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आदि शब्द क्या जैन संस्कृति से किसी तरह सम्बन्धित हैं ? यदि इनका कोई सम्बन्ध है तो वह क्या है और समय ने उसे इस तरह धुंधला क्यों कर दिया है ? क्या हम इस धुन्ध को हटा सकते हैं ?
२. योग की जो परम्परा आज उपलब्ध है, उसका जैन-योग से कितना सम्बन्ध है ? क्या योगियों की जो पर्यक/कायोत्सर्ग मुद्राएँ मोहन-जो-दड़ो की सीलों पर अंकित हैं, उनका विवरण जैन ग्रन्थों में कहीं हुआ है ? अर्धोन्मीलित नेत्र तथा नासिकाग्र दृष्टि क्या जैन मुनियों की ध्यान/तपोमुद्रा से सम्बन्धित नहीं हैं ? इस दृष्टि से भी तथ्यों की विवेचना की जानी चाहिये ।
३. 'कायोत्सर्ग (काउस्सग्ग)' जैनों का अपना पारिभाषिक शब्द है। यह जिस ध्यानमुद्रा का प्रतीक है, वह जैन मुनियों की विशिष्ट तपोमुद्रा है। इस दृष्टि से भी तथ्यों की छानबीन की जानी चाहिये।
४. जैन प्रतिमा-विज्ञान (आइकोनोग्राफी) की दृष्टि से भी मोहन-जो-दड़ो की प्रतिमाकृतियों का विश्लेषण किया जाना चाहिये। देखा जाना चाहिये कि क्या परम्परा से चली आ रहीं जैन प्रतिमाओं में और मोहन-जो-दड़ो की सीलों पर अंकित/उत्कीरिणत प्रतिमाकृतियों में कोई संगति है ? क्या दोनों की शरीर-रचना (अनाटॉमी) समान है ? भुजाओं का प्रलम्बन, एड़ियों का सटा होना, दोनों अंगुष्ठों के बीच का अंतर, नासिकाग्र दृष्टि, अधखुली आँखें, केशविन्यास आदि कई ऐसे मुद्दे हैं, जिन्हें गंभीरता से तुलनात्मक तल पर देखा जाना चाहिये।
५. मोहन-जो-दड़ो जब उन्नति के चरम शिखर पर था, तब जैनों का व्यापार काफी दूर तक विस्तृत था। उनकी पहचानमुद्राएँ हुंडियाँ (बिल ऑफ एक्सचेंज) प्रचलित थीं। क्या इन इंडियों का, जो आज भी प्रचलन में हैं, तब कोई अर्थ था? क्या हम इस तरह की हंडियों की खोजबीन नहीं कर सकते ? संभव है इनका कोई भाग, कोई रूप हमें मिल जाए। 'मोड़ी' लिपि के विश्लेषण से भी कोई कुंजी हमें मिल सकती है।
६. कहा जाता है कि जो लिपि मोहन-जो-दड़ो की खुदाई में प्राप्त बर्तनों और सीलों में कहीं-कहीं प्रयुक्त हुई है, वह ब्राह्मी१८ का ही कोई रूप है। ब्राह्मी ऋषभनाथ की पुत्री थी, जिसे उन्होंने
जैन परम्परा और प्रमाण
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