Book Title: Mohan Jo Dado Jain Parampara aur Praman
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Kundkund Bharti Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहन-जो-दड़ो जैन परम्परा और प्रमाण www.jainelibrary ore Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दी समारोह [दीपावली, १९८७ ई० से महावीर जयन्ती, १९८६ ई० तक] इस रूप में अवश्य मनाइये - • कुन्दकुन्द ज्ञानचक्र का प्रवर्तन । • कुन्दकुन्द नेशनल लाइब्रेरो ऑफ जेनिज्म की स्थापना। • विभिन्न समारोहों का आयोजन । • जैन (शिक्षण) पत्राचार पाठ्यक्रम योजना। • सेमीनारों का आयोजन । • कुन्दकुन्द साहित्य का प्रकाशन । • प्राकृत भाषा शिविर का आयोजन । विद्वानों द्वारा कुन्दकुन्द सम्बन्धी साहित्य पर कार्य कराना तथा प्रकाशित कराना। स्मारिका प्रकाशन । • युवकों में चारित्र-निर्माण अभियान । • शिक्षण-शिविरों का आयोजन करें। • कुन्दकुन्द रचित ग्रन्थों की मूलगाथा के अखण्ड पाठ प्रायोजित करें। • निकटवर्ती तीर्थस्थलों तक पदयात्रा का आयोजन करें। • आध्यात्मिक गोष्ठियों का आयोजन करें। • निबन्ध प्रतियोगिताओं का आयोजन करें। • वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का आयोजन करें। • गाथा-पाठ प्रतियोगिताओं का आयोजन करें। • कुन्दकुन्द साहित्य का विक्रय करें। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहन-जो-दड़ो : जैन परम्परा और प्रमाण एलाचार्य मुनि विद्यानन्द प्रकाशक : कुन्दकुन्द भारती, नई दिल्ली Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ © कुन्दकुन्द भारती, नई दिल्ली प्रथम आवृत्ति : दिसम्बर, १९८६ द्वितीय आवृत्ति : जनवरी, १९८८ सम्पादन : डॉ० नेमीचन्द जैन आकल्पन : संतोष जडिया प्राप्तिस्थान : कुन्दकुन्द भारती १८-बी, स्पेशल इंस्टीट्यूशनल एरिया नई दिल्ली-११००६७ श्री सोहनलाल जैन जयपुर प्रिण्टर्स, एम. आई. रोड, जयपुर द्वारा प्रचार व प्रसार हेतु मुद्रित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख मोहन-जो-दड़ो' का अर्थ है 'मृतकों का टीला' । पुरातात्त्विक महत्त्व का यह स्थान पाकिस्तान के लरकाना जिले (सिन्ध) में स्थित है। इसके उत्खनन का कार्य १९२२-२७ ई० के मध्य सरकार के पुरातात्त्विक सर्वेक्षण विभाग ने सम्पन्न किया था । खुदाई में जो सीलें प्राप्त हुई हैं उनसे जैन संस्कृति की प्राचीनता असंदिग्ध और स्पष्ट बनती है। प्राप्त तथ्यों तथा निष्कर्षों का भारत के प्राचीन इतिहास की धारणा पर भी अचूक प्रभाव पड़ा है। अब तक ऋग्वेद को ही भारतीय संस्कृति सभ्यता का अन्तिम बिन्दु माना जाता था; किन्तु सिन्धुघाटी की संस्कृति से सम्बन्धित छानबीन से हमारा ध्यान प्राग्वेदिक भारत की ओर भी बरबस गया है। यह प्रश्न सहज ही उठता है कि सिन्धुघाटी के निवासी कौन थे ? उनकी धार्मिक आस्थाएँ क्या थीं ? क्या मोहन-जो-दड़ो के तत्कालीन सांस्कृतिक मानचित्र पर जैनों की कोई स्थिति थी ? क्या जो तथ्य सामने आये हैं उनके कारण ऋग्वेद को भारतीय संस्कृति का प्रथम छोर मानना अब भी संभव है ? क्या प्रारण्यक संस्कृति को एक सिरा मान लेने पर दूसरा सिरा सिन्धुघाटी तक विस्तृत नहीं हो जाएगा ? तथ्यों की इस समीक्षा से यह सिद्ध होता है कि जैनधर्म प्राग्वैदिक है और भारत में योग-परम्परा का प्रवर्तक है । माहन अब तक यह माना जाता रहा है कि हमारे देश की प्राचीनता ऋग्वेद से पीछे संभवतः लौट नहीं सकती: कि जो-दड़ो के उत्खनन में मिले हैं उनसे यह प्रमाणित हो गया है कि भारत की संस्कृति काफी प्राचीन है, अतः 'प्राचीनता के इस तथ्य' को 'खुदाई में मिले तथ्यों के समानान्तर वाङ्गमयिक परम्पराओं में भी ढूंढा जाना चाहिये । प्रस्तुत पुस्तिका में इस दिशा में एक ठोस प्रयास किया गया है। मोहन-जो-दड़ो से जो एक सील मिली है। उससे जैन संस्कृति के सम्बन्ध में कई धूमिलताएँ स्पष्ट हुई हैं और इस नये उजाले में हम कई ऐतिहासिक गुत्थियों को खोल सके हैं। अब तक कहा जाता रहा है कि जैनधर्म वेदों के समय प्रवर्तित या पुनरुज्जीवित हुआ; किन्तु मोहन-जो-दड़ो की खुदाई ने यह सिद्ध Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर चकित किया है कि जैन संस्कृति पुरातथ्यों की कसौटी पर कमसे-कम ५००० वर्ष (३२५० ई०पू०) पुरानी तो है ही। मोहनजो-दड़ो की सीलों पर योगियों की जो काउस्सग्ग (कायोत्सर्ग) दिगम्बर मुद्राएँ. 'अंकित हैं उनसे उक्त स्थापना और दृढ़ हुई है। मोहन-जो-दड़ो के उत्खनन से जो निष्कर्ष सामने आये हैं वे इस प्रकार हैं१. जैनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ अध्यात्म (आत्मविद्या) लता-मण्डप वेष्टित भगवान् बाहुबली के प्रादिप्रवर्तक हैं। यह तथ्य मोहन-जो-दड़ो की सीलों से प्रमाणित [देखिये ; परिशिष्ट १, टिप्पणी ६] होता है। २. योगविद्या का प्रवर्तन क्षत्रियों ने किया। ब्राह्मणों ने इसे उन्हीं से सीखा। ३. मोहन-जो-दड़ो की संस्कृति में महायोगी ऋषभनाथ की बहुत प्रतिष्ठा थी; यही कारण है कि सीलों पर जहाँ एक ओर उनकी कायोत्सर्ग-मग्न नग्न मुद्रा मिलती है, वहीं उनका लांछन बैल भी अपने समानुपातिक सौंदर्य में यत्र-तत्र दिखायी देता है।' ४. खुदाई में जो सीलें मिली हैं उनसे योग-परम्परा के और अधिक प्राचीन होने की संभावना पुष्ट होती है । इनसे हम इस निष्कर्ष पर भी पहुँचते हैं कि उस युग में जैन मूर्तिशिल्प का भी काफी विकास हो चुका था। दिगम्बर मुनियों की कैसी मुद्रा हो, उनके चतुर्दिक कैसा वातावरण अंकित किया जाए; ऐसे कौन से प्रतीक हो सकते हैं जिन्हें चित्रित करने से उनकी गरिमा का बोध हो, इत्यादि पर भी काफी गम्भीरता से विचार हुआ था । वृषभ, सिंह, महिष, गज, गैंडा आदि प्राणियों की शरीर-रचना' का भी अध्ययन उस समय के कलाशिल्पियों को था। सीलों में जो संयोजन (कम्पोजिशन) है, वह सामान्य नहीं है अपितु एक दीर्घकालिक परम्परा का द्योतक है। यह मूर्ति भी कायोत्सर्ग मुद्रा में है परन्तु यदि हमारे पुरातत्त्वविद् इन सीलों की गहन समीक्षा करते हैं तो इसके शिरोभाग पर कोई प्रतीक नहीं जैन शिल्प के इतिहास/प्रागैतिहास में एक नया अध्याय खोला जा है । यह भी उसी महराब (प्रार्च) में सकता है। स्थित है, अर्थात् मूर्ति सीधी खड़ी है और दोनों हाथ बराबर में दोनों प्रोर ५. निर्विवाद है कि मोहन-जो-दड़ो की संस्कृति में प्राग्वैदिक लटक रहे हैं । सर जॉन मार्शल ने इस संस्कृति के ऐसे अवशेष मिले हैं, जिनसे जैनों की प्राचीनता पुष्ट पार्च को एक वक्ष निरूपित किया है। होती है। श्री रामप्रसाद चन्दा' तथा श्री ऐरावत महादेवन्१२ [देखिये ; परिशिष्ट १, टिप्पणी ३] मोहन-जो-दड़ो Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने तथ्यों की जो प्रगल्भ समीक्षा की है उससे यह स्पष्ट हो गया है कि सिन्धुघाटी-संस्कृति में जैनों को एक विशिष्ट सामाजिक दर्जा प्राप्त था और उन्हें घाटी से संबद्ध राष्ट्रकुल (कॉमनवेल्थ) में एक सुप्रतिष्ठित स्थान मिला हुआ था। उनकी वित्तीय साख थी तथा व्यापार-जगत् में उन्हें बहुत सम्मान के साथ देखा जाता था। ६. प्रस्तुत लघु पुस्तिका में हम जिस सील की विवेचना करने जा रहे हैं वह उत्खनन के तथ्यों पर आधारित तो है ही, साथ ही जैनवाङ्गमय में प्राप्त परम्परा से भी समर्थित है । जब इतिहास को लोकश्रुति और परम्परा का बल मिल जाता है, तब वह इतना असंदिग्ध और अकाट्य हो जाता है कि फिर उसकी अस्वीकृति लगभग असंभव ही होती है। इतिहास विवरणों से बनता है, लोकश्रुतियाँ लोकमानस में पकती हैं, और परम्पराएँ साहित्य और भाषा के तल से प्रकट होती हैं। प्राचार्य जिनसेन के 'पादिपुराण' में जो श्लोक 3 उपलब्ध है उससे यह तथ्य बहुत स्पष्ट हो जाता है कि मोहन-जो-दड़ो की पूरी पट्टी पर क्रियाकाण्ड की अपेक्षा 'अध्यात्म की संस्कृति' अधिक प्रभावी थी । सीलों में जो प्रतीक मिलते हैं उनसे भी तत्कालीन लोकमानस/लोकाभिरुचियों का अनुमान लगता है। त्रिशूल, वृषभ, छह अराओं वाला कालचक्र'४, कल्पवृक्ष-वेष्टित कायोत्सर्ग-प्रतिमाएँ इत्यादि भी महत्त्वपूर्ण हैं । ७. श्री महादेवन् ने यह साफ-साफ माना है कि मोहन-जो-दड़ो के सांस्कृतिक विघटन के समय जैनों का जो व्यापारिक विस्तार था उससे भी जैन संस्कृति का एक स्पष्ट परिदृश्य हमारे सामने आता है। उनका कथन है कि उस समय जैन व्यापारियों का मोहनजो-दड़ो के राष्ट्रकुल में एक प्रतिष्ठित स्थान था और उनकी साख दूर-दूर तक थी। उनकी हुंडियाँ पूरे राष्ट्रकुल में सिकरती थीं। आज से सौ साल पहले तक देश में ऐसी इंडियों का काफी प्रचलन था।१५ इनकी एक स्वतन्त्र लिपि थी।६ कुछ कूट-चिह्न भी थे। जो सीलें मोहन-जो-दड़ो में मिली हैं, संभव है उनमें से बहुतेरी जैन व्यापारियों से संबद्ध हों - महादेवन् की इस उपपत्ति पर भी विचार किया जाना चाहिये। ८. यह स्थापना भी काफी सार्थक दिखायी देती है कि मोहनजो-दड़ो की संस्कृति से जैन अध्यात्म और दर्शन संबद्ध रहे हैं, तथा उस समय भी सम्पूर्ण देश के व्यापार की बागडोर जैनों जैन परम्परा और प्रमाण Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के हाथ में थी। जैनों का व्यापार-तन्त्र, शैली, और प्रशासन बिलकुल जुदा थे। आश्चर्य तो यह है कि जैनधर्म की प्राचीनता के जो संकेत आज से लगभग ६० वर्ष पूर्व मिले थे, उन पर आगे कोई काम नहीं हुआ। वह सूत्र/वह क़दम जहाँ-का-तहाँ, ज्यों-का-त्यों उठा रह गया। श्री रामप्रसाद चंदा का लेख 'मॉडर्न रिव्यू' के अगस्त, १९३२ के अंक में प्रकाशित हुआ था तथा श्री महादेवन् के शोध-निष्कर्ष पर श्री एस. बी. राय की समीक्षा 'संडे स्टैंडर्ड' के १६ अगस्त, १९७६ के अंक में प्रकाशित हुई थी। दोनों में मोहन-जो-दड़ो में जैनत्व के होने की सूचनाएं हैं; किन्तु इतने वर्षों बाद भी किसी जैन पुरातत्त्वविद् ने इस स्थापना को आगे नहीं बढ़ाया, पल्लवित नहीं किया । ऐसे समय जबकि मोहन-जो-दड़ो की लिपि को पढ़ने (डिसाइफर करने) के कई सार्थक प्रयत्न हो चुके हैं, जैन इतिहासवेत्ता/पुरातत्त्वविज्ञ यदि उन सारे स्रोतों का दोहन नहीं करते, जो जैन संस्कृति को विश्व की प्राचीनतम संस्कृति सिद्ध कर सकते हैं, तो यह हमारा दुर्भाग्य ही है । हमारी राय में मोहन-जो-दड़ो संस्कृति में अध्यात्म और योग, शिल्प और व्यापार का जो रूप उपलब्ध है उस पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिये। उन सारी उपपत्तियों का भी सावधानीपूर्वक परीक्षण होना चाहिये जो जैन योग की परम्परा को सुसमृद्ध ठहराती हैं । प्रयत्न किया जाना चाहिये कि जैन ग्रन्थों में जहाँ भी इस परम्परा की अभिव्यक्ति हुई है, उसे वहाँ से उठा कर सबके सामने रखा जाए। जैनों का लोक-संस्कृति के विकास में जो अवदान है, उसकी भी पूर्वाग्रहमुक्त विवृत्ति होनी चाहिये । प्रश्न शायद यह नहीं है कि मोहन-जो-दड़ो की प्राचीन संस्कृति को किस अास्था या विश्वास, धर्म या दर्शन से जोड़ा जाए बल्कि इस तथ्य को कसौटी पर कसा जाना चाहिये कि मोहन-जो-दड़ो के उत्खनन में जो सामग्री प्राप्त हुई है, उसका जैन वाङ्गमय में कहाँ-कैसा उल्लेख हुअा है और उसका जैन इतिहास से क्या सम्बन्ध है ? हमारी राय में प्राप्त तथ्यों को इन कसौटियों पर अवश्य देखा जाना चाहिये : १. भगवान् ऋषभनाथ१७ के जो पर्याय शब्द मिलते हैं वे कितने हैं और उनका मोहन-जो-दड़ो की संस्कृति से क्या तालमेल है ? प्रजापति, पशुपतिनाथ, ब्रह्म, ब्रह्मा तथा अथर्वन्, ब्राह्मी, वृषभ मोहन-जो-दड़ो Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि शब्द क्या जैन संस्कृति से किसी तरह सम्बन्धित हैं ? यदि इनका कोई सम्बन्ध है तो वह क्या है और समय ने उसे इस तरह धुंधला क्यों कर दिया है ? क्या हम इस धुन्ध को हटा सकते हैं ? २. योग की जो परम्परा आज उपलब्ध है, उसका जैन-योग से कितना सम्बन्ध है ? क्या योगियों की जो पर्यक/कायोत्सर्ग मुद्राएँ मोहन-जो-दड़ो की सीलों पर अंकित हैं, उनका विवरण जैन ग्रन्थों में कहीं हुआ है ? अर्धोन्मीलित नेत्र तथा नासिकाग्र दृष्टि क्या जैन मुनियों की ध्यान/तपोमुद्रा से सम्बन्धित नहीं हैं ? इस दृष्टि से भी तथ्यों की विवेचना की जानी चाहिये । ३. 'कायोत्सर्ग (काउस्सग्ग)' जैनों का अपना पारिभाषिक शब्द है। यह जिस ध्यानमुद्रा का प्रतीक है, वह जैन मुनियों की विशिष्ट तपोमुद्रा है। इस दृष्टि से भी तथ्यों की छानबीन की जानी चाहिये। ४. जैन प्रतिमा-विज्ञान (आइकोनोग्राफी) की दृष्टि से भी मोहन-जो-दड़ो की प्रतिमाकृतियों का विश्लेषण किया जाना चाहिये। देखा जाना चाहिये कि क्या परम्परा से चली आ रहीं जैन प्रतिमाओं में और मोहन-जो-दड़ो की सीलों पर अंकित/उत्कीरिणत प्रतिमाकृतियों में कोई संगति है ? क्या दोनों की शरीर-रचना (अनाटॉमी) समान है ? भुजाओं का प्रलम्बन, एड़ियों का सटा होना, दोनों अंगुष्ठों के बीच का अंतर, नासिकाग्र दृष्टि, अधखुली आँखें, केशविन्यास आदि कई ऐसे मुद्दे हैं, जिन्हें गंभीरता से तुलनात्मक तल पर देखा जाना चाहिये। ५. मोहन-जो-दड़ो जब उन्नति के चरम शिखर पर था, तब जैनों का व्यापार काफी दूर तक विस्तृत था। उनकी पहचानमुद्राएँ हुंडियाँ (बिल ऑफ एक्सचेंज) प्रचलित थीं। क्या इन इंडियों का, जो आज भी प्रचलन में हैं, तब कोई अर्थ था? क्या हम इस तरह की हंडियों की खोजबीन नहीं कर सकते ? संभव है इनका कोई भाग, कोई रूप हमें मिल जाए। 