |जैन कर्म सिद्धान्त 1980 6. | सतीशचन्द्र सिंह जैनदर्शन में प्रमाण 1980-81 7. शिवपरसन सिंह आचार्य कुन्दकुन्द के दर्शन में आत्मा का स्वरूप 1980-81 8. अशोककुमार |उपासकदशांग के अनुसार श्रावक धर्म 1980-81 9. वीरेन्द्र कुमार जैनदर्शन में जीवन की अवधारणा | 1980-81 10. त्रिवेणीप्रसाद सिंह रत्नकरण्डश्रावकाचार के अनुसार गृहस्थ धर्म 1981 11. मुकुलराज मेहता जैनधर्म में आध्यात्मिक विकासः एक तुल. विवेचन 1981 प्रो. सागरमल जैन कृतित्वक्र ग्रन्थ का नाम प्रकाशन 1. जैन,बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, 1982 का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-1 जयपुर एवं प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर | 2. जैन बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, 1982 का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-2 जयपुर एवं प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर 3. जैन,बौद्ध और गीता का समाजदर्शन राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, | 1982 जयपुर 4. जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, 1982 जयपुर 5. |जैनकर्म सिद्धान्त का तुलनात्मक राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, अध्ययन जयपुर 6. धर्म का मर्म पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, 1986 वाराणसी, प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (द्वितीय एवं तृतीय संस्करण) 7. अर्हत्, पार्श्व और उनकी परम्परा पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, 1988 वाराणसी 8. ऋषिभाषित : एक अध्ययन राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, 1988 जयपुर 9. जैन भाषा दर्शन भो. ल. भारतीय संस्कृति मंदिर, 1986 दिल्ली-पाटण 1982 डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 21 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. | जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय | पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, | 1994 | वाराणसी 11. | तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा | पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, | 1994 वाराणसी 12. अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी | पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, | 1990 वाराणसी | सागर जैन विद्या भारती भाग 1 पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी 1994 14. / सागर जैन विद्या भारती भाग 2 पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी 15. | सागर जैन विद्या भारती भाग 3 पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी 16. | सागर जैन विद्या भारती भाग 4 पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी | सागर जैन विद्या भारती भाग 5 पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी 18. | सागर जैन विद्या भारती भाग 6 | पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी | सागर जैन विद्या भारती भाग 7 | पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी 21. | Doctoral Dissertations in Jainism and | पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, | 1983 Buddhism (With Dr. A.P.Singh | वाराणसी 1995 गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी 1996 जैन धर्म और तांत्रिक साधना पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी 1997 | अहिंसा की प्रासंगिकता पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी 2002 25. | स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी 2003 26. | An Introduction to Jaina Sadhana P.V.R. I Varanasi 1995 27. | Jaina literature & Philosophy P.V.R. I Varanasi 1999 Peace, Religious Harmony and | Prachya Vidyapeeth, Shajapur | 2001 Solution of World Problems from | P.V.R.IVaranasi Jaina Perspective Jain Philosophy of language | P.V.R.IVaranasi 2005 Tran. by Prof. S. Verma Prakrit Bharti, Jaipur P.V.R.IVaranasi 2007 30. | Rishibhashita:A study 31. | Jain Religion : Its Historical Journey of Evolution 32. Keynote Address at Ram Krishna Mission, Calcutta 33. / डॉ. सागरमल जैन अभिनंदन ग्रंथ डिॉ. सागरमल जैन के लेखों का संग्रह) (डॉ. सुदर्शनलाल जैन के साथ) पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी 1998 डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 22 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34. | अनेकान्त की जीवनदृष्टि (श्री सौभाग्यमल जी जैन के साथ) 35. अहिंसा की संभावनायें भारत जैन महामण्डल, बम्बई | पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी | पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी 1983 40. श्रावक धर्म की प्रासंगिकता का प्रश्न {प्रथम एवं द्वितीय संस्करण } 41. धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म 1985 38. जैन एकता का प्रश्न (प्रथम संस्करण } पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर 39. जैन अध्यात्मवाद : आधुनिक सन्दर्भ में पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, | प्रथम एवं द्वितीय संस्करण } वाराणसी, प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर 2011 पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, 1983 वाराणसी प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर 2011 पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर 2011 पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर 2011 सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, | वाराणसी | प्रथम एवं द्वितीय संस्करण} 1985 2011 1987 42. धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म प्रथम एवं द्वितीय संस्करण } 43 भारतीय संस्कृति में हरिभद्र का अवदान प्रथम एवं द्वितीय संस्करण } 44 जैन साधना पद्धति में तप 45 जैन साधना पद्धति में ध्यान 1981 1994 1995 पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी 2011 1999 | प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर 2011 एल.डी. इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी, 2011 अहमदाबाद 36. जैन साहित्य और शिल्प में बाहुबली (डॉ. मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी के साथ) 37. पर्युषणपर्व : एक विवेचन 46 जैन धर्म में नारी की भूमिका {प्रथम संस्करण} {द्वितीय संस्करण } 47 जैन धर्म की ऐतिहासिक विकास यात्रा 48 अध्यात्मवाद और विज्ञान 49 जैन दर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय विस्तृत प्रस्तावनाएँ - - क्र. ग्रन्थ का नाम संपादक / अनुवादक 1. चरणकरणानुयोग, द्वितीय खण्ड मुनि कन्हैयालालजी की विस्तृत भूमिका 'कमल' 2. जैन तीर्थों का ऐतिहासिक डॉ. शिवप्रसाद अध्ययन 1975 डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 23 1980 1981 1983 1983 प्रकाशन आगम अनुयोग प्रकाशन ट्रस्ट अहमदाबाद पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. प्रमुख जैन साध्वियाँ और महिलाएँ 4. स्याद्वाद और सप्तभंगी 5. इसिभासियाइ 6. चन्द्रध्वेध्यक- प्रकीर्णक 7. महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक 8. तंदुल वैचारिक प्रकीर्णक 9. देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णक 10. द्वीपसागर प्रज्ञप्ति प्रकीर्णक भूमिका का फ्रेंच अनुवाद भी है। 