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जैन परम्परा और प्रमाण
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उपनाम 'जिन' था, अतः उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म जैनधर्म कहलाया । इस तरह जैनधर्म विश्व का सर्वप्रथम धर्म बना ।
भगवान् ऋषभनाथ का वर्णन वेदों में नाना संदर्भों में मिलता है । कई मन्त्रों में उनका नाम आया है । मोहन -जो-दड़ो (सिन्धुघाटी) में पाँच हज़ार वर्ष पूर्व के जो पुरावशेष मिले हैं उनसे भी यही सिद्ध होता है कि उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म हज़ारों साल पुराना है । मिट्टी की जो सीलें वहाँ मिली हैं, उनमें ऋषभनाथ की नग्न योगिमूर्ति है । उन्हें कायोत्सर्ग मुद्रा में उकेरा गया है । उनकी इस दिगम्बर खड्गासनी मुद्रा के साथ उनका चिह्न बैल भी किसी-न-किसी रूप में कित हुआ है। इन सारे तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि जैनों का अस्तित्व मोहन-जो-दड़ो की सभ्यता से अधिक प्राचीन है ।
श्री रामप्रसाद चन्दा ने अगस्त, १९३२ के 'माडर्न रिव्यू' में कायोत्सर्ग मुद्रा के सम्बन्ध में विस्तार से लिखा है ( देखिये इसी पुस्तिका का अन्तिम प्रावरण - पृष्ठ ) । उन्होंने इस मुद्रा को जैनों की विशिष्ट ध्यान - मुद्रा कहा है और माना है कि जैनधर्म प्राग्वैदिक है, उसका सिन्धुघाटी की सभ्यता पर व्यापक प्रभाव था ।
मोहन-जो-दड़ो की खुदाई में उपलब्ध मृण्मुद्राओं (सीलों) में योगियों की जो ध्यानस्थ मुद्राएँ हैं, वे जैनधर्म की प्राचीनता को सिद्ध करती हैं । वैदिक युग में व्रात्यों और श्रमरणों १२ की परम्परा का होना भी जैनों के प्राग्वैदिक होने को प्रमाणित करता है । व्रात्य का अर्थ महाव्रती है । इस शब्द का वाच्यार्थ है : 'वह व्यक्ति जिसने स्वेच्छया आत्मानुशासन को स्वीकार किया है'। इस अनुमान की भी स्पष्ट पुष्टि हुई है कि ऋषभ प्रवर्तित परम्परा, जो आगे चल कर शिव में जा मिली, वेदचचित होने के साथ ही वेदपूर्व भी है । 13 जिस तरह मोहन जोदड़ो में प्राप्त सीलों की कायोत्सर्ग - मुद्रा प्राकस्मिक नहीं है, उसी तरह वेद-वरित ऋषभ नाम भी आकस्मिक नहीं है, वह भी एक सुदीर्घ परम्परा का द्योतक है, विकास है । ऋग्वेद के दशम मण्डल में जिन प्रतीन्द्रियदर्शी वातरशन मुनियों की चर्चा है, वे जैन मुनि ही हैं ।
श्री रामप्रसाद चन्दा ने अपने लेख में जिस सील का वर्णन दिया है, उसमें अंकित / उत्कीरिणत ऋषभ - मूर्ति को ऋषभ - मूर्तियों का पुरखा कहा जा सकता है । ध्यानस्थ ऋषभनाथ, त्रिशूल, कल्पवृक्ष - पुष्पावलि,
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