'मोड़ी' लिपि के विश्लेषण से भी कोई कुंजी हमें मिल सकती है। ६. कहा जाता है कि जो लिपि मोहन-जो-दड़ो की खुदाई में प्राप्त बर्तनों और सीलों में कहीं-कहीं प्रयुक्त हुई है, वह ब्राह्मी१८ का ही कोई रूप है। ब्राह्मी ऋषभनाथ की पुत्री थी, जिसे उन्होंने जैन परम्परा और प्रमाण Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिपि-ज्ञान कराया था। क्या हम इस संभावना पर कोई विचार नहीं करना चाहेंगे? ७. 'अथर्वन्' शब्द 'भरत' के पर्याय शब्द के रूप में प्रयुक्त हुआ है; क्या इसे लेकर हम कोई विवेचना करना चाहेंगे? मोहनजो-दड़ो की संस्कृति पर अथर्ववेद का प्रभाव माना जाता है। हम देखें कि क्या इस शब्द-साम्य में गहरे कहीं कोई सांस्कृतिक साम्य पाँव दबाये बैठा है ? यह उपयुक्त समय है जबकि हमें उक्त सारे तथ्यों को समीक्षा के पटल पर लेना चाहिये और मोहन-जो-दड़ो की खुदाई में प्राप्त संपूर्ण सामग्री का पुरातत्त्व, इतिहास, परम्परा, लिपि, भाषा आदि की दृष्टि से सावधान विश्लेषण/अनुसंधान-अध्ययन करना चाहिये । [टिप्पणियाँ : देखिये; परिशिष्ट १, पृष्ठ २१] मोहन-जो-दड़ो | Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा और प्रमाण मोहन -जो-दड़ो : जैन परम्परा और प्रमाण भारतीय जैन शिल्पकला का प्रयोजन क्या है और क्यों इसका इतना विकास हुआ - एक ऐसा विषय है, जिस पर काफी उन्मुक्त और युक्तियुक्त विचार होना चाहिये । जैनधर्म और दर्शन वैराग्यमूलक हैं; उनका सम्बन्ध अन्तर्मुख सौंदर्य से है । किन्तु यह जिज्ञासा सहज ही मन में उठती है कि क्या प्रन्तर्मुख सौंदर्य की कोई बाह्य अभिव्यक्ति संभव नहीं है ? कोई काष्ठ, धातु या पाषाण खण्ड अपने ग्राप बोल उठे, यह संभव ही नहीं है; क्योंकि यदि किसी पाषाण-काष्ठखण्ड आदि को शिल्पाकृति लेनी होती तो वह स्वयं वैसा कभी का कर चुका होता; किन्तु ऐसा है नहीं । बात कुछ और ही है । जब तक कोई साधक / शिल्पी अपनी भव्यता को पाषाण में लयबद्ध / तालबद्ध नहीं करता, तब तक किसी भी शिल्पाकृति में प्राण-प्रतिष्ठा असंभव है । काष्ठ, मिट्टी, पत्थर, काँसा, ताँबा - माध्यम जो भी हो - चेतन की तरंगों का रूपांकन जब तक कोई शिल्पी उन पर नहीं करता, वे गूँगे बने रहते हैं । मूर्ति जैनों के लिए साधना / आराधना का आलम्बन है । वह साध्य नहीं है, साधन है । उसमें स्थापना निक्षेप से भगवत्ता की परिकल्पना की जाती है । शिल्पी भी वही करता है । मोहन-जो-दड़ो में जो सीलें (मुद्राएँ ) मिली हैं, भी साधन हैं, साध्य नहीं हैं; मार्ग हैं, गन्तव्य नहीं हैं; किन्तु शिल्प और कला, वास्तु और स्थापत्य के माध्यम इतने सशक्त हैं कि उनके द्वारा परम्परा और इतिहास को प्रेरक, पवित्र और कालातीत बनाया जा सकता है । जैन स्थापत्य और मूर्ति - शिल्प का मुख्य प्रयोजन आत्मा की विशुद्ध को प्रकट करना और श्रात्मोत्थान के लिए एक व्यावहारिक/ सुमधुर भूमिका तैयार करना है; इसलिए सौंदर्य, मनोज्ञता, प्रफुल्लता, स्थितप्रज्ञता, एकाग्रता, आराधना, पूजा आदि के इस माध्यम को हम ६ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितना भी यथार्थमूलक तथा भव्य बना सकते हैं, बनाने का प्रयत्न करते हैं । इनमें भगवान् भला कहाँ हैं ? कैसे हो सकते हैं ? फिर भी हैं और हम उन्हें पा सकते हैं । मूर्ति की भव्यता इसमें है कि वह स्वयं साधक में उपस्थित हो और साधक की सार्थकता इसमें है कि वह मूर्ति में समुपस्थित हो। इन दोनों के तादात्म्य में ही साधना की सफलता है। मोहन-जो-दड़ो से प्राप्त सीलों (मुद्राओं) की सब में बड़ी विशेषता है कला की दृष्टि से उनका उत्कृष्ट होना। शरीर-गठन और कला-संयोजन की सूक्ष्मताओं और सौंदर्य की संतुलित/मानुपातिक अभिव्यक्ति ने इन सीलों को एक विशेष कला - संपूर्णता प्रदान की है। बहुत सारे विषयों का एक साथ सफलतापूर्वक संयोजन इन सीलों की विशेषता है। उक्त दृष्टि से भारत सरकार के केन्द्रीय पुरातात्त्विक संग्रहालय में सुरक्षित सील क्र. ६२०/१६२८-२९ समीक्ष्य है। इसमें जैन विषय और पुरातथ्य को एक रूपक के माध्यम से इस खूबी के साथ अंकित/ समायोजन किया गया है कि वह जैन पुरातत्त्व और इतिहास की एक प्रतिनिधि निधि बन गये हैं। न केवल पुरातात्त्विक अपितु इतिहास और परम्परा की दृष्टि से भी इस सील (मुद्रा) का अपना महत्त्व है। इसमें दायीं ओर नग्न कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान् ऋषभदेव हैं, जिनके शिरोभाग पर एक त्रिशूल है, जो रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) का प्रतीक है । निकट ही नतशीश हैं उनके ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती भरत, जो उष्णीष धारण किये हुए राजसी ठाठ में हैं । वे भगवान् के चरणों में अंजलिबद्ध भक्तिपूर्वक नतमस्तक हैं। उनके पीछे वृषभ (बैल) है, जो ऋषभनाथ का चिह्न (पहचान) है। अधोभाग में सात प्रधान प्रामात्य हैं, जो तत्कालीन राजसी गणवेश में पदानुक्रम से पंक्तिबद्ध हैं। चक्रवर्ती भरत सोच रहे हैं : 'ऋषभनाथ का अध्यात्म-वैभव और मेरा पार्थिव वैभव !! कहाँ है दोनों में कोई साम्य ? वे ऐसी ऊँचाइयों पर हैं जहाँ तक मुझ अकिंचन की कोई पहुँच नहीं है।' भरत की यह निष्काम भक्ति उन्हें कमल-दल पर पड़े प्रोस-बिन्दु की भाँति निलिप्त बनाये हुए है । वे पाकिचन्य-बोधि से धन्य हो उठे हैं । १० मोहन-जो-दड़ो Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सर्वार्थसिद्धि' १-१ (प्राचार्य पूज्यपाद) में कहा है : मूर्त्तमिव मोक्षमार्गवाग्विसर्ग वपुषा निरूपयन्तम् (वे नि:शब्द ही अपनी देहकृति मात्र से मोक्षमार्ग का निरूपण करने वाले हैं)। शब्द जहाँ घुटने टेक देता है, मूर्ति वहाँ सफल संवाद बनाती है। मूर्ति भक्ति का भाषातीत माध्यम है। उसे अपनी इस सहज प्रक्रिया में किसी शब्द की आवश्यकता नहीं है। उसकी अपनी वर्णमाला है। इसीलिए मिट्टी, पाषाण आदि को प्रात्मसंस्कृति का प्रतीक माना गया है । कौन नहीं जानता कि मूर्ति पाषाण आदि में नहीं होती; वह होती है वस्तुतः मूर्तिकार की चेतना में पूर्वस्थित, जिसे कलाकार क्रमशः उत्कीर्ण करता है अर्थात् वह काष्ठ आदि के माध्यम से आत्माभिव्यंजन या प्रात्मप्रतिबिम्बन करता है। पाषाण जड़ है; किन्तु उसमें जो रूपायित या मूर्तित है वह महत्त्वपूर्ण है । मूर्ति में सम्प्रेषण की अपरिमित ऊर्जा है। यही ऊर्जा या क्षमता साधक को परम भगवत्ता/परमात्मतत्त्व से जोड़ती है अर्थात् साधक इसके माध्यम से मूर्तिमान तक अपनी पहुंच बनाता है। शिल्पशास्त्र प्रथमानुयोग का विषय है। विशुद्ध आत्मबोधि से पूर्व हम इसी माध्यम की स्वीकृति पर विवश हैं। आगम क्या है ? आगम माध्यम है सम्यक्त्व तक पहुँचने का । आगम केवली के बोधिदर्पण का प्रतिबिम्ब है, जिसका अनुगमन हम श्रद्धा-भक्ति द्वारा कर सकते हैं। 