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जैन परम्परा और प्रमाण
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मोहन -जो-दड़ो :
जैन परम्परा और प्रमाण
भारतीय जैन शिल्पकला का प्रयोजन क्या है और क्यों इसका इतना विकास हुआ - एक ऐसा विषय है, जिस पर काफी उन्मुक्त और युक्तियुक्त विचार होना चाहिये । जैनधर्म और दर्शन वैराग्यमूलक हैं; उनका सम्बन्ध अन्तर्मुख सौंदर्य से है । किन्तु यह जिज्ञासा सहज ही मन में उठती है कि क्या प्रन्तर्मुख सौंदर्य की कोई बाह्य अभिव्यक्ति संभव नहीं है ? कोई काष्ठ, धातु या पाषाण खण्ड अपने ग्राप बोल उठे, यह संभव ही नहीं है; क्योंकि यदि किसी पाषाण-काष्ठखण्ड आदि को शिल्पाकृति लेनी होती तो वह स्वयं वैसा कभी का कर चुका होता; किन्तु ऐसा है नहीं । बात कुछ और ही है । जब तक कोई साधक / शिल्पी अपनी भव्यता को पाषाण में लयबद्ध / तालबद्ध नहीं करता, तब तक किसी भी शिल्पाकृति में प्राण-प्रतिष्ठा असंभव है । काष्ठ, मिट्टी, पत्थर, काँसा, ताँबा - माध्यम जो भी हो - चेतन की तरंगों का रूपांकन जब तक कोई शिल्पी उन पर नहीं करता, वे गूँगे बने रहते हैं ।
मूर्ति जैनों के लिए साधना / आराधना का आलम्बन है । वह साध्य नहीं है, साधन है । उसमें स्थापना निक्षेप से भगवत्ता की परिकल्पना की जाती है । शिल्पी भी वही करता है । मोहन-जो-दड़ो में जो सीलें (मुद्राएँ ) मिली हैं, भी साधन हैं, साध्य नहीं हैं; मार्ग हैं, गन्तव्य नहीं हैं; किन्तु शिल्प और कला, वास्तु और स्थापत्य के माध्यम इतने सशक्त हैं कि उनके द्वारा परम्परा और इतिहास को प्रेरक, पवित्र और कालातीत बनाया जा सकता है ।
जैन स्थापत्य और मूर्ति - शिल्प का मुख्य प्रयोजन आत्मा की विशुद्ध को प्रकट करना और श्रात्मोत्थान के लिए एक व्यावहारिक/ सुमधुर भूमिका तैयार करना है; इसलिए सौंदर्य, मनोज्ञता, प्रफुल्लता, स्थितप्रज्ञता, एकाग्रता, आराधना, पूजा आदि के इस माध्यम को हम
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