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________________ एलाचार्य मुनि श्री विद्यानन्दजी और पुरातत्त्व एलाचार्य मुनि श्री विद्यानन्दजी का जन्म २२ अप्रैल, १९२५ को कर्नाटक के शेडवाल ग्राम में हुआ और मुनि दीक्षा संपन्न हुई २५ जुलाई, १९६३ को दिल्ली में । दिगम्बर जैन साधु की कठोर साधना और उसकी अपरिहार्य मर्यादाओं से सभी परिचित हैं; इतने पर भी मुनिश्री का निरन्तर सृजनोन्मुख (क्रिएटिव्ह) बने रह कर अध्यात्म और पुरातत्त्व की खोजयात्रा, स्वयं में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है । मुमुक्षा और जिज्ञीप्सा ( प्रामाणिक जानने की इच्छा) के तेज पहियों पर आगम और आचार के रथ को अत्यन्त आश्वस्त भाव से दौड़ाना उनका अपना पराक्रम और पुरुषार्थ है । जहाँ एक ओर उनमें श्राध्यात्मिक प्रयोगशाला दिन-रात सक्रिय है, वहीं दूसरी प्रोर उनमें जैन पुरातत्त्व और इतिहास के तथ्यों के आलोड़न की युक्तियुक्त प्रक्रिया भी अविराम धड़कती है। वे जिस भी विषय को गवेषणा के लिए लेते हैं उसकी तमाम गहराइयों और विस्तृतियों की बारीक-सेबारीक जानकारी हासिल किये बिना चैन नहीं लेते। यह ग्रन्थ, वह पाण्डुलिपि; यह सन्, वह संवत्; यह प्रतिमा, वह शिलालेख; यह चित्र, वह फोटोग्राफ— कोई वस्तु या वास्तु हो वे तब तक अपनी खोजयात्रा में नहीं रुकते जब तक स्पष्ट और असंदिग्ध नहीं लेते । किसी काम को आधा-अधूरा छोड़ना उनका संस्कार नहीं है । पुरातत्त्व की खोजयात्रा शुरू हुई १९४६ ई. से । पहला पड़ाव बना नालन्दा (दक्षिण बिहार ) की उत्खनन सामग्री का परिदर्शन । १६५२ ई. में उन्होंने तात्या साहब चोपड़े की कृति 'भगवान ऋषभदेव' पढ़ी, जिसमें लेखक ने 'मोहन-जो-दड़ो' का प्रसंग उठाया है। पढ़ते ही उनका पुरातत्त्व- रुचि मृग कुलांचें भरने लगा और वे मोहन-जो-दड़ो के संदर्भ में जैन परम्परा और प्रमाणों का आकलन करने में जुट गये । ब्र. सीतलप्रसादजी की पुस्तिका 'बंगाल, बिहार, उड़ीसा के प्राचीन स्मारक' (१९२३ ई.) ने उनकी मनीषा को झकझोरा और वे १९५८ में उदयगिरि-खण्डगिरि तथा कलकत्ता- स्थित 'नेशनल लायब्रेरी' में अपनी ज्ञानपिपासा बुझाते रहे । १९५४ ई. में उन्होंने बम्बई पुरातत्त्व संग्रहालय देखा और इसी क्रम में १९७३ ई. में वे मथुरा के म्यूजियम में २-३ दिन रुके । ये ही कुछ कारण हैं कि पाषाण भी उनसे दिल खोल कर संवाद करते हैं और अपने मन के सारे भेद निःसंकोच प्रकट कर देते हैं। जिस निष्ठा से वे 'षट्खण्डागम' का स्वाध्याय करते हैं, हू-ब-हू वैसी ही निष्ठा से पुरातथ्यों की गहन / सूक्ष्मतर छानबीन करते हैं । प्रस्तुत कृति उनके ऐसे ही सिन्धु-मंथन की भव्य फलश्रुति है । 'मोहन-जो-दड़ो' के संदर्भ में उनका निष्कर्ष है : "सिन्धुघाटी में जैनों का व्यापक प्रभाव था, अतः इससे संबन्धित प्रमाणों और जैन वाङ्मयिक परम्पराओं की सूक्ष्मतर छानबीन की जानी चाहिये ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only मुनिश्री और जैन कीर्तिस्तम्भ (चित्तौड़ ) www.jainelibrary.org
SR No.003644
Book TitleMohan Jo Dado Jain Parampara aur Praman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandmuni
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1988
Total Pages28
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P035
File Size3 MB
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