'पागम' शब्द की व्युत्पत्ति है : आगमयति हिताहितं बोधयति इति आगम: (जो हित-अहित का बोध कराते हैं, वे आगम हैं)। तीर्थंकर की दिव्यवाणी को इसीलिए पागम कहा गया है । __ कहा जा सकता है कि अध्यात्म से पुरातत्त्व/मूर्तिशिल्प आदि की प्राचीनता का क्या सम्बन्ध है ? इस सिलसिले में हम कहेंगे कि शिल्पकला आदि के माध्यम से आगम बोधगम्य बनता है और हम बड़ी आसानी से उस कंटकाकीर्ण मार्ग पर पग रखने में समर्थ होते हैं। ___ जैनधर्म की प्राचीनता निर्विवाद है । प्राचीनता के इस तथ्य को हम दो साधनों से जान सकते हैं -पुरातत्त्व और इतिहास । जैन पुरातत्त्व का प्रथम सिरा कहाँ है, यह तय करना कठिन है; क्योंकि मोहन-जो-दड़ो की खुदाई में ऐसी कुछ सामग्री मिली है, जिसने जैनधर्म की प्राचीनता को आज से कम-से-कम ५००० वर्ष अागे धकेल दिया है।' सिन्धुघाटी से प्राप्त मुद्राओं के अध्ययन से स्पष्ट हना है कि जैन परम्परा और प्रमाण Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कायोत्सर्ग मुद्रा' जैनों की अपनी लाक्षणिकता है । प्राप्त मुद्राओं की तीन विशेषताएँ हैं : कायोत्सर्ग मुद्रा, ध्यानावस्था और नग्नता ( दिगम्बरत्व ) | 3 मोहनजोदड़ो की सीलों पर योगियों की जो कायोत्सर्ग मुद्रा अंकित है उसके साथ वृषभ भी है । 'वृषभ' ऋषभनाथ का चिह्न ( लांछन ) है । 'पद्मचन्द्र कोश' में ऋषभ का व्युत्पत्तिक अर्थ दिया है : 'संपूर्ण विद्याओं के पार जाने वाला एक मुनि ।' हिन्दू पुराणों में जो वर्णन मिलता है उसमें ऋषभ और भरत दोनों के विपुल उल्लेख हैं । पहले माना जाता रहा है कि दुष्यन्तपुत्र भरत के नाम से ही इस देश का नाम भारत हुआ; किन्तु अब यह निर्भ्रान्त हो गया है कि भारत ऋषभ - पुत्र 'भरत' के नाम पर ही 'भारत' कहलाया । इसका पूर्वनाम अजनाभवर्ष था । नाभि ( अजनाभ ) ऋषभ के पिता थे । उन्हीं के नाम पर यह अजनाभवर्ष कहलाया । 'वर्ष' का अर्थ है 'देश' ; तदनुसार 'भारतवर्ष' का अर्थ हुआ 'भारतदेश' । मोहन-जो-दड़ो की संकेतित सील में भरत चक्रवर्ती की मूर्ति भी उकेरी गयी है । इन सारे पुरातथ्यों की वस्तुनिष्ठ समीक्षा की जानी चाहिये । सील (देखिये; इसी पुस्तिका का मुखपृष्ठ ) को जब हम तफसील - वार या विस्तार में देखते हैं तब इसमें हमें सात विषय दिखायी देते है : (१) ऋषभदेव - नग्न कायोत्सर्गरत योगी । ( २ ) प्रणाम की मुद्रा में नतशीश भरत चक्रवर्ती । ( ३ ) त्रिशूल । ( ४ ) कल्पवृक्ष पुष्पावलि । (५) मृदु लता । (६) वृषभ (बैल) । (७) पंक्तिबद्ध गणवेशधारी सात प्रधान ग्रामात्य । निश्चय ही इस तरह की संरचना का आधार पीछे से चली प्रती कोई सुदृढ़ सांस्कृतिक परम्परा ही हो सकती है । प्रचलित लोक-परम्परा के अभाव में मात्र जैनागम के अनुसार इस तरह की परिकल्पना संभव नहीं है । इतिहास में ही हम अपने प्राचीन ऋक्थ ( धरोहर ) को प्रामाणिक रूप में सुरक्षित पाते हैं । इतिहास, ऐतिह्य, और ग्राम्नाय समानार्थक शब्द हैं । इतिहास शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार इसका वाच्यार्थ है : इति ह प्रासीत् ( निश्चय से ऐसा ही हुआ था तथा परम्परा से ऐसा ही है ) । इतिहास असल में दीपक है । जिस तरह एक दीपक से हम वस्तु के यथार्थ रूप को देख पाते १२ मोहनजोदड़ो Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, ठीक वैसे ही इतिहास से हमें पुरातथ्यों को निर्धान्त सूचना मिलती है। परम्परा और इतिहास में किंचित् अन्तर है। इतिहास स्थूल/ ठोस तथ्यों पर आधारित होता है; परम्परा लोकमानस में उभरती और आकार ग्रहण करती है। एक पीढ़ी जिन आस्थाओं, स्वीकृतियों और प्रवचनों को आगामी पीढ़ी को सौंपती है, परम्परा उनसे बनती है। परम्परागों का कोई सन्-संवत् नहीं होता। वैसे इस शब्द के नानार्थ हैं । एक अर्थ पुरासामग्री भी है । परम्परा अर्थात् एक सुदीर्घ अतीत से जो अविच्छिन्न चला आ रहा है वह । योगियों की भी एक अविच्छिन्न अटूट परम्परा रही है। योग-विद्या क्षत्रियों की अपनी मौलिकता है। क्षत्रियों ने ही उसे द्विजों को हस्तान्तरित किया ।' ऐसा लगता है कि सिन्धुघाटी के उत्खनन में प्राप्त सीलें एक सुदीर्घ परम्परा की प्रतिनिधि हैं । वे आकस्मिक नहीं हैं, अपितु एक स्थापित सत्य को प्रकट करती हैं। भारतीय इतिहास, संस्कृति और साहित्य ने इस तथ्य को पुष्ट किया है कि सिन्धुघाटी की सभ्यता जैन सभ्यता थी।" सिन्धुघाटी के संस्कार जैन संस्कार थे। इससे यह उपपत्ति बनती है कि सिन्धुघाटी में प्राप्त योगमूर्ति, ऋग्वैदिक वर्णन ; तथा भागवत, विष्णु आदि पुराणों में ऋषभनाथ की कथा आदि इस तथ्य के साक्ष्य हैं कि जैनधर्म प्राग्वैदिक ही नहीं वरन् सिन्धुघाटी सभ्यता से भी कहीं अधिक प्राचीन है। श्री नीलकण्ठदास साहू के शब्दों में : 'जैनधर्म संसार का मूल अध्यात्म धर्म है । इस देश में वैदिक धर्म के आने से बहुत पहले से ही यहाँ जैनधर्म प्रचलित था। खूब संभव है कि प्राग्वैदिकों में शायद द्रविड़ों में यह धर्म था। कुछ ऐसे शब्द हैं, जो जैन परम्परा में रूढ़ बन गये हैं। डॉ० मंगलदेव शास्त्री का कथन है कि 'वातरशन' शब्द जैन मुनि के अर्थ में रूढ़ हो गया था। उनकी मान्यता है कि 'श्रमण' शब्द की भाँति ही 'वातरशन' शब्द मुनि-सम्प्रदाय के लिए प्रयुक्त था। मुनिपरम्परा के प्राग्वैदिक होने में दो मत नहीं हैं । डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल भारतीय इतिहास/वाङ्गमय के जाने-माने विद्वान् रहे हैं। उन्होंने भी स्वीकार किया है कि भारत जैन परम्परा और प्रमाण Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का नाम ऋषभ के ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम पर ही भारतवर्ष हुआ। इससे पहले भ्रान्तिवश उन्होंने दुष्यन्त-पुत्र भरत के कारण इसे भारत अभिहित किया था । जैनों का इतिहास बहुत प्राचीन है। भगवान् महावीर से पूर्व तेईस और जैन तीर्थंकर हुए हैं, जिनमें सर्वप्रथम हैं ऋषभनाथ । सर्वप्रथम होने के कारण ही उन्हें आदिनाथ भी कहा जाता है। जैन कला में उनकी जो मुद्रा अंकित है वह एक गहन तपश्चर्यारत महायोगी की है । भागवत में ऋषभनाथ का विस्तृत जीवन-वर्णन है ।'' जैन दर्शन के अनुसार यह जगत् अनादिनिधन है अर्थात् इसका न कोई ओर है और न छोर । यह रूपान्तरित होता है; किन्तु अपने मूल में यह यथावत् रहता है। युग बदलते हैं; किन्तु वस्तु-स्वरूप नहीं बदलता। द्रव्य नित्य है, उसका रूपान्तरण