12. जिनवाणी के मोती | डॉ. हीरालाल बोर्डिया | पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी | पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध | संस्थान, वाराणसी अनुवादक विनयसागरजी पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी अनुवादक डॉ. सुरेश आगम अहिंसा समता एवं सिसोदिया | प्राकृत संस्थान, उदयपुर भूमिका डॉ. सागरमल एवं सुरेश सिसोदिया डॉ. बी. आर. यादव अनुवादक डॉ. सुरेश आगम अहिंसा समता एवं सिसोदिया अनुवादक - डॉ. सुरेश आगम अहिंसा समता एवं सिसोदिया 11. Lord Mahavira | इसका फ्रेंच भाषा का संस्करण डॉ. बूलचंद जैन भी प्रकाशित है और उसमें प्राकृत संस्थान, उदयपुर भूमिका डॉ. सागरमल एवं सुरेश सिसोदिया अनुवादक डॉ. सुभाष आगम अहिंसा समता एवं कोठारी प्राकृत संस्थान, उदयपुर भूमिका डॉ. सागरमल एवं सुभाष कोठारी अनुवादक डॉ. सुरेश आगम अहिंसा समता एवं सिसोदिया | प्राकृत संस्थान, उदयपुर भूमिका डॉ. सागरमल एवं सुरेश सिसोदिया डॉ. दुलीचंद जैन जैन विद्या अनुसंधान प्रतिष्ठान, मद्रास 13. द्रव्यानुयोग की विस्तृत भूमिका मुनि कन्हैयालाल जी आगम अनुयोग ट्रस्ट, अहमदाबाद - प्राकृत संस्थान, उदयपुर भूमिका डॉ. सागरमल एवं सुरेश | सिसोदिया पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी डॉ. सागरमल जैन एक परिचय : 24 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14.|पंचाशक-प्रकरणम् की विस्तृत हरिभद्र सूरि पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध भूमिका संस्थान, वाराणसी 15. वसुदेवहिण्डी : एक अध्ययन पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी 16. सिद्धसेन दिवाकर : डॉ. एस.पी. पाण्डे पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध व्यक्तित्व एवं कृतित्व संस्थान, वाराणसी 17. प्रवचनसारोद्धार की विस्तृत साध्वी हेमप्रभाश्रीजी प्राकृत भारती, जयपुर भूमिका 18. | प्राकृत एवं संस्कृत ग्रन्थों में साध्वी दर्शनकलाश्री राज राजेन्द्र प्रकाशन. गुणस्थान सिद्धान्त अहमदाबाद 19. जैन साधना पद्धति में ध्यान साध्वी प्रियदर्शना रत्न जैन पुस्तकालय, अहमदनगर 20. ध्यानशतक : जिनभद्रगणि अनु. सुषमा सिंघवी प्राकृत भारती, जयपुर 21. कायोत्सर्ग | श्री कन्हैयालालजी लोढ़ा प्राकृत भारती, जयपुर 22. सकारात्मक अहिंसा | श्री कन्हैयालालजी लोढा प्राकृत भारती, जयपुर पुण्यपापतत्त्व | श्री कन्हैयालालजी लोढ़ा प्राकृत भारती, जयपुर 24. बन्धतत्त्व की भूमिका | श्री कन्हैयालालजी लोढ़ा प्राकृत भारती, जयपुर अध्यात्मसार अनु.साध्वी प्रीतिदर्शना प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर श्रीजी 26. बौद्धदर्शन का समीक्षात्मक साध्वी ज्योत्सनाश्रीजी प्राच्य विद्यापीठ; शाजापुर अध्ययन म.सा. 27. जैन धर्म में ध्यान का | साध्वी उदितप्रभाश्रीजी प्राकृत भारती, जयपुर ऐतिहासिक विकासक्रम म.सा. 28 |जैन गृहस्थ की षोडश संस्कार | साध्वी मोक्षरत्नाश्रीजी प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर विधि 29. जैन मुनि जीवन के साध्वी मोक्षरत्नाश्रीजी प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर विधि-विधान 30. प्रतिष्ठा शान्तिकर्म पौष्टिककर्म | साध्वी मोक्षरत्नाश्रीजी प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर एवं बलिविधान 31 प्रायश्चित्त, आवश्यक, तप एवं | साध्वी मोक्षरत्नाश्रीजी प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर पदारोपण विधि डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 25 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - डॉ. सागरमल जैन के शोधनिबन्ध प्रो. सागरमल जैन के शोध निबन्ध दार्शनिक, परामर्श, श्रमण, जिनवाणी, विक्रम, तुलसीप्रज्ञा, अनेकांत, जिनभाषित, जैनम्श्री आदि शोध-पत्रिकाओं के साथ-साथ विभिन्न अभिनन्दन ग्रन्थों, स्मृति ग्रन्थों, स्मारिकाओं आदि में प्रकाशित होते रहे हैं। अनेक ग्रन्थों की भूमिकाएँ भी शोध-आलेख रूप रही हैं। आपके इन महत्त्वपूर्ण विकीर्ण आलेखों को एकत्रित कर प्रकाशित करने के प्रयत्न हुए, उनमें डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ (Aspects of Jainologyvol-6) और सागर जैन विद्या भारती भाग-1 से 7 तक, जो अब जैन धर्म दर्शन एवं संस्कृत के नाम से पुनः प्रकाशित है, प्रमुख हैं। इन दोनों में मिलाकर लगभग 160 आलेख हैं, इसके अतिरिक्त भी अनेक आलेख छूट गये थे, उन्हें भी www.jainaelibrary.org के और डा. साहब की स्मृति के आधार पर समाहित करने का प्रयत्न किया गया है। इन सब आधारों पर उनके शोध आलेखों की संख्या लगभग 300 के आसपास होती है। कोष्ठक () में दिये गये नम्बर www.jainaelibrary.org के संदर्भ के हैं, ज्ञातव्य है कि आपके अनेक लेख अनुवादित होकर प्रबुद्ध जीवन (गुजराती) श्रमण (बंगला) Jain studies (अंग्रेजी) में भी छपे हैं। क्र. आलेख का नाम प्रकाशक 1. अर्द्धमागधी भाषा का उद्भव एवं विकास सुमनमुनि अमृतमहोत्सव ग्रन्थ, चेन्नई 2. अद्वैतवाद में आचार दर्शन की सम्भावना जैन| सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. __ दृष्टि में समीक्षा (210030) वाराणसी 3. अध्यात्म और विज्ञान (210030) | सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 4. अध्यात्म बनाम भौतिकवाद श्रमण, अप्रेल 1990 5. अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श (210062) 6. अर्धमागधी आगम साहित्य में समाधिमरण की | श्रमण, 1994 अवधारणा 7. अशोक के अभिलेखा की भाषा मागधी या | सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. शौरसेनी (210128) | वाराणसी 8. अशोक के अभिलेखा की भाषा मागधी या | सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. शौरसेनी (210128) | वाराणसी डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 26 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. अहिंसाः एक तुलनात्मक अध्ययन (210136) | सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ पा.वि. वाराणसी 10 अहिंसा का अर्थ विस्तार, सम्भावनाएँ श्रमण जनवरी 1980 11. अहिंसा की सार्वभौमिकता (210141) |जैन विद्यालय स्मारक ग्रन्थ, कलकत्ता 12. आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान |सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. ___ महत्व रचनाकाल एवं रचयिता (210161) वाराणसी 13 आचारांग सूत्रः आधुनिक मनोविज्ञान के संदर्भ में तुलसीप्रज्ञा, खण्ड 6, अंक 9, 1981 14 आचारांगसूत्रः एक विश्लेषण (210178) | सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 15 आत्मा और परमात्माः एक तुलनात्मक विवेचन श्रमण, मार्च 1980 16 आचार्य हेमचन्द्रः एक युगपुरुष 210204 सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 17 इक्कीसवीं सदी की प्रमुख समस्याएँ और जैन विजयानन्दसूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रन्थ दर्शन के परिप्रेक्ष्य में उनके समाधान (210265) 18 उच्चै गर शाखा के उत्पति स्थल एवं सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. उमास्वाति के जन्मस्थान की पहचान 210302 | वाराणसी 19 खजुराहो की कला और जैनाचार्यों की सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. समन्वयात्मक एवं सहिष्णु दृष्टि 210432 वाराणसी 20 गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास श्रमण, जनवरी-मार्च 1992 21 गीता में नियतिवाद और पुरुषार्थवाद की प्राच्य प्रतिभा (पत्रिका), बिरला समस्या और यथार्थ जीवनदृष्टि केन्द्र, भोपाल 22 जटासिंहनन्दी का वारांगचरित और उसकी सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. परम्परा (210499) वाराणसी 23 जैन एकता का प्रश्न ? |श्रमण, जनवरी 1983 24 जैन अध्यात्मवाद, आधुनिक सन्दर्भ भवरलाल नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ ___ में (210559) 25 जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की | सज्जनश्री अभिनन्दन ग्रन्थ स्थिति का मूल्यांकन (210572) 26 जैन आगमों की मूल भाषा अर्द्धमागधी या समन मुनि प्रज्ञामहर्षि अभिनन्दन ग्रन्थ शौरसेनी (210574) डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 27 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 जैन आगम साहित्य में श्रावस्ती | अप्रकाशित 28 जैन आगमों की मूल भाषा अर्द्धमागधी या विजयानन्दसूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रन्थ शौरसेनी (210575) 29 जैन आगमों में मूल्यात्मक शिक्षा और अष्टदशी वर्तमान सन्दर्भ (210580) 30 जैन आचार दर्शन एक मूल्यांकन (210584)| केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ 31 जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. ____ का प्रश्न (210586) वाराणसी 32 जैन आचार में उत्सर्ग मार्ग और अपवाद | सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. मार्ग (210588) वाराणसी 33 जैन साधना में ध्यान | यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रन्थ, मोहनखेड़ा 34 जैन एवं बौद्धधर्म में स्वहित एवं लोकहित | सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. ____ का प्रश्न (210604) | वाराणसी 35 जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शन तुलसीप्रज्ञा, अंक 5 की शोध संक्षेपिका 36 जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों में महावीर जयन्तीस्मारिका, जयपुर 1978 कर्म का शुभत्व, अशुभत्व और शुद्धत्व 37 जैनकर्म सिद्धान्तः एक विश्लेषण (210616) | सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 38 जैनधर्म में नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. का स्वरूप (210635) | वाराणसी 39 जैनदर्शन और आधुनिक विज्ञान (210655) | सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. | वाराणसी 40 जैनदर्शन में आत्माः स्वरूप एवं विश्लेषण | सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. (210679) वाराणसी 41 जैनदर्शन में तर्क प्रमाण का आधुनिक | दार्शनिक, अक्टूम्बर 1978 संदर्भ में मूल्यांकन 42 जैनदर्शन में ज्ञान के प्रामाण्य और कथन | सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. . की सत्यता का प्रश्न (210690) वाराणसी 43 जैनदर्शन मे निश्चय एवं व्यवहार नय | दार्शनिक त्रैमासिक, जुलाई 1974 डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 28 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 जैनदर्शन में नैतिक मूल्यांकन का विषय | सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. (210697) वाराणसी 45 जैनदर्शन में नैतिकता की सापेक्षता और मुनि द्वय अभिनन्दन ग्रन्थ निरपेक्षता (210698) 46 जैनदर्शन में पुद्गल और परमाणु (210702)| सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 47 जैनदर्शन में मिथ्यात्व और सम्यक्त्व : एक | जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ __तुलनात्मक विवेचन (210709) 48 जैनदर्शन में मोक्ष का स्वरूप : एक | तीर्थकर महावीर स्मृति ग्रन्थ तुलनात्मक अध्ययन (210710) 49 जैनदृष्टि में धर्म का स्वरूप (210729) लेखेन्द्रशेखरविजय अभिनन्दन ग्रन्थ 50 जैनधर्म और सामाजिक समता (210742) सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 51 जैनधर्म में स्वाध्याय का अर्थ श्रमण, 1994 52 जैनधर्म का एक विलुप्त सम्प्रदाय : यापनीय सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. (210743) वाराणी 53 जैनधर्म का त्रिविध साधना मार्ग (210744) | विजयानन्दसूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रन्थ 54 जैनधर्म की परम्परा, इतिहास के झरोखे से | विजयानन्दसूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रन्थ (210751) 55 जैनधर्म में नारी की भूमिका (210771) | सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 56 जैनधर्म के धार्मिक अनुष्ठान एवं कला तत्त्व 57 जैनधर्म में प्रायश्चित्त एवं दण्ड व्यवस्था सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. (210774) वाराणसी 58 जैनधर्म में सामाजिक चिंतन (210779) सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 59 जैननीतिदर्शन के मनोवैज्ञानिक आधार सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. (210795) वाराणसी 60 जैन परम्परा में काशी (210807) राजेन्द्रसूरी जन्म शताब्दी ग्रन्थ 61 जैन परम्परा का ऐतिहासिक विश्लेषण श्रमण, जुलाई-सितम्बर 1990 . 62 जैन परम्परा में बाहुबलि (210810) सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 29 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 63 जैन, बौद्ध और औपनिषदिक ऋषियों के सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. उपदेशों का प्राचीनतम संकलनःऋषिभाषित वाराणसी (210821) 64 जैन, बौद्ध और गीतादर्शन में मोक्ष का राजेन्द्रसूरी जन्म शताब्दी ग्रन्थ स्वरूपः एक तुलनात्मक अध्ययन (210822) 65 जैन वाक्य दर्शन (210854) सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 66 जैन अध्यात्मवाद : आधुनिक संदर्भ में । | श्रमण, अगस्त 1983 67 जैन शिक्षादर्शन (210876) सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. | वाराणसी 68 जैन कर्मसिद्धान्त : एक विश्लेषण श्रमण, 1994 69 जैन साधना और ध्यान (210911) महासती द्वय स्मृति ग्रन्थ, 70 जैनसाधना का आधार सम्यग्दर्शन(210914) सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 71 जैनसाधना के मनोवैज्ञानिक आधार (210918) सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. | वाराणसी 72 जैनसाधना में प्रणव का स्थान (210926) सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. | वाराणसी 73 जैनसाधना का त्रिविध साधना मार्ग (210971) नानचन्दजी जन्म शताब्दी स्मृति ग्रन्थ, 74 जैनदर्शन में सत् का स्वरूप (210983) | सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 75 जैनधर्म का लेश्या सिद्धान्तः एक सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. मनोवैज्ञानिक विमर्श (211000) वाराणसी 76 जैनधर्म के मूल तत्त्व (211003) सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 77 जैनधर्म में अहिंसा की अवधारणाः एक सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. विश्लेषण (211010) वाराणसी 78 जैनधर्म में तीर्थ की अवधारणा (211015) | सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 79 जैनधर्म में नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता | सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. का स्वरूप (211017) वाराणसी डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 30 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 जैनधर्म में पूजा विधान और धार्मिक सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. ____ अनुष्ठान (211018) वाराणसी 81 जैनधर्म में प्रायश्चित्त एवं दण्ड व्यवस्था |सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. (211019) वाराणसी 82 जैनधर्म में भक्ति की अवधारणा (211020) सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 83 जैनधर्म में मुक्ति की अवधारणा (211023) सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 84 जैनधर्म में स्वाध्याय का अर्थ एवं स्नान । |सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. (211026) वाराणसी 85 जैन नीति दर्शन की सामाजिक सार्थकता |सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. (211031) वाराणसी 86 जैनसाहित्य में