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ने तथ्यों की जो प्रगल्भ समीक्षा की है उससे यह स्पष्ट हो गया है कि सिन्धुघाटी-संस्कृति में जैनों को एक विशिष्ट सामाजिक दर्जा प्राप्त था और उन्हें घाटी से संबद्ध राष्ट्रकुल (कॉमनवेल्थ) में एक सुप्रतिष्ठित स्थान मिला हुआ था। उनकी वित्तीय साख थी तथा व्यापार-जगत् में उन्हें बहुत सम्मान के साथ देखा जाता था।
६. प्रस्तुत लघु पुस्तिका में हम जिस सील की विवेचना करने जा रहे हैं वह उत्खनन के तथ्यों पर आधारित तो है ही, साथ ही जैनवाङ्गमय में प्राप्त परम्परा से भी समर्थित है । जब इतिहास को लोकश्रुति और परम्परा का बल मिल जाता है, तब वह इतना असंदिग्ध और अकाट्य हो जाता है कि फिर उसकी अस्वीकृति लगभग असंभव ही होती है। इतिहास विवरणों से बनता है, लोकश्रुतियाँ लोकमानस में पकती हैं, और परम्पराएँ साहित्य और भाषा के तल से प्रकट होती हैं। प्राचार्य जिनसेन के 'पादिपुराण' में जो श्लोक 3 उपलब्ध है उससे यह तथ्य बहुत स्पष्ट हो जाता है कि मोहन-जो-दड़ो की पूरी पट्टी पर क्रियाकाण्ड की अपेक्षा 'अध्यात्म की संस्कृति' अधिक प्रभावी थी । सीलों में जो प्रतीक मिलते हैं उनसे भी तत्कालीन लोकमानस/लोकाभिरुचियों का अनुमान लगता है। त्रिशूल, वृषभ, छह अराओं वाला कालचक्र'४, कल्पवृक्ष-वेष्टित कायोत्सर्ग-प्रतिमाएँ इत्यादि भी महत्त्वपूर्ण हैं ।
७. श्री महादेवन् ने यह साफ-साफ माना है कि मोहन-जो-दड़ो के सांस्कृतिक विघटन के समय जैनों का जो व्यापारिक विस्तार था उससे भी जैन संस्कृति का एक स्पष्ट परिदृश्य हमारे सामने आता है। उनका कथन है कि उस समय जैन व्यापारियों का मोहनजो-दड़ो के राष्ट्रकुल में एक प्रतिष्ठित स्थान था और उनकी साख दूर-दूर तक थी। उनकी हुंडियाँ पूरे राष्ट्रकुल में सिकरती थीं। आज से सौ साल पहले तक देश में ऐसी इंडियों का काफी प्रचलन था।१५ इनकी एक स्वतन्त्र लिपि थी।६ कुछ कूट-चिह्न भी थे। जो सीलें मोहन-जो-दड़ो में मिली हैं, संभव है उनमें से बहुतेरी जैन व्यापारियों से संबद्ध हों - महादेवन् की इस उपपत्ति पर भी विचार किया जाना चाहिये।
८. यह स्थापना भी काफी सार्थक दिखायी देती है कि मोहनजो-दड़ो की संस्कृति से जैन अध्यात्म और दर्शन संबद्ध रहे हैं, तथा उस समय भी सम्पूर्ण देश के व्यापार की बागडोर जैनों
जैन परम्परा और प्रमाण
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