संभव है; किन्तु ध्रौव्य असंदिग्ध है। आज जो युग चल रहा है वह कर्मयुग है। माना जाता है कि यह युग करोड़ों वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ था। उस समय भगवान् ऋषभनाथ युग-प्रधान थे। असि (रक्षा), मसि (व्यापार), कृषि (खेती) और अध्यात्म (आत्मविद्या) को शिक्षा उन्होंने दी। उन्होंने प्रजाजनों को, जो कर्मपथ से अनभिज्ञ थे; बीज, चक्र, अंक और अक्षर दिये। कर्मयुग की यह परम्परा तब से अविच्छिन्न चली आ रही है। ऋषभनृप दीर्घकाल तक शासन करते रहे । उन्होंने उन कठिन दिनों में जनता को सुशिक्षित किया और उनकी बाधाओं, व्यवधानों और दुविधाओं का अन्त किया। अन्त में आत्मशुद्धि के निमित्त उन्होंने श्रमणत्व ग्रहण कर लिया और दुर्द्धर तपश्चर्या में निमग्न हो गये। स्वयं द्वारा स्थापित परम्पराओं और प्रवर्तनों के अनुसार उन्होंने ज्येष्ठ पुत्र भरत को अपना संपूर्ण राजपाट सौंपा और परिग्रह को जड़मूल से छोड़ कर वे वैराग्योन्मुख हो गये; फलत: वे परम ज्ञाता-दृष्टा बने। उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों को जीत लिया, अतः वे 'जिन' कहलाये । 'जिन' की व्युत्पत्ति है : जयति इति जिनः (जो स्वयं को जीतता है, वह जिन है)। कैवल्य-प्राप्ति के बाद उन्होंने जनता को अध्यात्म का उपदेश दिया और बताया कि आत्मोपलब्धि के उपाय क्या हैं ? चूंकि उनका मोहन-जो-दड़ो Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा और प्रमाण उपनाम 'जिन' था, अतः उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म जैनधर्म कहलाया । इस तरह जैनधर्म विश्व का सर्वप्रथम धर्म बना । भगवान् ऋषभनाथ का वर्णन वेदों में नाना संदर्भों में मिलता है । कई मन्त्रों में उनका नाम आया है । मोहन -जो-दड़ो (सिन्धुघाटी) में पाँच हज़ार वर्ष पूर्व के जो पुरावशेष मिले हैं उनसे भी यही सिद्ध होता है कि उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म हज़ारों साल पुराना है । मिट्टी की जो सीलें वहाँ मिली हैं, उनमें ऋषभनाथ की नग्न योगिमूर्ति है । उन्हें कायोत्सर्ग मुद्रा में उकेरा गया है । उनकी इस दिगम्बर खड्गासनी मुद्रा के साथ उनका चिह्न बैल भी किसी-न-किसी रूप में कित हुआ है। इन सारे तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि जैनों का अस्तित्व मोहन-जो-दड़ो की सभ्यता से अधिक प्राचीन है । श्री रामप्रसाद चन्दा ने अगस्त, १९३२ के 'माडर्न रिव्यू' में कायोत्सर्ग मुद्रा के सम्बन्ध में विस्तार से लिखा है ( देखिये इसी पुस्तिका का अन्तिम प्रावरण - पृष्ठ ) । उन्होंने इस मुद्रा को जैनों की विशिष्ट ध्यान - मुद्रा कहा है और माना है कि जैनधर्म प्राग्वैदिक है, उसका सिन्धुघाटी की सभ्यता पर व्यापक प्रभाव था । मोहन-जो-दड़ो की खुदाई में उपलब्ध मृण्मुद्राओं (सीलों) में योगियों की जो ध्यानस्थ मुद्राएँ हैं, वे जैनधर्म की प्राचीनता को सिद्ध करती हैं । वैदिक युग में व्रात्यों और श्रमरणों १२ की परम्परा का होना भी जैनों के प्राग्वैदिक होने को प्रमाणित करता है । व्रात्य का अर्थ महाव्रती है । इस शब्द का वाच्यार्थ है : 'वह व्यक्ति जिसने स्वेच्छया आत्मानुशासन को स्वीकार किया है'। इस अनुमान की भी स्पष्ट पुष्टि हुई है कि ऋषभ प्रवर्तित परम्परा, जो आगे चल कर शिव में जा मिली, वेदचचित होने के साथ ही वेदपूर्व भी है । 13 जिस तरह मोहन जोदड़ो में प्राप्त सीलों की कायोत्सर्ग - मुद्रा प्राकस्मिक नहीं है, उसी तरह वेद-वरित ऋषभ नाम भी आकस्मिक नहीं है, वह भी एक सुदीर्घ परम्परा का द्योतक है, विकास है । ऋग्वेद के दशम मण्डल में जिन प्रतीन्द्रियदर्शी वातरशन मुनियों की चर्चा है, वे जैन मुनि ही हैं । श्री रामप्रसाद चन्दा ने अपने लेख में जिस सील का वर्णन दिया है, उसमें अंकित / उत्कीरिणत ऋषभ - मूर्ति को ऋषभ - मूर्तियों का पुरखा कहा जा सकता है । ध्यानस्थ ऋषभनाथ, त्रिशूल, कल्पवृक्ष - पुष्पावलि, १५ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् ऋषभनाथ : कायोत्सर्ग-मुद्रा में वृषभ, मदु लता, भरत और सात मंत्री आदि महत्त्वपूर्ण तथ्य हैं । जैन वाङ्गमय से इन तथ्यों की पुष्टि होती है।४ इतिहासवेत्ता श्री राधाकुमुद मुकर्जी ने भी इस तथ्य को माना है ।१५ मथुरा-संग्रहालय में भी ऋषभ की इसी तरह की मूर्ति सुरक्षित है । १६ श्री पी. सी. राय ने माना है कि मगध में पाषाणयुग के बाद कृषियुग का प्रवर्तन ऋषभयुग में हुआ। श्री चन्दा ने जिस सील का विस्तृत विवरण दिया है, वह परम्परा जैन साहित्य में आश्चर्यजनक रूप से सुरक्षित है। प्राचार्य वीरसेन द्वारा रचित 'धवला'१८, विमलसूरि द्वारा रचित प्राकृत ग्रन्थ 'पउमचरियं'१६ एवं जिनसेनकृत 'आदिपुराण'२० को कारिकाओं/ गाथानों में जो वर्णन मिलते हैं उनमें तथा उक्त सील में बिम्बप्रतिबिम्ब भाव देखा जा सकता है । इन वर्णनों के सूक्ष्मतर अध्ययन से पता चलता है कि इस तरह की कोई मुद्रा अवश्य ही व्यापक प्रचलन में रही होगी; क्योंकि मोहन-जो-दड़ो की सील में अंकित प्राकृतियों तथा जैन साहित्य में उपलब्ध वर्णनों का यह साम्य आकस्मिक नहीं हो सकता। निश्चय ही यह एक अविच्छिन्न परम्परा की ठोस परिणति है। यदि हम पूर्वोक्त ग्रन्थों के विवरणों को सील के विवरणों से समन्वित करें तो संपूर्ण स्थिति की स्पष्ट व्याख्या इस प्रकार संभव है : पुरुदेव (ऋषभदेव) नग्न खड्गासन कायोत्सर्ग मुद्रा में अवस्थित हैं उनके शीर्षोपरि भाग पर त्रिशूल अभिमण्डित है यह रत्नत्रय की शिल्पाकृति है कोमल दिव्यध्वनि के प्रतीक रूप एक लता-पर्णमुखमण्डल के पास सुशोभित है२१ दो ऊध्वर्ग कल्पवृक्ष-शाखाएँ हैं पुष्प-फलयुक्त, महायोगी उससे परिवेष्टित हैं यह भक्ति-प्राप्य फल की द्योतक है चक्रवर्ती भरत भगवान् के चरणों में अंजलिबद्ध प्रणाम-मुद्रा में नतशीश है२२ भरत के पीछे वृषभ है, जो भगवान् ऋषभनाथ का चिह्न (लांछन) है अधोभाग में हैं अपने राजकीय गणवेश में सात मन्त्री मोहन-जो-दड़ो Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनके पदनाम हैं - माण्डलिक राजा, ग्रामाधिपति, जनपद अधिकारी, दुर्गाधिकारी (गृह मंत्री), भण्डारी (कृषिवित्त मन्त्री), षडंग बलाधिकारी (रक्षा मन्त्री), मित्र (परराष्ट्र मन्त्री) । मोहन-जो-दड़ो की मुद्राओं में उत्कीरिणत इन तथ्यों का स्थूल भाष्य संभव नहीं है; क्योंकि परम्पराओं और लोकानुभवों को छोड़ कर यदि हम इन सीलों की व्याख्या करते हैं तो यह व्याख्या न तो यथार्थपरक होगी और न ही वैज्ञानिक । जब तक हम इस तथ्य को ठीक से आत्मसात नहीं करेंगे कि मोहन-जो-दड़ो की सभ्यता पर योगियों की आत्मविद्या की स्पष्ट