स्तूप |सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 87 जैनागम साहित्य में स्तूप (211048) बेचरदास डोसी अभिनन्दन ग्रन्थ, 88 जैनागमों में समाधिमरण की अवधारणा सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. (211052) | वाराणसी 89 ज्ञान और कथन की सत्यता का प्रश्न : परामर्श, जून 1983 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 90 तन्त्रसाधना और जैन जीवन दृष्टि (211103) सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 91 तार्किक शिरोमणि आचार्य सिद्धसेनदिवाकर सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. (211118) वाराणसी 92 दशलक्षणपर्व : दशलक्षण धर्म (211156) |सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 93 धर्म क्या है ? श्रमण, जनवरी, फरवरी और मार्च, 1980 94 धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र की उमरावकुँवरजी दीक्षा स्वर्ण जयन्ती सहिष्णुता (211191) स्मृति ग्रन्थ 95 धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र का अवदान श्रमण, अक्टूम्बर 1986 96 धर्म का मर्म जैन दृष्टि (211194) सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी डॉ. सागरमल जैन- एक परिचय : 31 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 97 धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म (211215) 98 निर्युक्ति साहित्य एक पुनर्चिन्तन (211277 ) सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी आनन्द ऋषि अभिनन्दन ग्रन्थ 99 निश्चय और व्यवहार किसका आश्रय ले ! (211281) 100 नीति के मानवतावादी सिद्धान्त और जैन आचार दर्शन (211286) 101 नीति के निरपेक्ष और सापेक्ष तत्त्व 102 नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता (211294) 103 नैतिक मानदण्ड : एक या अनेक ? 104 महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य के द्वारा सम्पादित एवं अनुदित षड्दर्शनसमुच्चय की समीक्षा (211300) 105 पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या और जैनधर्म (211323) 106 पर्यूषण पर्व : एक विवेचन ( 211332 ) 112 फ्रायड और जैनदर्शन 113 बन्धन से मुक्ति की ओर (211460) | सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, वाराणसी 114 बालकों के संस्कार निर्माण में अभिभावक, शिक्षक और समाज की भूमिका सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी | दार्शनिक, अप्रेल 1976 | सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. | वाराणसी 107 पर्यूषण पर्व क्या, कब, क्यों और कैसे 108 प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु की खोज (211397 ) 109 प्रवर्तक एवं निवर्तक धर्मों का मनोवैज्ञानिक दार्शनिक, जून 1978 स्वरूप विकास 110 प्राचीन जैन आगमों में चार्वाक दर्शन का पा.वि. दार्शनिक जनवरी 1980 | महेन्द्र कुमार जैन शास्त्री न्यायचन्द्र स्मृति ग्रन्थ सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा (211419) 111 पार्श्वनाथ जन्मभूमि मंदिर का पुरातत्त्वीय वैभव श्रमण, 1990 तीर्थकर श्रमण, अगस्त 1981 सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. | वाराणसी सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी | सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी श्रमण, जनवरी 1980 डॉ. सागरमल जैन- एक परिचय : 32 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 115 महावीर का जीवन दर्शन श्रमण, अप्रेल 1986 116 भगवान् महावीर का अपरिग्रह सिद्धान्त सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. और उसकी उपादेयता (211499) वाराणसी 117 भाग्य बनाम पुरुषार्थ श्रमण, जुलाई 1985 118 भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना (211551) सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 119 भारतीय संस्कृति का समन्वित स्वरूप सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. (211578) वाराणसी 120 भेद-विज्ञान : मुक्ति का सिंहद्वार (211605) सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 121 मन शक्ति स्वरूप और साधना : । सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. एक विश्लेषण (211625) वाराणसी 122 मानवतावाद और जैन आचार दर्शन तीर्थकर, जनवरी 1978 123 महापण्डित राहुल सांस्कृत्यायन के जैन धर्म | सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. सम्बन्धी मन्तव्यों की समालोचना (211650) वाराणसी 124 महावीर का दर्शन : सामाजिक परिप्रेक्ष्य में श्रमण, अप्रेल 1981 125 महावीर कालीन विभिन्न आत्मवाद एवं जैन सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. आत्मवाद का वैशिष्ट्य (211670) वाराणसी 126 महावीर के सिद्धान्त : आधुनिक सन्दर्भ में महावीर जयन्तीस्मारिका, जयपुर1976 127 मूलाचारः एक विवेचन (211734) सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 128 मूल्य बोध की सापेक्षता दार्शनिक, अक्टूम्बर 1977 129 मूल्य दर्शन और पुरुषार्थ चतुष्टय (211738) |सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 130 रामपुत्त या रामगुत्तः सूत्रकृतांग के संदर्भ सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. में (211845) वाराणसी 131 व्यक्ति और समाज सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 132 श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं । सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. पारस्परिक प्रभाव (2122025) .. वाराणसी 133 श्रावक आचार (धर्म) की प्रासंगिकता का सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. डॉ. सागरमल जैन- एक परिचय : 33 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न (212054) 134 श्वेताम्बर परम्परा में रामकथा (212077 ) 135 श्वेताम्बर साहित्य में रामकथा का स्वरूप 136 श्वेताम्बर मूलसंघ एवं माथुरसंघ : एक विमर्श (212078) 137 षट्जीवनिकाय के वर्गीकरण की समस्या (212082) 138 संयम जीवन का सम्यक् दृष्टिकोण 140 स्याद्वाद : एक चिन्तन 141 सती प्रथा और जैन धर्म (212116 ) 142 सदाचार के शाश्वत मानदण्ड और जैन धर्म (212124) 143 सप्तभंगी त्रिमूल्यात्मक तर्क शास्त्र के सन्दर्भ में 144 समदर्शी आचार्य हरिभद्र ( 212138) श्रमण, जुलाई 1980 139 सत्ता कितनी वाच्य और कितनी अवाच्य ? दार्शनिक, अप्रेल 1981 145 समाधिमरण की अवधारणा की समीक्षा 146 समाधिमरणः एक तुलनात्मक विवेचन (212152) 147 सम्राट अकबर और जैनधर्म (212166) 23 | वाराणसी सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी 150 साधना और सेवा का सहसम्बन्ध ( 212185) 151 सामाजिक समस्याओं के समाधान में जैन धर्म का योगदान (212194) श्रमण, अक्टूम्बर 1985 सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी महावीर जयन्ती स्मारिका, 1977 कुसुमवती साध्वी अभिनन्दन ग्रन्थ जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ महावीर जयन्ती स्मारिका, जयपुर 1977 सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, वाराणसी 148 सदाचार के शाश्वत मानदण्ड और जैन धर्म (212181) 149 साधना और सेवा का सहसम्बन्ध ( 212185) सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी सुमनमुनि प्रज्ञा महर्षि ग्रन्थ, देशभूषणजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ, .पा.वि. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 34 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 स्त्री अन्यतैर्थिक एवं सवस्त्र की मुक्ति का | सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पा.