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किया गया। देश और विदेश के अनेकों विश्वविद्यालय में आपके व्याख्यान हुए
हैं।
सत्यनिष्ठा
निरन्तर कार्यरत रहते हुए आपने अनेक ग्रन्थों, लघु पुस्तिकाओं और निबन्धों के माध्यम से भारती के भण्डार को समृद्ध किया है। आपने लगभग 150 से अधिक ग्रन्थों की लगभग एक लाख पृष्ठों की सामग्री को संपादित एवं प्रकाशित करके नया कीर्तिमान स्थापित किया है। आपके निर्देशन में जैन ई-लायब्रेरी का प्रोजेक्ट चल रहा है, जिसमें लगभग तीन हजार जैन-ग्रन्थों के दस लाख पृष्ठों की सामग्री सहज उपलब्ध हो रही है, साथ ही आपके निर्देशन में पचास से अधिक शोधार्थियों ने पीएच.डी. एवं डी.लिट के हेतु शोधकार्य किया है। आपके चिन्तन और लेखन की विशेषता यह है कि आप सदैव साम्प्रदायिकअभिनिवेशों से मुक्त होकर लिखते हैं। आपकी 'जैन एकता' नामक पुस्तिका न केवल पुरस्कृत हुई, अपितु विद्वानों में समादृत भी हुई। बौद्धिक ईमानदारी एवं सत्यान्वेषण की अनाग्रही शैली आपने पं. सुखलालजी संघवी और पं. दलसुखभाई मालवणिया के लेखन से सीखी। यद्यपि सम्प्रदायमुक्त होकर सत्यान्वेषण के तथ्यों का प्रकाशन धर्मभीरू और आग्रहशील समाज को सीधा गले नहीं उतरता, किन्तु कौन प्रशंसा करता है और कौन आलोचना, इसकी परवाह किये बगैर आपने सदैव सत्य को उदघाटित करने का प्रयत्न किया है। उसके परिणामस्वरूप तटस्थ चिन्तकों, विद्वानों और साम्प्रदायिक- अभिनिवेशों से मुक्त सामाजिककार्यकर्ताओं में आपके लेखन ने पर्याप्त प्रशंसा अर्जित की।
आज यह कल्पना भी दुष्कर लगती है कि एक बालक, जो 15-16 वर्ष की आय में ही व्यावसायिक और पारिवारिक दायित्वों के बोझ से दब-सा गया था, अपनी प्रतिभा के बल पर विद्या के क्षेत्र में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेगा। आज देश में जैन-विद्या के जो गिने-चुने शीर्षस्थ विद्वान् हैं, उनमें अपना स्थान बना लेना-यह डॉ. सागरमल जैन जैसे अध्यवसायी, श्रमनिष्ठ और प्रतिभाशाली व्यक्ति की ही क्षमता है। यद्यपि वे आज भी ऐसा नहीं मानते हैं कि यह सब उनकी प्रतिभा एवं अध्यवसायिता का परिणाम है। उनकी दृष्टि में यह सब मात्र संयोग है। वे कहते हैं- "जैन-विद्या के क्षेत्र में विद्वानों का अकाल ही एकमात्र ऐसा कारण है, जिससे मुझ जैसा अल्पज्ञ भी सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेता है," किन्तु हमारी दृष्टि में यह केवल उनकी विनम्रता का परिचायक है।
आप अपनी सफलता का सत्र यह बताते हैं कि किसी भी कार्य को छोटा
डॉ. सागरमल जैन - एक परिचय : 14
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