प्रतिच्छाया है, तब तक इन तथ्यों के साथ न्याय कर पाना संभव नहीं होगा; अत: इतिहास विदों और पुरातत्त्ववेत्ताओं को चाहिये कि वे प्राप्त तथ्यों को परवर्ती साहित्य की छाया में देखें खोजें और तब कोई निष्कर्ष लें। वास्तव में इसी तरह के तुलनात्मक और व्यापक, वस्तुनिष्ठ और गहन विश्लेषण से ही यह संभव हो पायेगा कि हमारे सामने कोई वस्तुस्थिति आये । मृदु लता-पर्ण अब हम उन प्रतीकों की चर्चा करेंगे, जो मोहन-जो-दड़ो के अवशेषों में मिले हैं और जैन साहित्य में भी जिनका उपयोग हुया है । यहाँ तक कि इनमें से कुछ प्रतीक तो आज तक जैन जीवन में प्रतिष्ठित हैं। सब में पहले हम 'स्वस्तिक' को लेते हैं। सिन्धुघाटी से प्राप्त कुछ सीलों में स्वस्तिक (साँथिया) भी उपलब्ध है । २3 इससे यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि सिन्धुघाटी के लोकजीवन में स्वस्तिक एक मांगलिक प्रतीक था । साँथिया आज भी जैनों में व्यापक रूप में पूज्य और प्रचलित है। इसे जैन ग्रन्थों, जैन मंदिरों, और जैन ध्वजाओं पर अंकित देखा जा सकता है । व्यापारियों में इसका व्यापक प्रचलन है। दीपावली पर जब नये खाते-बहियों का प्रारंभ किया जाता है, तब साँथिया माँड़ा जाता है। स्वस्तिक जैन जीव-सिद्धान्त का भी प्रतीक है। इसे चतुर्गति का सूचक माना गया है। जीव की चार गतियाँ वरिणत हैं : नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव । स्वस्तिक के शिरोभाग पर तीन बिन्दु रखे जाते हैं, जो रत्नत्रय के प्रतीक हैं। इन तीन बिन्दुओं के ऊपर एक साँथिया (१) जैन परम्परा और प्रमाण १७ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रबिन्दु होता है जो क्रमशः लोकाग्र और निर्वाण का परिचायक है । 'स्वस्ति' का एक अर्थ कल्याण भी है । ___ 'त्रिशूल' दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रतीक है, जो सिन्धुघाटी की सीलों पर तो अंकित है ही, जैन ग्रन्थों में भी जिसकी चर्चा मिलती है । त्रिशूल आज भी लोकजीवन में कुछ शैव साधुनों द्वारा रखा जाता है । जैन परम्परा में त्रिशूल को रत्नत्रय का प्रतिनिधि माना गया है । त्रिरत्न हैं : सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र । इसकी चर्चा 'धवला' २४, 'पादिपुराण' २५, 'पुरुदेव चम्पू'२४ में मिलती है । त्रिशूल को जैनों का 'जैत्र' अस्त्र कहा गया है। तीसरा है कल्पवृक्ष । यह कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी ऋषभमूर्ति के परिवेष्टन के रूप में उत्कीरिणत है। 'आदिपुराण' तथा 'संगीत समयसार' में इसके विवरण मिलते हैं ।२७ त्रिशूल अर्हदास ने मृदु लतालंकृत मुखः कह कर मृदु लता-पल्लव का आधार उपलब्ध करा दिया है ।२८ - भरत चक्रवर्ती श्रद्धाभक्तिपूर्वक ऋषभमूर्ति के सम्मुख अंजलि बाँधे नमन-मुद्रा में उपस्थित हैं। प्राचार्य जिनसेन, विमलसूरि आदि ने भरत की इस मुद्रा का तथा उनके द्वारा ऋषभार्चन का वर्णन किया है ।२६ तुलनात्मक अध्ययन और व्यापक अनुसंधान से हम सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मोहन-जो-दडो की सील पर जो रूपक अंकित है वह जन-जीवन के लिए सुपरिचित, प्रौढ़, प्रचलित रूपक है अन्यथा वह वहाँ से छन कर कवि-परम्परा में इस तरह क्यों कर स्थापित होता? एक तथ्य और ध्यान देने योग्य है कि ब्राह्मणों को अध्यात्मविद्या क्षत्रियों से पूर्व प्राप्त नहीं थी। उन्हें यह क्षत्रियों से मिली, जिसका वे ठीक से पल्लवन नहीं कर पाये। 'छान्दोग्य उपनिषद्' में इसकी झलक मिलती है ।३० इससे पहले कि हम इस पुस्तिका को समाप्त करें कुछ ऐसे तथ्यों को और जानें जिनका जैनधर्म और जैन समाज की मौलिकतानों से सम्बन्ध है। जैनधर्म आत्मस्वातन्त्र्यमूलक धर्म है। उसने न सिर्फ मनुष्य बल्कि प्राणिमात्र की स्वतन्त्रता का प्रतिपादन किया है। जीव तो साँथिया (२) १८ मोहन-जो-दड़ो Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पवृक्ष-पुष्पावलि स्वाधीन है ही, यहाँ तक कि परमाणु-मात्र भी स्वाधीन है। कुल छः द्रव्य हैं । प्रत्येक स्वाधीन है। कोई किसी पर निर्भर नहीं है। न कोई द्रव्य किसी की सत्ता में हस्तक्षेप करता है और न ही होने देता है । वस्तुत: लोकस्वरूप ही ऐसा है कि यहाँ संपूर्ण यातायात अत्यन्त स्वाधीन चलता है। जैनों का कर्मसिद्धान्त भी इसी स्वातन्त्र्य पर आधारित है। श्री जुगमन्दरलाल जैनी ने आत्मस्वातन्त्र्य के इस सिद्धान्त को बहुत ही सरल शब्दों में विवेचित किया है।३१ इस भ्रम को भी हमें दूर कर लेना चाहिये कि जैन और बौद्ध धर्म समकालीन प्रवर्तन हैं। वास्तविकता यह है कि बौद्धधर्म जैनधर्म का परवर्ती है। स्वयं गौतम बुद्ध ने प्रारंभ में जैनधर्म को स्वीकार किया था; किन्तु वे उसकी कठोरतामों का पालन नहीं कर सके, अतः मध्यम मार्ग की ओर चले आये । २ इससे यह सिद्ध होता है कि बौद्धधर्म भले ही वेदों के खिलाफ रहा हो; किन्तु जैनधर्म जो प्राग्वैदिक है, कभी किसी धर्म के विरुद्ध नहीं उठा या प्रवर्तित हुआ। उसका अपना स्वतन्त्र विकास है। संपूर्ण जैन वाङ्गमय में कहीं किसी का विरोध नहीं है। जैनधर्म समन्वयमूलक धर्म है, विवादमूलक नहीं - उसके इस व्यक्तित्व से भी उसके प्राचीन होने का तथ्य पुष्ट होता है। यहाँ श्री पी. प्रार. देशमुख के ग्रन्थ 'इंडस सिविलाइजेशन एंड हिन्दू कल्चर' के कुछ निष्कर्षों की भी चर्चा करेंगे। श्री देशमुख ने स्पष्ट शब्दों में कहा है, 'जैनों के पहले तीर्थंकर सिन्धु सभ्यता से ही थे। सिन्धुजनों के देव नग्न होते थे। जैन लोगों ने उस सभ्यता संस्कृति को बनाये रखा और नग्न तीर्थंकरों की पूजा की।'33 ___ इसी तरह उन्होंने सिन्धुघाटी की भाषिक संरचना का भी उल्लेख किया है। लिखा है : 'सिन्धुजनों की भाषा प्राकृत थी। प्राकृत जन-सामान्य की भाषा है। जैनों और हिन्दुनों में भारी भाषिक भेद है। जैनों के समस्त प्राचीन धार्मिक ग्रंथ प्राकृत में हैं; विशेषतया अर्धमागधी में ; जबकि हिन्दुओं के समस्त ग्रन्थ संस्कृत में हैं । प्राकृत भाषा के प्रयोग से भी यह सिद्ध होता है कि जैन प्राग्वैदिक हैं और उनका सिन्धुघाटी सभ्यता से सम्बन्ध था ।'३४ प्रणात-मुद्रा में भरत चक्रवर्ती उनका यह भी निष्कर्ष है कि जैन कथा-साहित्य में वाणिज्यिक कथाएँ अधिक हैं। उनकी वहाँ भरमार है, जबकि हिन्दू ग्रन्थों में इस १६ जैन परम्परा और प्रमाण Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरह की कथाओं का अभाव है। सिन्धुघाटी की सभ्यता में एक वाणिज्यिक कॉमनवेल्थ (राष्ट्रकुल) का अनुमान लगता है। तथ्यों के विश्लेषण से पता लगता है कि जैनों का व्यापार समुद्र-पार तक फैला हुआ था। उनकी हुंडियां चलती/सिकरती थीं। व्यापारिक दृष्टि से वे 'मोड़ी' लिपि का उपयोग करते थे। यदि लिपि-बोध के बाद कुछ तथ्य सामने आये तो हम जान पायेंगे कि किस तरह जैनों ने पाँच सहस्र पूर्व एक सुविकसित व्यापार-तन्त्र का विकास कर लिया था।