वि. प्रश्न (212225) वाराणसी 153 स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन (212228) 154 हरिभद्र के दर्शन के क्रान्तिकारी तत्त्व 155 हरिभद्र की क्रान्तिकारी दृष्टि और धूर्त्ताख्यान 156 हरिभद्र के धूर्त्ताख्यान का मूलस्रोत 157 जैनधर्म दर्शन का सत्व ( 229110) (001684) 158 महावीर का जीवन और दर्शन ( 229111) सागर जैन विद्या भारती, भाग-1 160 जैन धर्म में स्वाध्याय का अर्थ एवं स्नान (229113) 161 जैन साधना में ध्यान ( 229114) सागरमल जैन अभिन्नदन ग्रन्थ, पा.वि. वाराणसी (001684) 159 जैन धर्म में भक्ति की अवधारणा (229112) सागर जैन विद्या भारती, भाग-1 162 अर्द्धमागधी आगम साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा (229115 ) 163 जैन कर्म सिद्धान्त (229116) श्रमण, अक्टूम्बर 1986 श्रमण, फरवरी 1987 श्रमण, फरवरी 1987 सागर जैन विद्या भारती, भाग-1 (001684) सागर जैन विद्या भारती, भाग-1 (001684) सागर जैन विद्या भारती, भाग-1 (001684) सागर जैन विद्या भारती, भाग-1 (001684) सागर जैन विद्या भारती, भाग-1 (001684) सागर जैन विद्या भारती, भाग-1 164 भारतीय संस्कृति का समन्वित स्वरूप (229117) 165 पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या और जैन धर्म (229118) (001684) 166 जैन धर्म और सामाजिक समता (229119) सागर जैन विद्या भारती, भाग-1 (001684) सागर जैन विद्या भारती, भाग-1 (001684) 167 जैन आगमों में मूल्यात्मक शिक्षा और वर्तमान सागर जैन विद्या भारती, भाग-1 सन्दर्भ (229120) 168 ऋग्वेद में अर्हत् और ऋषभवाची ऋचाएं (229123) (001684) सागर जैन विद्या भारती, भाग-1 (001684) डॉ. सागरमल जैन- एक परिचय: 35 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 169 जैन एवं बौद्ध पारिभाषिक शब्दों के अर्थ सागर जैन विद्या भारती, भाग-1 (001684) निर्धारण की समस्या (229125) 170 जैन आगमों में हुआ भाषिक स्वरूप परिवर्तन सागर जैन विद्या भारती, भाग-1 (001684) सागर जैन विद्या भारती, भाग-1 (229126) 171 महावीर की निर्वाण तिथि पर पुनर्विचार (229127) 172 अर्द्धमागधी आगम साहित्य (229128) (001685) 173 प्राचीन जैनागमों में चार्वाक दर्शन ( 229129) सागर जैन विद्या भारती, भाग-2 174 महावीर के समकालीन विभिन्न आत्मवाद एवं जैन आत्मवाद वैशिष्ट्य (229130) 175 सकारात्मक अहिंसा की भूमिका (229131 176 तीर्थकर और ईश्वर के सम्प्रत्ययों का तुलनात्मक विवेचन ( 229132) 177 जैन धर्म में भक्ति का स्थान ( 229133) (001684) सागर जैन विद्या भारती, भाग-2 (229136) 181 जैन धर्म का लेश्या सिद्धान्त (229137) (001685) | सागर जैन विद्या भारती, भाग-2 (001685) ) सागर जैन विद्या भारती, भाग-2 (001685) 178 मन शक्ति स्वरूप और साधना (229134 ) सागर जैन विद्या भारती, भाग-2 (001685) सागर जैन विद्या भारती, भाग-2 (001685) सागर जैन विद्या भारती, भाग-2 179 जैन दर्शन में नैतिकता की सापेक्षता और निरपेक्षता (229135) (001685) 180 सदाचार के शाश्वत मानदण्ड और जैन धर्म सागर जैन विद्या भारती, भाग-2 (001685) सागर जैन विद्या भारती, भाग-2 (001685) सागर जैन विद्या भारती, भाग-2 (001685) सागर जैन विद्या भारती, भाग-2. 182 पंडित जगन्नाथजी की दृष्टि में बुद्ध व्यक्ति नहीं प्रक्रिया (229138) (001685) 183 जैन धर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का सागर जैन विद्या भारती, भाग-3 प्रश्न (229145) (001686) 184 स्त्रीमुक्ति अन्यतैर्थिक मुक्ति एवं सवस्त्रमुक्ति सागर जैन विद्या भारती, डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय: 36 भाग-3 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का प्रश्न (229145) | (001686) 185 प्रमाण लक्षण निरूपण में प्रमाणमीमांसा का |सागर जैन विद्या भारती, भाग-3 अवदान (229146) (001686) 186 पं. महेन्द्रकुमार सम्पादित षड्दर्शनसमुच्चय | सागर जैन विद्या भारती, भाग-3 की समीक्षा (229147) 1(001686) 187 आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान |सागर जैन विद्या भारती, भाग-3 महत्त्व रचनाकाल एवं रचयिता (229148) (001686) 188 जैनदर्शन में आध्यात्मिक विकास (229149) सागर जैन विद्या भारती, भाग-3 (001686) 189 युगीन परिवेश में महावीर के सिद्धान्त सागर जैन विद्या भारती, भाग-3 (229150) (001686) 190 जैनधर्म और आधुनिक विज्ञान (229151) सागर जैन विद्या भारती, भाग-3 (001686) 191 श्वेताम्बर मूल संघ एवं माथुरसंघ सागर जैन विद्या भारती, भाग-3 (229153) (001686) 192 षट्जीवनिकाय में त्रस एवं स्थावर के |सागर जैन विद्या भारती, भाग-3 वर्गीकरण की समस्या (2291154) (001686) 193 ऋषिभाषितः एक अध्ययन (229155) सागर जैन विद्या भारती, भाग-3 (001686) 194 भद्रबाहु सम्बन्धी कथानकों का अध्ययन |सागर जैन विद्या भारती, भाग-4 (229156) (001687) 195 कौमुदीमित्रानन्द में प्रतिपादित रामचन्द्रसूरि । | सागर जैन विद्या भारती, भाग-4 की जैन जीवनदृष्टि (229157) (001687) 196 अंगविज्जा और नमस्कार मन्त्र की विकास सागर जैन विद्या भारती, भाग-4 यात्रा (229158) (001687) 197 जीवसमास (229159) सागर जैन विद्या भारती, भाग-4 (001687) 198 जैन विद्या के अध्ययन की तकनीक सागर जैन विद्या भारती, भाग-4 (229160) 1 (001687) 199 कषायमुक्ति किलः मुक्तिरेव (229161) सागर जैन विद्या भारती, भाग-4 (001687) डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 37 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 स्वाध्याय की मणियाँ (229162) सागर जैन विद्या भारती, भाग--4 (001687) 201 हरिभद्र कृत श्रावक धर्म विधि सागर जैन विद्या भारती, भाग-4 प्रकरण (229163) (001687) 202 अपभ्रंश में महाकवि स्वयम्भू (229164) | सागर जैन विद्या भारती, भाग-4 (001687) 203 जैन परम्परा में काशी (229165) सागर जैन विद्या भारती, भाग-4 (001687) 204 पुण्य की उपादेयता का प्रश्न (229166) सागर जैन विद्या भारती, भाग-4 (001687) 205 अर्द्धमागधी आगम साहित्यः कुछ सत्य सागर जैन विद्या भारती, भाग-5 __ और तथ्य (229167) (001688) 206 प्राकृतविद्या में प्रो. टाटियाजी के नाम से | सागर जैन विद्या भारती, भाग-5 प्रकाशित उनके व्याख्यान की समीक्षा (229169) | (001688) 207 अशोक के अभिलेखों की भाषा मागधी सागर जैन विद्या भारती, भाग-5 या शौरसेनी (229170) (001688) 208 क्या ब्राह्मी लिपि में न और ण के लिये सागर जैन विद्या भारती, भाग-5 एक ही आकृति थी (229171) (001688) 209 भारतीय दार्शनिक चिन्तन में निहित सागर जैन विद्या भारती, भाग-5 अनेकान्त (229172) (001688) 210 जैनदर्शन की द्रव्य, गुण एवं पर्याय की सागर जैन विद्या भारती, भाग-5 अवधारणा (229173) (001688) 211 प्रवचनसारोद्धार : एक अध्ययन(229174) सागर जैन विद्या भारती, भाग-5 (001688) 212 भारतीय संस्कृति के दो प्रमुख महाघटकों सागर जैन विद्या भारती, भाग-6 का सम्बन्ध (229175) (001689) 213 महावीर का श्रावक वर्ग अब और तब | सागर जैन विद्या भारती, भाग-6 (229176) (001689) 214 महावीर जन्मस्थल (229177) सागर जैन विद्या भारती, भाग-6 (001689) 215 महावीर का केवलज्ञान स्थल (229178) | सागर जैन विद्या भारती, भाग-6 डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 38 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | (001689) 216 महावीर की निर्वाणभूमि पावा (229179) सागर जैन विद्या भारती, भाग-6 (001689) 217 जैन तत्त्वमीमांसा की विकास यात्रा (229180) सागर जैन विद्या भारती, भाग-6 1(001689) 218 जिन दर्शन में मोक्ष की अवधारणा (229181) | सागर जैन विद्या भारती, भाग-6 (001689) 219 जिन प्रतिमा का प्राचीन स्वरूप (229182) |सागर जैन विद्या भारती, भाग-6 | (001689) 220 अंगविज्जा में जैन मन्त्रों का प्राचीनतम |सागर जैन विद्या भारती, भाग-6 स्वरूप (229183) (001689) 