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'कायोत्सर्ग मुद्रा' जैनों की अपनी लाक्षणिकता है । प्राप्त मुद्राओं की तीन विशेषताएँ हैं : कायोत्सर्ग मुद्रा, ध्यानावस्था और नग्नता ( दिगम्बरत्व ) | 3
मोहनजोदड़ो की सीलों पर योगियों की जो कायोत्सर्ग मुद्रा अंकित है उसके साथ वृषभ भी है । 'वृषभ' ऋषभनाथ का चिह्न ( लांछन ) है । 'पद्मचन्द्र कोश' में ऋषभ का व्युत्पत्तिक अर्थ दिया है : 'संपूर्ण विद्याओं के पार जाने वाला एक मुनि ।' हिन्दू पुराणों में जो वर्णन मिलता है उसमें ऋषभ और भरत दोनों के विपुल उल्लेख हैं । पहले माना जाता रहा है कि दुष्यन्तपुत्र भरत के नाम से ही इस देश का नाम भारत हुआ; किन्तु अब यह निर्भ्रान्त हो गया है कि भारत ऋषभ - पुत्र 'भरत' के नाम पर ही 'भारत' कहलाया । इसका पूर्वनाम अजनाभवर्ष था । नाभि ( अजनाभ ) ऋषभ के पिता थे । उन्हीं के नाम पर यह अजनाभवर्ष कहलाया । 'वर्ष' का अर्थ है 'देश' ; तदनुसार 'भारतवर्ष' का अर्थ हुआ 'भारतदेश' । मोहन-जो-दड़ो की संकेतित सील में भरत चक्रवर्ती की मूर्ति भी उकेरी गयी है । इन सारे पुरातथ्यों की वस्तुनिष्ठ समीक्षा की जानी चाहिये ।
सील (देखिये; इसी पुस्तिका का मुखपृष्ठ ) को जब हम तफसील - वार या विस्तार में देखते हैं तब इसमें हमें सात विषय दिखायी देते है : (१) ऋषभदेव - नग्न कायोत्सर्गरत योगी । ( २ ) प्रणाम की मुद्रा में नतशीश भरत चक्रवर्ती । ( ३ ) त्रिशूल । ( ४ ) कल्पवृक्ष पुष्पावलि । (५) मृदु लता । (६) वृषभ (बैल) । (७) पंक्तिबद्ध गणवेशधारी सात प्रधान ग्रामात्य ।
निश्चय ही इस तरह की संरचना का आधार पीछे से चली प्रती कोई सुदृढ़ सांस्कृतिक परम्परा ही हो सकती है । प्रचलित लोक-परम्परा के अभाव में मात्र जैनागम के अनुसार इस तरह की परिकल्पना संभव नहीं है ।
इतिहास में ही हम अपने प्राचीन ऋक्थ ( धरोहर ) को प्रामाणिक रूप में सुरक्षित पाते हैं । इतिहास, ऐतिह्य, और ग्राम्नाय समानार्थक शब्द हैं । इतिहास शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार इसका वाच्यार्थ है : इति ह प्रासीत् ( निश्चय से ऐसा ही हुआ था तथा परम्परा से ऐसा ही है ) । इतिहास असल में दीपक है । जिस तरह एक दीपक से हम वस्तु के यथार्थ रूप को देख पाते
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मोहनजोदड़ो
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