३५ इन सारे तथ्यों से जैनधर्म की प्राचीनता प्रमाणित होती है । प्रस्तुत पुस्तिका मात्र एक प्रारंभ है; अभी इस संदर्भ में पर्याप्त अनुसंधान किया जाना चाहिये। राजसी गणवेश में एक मन्त्री [टिप्परिणयां : देखिये; परिशिष्ट २, पृष्ठ २३] मोहन-जो-दड़ो Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ : टिप्परिणयाँ (प्रामुख) 1. Mohen-jo-daro; the 'Mound of the Dead'; Sind Five Thousand Years ago; by Ramprasad Chanda; Modern Review, Aug. 1932; p 152. 2. Mohen-jo-daro, the Mound of the Dead', situated in Larkana District in Sind, stands on a long narrow strip of land between the main bed of the Indus and the western Naro loop (27°19'N. and 68°8' E)-do-. 3. -do-; 1922-27; p. 152. 4. -do-;p. 152. 5. "ऋषभदेव की कृच्छ साधना का मेल ऋग्वेद की प्रवृत्तिमार्गी धारा से नहीं बैठता। वेदोल्लिखित होने पर भी ऋषभदेव वेदपूर्व परम्परा के प्रतिनिधि हैं।" -संस्कृति के चार अध्याय; रामधारीसिंह दिनकर; पृ. १३० । "विद्वानों का अभिमत है कि यह धर्म प्रागैतिहासिक और प्राग्वैदिक है। सिन्धु घाटी की सभ्यता में मिली योगिमूर्ति तथा ऋग्वेद के कतिपय मन्त्रों में ऋषभ और अरिष्टनेमि जैसे तीर्थंकरों के नाम इस विचार के मुख्य आधार हैं । 'भागवत' और 'विष्णूपुराण' में मिलने वाली जैन तीर्थंकर ऋषभदेव की कथा भी जैनधर्म की प्राचीनता को व्यक्त करती है।" -भारतीय इतिहास और संस्कृति ; डॉ. विशुद्धानन्द/डॉ. जयशंकर मिश्र; भारतीय विद्या प्रकाशन, १०८, कचौड़ी गली, वाराणसी; पृष्ठ १६६ । 6. No. 620/1928-29; Mohen-jo-daro; Seal; AST Govt. of India; Modern Review (Calcutta) Aug. 1932; Sind Five Thousand Years Ago by Ramprasad Chanda; Plate II; Seal f - Seal with Standing diety and bull. 7. -do-; Seal d,e,f,g,h,i. 8. “वस्तुतः जैनधर्म संसार में मूल अध्यात्म धर्म है। इस देश में वैदिक धर्म के आने के बहुत ही पहले से सही में जैनधर्म प्रचलित था । खुब संभव है कि प्राग्वैदिकों में शायद द्रविड़ों में यह धर्म था।" - उड़ीसा में जैनधर्म; नीलकण्ठदास, भुवनेश्वर; प्र. ३; अखिल विश्व जन मिशन, अलीगंज, एटा; १९५८ । 9. -do-; Seal c & f. Seal no. 337, p. 155. 10. -do-; Seal b& f. 11. Sind Five Thousand Years Ago by Ramprasad Chanda; Modern Review, Calcutta, August 1932, pp.151-160. 12. The Indus Script, Texts, Concordance and Tables by Irvatham Mahadevan; ASI. New Delhi. 13. Sind Five Thousand Years Ago by Ramprasad Chanda; Modern Review, Calcutta, Aug. 1932; pp. 157, 158. २१ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. Who were the Indus People? : Review of teh book written by Mahadevan in Sunday Standard Aug. 19, 1979 by S. B. ROY; See fn. 12. 15. -do 16. जैन व्यापारी जिस लिपि का उपयोग परम्परया करते रहे हैं उसे "मोड़ी" कहा जाता है । यह घसीट लिखाई है। इसमें त्वरा का महत्त्व है। यह दक्षिण भारत से संबद्ध मानी जाती है। - मानक हिन्दी, कोश; भाग ४; पृष्ठ ४२१; रामचन्द्र वर्मा । 17. आदिनाथ, ब्रह्मा, महायोगी, आदिदेव, महादेव, प्रजापति आदि । 18. "ऋषभदेव ने ही संभवतः लिपिविद्या के लिए कौशल का उद्भावन किया । ऋषभदेव ने ही संभवतः ब्रह्मविद्या की शिक्षा के लिए उपयोगी ब्राह्मी लिपि का प्रचार किया था।" -हिन्दी विश्वकोश, प्रथम भाग, संपादकनगेन्द्रनाथ वसु; पृष्ठ ६४; पुरुदेव चम्पू; महाकवि अर्हद्दास; षष्ठ स्तवक ३६, ४० । 19. "ब्रह्मा देवानां प्रथमः संबभूव विश्वस्य कर्ता भूवनस्य गोप्ता । स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह ।" —-मुण्डकोपनिषद् १.१ -देवताओं में सर्वप्रथम ब्रह्मा उत्पन्न हुए। वे विश्व के कर्ता; असि, कृषि, मसि, वाणिज्य, शिल्प और विद्या के संप्रदाता थे; इसीलिए तीनों भुवनों के रक्षक थे । उन्होंने समस्त विद्याओं में प्रतिष्ठित ब्रह्मविद्या (अध्यात्म विद्या) अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्व - भरत - के निमित्त कही। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २:टिप्परिणयाँ [ फाइव थाउजेंड इअर्स एगोः रामप्रसाद चन्दा: 'मॉडर्न रिव्य', कलकत्ताः अगस्त १९३२ (दे. परि.)। २. अतीत का अनावरण ; प्राचार्य तुलसी, मुनि नथमल ; भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली १९६९; पृ. १६ । ३. पद्मचन्द्र कोश, पृ. ४६५; ऋषभदेव (पु.) १. ऋष+अभक जाना, दिव=अच् (संपूर्ण विद्यानों में पार जाने वाला एक मुनि); २. जैनों का पहला तीर्थकर । ४. मार्कण्डेय पुराण : सांस्कृतिक अध्ययन; डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ; पृ. २२-२४ । ५. आदिपुराण १/२५; प्राचार्य जिनसेन । ६. प्रतिष्ठातिलक १८/१; नेमिचन्द्र । ७. भारतीय दर्शन, पृ. ६३; वाचस्पति गैरोला । ८, उड़ीसा में जैनधर्म; डॉ. लक्ष्मीनारायण साह; श्री अखिल जैन मिशन, एटा; ग्र. प्र., उ; १९५६ । ६. 'नवनीत', हिन्दी मासिक, बम्बई; डॉ. मंगलदेव शास्त्री; जून १६७४; पृ. ६६ । १०. दे. टि. क्र. ४। ११. जैन साहित्य का इतिहास, पूर्व पीठिका; पं. कैलाशचन्द शास्त्री; भूमिका- डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल; पृ. ८ । १२. भारतीय दर्शन; वाचस्पति गैरोला; पृ. ६३ । १३. संस्कृति के चार अध्याय; रामधारी सिंह दिनकर; पृ. ३६ । १४. आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव; डॉ. कामताप्रसाद जैन; पृ. १३८ । १६. -वही-; पृ. २३ ।। १७. जैनिज्म इन बिहार; पी. सी. राय चौधरी; पृ. ७ । १८. छक्खंडा- मंगलायरण; १/१/२५ प्राचार्य वीरसेन; (तिरयण तिसूल धारिय)। १६. पउमचरियं; विमलसूरि; ४.