221 उमास्वाति एवं उनकी उच्चैनागरी शाखा का | सागर जैन विद्या भारती, भाग-6 स्थल एवं विचरण क्षेत्र (229184) (001689) 222 उमास्वाति का काल (229185) सागर जैन विद्या भारती, भाग-6 (001689) 223 उमास्वाति और उनकी परम्परा (229186) सागर जैन विद्या भारती, भाग-6 (001689) 224 जैन आगम साहित्य में श्रावस्ती (229187) | सागर जैन विद्या भारती, भाग-6 (001689) 225 प्राकृत और अपभ्रंश जैन साहित्य में कृष्णा | सागर जैन विद्या भारती, भाग-6 (229188) (001689) 226 मूलाचार (229189) सागर जैन विद्या भारती, भाग-6 (001689) 227 प्राचीन जैनागमों में चार्वाकदर्शन का |सागर जैन विद्या भारती, भाग-6 प्रस्तुतिकरण (229190) (001689) 228 ऋषिभाषित में प्रस्तुत चार्वाकदर्शन (229191) सागर जैन विद्या भारती, भाग-6 (001689) 229 राजप्रश्नीय सूत्र में चार्वाक मत का सागर जैन विद्या भारती, भाग-6 प्रस्तुतिकरण (229192) (001689) 230 भागवत के रचना काल के सम्बन्ध में जैन सागर जैन विद्या भारती, भाग-6 साहित्य के कुछ प्रमाण (229193) (001689) डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 39 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 231 बौद्धधर्म में सामाजिक चेतना (229194) 232 धर्मनिरपेक्षता और बौद्ध धर्म (229195) (001689) 233 महायान सम्प्रदाय की समन्वयात्मक जीवन सागर जैन विद्या भारती, भाग-6 दृष्टि (229196) (001689) 234 भारतीय दार्शनिक ग्रन्थों में प्रतिपादित बौद्ध जैन धर्म-दर्शन एवं संस्कृति, भाग-7 धर्म एवं दर्शन 235 गुणस्थान सिद्धान्त पर एक महत्त्वपूर्ण शोध-कार्य जैन धर्म-दर्शन एवं संस्कृति, भाग-7 236 जैनधर्म में ध्यान - विधि की विकास-यात्रा जैन धर्म-दर्शन एवं संस्कृति, भाग-7 जैन धर्म-दर्शन एवं संस्कृति, भाग-7 जैन धर्म-दर्शन एवं संस्कृति, भाग-7 जैन धर्म-दर्शन एवं संस्कृति, भाग-7 जैन धर्म-दर्शन एवं संस्कृति, भाग-7 237 ध्यानशतक: एक परिचय 238 आचारांगसूत्र की मनोवैज्ञानिक दृष्टि 239 क्या तत्त्वार्थसूत्र स्त्रीमुक्ति का निषेध करता है? सागर जैन विद्या भारती, भाग-6 (001689) सागर जैन विद्या भारती, भाग-6 240 राजप्रश्नीयसूत्र का समीक्षात्मक अध्ययन 241 वृष्णिदशाः एक परिचय जैन धर्म-दर्शन एवं संस्कृति, भाग-7 242 जैन इतिहास: अध्ययन विधि एवं मूलस्रोत जैन धर्म-दर्शन एवं संस्कृति, भाग-7 243 शंखेश्वर तीर्थ का इतिहास जैन धर्म-दर्शन एवं संस्कृति, भाग-7 244 नवदिगम्बर सम्प्रदाय' की कल्पना जैन धर्म-दर्शन एवं संस्कृति, भाग-7 कितनी समीचीन ? 245 जैन कथा-साहित्य: एक समीक्षात्मक सर्वेक्षण जैन धर्म-दर्शन एवं संस्कृति, भाग-7 जैन धर्म-दर्शन एवं संस्कृति, भाग-7 जैन धर्म-दर्शन एवं संस्कृति, भाग-7 जैन धर्म-दर्शन एवं संस्कृति, भाग-7 246 जैन जीवन-दृष्टि 247 विक्रमादित्य की ऐतिहासिकताः जैन साहित्य के सन्दर्भ में 248 षट्जीवनिकाय की अवधारणाः एक वैज्ञानिक विश्लेषण 249 जैन धर्म में सरस्वती उपासना 250 क्या आर्यावती (मथुरा - शिल्प) सरस्वती है ? 251 जैन आगम साहित्य में श्रुतदेवी सरस्वती 252 भारतीय तन्त्र साधना और जैन धर्म दर्शन जिनभाषित, जून 2009 अनुसंधान 50 (2), सन् 2010 जिनभाषित, अक्टूम्बर 2011 जिनवाणी, 2009-2010 (9 किश्तो में समाप्त) 253 जैन दार्शनिकों का अन्य दर्शनों को अवदान जिनवाणी, मार्च-अप्रेल 2011 डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 40 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 जैन दर्शन में इन्द्रियों के प्राप्यकारित्व और अप्राप्यकारित्व भारतीय दर्शन में प्राप्यकारित्ववाद ( अम्बिकादत्त शर्मा), 2006 255 बौद्ध और जैन प्रमाण मीमांसा : एक तुलना | श्रमण, जुलाई-सितम्बर 2004 256 जैनयोग और पातंजलयोग एक तुलना परमतत्त्व जनवरी 2011 257 Bramhanic and Sramanic Culture a Comparative Study (250030) 258 Concept of non Violence in Jainism (250057) 259 Concept of Vibhajjavada and its impact on Philosophical and Religious tolerance in Buddhism and Jainism (250060) 260 Equanimity and Meditation (250085) 261 Historical Development of Jaina Philosophy and Religious (250112) 262 Jain Concept of Peace (250132) 263 Jaina Literature form earliest time to century 10th AD (250158) 264 KS Murthyas philosophy of peace and non violence (250196) 265 Origin and Development of Jainism (250233) 272 An Introduction to Dr Charlottee (269074) 273 Spiritual Foundation of Jainism (269076) 274 Human Solidarity and Jainism (269077) 275 Impact of Nyaya and Vaisesika School on Jaina Philosophy (269078) 276 The ethics of Jainism and swami Narayan sect 277 Relvance of Jainism in present world 278 The Historical Delevelopment of Jaina Aspect of Jainology Vol. 6th P. V.R.I. Varanasi . Aspect of Jainology Vol. 6th Varanasi Aspect of Jainology Vol. 6th Varanasi Aspect of Jainology Vol. 6th P. V.R.I. Varanasi P. V.R.I. Aspect of Jainology Vol. 6th P. V.R.I. Varanasi P. V.R.I. Vijayanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth 012023 Aspect of Jainology Vol. 6th P. V.R.I. Varanasi Aspect of Jainology Vol. 6th Varanasi Aspect of Jainology Vol. 6th P. V.R.I. Varanasi 266 Propos of the Botika Sect (250257) (with M.A. Dhaky) 267 Reconsidering the date of Nirvna of Lord Mahavira (250268) 268 Religious Harmoney and Fellowship of Faiths (250275) 269 Role of Parents teachers and society in stilling cultural values (250281) 270 Samatva Yoga the Fundamental teaching of Jainism Aspect of Jainology Vol. 6th P. V.R.I. and Gita (250287) Varanasi 271 Solution of World Problems;a Jaina Perspective (250305) Aspect of Jainology Vol. 6th P. V.R.I. Varanasi P. V.R.I. Aspect of Jainology Vol. 6th P. V.R.I. Varanasi Aspect of Jainology Vol. 6th P. V.R.I. Varanasi Aspect of Jainology Vol. 6th P. V.R.I. Varanasi Aspect of Jainology Vol. 6th P. V.R.I. Varanasi डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 41 Sagar Jain Vidya Bharti Part 4 (001687) Sagar Jain Vidya Bharti Part 4 (001687) Sagar Jain Vidya Bharti Part 6 (001689) Sagar Jain Vidya Bharti Part 6 (001689) New Dimenson in Vedant Philosophy Jain Journal Vol-22 No-1 Jinvani April, May, June 2010 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Yoga sysyem 279 Jain Sadhana and Yoga 280 The Teaching Arhat Parsva and the Distinctness of his Sect 281 Introduction of Lord Mahavira 282 Role of Religion in unity of Mankind and Word Peace 283 Jaina Literature 284 How appropriate is the proposition of Neo Digambaraschool? 285 Jaina Canonical Literature Arhat Parsva and Dharanedra Nexus Institute Delhi P.V.RI. Varanasi Jain Journal Vol-XLI No.4, 2007 Jain Journal Vol-XLIII No.1,2008 JainJournal Vol-XLINo.3,2007 Jainadharma Darshana avam Samskriti Vol-7 286 An investigation of the earlier subject matter of Prasnavyakarana Sutra 287 Risibhasita-Avaluable Jain Work 288 Same Refelction on Samansuttam 289 Risibhasita- A Prakrit work of Universal Values Jinvani Nov-2010 JinvaniOct-2011 Jinvani July-August 2011 डॉ. सागरमल जैन द्वारा सम्पादित ग्रन्थ - 1. रत्न ज्योति स्थानकवासी जैन संघ, । 1970 शाजापुर 2. चिन्तन के नये आयाम सौभाग्यमल जी, स्था. जैन | 1971 कान्फरेन्स, देहली 3. |जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पा.