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________________ कल्पवृक्ष-पुष्पावलि स्वाधीन है ही, यहाँ तक कि परमाणु-मात्र भी स्वाधीन है। कुल छः द्रव्य हैं । प्रत्येक स्वाधीन है। कोई किसी पर निर्भर नहीं है। न कोई द्रव्य किसी की सत्ता में हस्तक्षेप करता है और न ही होने देता है । वस्तुत: लोकस्वरूप ही ऐसा है कि यहाँ संपूर्ण यातायात अत्यन्त स्वाधीन चलता है। जैनों का कर्मसिद्धान्त भी इसी स्वातन्त्र्य पर आधारित है। श्री जुगमन्दरलाल जैनी ने आत्मस्वातन्त्र्य के इस सिद्धान्त को बहुत ही सरल शब्दों में विवेचित किया है।३१ इस भ्रम को भी हमें दूर कर लेना चाहिये कि जैन और बौद्ध धर्म समकालीन प्रवर्तन हैं। वास्तविकता यह है कि बौद्धधर्म जैनधर्म का परवर्ती है। स्वयं गौतम बुद्ध ने प्रारंभ में जैनधर्म को स्वीकार किया था; किन्तु वे उसकी कठोरतामों का पालन नहीं कर सके, अतः मध्यम मार्ग की ओर चले आये । २ इससे यह सिद्ध होता है कि बौद्धधर्म भले ही वेदों के खिलाफ रहा हो; किन्तु जैनधर्म जो प्राग्वैदिक है, कभी किसी धर्म के विरुद्ध नहीं उठा या प्रवर्तित हुआ। उसका अपना स्वतन्त्र विकास है। संपूर्ण जैन वाङ्गमय में कहीं किसी का विरोध नहीं है। जैनधर्म समन्वयमूलक धर्म है, विवादमूलक नहीं - उसके इस व्यक्तित्व से भी उसके प्राचीन होने का तथ्य पुष्ट होता है। यहाँ श्री पी. प्रार. देशमुख के ग्रन्थ 'इंडस सिविलाइजेशन एंड हिन्दू कल्चर' के कुछ निष्कर्षों की भी चर्चा करेंगे। श्री देशमुख ने स्पष्ट शब्दों में कहा है, 'जैनों के पहले तीर्थंकर सिन्धु सभ्यता से ही थे। सिन्धुजनों के देव नग्न होते थे। जैन लोगों ने उस सभ्यता संस्कृति को बनाये रखा और नग्न तीर्थंकरों की पूजा की।'33 ___ इसी तरह उन्होंने सिन्धुघाटी की भाषिक संरचना का भी उल्लेख किया है। लिखा है : 'सिन्धुजनों की भाषा प्राकृत थी। प्राकृत जन-सामान्य की भाषा है। जैनों और हिन्दुनों में भारी भाषिक भेद है। जैनों के समस्त प्राचीन धार्मिक ग्रंथ प्राकृत में हैं; विशेषतया अर्धमागधी में ; जबकि हिन्दुओं के समस्त ग्रन्थ संस्कृत में हैं । प्राकृत भाषा के प्रयोग से भी यह सिद्ध होता है कि जैन प्राग्वैदिक हैं और उनका सिन्धुघाटी सभ्यता से सम्बन्ध था ।'३४ प्रणात-मुद्रा में भरत चक्रवर्ती उनका यह भी निष्कर्ष है कि जैन कथा-साहित्य में वाणिज्यिक कथाएँ अधिक हैं। उनकी वहाँ भरमार है, जबकि हिन्दू ग्रन्थों में इस १६ जैन परम्परा और प्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003644
Book TitleMohan Jo Dado Jain Parampara aur Praman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandmuni
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1988
Total Pages28
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P035
File Size3 MB
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