६८-६६ । २०. आदिपुराण; प्राचार्य जिनसेन २४/७३-७४ । २१. पुरुदेवचम्पूप्रबन्ध १/१; श्रीमद् अर्हद्दास (दिव्यध्वनि मृदुलतालंकृतमुखः) । २२. पउमचरियं; विमलसूरि; ४/६८-६६ । २३. भारत में संस्कृति एवं धर्म; डॉ. एम. एल. शर्मा; पृ. १६ । २४. दे. टि. क्र. १८ । २५. आदिपुराण; प्राचार्य जिनसेन १/४; (रत्नत्रयं जैनं जैत्रमस्त्रं जयत्यदः) । २६. पुरुदेवचम्पूप्रबन्ध; श्रीमदर्हद्दास ५; (रत्नत्रयं राजति जैत्रमस्त्रं)। २७. आदिपुराण; प्राचार्य जिनसेन; १५/३६; संगीत समयसार; प्राचार्य पार्श्वदेव ७/६६ । २८. दे. टि. क्र. २१ । २६. आदिपुराण; २४/७७-७८; आचार्य जिनसेन; पउमचरियं ४/६८-६९; विमलसूरि । ३०. छान्दोग्य उपनिषद्, शांकर भाष्य ५/७ । ३१. अाउटलाइन्स ऑफ जैनिज्म; जुगमंदरलाल जैन; पृ. ३४४ । ३२. मज्झिमनिकाय (पालि) १२ महासिहनाद सुत्तं; पृ. ६०५ । ३३. इंडस सिविलाज़ शन, ऋग्वेद एंड हिन्दू कल्चर; पी. आर. देशमुख ; पृ. ३६४ । ३४. -वही--; पृ. ३६७ । ३५. --वही-; पृ. ३६५ । २३ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एलाचार्य मुनि श्री विद्यानन्दजी और पुरातत्त्व एलाचार्य मुनि श्री विद्यानन्दजी का जन्म २२ अप्रैल, १९२५ को कर्नाटक के शेडवाल ग्राम में हुआ और मुनि दीक्षा संपन्न हुई २५ जुलाई, १९६३ को दिल्ली में । दिगम्बर जैन साधु की कठोर साधना और उसकी अपरिहार्य मर्यादाओं से सभी परिचित हैं; इतने पर भी मुनिश्री का निरन्तर सृजनोन्मुख (क्रिएटिव्ह) बने रह कर अध्यात्म और पुरातत्त्व की खोजयात्रा, स्वयं में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है । मुमुक्षा और जिज्ञीप्सा ( प्रामाणिक जानने की इच्छा) के तेज पहियों पर आगम और आचार के रथ को अत्यन्त आश्वस्त भाव से दौड़ाना उनका अपना पराक्रम और पुरुषार्थ है । जहाँ एक ओर उनमें श्राध्यात्मिक प्रयोगशाला दिन-रात सक्रिय है, वहीं दूसरी प्रोर उनमें जैन पुरातत्त्व और इतिहास के तथ्यों के आलोड़न की युक्तियुक्त प्रक्रिया भी अविराम धड़कती है। वे जिस भी विषय को गवेषणा के लिए लेते हैं उसकी तमाम गहराइयों और विस्तृतियों की बारीक-सेबारीक जानकारी हासिल किये बिना चैन नहीं लेते। यह ग्रन्थ, वह पाण्डुलिपि; यह सन्, वह संवत्; यह प्रतिमा, वह शिलालेख; यह चित्र, वह फोटोग्राफ— कोई वस्तु या वास्तु हो वे तब तक अपनी खोजयात्रा में नहीं रुकते जब तक स्पष्ट और असंदिग्ध नहीं लेते । किसी काम को आधा-अधूरा छोड़ना उनका संस्कार नहीं है । पुरातत्त्व की खोजयात्रा शुरू हुई १९४६ ई. से । पहला पड़ाव बना नालन्दा (दक्षिण बिहार ) की उत्खनन सामग्री का परिदर्शन । १६५२ ई. में उन्होंने तात्या साहब चोपड़े की कृति 'भगवान ऋषभदेव' पढ़ी, जिसमें लेखक ने 'मोहन-जो-दड़ो' का प्रसंग उठाया है। पढ़ते ही उनका पुरातत्त्व- रुचि मृग कुलांचें भरने लगा और वे मोहन-जो-दड़ो के संदर्भ में जैन परम्परा और प्रमाणों का आकलन करने में जुट गये । ब्र. सीतलप्रसादजी की पुस्तिका 'बंगाल, बिहार, उड़ीसा के प्राचीन स्मारक' (१९२३ ई.) ने उनकी मनीषा को झकझोरा और वे १९५८ में उदयगिरि-खण्डगिरि तथा कलकत्ता- स्थित 'नेशनल लायब्रेरी' में अपनी ज्ञानपिपासा बुझाते रहे । १९५४ ई. में उन्होंने बम्बई पुरातत्त्व संग्रहालय देखा और इसी क्रम में १९७३ ई. में वे मथुरा के म्यूजियम में २-३ दिन रुके । ये ही कुछ कारण हैं कि पाषाण भी उनसे दिल खोल कर संवाद करते हैं और अपने मन के सारे भेद निःसंकोच प्रकट कर देते हैं। जिस निष्ठा से वे 'षट्खण्डागम' का स्वाध्याय करते हैं, हू-ब-हू वैसी ही निष्ठा से पुरातथ्यों की गहन / सूक्ष्मतर छानबीन करते हैं । प्रस्तुत कृति उनके ऐसे ही सिन्धु-मंथन की भव्य फलश्रुति है । 'मोहन-जो-दड़ो' के संदर्भ में उनका निष्कर्ष है : "सिन्धुघाटी में जैनों का व्यापक प्रभाव था, अतः इससे संबन्धित प्रमाणों और जैन वाङ्मयिक परम्पराओं की सूक्ष्मतर छानबीन की जानी चाहिये ।" मुनिश्री और जैन कीर्तिस्तम्भ (चित्तौड़ ) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायोगी ऋषभनाथ मोहन-जो-दड़ो : कायोत्सर्ग मुद्रा में साधनारत महायोगी ऋषभनाथ Not only the seated deities engraved on some of Indus Seals are in Yoga posture and bear witness to the prevalence of Yoga in the Indus Valley in the remote age, the standing deities on the Seals also show Kayotsarga posture of Yoga (p.159). *The Kayotsarga (dedication of the body) posture is peculiarly Jain. It is a posture, not of sitting, but of standing. In the Adipurana, Book XVIII, Kayotsarga posture is described in connection with the penances of Rishabha or Vrishabha, the first Jina of the Jinas (p. 158)." "A standing image of Jina Rishabha in Kayotsarga posture on a stele showing four such images assignable to the second century A. D. in Curzon Museum of Archaeology, Mathura, is reproduced in Fig. 12. Among the Egyptian sculptures of the time of the early dynasties (III-VI) there are standing statues with arms hanging on two sides. But though these early Egyptian statues, and the archaic Greek Kouroi show nearly the same pose, they lack the feeling of abandon that characterizes the standing figures on the Indus Seals and Images of Jinas in the Kayotsarga posture. The name Rishabha means bull, and the bull is the emblem of Jina Rishabha (p. 159)."* "सिन्धु घाटी की अनेक सीलों में उत्कीरिणत देवमूर्तियाँ न केवल बैठी हुई योगमुद्रा में हैं और सुदूर अतीत में सिन्धुघाटी में योग के प्रचलन की साक्षी हैं अपितु खड़ी हई देवमूर्तियाँ भी हैं जो कायोत्सर्ग मुद्रा को प्रशित करती हैं (पृ. 156) / " "कायोत्सर्ग (देह-विसर्जन) मुद्रा विशेषतया जैन मुद्रा है। यह बैठी हई नहीं, खड़ी हुई है। 'आदिपुराण' के अठारहवें अध्याय में जिनों-में-प्रथम जिन ऋषभ, या वृषभ की तपश्चर्या के सिलसिले में कायोत्सर्ग मुद्रा का वर्णन हया है (पृ. 158) / " __ "कर्जन म्यूजियम ऑफ प्राक्यिोलॉजी, मथुरा में सुरक्षित एक प्रस्तर-पट पर उत्कीरिणत चार मूर्तियों में से एक ऋषभ जिन की खड़ी हुई मूर्ति कायोत्सर्ग मुद्रा में है (इस लेख की प्राकृति 12) / यह ईसा की द्वितीय शताब्दी की है / मिस्र के प्रारम्भिक राजवंशों के समय की शिल्प-कृतियों में भी दोनों ओर हाथ लटकाये खड़ी कुछ मूर्तियाँ प्राप्त हैं। यद्यपि इन प्राचीन मिस्री मूर्तियों और यूनान की कुराई मूर्तियों की मुद्राएँ भी वैसी ही हैं; तथापि वह देहोत्सर्गजनित निःसंगता, जो सिन्धुघाटी की सीलों पर अंकित मूर्तियों तथा कायोसगै ध्यान-मुद्रा में लीन जिन-बिम्बों में पायी जाती है, इनमें अनुपस्थित है। वृषभ का अर्थ है बैल और यह बैल वृषभ या ऋषभ जिन का चिह्न (पहचान) है (पृ. 156) / * * Sind Five Thousand Years Ago by Ramprasad Chanda; Modern Review, Calcutta, August, 1932; pp. 158, 159. * सिन्ध फाइव थाउजेंड इअर्स एगो; रामप्रसाद चन्दा; मॉर्डन रिव्यू कलकत्ता; अगस्त 1932; पृ. 158-59. 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