वि. वाराणसी 1981 4. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास पा.वि. वाराणसी 1989 5. जैन योग को आलोचनात्मक अध्ययन पा.वि. वाराणसी 1982 6. आनन्दघन का रहस्यवाद पा.वि. वाराणसी 1982 7. प्राकृत दीपिका पा.वि. वाराणसी 1982 8. जैनदर्शन में आत्मविचार पा.वि. वाराणसी 1984 9. खजुराहो के जैन मन्दिरों की मूर्तिकला पा.वि. वाराणसी 1984 10. जैनाचार्यों का अलंकार शास्त्र में अवदान पा.वि. वाराणसी 1984 11. वज्जालग्गं पा.वि. वाराणसी 1984 12. जैन और बौद्ध भिक्षुणी संघ पा.वि. वाराणसी 1986 13. आचारांगसूत्र : एक अध्ययन पा.वि. वाराणसी 1987 14. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन पा.वि. वाराणसी 1987 15. तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार पा.वि. वाराणसी 1988 16. स्याद्वाद और सप्तभंगी पा.वि. वाराणसी 17. संबोध सप्ततिका पा.वि. वाराणसी 1988 1988 डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 42 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1989 1989 1990 18. प्राचीन जैन साहित्य में आर्थिक जीवन पा.वि. वाराणसी 1988 19./जैन साहित्य के विविध आयाम, भाग-1 पा.वि. वाराणसी 20/जैन साहित्य के विविध आयाम, भाग-2 |पा.वि. वाराणसी 21. जैन साहित्य के विविध आयाम, भाग-3 पा.वि. वाराणसी 22/जिनचन्द्रसूरि काव्यांजलि । पा.वि. वाराणसी 1989 23. जैनधर्म की प्रमुख साध्वियां पा.वि. वाराणसी 1990 24मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म पा.वि. वाराणसी 1992 25. जैन प्रतिमा विज्ञान पा.वि. वाराणसी 1985 26. जैनतीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन पा.वि. वाराणसी 1991 27.मानव जीवन और उसके मूल्य । पा.वि. वाराणसी 1990 28. जैन मेघदूत पा.वि. वाराणसी 1989 29. जैनकर्म सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास पा.वि. वाराणसी 1993 30. Theory of Realty in Jaina Philosophy, PVRI, 1991 31. Concept of Matter in Jaina Philosophy, |PVRI, 1987 32. Jaina Epistemology, PVRI, 1990 33./The Concept of Panchasheel in Indian Thought, PVRI, 1983 34. The Path of Arhat, PVRI, 1993 35. Jaina Perspective in Philosophy & Religion, PVRI, 1983 36. Aspect of Jainology, VOL. I, PVRI, 1987 37. Aspect of Jainology, VOL. II, PVRI, 1987 38. Aspect of Jainology, VOL. III, PVRI, 199 39. Aspect of Jainology, VOL. IV, PVRI, 1993 40. Aspect of Jainology, VOL.V, PVRI, 1987 41. Samana Suttam, Sarva Seva Sangh Prakashan, Varanasi, 1993 42. Ishibhasiyayim, PVRI, Varanasi & Prakrit Bharti, Jaipur 43. उपासकदशा में वर्णित श्रावकाचार, आ.अ.स.प्रा.संस्थान, उदयपुर |1987 44. जैनधर्म के सम्प्रदाय आ.अ.स.प्रा.संस्थान, उदयपुर |1994 45, नेमिदूत | पा.वि. वाराणसी | 1994 डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 43 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 महावीर निर्वाण भूमि पावा | पा.वि. वाराणसी 47 हरिभद्र के साहित्य में समाज एवं संस्कृति पा.वि. वाराणसी 1994 48. गाथा सप्तशती पा.वि. वाराणसी |1995 49 श्रृंगारवैराग्य तरंगीणि पा.वि. वाराणसी 1995 50. मातृकापद श्रृंगार कलित गाथाकोश पा.वि. वाराणसी 51. आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन पा.वि. वाराणसी 52. जैन नीतिशास्त्र पा.वि. वाराणसी 53. नलविलास नाटक पा.वि. वाराणसी 54/ कौमुदी मित्रानन्द (नाटक) पा.वि. वाराणसी 55. अनेकांतवाद एवं पाश्चात्य व्यवहारिकतावाद पा.वि. वाराणसी 1997 56/बौद्ध प्रमाण मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा पा.वि. वाराणसी 1995 57 भारतीय जीवन मूल्य पा.वि. वाराणसी 1997 58. जैन महापुराण : एक कलापरक अध्ययन पा.वि. वाराणसी 11997 59/शीलदूतं पा.वि. वाराणसी 1997 60. वसुदेवहिण्डी : एक अध्ययन पा.वि. वाराणसी 1997 61/ जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहारनय पा.वि. वाराणसी : एक समीक्षात्मक अध्ययन 62/पंचाशक प्रकरण-हिन्दी अनुवाद | पा.वि. वाराणसी 1997 63/De Chargeotte Krause - Her life and work| पा.वि. वाराणसी 1997 64/Multi-dimentional Application of पा.वि. वाराणसी 1997 Anekant Vade 65. Pearls of Jain Wisdom | पा.वि. वाराणसी 1996 66/सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व | पा.वि. वाराणसी 1995 67 कषाय – साध्वी हेमप्रज्ञाश्री | इन्दौर 68/चन्द्रवेधक प्रकीर्णक - हिन्दी अनुवाद आ.अ.स.प्रा.संस्थान, उदयपुर |1991 69/देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णक - हिन्दी अनुवाद | आ.अ.स.प्रा.संस्थान, उदयपुर |1987 70. महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक -हिन्दी अनुवाद आ.अ.स.प्रा.संस्थान, उदयपुर 1991 71/द्वीपसागर प्रज्ञप्ति - हिन्दी अनुवाद आ.अ.स.प्रा.संस्थान, उदयपुर |1987 72 तन्दुलवैचारिक - हिन्दी अनुवाद आ.अ.स.प्रा.संस्थान, उदयपुर 1991 73/गच्छाचार - हिन्दी अनुवाद आ.अ.स.प्रा.संस्थान, उदयपुर 74/गणीविद्या - हिन्दी अनुवाद | आ.अ.स.प्रा.संस्थान, उदयपुर 75/संस्तारक - हिन्दी अनुवाद आ.अ.स.प्रा.संस्थान, उदयपुर 76. चतुःशतक प्रकीर्णक 77सारावली प्रकीर्णक डॉ. सागरमल जैन- एक परिचय : 44 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78. प्रकीर्णक साहित्य मनन और मीमांसा 79. अंग साहित्य मनन और मीमांसा व्याख्या प्यारचंदजी 80. प्रा.त व्याकरण 81. जैनधर्म जीवनधर्म - 82. प्रा. त सुक्तावली 83. तत्त्वार्थसूत्र (हिन्दी) 84. Chandra Vedhyaka Prakirnaka | (English Version) 85. Devendra Stava 100. जैन संस्कार और विधि विधान 101. उपदेश पुष्पमाला 102. सुकरत्नावली 103. ऋषिभाषित दार्शनिक अध्ययन 104. जैन विधि विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास 105. बौद्ध दर्शन का समीक्षात्मक अध्ययन 106. उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद 107. जैनधर्म में आराधना का स्वरूप आ.अ. स.प्रा. संस्थान, उदयपुर आ.अ. स.प्रा.संस्थान, उदयपुर आ.अ. स.प्रा. संस्थान, उदयपुर आ.अ.स. प्रा. संस्थान, उदयपुर 86. Mahapratykhyan 87. Dvipasagara pragyapti 88. Tandulvaicharika 89. Chatushataka 90. Samstaraka 91. Tattvarthsutra 92. Virastava 93. Gacchacara 94. Devindatharva 95. नवतत्त्व 96. जैन गृहस्थ को षोडश संस्कार 97. जैन मुनि जीवन के विधि विधान 98. प्रायश्चित, आवश्यक, तप एवं पदारोपण विधि 99. प्रतिष्ठा, शान्तिकर्म पौष्टिक कर्म एवं बलि प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर विधान A.A.S.P.S. Udipur A.A.S.P.S. Udipur A.A..S.P.S. Udipur A.A.S.P.S. Udipur A.A.S.P.S. Udipur A.A.S.P.S. Udipur A.A.S.P.S. Udipur A.A.S.P.S. Udipur A.A.S.P.S. Udipur A.A.S.P.S. Udipur A.A.S.P.S. Udipur प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर | प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 45 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108. | अध्यात्मसार (हिन्दी अनुवाद एवं व्याख्या सहित) प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर 109. अनुभूति और दर्शन प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर 110. सर्वसिद्धान्त प्रवेशक प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर 111. विद्याचन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दीग्रन्थ मोहनखेड़ा जैनतीर्थ इनके अतिरिक्त, डॉ. सागरमल जैन की जो 43 कृतियाँ हैं, उनका सम्पादन भी उन्होंने स्वयं किया है, इस प्रकार उनके सम्पादित ग्रन्थ 155 से भी अधिक हैं। साथ ही, आप Encycleapedia of Jaina Studies, जो सात खण्डों में प्रकाशित हो रहा है और जिसका प्रथम खण्ड प्रकाशित हो चुका है, के भी सम्पादक हैं। डॉ. सागरमल जैन द्वारा संस्थापित प्राच्य विद्यापीठ स्थापना एवं उद्देश्य: मालव ज्योति पूज्या श्रीवल्लभकुँवरजी म.