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के हाथ में थी। जैनों का व्यापार-तन्त्र, शैली, और प्रशासन बिलकुल जुदा थे।
आश्चर्य तो यह है कि जैनधर्म की प्राचीनता के जो संकेत आज से लगभग ६० वर्ष पूर्व मिले थे, उन पर आगे कोई काम नहीं हुआ। वह सूत्र/वह क़दम जहाँ-का-तहाँ, ज्यों-का-त्यों उठा रह गया। श्री रामप्रसाद चंदा का लेख 'मॉडर्न रिव्यू' के अगस्त, १९३२ के अंक में प्रकाशित हुआ था तथा श्री महादेवन् के शोध-निष्कर्ष पर श्री एस. बी. राय की समीक्षा 'संडे स्टैंडर्ड' के १६ अगस्त, १९७६ के अंक में प्रकाशित हुई थी। दोनों में मोहन-जो-दड़ो में जैनत्व के होने की सूचनाएं हैं; किन्तु इतने वर्षों बाद भी किसी जैन पुरातत्त्वविद् ने इस स्थापना को आगे नहीं बढ़ाया, पल्लवित नहीं किया । ऐसे समय जबकि मोहन-जो-दड़ो की लिपि को पढ़ने (डिसाइफर करने) के कई सार्थक प्रयत्न हो चुके हैं, जैन इतिहासवेत्ता/पुरातत्त्वविज्ञ यदि उन सारे स्रोतों का दोहन नहीं करते, जो जैन संस्कृति को विश्व की प्राचीनतम संस्कृति सिद्ध कर सकते हैं, तो यह हमारा दुर्भाग्य ही है । हमारी राय में मोहन-जो-दड़ो संस्कृति में अध्यात्म और योग, शिल्प और व्यापार का जो रूप उपलब्ध है उस पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिये। उन सारी उपपत्तियों का भी सावधानीपूर्वक परीक्षण होना चाहिये जो जैन योग की परम्परा को सुसमृद्ध ठहराती हैं ।
प्रयत्न किया जाना चाहिये कि जैन ग्रन्थों में जहाँ भी इस परम्परा की अभिव्यक्ति हुई है, उसे वहाँ से उठा कर सबके सामने रखा जाए। जैनों का लोक-संस्कृति के विकास में जो अवदान है, उसकी भी पूर्वाग्रहमुक्त विवृत्ति होनी चाहिये । प्रश्न शायद यह नहीं है कि मोहन-जो-दड़ो की प्राचीन संस्कृति को किस अास्था या विश्वास, धर्म या दर्शन से जोड़ा जाए बल्कि इस तथ्य को कसौटी पर कसा जाना चाहिये कि मोहन-जो-दड़ो के उत्खनन में जो सामग्री प्राप्त हुई है, उसका जैन वाङ्गमय में कहाँ-कैसा उल्लेख हुअा है और उसका जैन इतिहास से क्या सम्बन्ध है ? हमारी राय में प्राप्त तथ्यों को इन कसौटियों पर अवश्य देखा जाना चाहिये :
१. भगवान् ऋषभनाथ१७ के जो पर्याय शब्द मिलते हैं वे कितने हैं और उनका मोहन-जो-दड़ो की संस्कृति से क्या तालमेल है ? प्रजापति, पशुपतिनाथ, ब्रह्म, ब्रह्मा तथा अथर्वन्, ब्राह्मी, वृषभ
मोहन-जो-दड़ो
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