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'सर्वार्थसिद्धि' १-१ (प्राचार्य पूज्यपाद) में कहा है : मूर्त्तमिव मोक्षमार्गवाग्विसर्ग वपुषा निरूपयन्तम् (वे नि:शब्द ही अपनी देहकृति मात्र से मोक्षमार्ग का निरूपण करने वाले हैं)। शब्द जहाँ घुटने टेक देता है, मूर्ति वहाँ सफल संवाद बनाती है। मूर्ति भक्ति का भाषातीत माध्यम है। उसे अपनी इस सहज प्रक्रिया में किसी शब्द की आवश्यकता नहीं है। उसकी अपनी वर्णमाला है। इसीलिए मिट्टी, पाषाण आदि को प्रात्मसंस्कृति का प्रतीक माना गया है ।
कौन नहीं जानता कि मूर्ति पाषाण आदि में नहीं होती; वह होती है वस्तुतः मूर्तिकार की चेतना में पूर्वस्थित, जिसे कलाकार क्रमशः उत्कीर्ण करता है अर्थात् वह काष्ठ आदि के माध्यम से आत्माभिव्यंजन या प्रात्मप्रतिबिम्बन करता है। पाषाण जड़ है; किन्तु उसमें जो रूपायित या मूर्तित है वह महत्त्वपूर्ण है । मूर्ति में सम्प्रेषण की अपरिमित ऊर्जा है। यही ऊर्जा या क्षमता साधक को परम भगवत्ता/परमात्मतत्त्व से जोड़ती है अर्थात् साधक इसके माध्यम से मूर्तिमान तक अपनी पहुंच बनाता है।
शिल्पशास्त्र प्रथमानुयोग का विषय है। विशुद्ध आत्मबोधि से पूर्व हम इसी माध्यम की स्वीकृति पर विवश हैं। आगम क्या है ? आगम माध्यम है सम्यक्त्व तक पहुँचने का । आगम केवली के बोधिदर्पण का प्रतिबिम्ब है, जिसका अनुगमन हम श्रद्धा-भक्ति द्वारा कर सकते हैं। 'पागम' शब्द की व्युत्पत्ति है : आगमयति हिताहितं बोधयति इति आगम: (जो हित-अहित का बोध कराते हैं, वे आगम हैं)। तीर्थंकर की दिव्यवाणी को इसीलिए पागम कहा गया है ।
__ कहा जा सकता है कि अध्यात्म से पुरातत्त्व/मूर्तिशिल्प आदि की प्राचीनता का क्या सम्बन्ध है ? इस सिलसिले में हम कहेंगे कि शिल्पकला आदि के माध्यम से आगम बोधगम्य बनता है और हम बड़ी आसानी से उस कंटकाकीर्ण मार्ग पर पग रखने में समर्थ होते हैं। ___ जैनधर्म की प्राचीनता निर्विवाद है । प्राचीनता के इस तथ्य को हम दो साधनों से जान सकते हैं -पुरातत्त्व और इतिहास । जैन पुरातत्त्व का प्रथम सिरा कहाँ है, यह तय करना कठिन है; क्योंकि मोहन-जो-दड़ो की खुदाई में ऐसी कुछ सामग्री मिली है, जिसने जैनधर्म की प्राचीनता को आज से कम-से-कम ५००० वर्ष अागे धकेल दिया है।' सिन्धुघाटी से प्राप्त मुद्राओं के अध्ययन से स्पष्ट हना है कि
जैन परम्परा और प्रमाण
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