सा. एवं साध्वीवर्या पूज्या श्रीपानकुँवरजी म.सा. (दादीजी) की पुण्य स्मृति में एवं मरुधरमणि साध्वी पूज्या श्री मणिप्रभाश्रीजी म.सा. एवं साध्वीवर्या पूज्या श्री हेमप्रभाश्रीजी म. सा. की प्रेरणा से भारतीय प्राच्य विद्याओं (विशेष रुप से जैन और बौद्ध परम्पराओं) के उच्च स्तरीय अध्ययन, शिक्षण, प्रशिक्षण एवं शोधकार्य के साथ साथ उच्चस्तरीय अध्ययन, शिक्षण, प्रशिक्षण एवं शोधकार्य के साथ साथ भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को पुनः प्रतिष्ठित करेन के पुनीत उद्देश्य को लेकर -दर्शनशास्त्र के आचार्य, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी के भूतपूर्व निदेशक, जैन बौद्ध और हिन्दू धर्म एवं दर्शन, कला एवं संस्कृति, साहित्य इतिहास एवं पुरातत्व के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त मूर्धन्य विद्वान डॉ. सागरमलजी जैन ने वाराणसी से प्रत्यागमन के पश्चात् वर्ष 1997 में अपने गृहनगर शाजापुर में प्राच्य विद्यापीठ की स्थापना की, जिसे वर्ष 2000 में विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन (म.प्र.) द्वारा शोध संस्थान के रुप में मान्यता प्रदान की गई। उपलब्ध सुविधाएँ: पश्चिमी मध्यप्रदेश के मालवांचल में उज्जैन संभाग के अंतर्गत शाजापुर नगर जिला मुख्यालय है, जो देश के सभी प्रमुख नगरों व प्रदेश के महत्वपूर्ण स्थानों, जैसे नईदिल्ली, मुम्बई, चेन्नई, अहमदाबाद, जयपुर, इंदौर, उज्जैन, भोपाल आदि स्थानों से रेल/बस सेवा से जुड़ा हुआ है। शाजापुर नगर से होकर गुजरने वाले आगरा-मुम्बई राष्ट्रीय राजमार्ग के समीप तथा नगर के केन्द्र से लगभग 1.5 कि.मी. दूर प्रदूषण रहित एवं सुरम्य प्राकृतिक वातावरण में दुपाड़ा रोड़ पर 9000 वर्ग फीट के क्षेत्रफल में निर्मित विद्यापीठ का दो मंजिला भव्य एवं विशान एक सुसज्जित सभाकक्ष । इसके अतिरिक्त इस भवन में 700 वर्ग फीट क्षेत्राफल के 5 हॉल, भोजनशाला, दो अतिथि कक्ष (प्रसाधन सहित), सेवक कक्ष तथा नित्यकर्म एवं स्नान आदि के लिये 8 प्रसाधन भी निर्मित है । साथ ही विद्यापीठ में डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 46 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन, अध्यापन के लिये फर्नीचर एवं कम्प्यूटर आदि की समुचित व्यवस्था है। साथ ही आचार्य श्री जयंतसेन सूरीश्वरजी की प्रेरणा से साधुओं के लिये आराधना भवन का निर्माण भी हो चुका है। राजगंगा ग्रन्थागारः संस्था का राजगंगा ग्रंथागार विद्यापीठ के परिसर में ही स्थित हैं, जिसमें जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म एवं दर्शन तथा प्राकृत, पाली और संस्कृत के लगभग 12,000 दुर्लभ ग्रन्थ उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त 700 हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ भी संरक्षित है, जो 15वीं शती से 20वीं शती तक ही है। लगभग 40 पत्र-पत्रिकाएँ भी नियमित रुप से विद्यापीछ में आती है। शोधकार्य के मार्गदर्शन एवं शिक्षण हेतु विद्यापीठ के संस्थापक-निदेशक डॉ. सागरमलजी जैन का सतत् सानिध्य प्राप्त है। विद्यापीठ परिसर में साधु-साध्वियों, शोधार्थियों और मुमुक्षुजनों के लिये अध्ययन, अध्यापन के साथ-साथ निवास, भोजन आदि की भी उत्तम व्यवस्था है। विद्यापीठ की उपलब्धियाँ वर्ष 1997-2010 तक स्नातकोत्तर अध्यापन: प्राच्य विद्यापीठ के परिसर, समृद्ध राजगंगा ग्रंथागार और मार्गदर्शन एवं शिक्षण हेत डॉ. सागरमलजी जैन का सानिध्य-इस अधोसंरचना रुपी त्रिवेणी के फलस्वरुप शाजापुर जिले में भारतीय विद्याओं के अध्ययन के लिये प्रेरक वातावरण निर्मित हुआ है। इसका लाभ लेते हुए जैन विश्व भारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूँ (राज.) द्वारा संचालित दूरस्थ शिक्षा प्राठ्यक्रमों के अंतर्गत जैनविद्या एवं तुलनात्मक धर्म-दर्शन तथा जीवनविज्ञान, प्रेक्षाध्यान एवं योग विषय में शाजापुर नगर के लगभग 20 विद्यार्थियों ने प्रथम एवं उच्च द्वितीय श्रेणी में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। मात्रा यहीं नहीं विद्यापीठ की छात्रा श्रीमती मीनल आशीष जैन ने जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं की वर्ष 2002 की एम.ए. जैन विद्या एवं तुलनात्मक धर्म-दर्शन की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर प्रावीण्य सूची में सम्पूर्ण भारत में प्रथम स्थान प्राप्त करने का गौरव हासिल किया है। पी-एच.डी उपाधि डॉ. सागरमलजी जैन सा. के मार्गदर्शन एवं निर्देशन में तथा राजगंगा ग्रन्थागार का लाभ लेकर शोधार्थियों द्वारा कियेगयेशोधकार्य संबंधी उपलब्धियों का विवरण इस प्रकार है - स.क्र.शोधार्थी का नाम | शोधप्रबंध | विश्व विद्यालय का नाम का विषय |जिसके अन्तर्गतपंजीकरणहुआ है 1 साध्वी विनीतप्रज्ञाश्रीजी | उत्तराध्ययन: | गुजरात वि.वि. अहमदाबाद (औपचारिक) एकअनुशीलन साध्वी उदितप्रभाजी जैनधर्म में ध्यान की जैन विश्वभारती, लाडनूं (राज) की विकासयात्रा | (महावीरसेमहायज्ञ तक) डॉ. सागरमल जैन- एक परिचय : 47 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 साध्वी दर्शनकलाश्रीजी | जैन साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा जैन धर्म में त्रिविध आत्मा की अवधारणा जैन दर्शन में समत्व योग | जैन योग और योगसूत्र: एक 4 साध्वी प्रियलताश्रीजी 5 साध्वी प्रियवंदनाश्रीजी 6 श्रीमती विजयागोसावी (मुंबई) अध्ययन 7 श्री रणवीर सिंह भदौरिया गीता में प्रतिपादित विभिन्न | (ग्वालियर) 8 साध्वी दिव्यांजनाश्रीजी 9 साध्वी मोक्षरत्नाश्रीजी 10 साध्वी विचेक्षण श्रीजी योगों का तुलनात्मक अध्ययन संवेगरंगशाला : एक अध्ययन आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कार और संस्कार विधि विशेषावश्यक के गणधरवाद और निह्नववाद का अध्ययन जैन श्रमणी संघ का अवदान जैन मुनि की आहार चर्या यशोविजयजी का अध्यात्मवाद रत्नाकरावतारिका में बौद्धदर्शन 11 साध्वी विजयश्रीजी 12 साध्वी स्थितप्रज्ञाश्रीजी 13 साध्वी प्रीतिदर्शनाश्रीजी 14 साध्वी ज्योत्सनाजी 15 साध्वी संवेगप्रज्ञाश्रीजी 16 संजीव जैन 17 प्रवीणकुमार जोशी 18 आशीष नागर 19 साध्वी प्रतिभाजी 20 साध्वी प्रतिभाजी 21 साध्वी प्रमुदिताश्रीजी 22 सुश्री तृप्ति जैन 23 श्री नवीन बुधोलिया | जैन विश्वभारती, लाडनूँ (राज) जैन विश्वभारती, लाडनूँ (राज) जैन विश्वभारती, लाडनूँ (राज) | जैन विश्वभारती, लाडनूँ (राज) जीवाजी विश्वविद्या, ग्वालियर (म.प्र.) | जैन विश्वभारती, लाडनूँ (राज) जैन विश्वभारती, लाडनूँ (राज) | जैन विश्वभारती, लाडनूँ (राज) | जैन विश्वभारती, लाडनूँ (राज) | जैन विश्वभारती, लाडनूँ (राज) जैन विश्वभारती, लाडनूँ (राज) जैन विश्वभारती, लाडनूँ (राज) की समीक्षा पंचवस्तुप्रकरण: एक अध्ययन गणधरवाद की दार्शनिक समीक्षा भारतीय चिन्तन में मानवाधिकार विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन एवं कर्तव्य की अवधारणा राधातत्त्व एक अनुशीलन जैन श्राविकाओं का जैन धर्म जैन विश्वभारती, लाडनूँ (राज) विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन का अवदान जैन विश्वभारती लाडनूँ (राज) आराधना पताका में समाधि मरण की अवधारणा जैन दर्शन में संज्ञा की अवधारणा जैन विश्वभारती लाडनूँ (राज) जैन दर्शन में तनाव प्रबंधन जैन विश्वभारती लाडनूँ (राज) महात्मा गाँधी का दर्शन विक्रम विश्व विद्यालय, उज्जैन डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 48 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________