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आमुख मोहन-जो-दड़ो' का अर्थ है 'मृतकों का टीला' । पुरातात्त्विक महत्त्व का यह स्थान पाकिस्तान के लरकाना जिले (सिन्ध) में स्थित है। इसके उत्खनन का कार्य १९२२-२७ ई० के मध्य सरकार के पुरातात्त्विक सर्वेक्षण विभाग ने सम्पन्न किया था । खुदाई में जो सीलें प्राप्त हुई हैं उनसे जैन संस्कृति की प्राचीनता असंदिग्ध और स्पष्ट बनती है। प्राप्त तथ्यों तथा निष्कर्षों का भारत के प्राचीन इतिहास की धारणा पर भी अचूक प्रभाव पड़ा है। अब तक ऋग्वेद को ही भारतीय संस्कृति सभ्यता का अन्तिम बिन्दु माना जाता था; किन्तु सिन्धुघाटी की संस्कृति से सम्बन्धित छानबीन से हमारा ध्यान प्राग्वेदिक भारत की ओर भी बरबस गया है। यह प्रश्न सहज ही उठता है कि सिन्धुघाटी के निवासी कौन थे ? उनकी धार्मिक आस्थाएँ क्या थीं ? क्या मोहन-जो-दड़ो के तत्कालीन सांस्कृतिक मानचित्र पर जैनों की कोई स्थिति थी ? क्या जो तथ्य सामने आये हैं उनके कारण ऋग्वेद को भारतीय संस्कृति का प्रथम छोर मानना अब भी संभव है ? क्या प्रारण्यक संस्कृति को एक सिरा मान लेने पर दूसरा सिरा सिन्धुघाटी तक विस्तृत नहीं हो जाएगा ? तथ्यों की इस समीक्षा से यह सिद्ध होता है कि जैनधर्म प्राग्वैदिक है और भारत में योग-परम्परा का प्रवर्तक है ।
माहन
अब तक यह माना जाता रहा है कि हमारे देश की प्राचीनता ऋग्वेद से पीछे संभवतः लौट नहीं सकती: कि जो-दड़ो के उत्खनन में मिले हैं उनसे यह प्रमाणित हो गया है कि भारत की संस्कृति काफी प्राचीन है, अतः 'प्राचीनता के इस तथ्य' को 'खुदाई में मिले तथ्यों के समानान्तर वाङ्गमयिक परम्पराओं में भी ढूंढा जाना चाहिये । प्रस्तुत पुस्तिका में इस दिशा में एक ठोस प्रयास किया गया है। मोहन-जो-दड़ो से जो एक सील मिली है। उससे जैन संस्कृति के सम्बन्ध में कई धूमिलताएँ स्पष्ट हुई हैं और इस नये उजाले में हम कई ऐतिहासिक गुत्थियों को खोल सके हैं। अब तक कहा जाता रहा है कि जैनधर्म वेदों के समय प्रवर्तित या पुनरुज्जीवित हुआ; किन्तु मोहन-जो-दड़ो की खुदाई ने यह सिद्ध
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