Book Title: Mahopadhyaya Yashovijayjigani krut 101 Bol Sangraha Bhumika
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्रीयशोविजयजीगणिकृत १०१ बोलसंग्रह : भूमिका -सं. विजयशीलचन्द्रसूरि महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी गणि विद्ज्जगतमां दार्शनिक अने समर्थ तार्किक तरीके प्रख्यात छे, तो धर्मना अने जैनाचार-विचारना क्षेत्रमा तेओ सैद्धान्तिक पुरुष तरीके सर्वमान्य छे. सैद्धान्तिक विचारो अने तेनी प्ररूपणा// प्रतिपादनमां तेमनो बोल अकाट्य अने तेमणे करेलुं अर्थघटन निर्विवादपणे सर्वग्राह्य गणाय छे. तेओओ जैन सिद्धन्तोनुं यथार्थ अर्थघटन करतां अनेक ग्रन्थो रच्या छे. ते ग्रन्थोमां, विविध सिद्धान्तो परत्वे अन्य जैन विद्वानो साधुओए करेल प्ररूपणाओमा ज्यां पण विसंगति के वैपरीत्य होय लेने ते ओए अत्यंत सूक्ष्मेक्षिकाथी, सिद्धान्तनुं शुद्ध हार्द पकडीने, मध्यस्थभावे, ते ते विसंगतिओ अने वैपरीत्यो प्रत्ये अंगुलिनिर्देश करीने तेनुं निरसन कर्यु छे, अने शुद्ध मत/अर्थ- प्रतिपादन कयुं छे. "प्रस्तुत १०१ बोलसंग्रह" पण तेमनी आ ज प्रकारनी एक रचना छे. आ ग्रन्थ, केटलांक वर्षो अगाउ, आचार्य श्री यशोदेवसूरिजीना प्रयत्नथी छपायेल उपाध्याय यशोविजयजीनी अन्य चारेक रचनाओनी साथे, एक पुस्तक रूपे पालीताणा जैन साहित्य मन्दिरेथी प्रकाशित थयेल छे, जेमां तेनुं नाम "श्रीमद यशोविजयजी गणिवर्य द्वारा संग्रहीत १०८ बोलसंग्रह" एवं आपवामां आव्युं छे. ए प्रकाशनमां प्रथमना चार बोल नथी, अने ते विशे तेना प्रारंभे जे सूचना मूकवामां आवी छे. तेमां जणाव्युं छे के . "प्रस्तुत संग्रहकी पाण्डुलिपि का पहला पृष्ठ खो जाने अथवा नष्ट हो जाने के कारण क्रमांक १ से ४ तक के प्रश्न नहीं दिये गये है। यही कारण है कि इस ग्रन्थका आरम्भ पाँचवे बोलसे हो रहा है ।" । अहीं आ सूचना विशे एटलुं ज कहेवार्नु प्राप्त छे के एक ज प्रति ना आधारे तेनुं प्रकाशन करी देवानो मोह जतो करीने अन्यान्य ज्ञानभंडारोमां उपलब्ध थई शकती आ ग्रंथनी विविध प्रतिओ मेळवी होत तो उपर्युकत सूचना आपवी Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [m] पडी न होत, अने पूरा बोल आपी शकाया होत. वळी, ए प्रकाशनमां, आ ग्रंथनी समाप्ति पछी एवी टिप्पणी मूकी छे के ___ "यह ग्रन्थ १०१ बोल पर ही समाप्त हो जाता है। सभ्भवतः शेष बोलप्रारभ्भ के ५ बोलोंके समान ही मूल प्रतिमें नष्ट हो गये हैं ।" आ टिप्पणी साव निरर्थक एटला माटे छे के ए प्रकाशनमां ग्रंथनो अंत पण छे अने ते पछी कर्तानी तेमज लेखकनी पुष्पिका पण छे, जेथी स्पष्ट छे के ग्रंथ अधूरो नथी के तेनो अंतिम अंश नष्ट पण नथी. वस्तुतः आ ग्रंथ'' १०८ बोलसंग्रह" छे ज नहि; आ तो १०१ बोलसंग्रह" ज छे. आ मुद्दो, अहीं, कर्ताना स्वहस्ते लखाएली प्रतिना आधारे निःसंदेह सिद्ध थई शके छे. अने प्रसंगोपात्त ए पण स्पष्ट थर्बु घटे के आ ग्रंथ ए श्रीयशोविजयजी महाराजनी पोतानी रचना छे, पण तेमना द्वारा थयेलु संकलन के संग्रहमात्र नथी. अर्थात् संगृहीत नहि, पण विरचित छे. आ ग्रंथर्नु प्रकाशन, एकवार, उपर कयुं छे, तेम थई गयुं छे छतां अहीं तेनुं पुनः प्रकाशन करवानां कारणो ए छे के - १. पूर्व-प्रकाशनमा जे अंश नथी छपायो, ते अंश अहीं प्राप्त छे. २. जे प्रतिना आधारे आ वाचना तैयार थई छे ते प्रति ग्रंथकार श्रीयशोविजयजीए स्वहस्ते लखेल-ग्रंथना खरडारूप- छे, जेने कारणे वाचना एकदम शुद्ध अने पूर्ण मळे छे. ३. पूर्व-प्रकाशनमा आखी कृति अने तमाम (५ थी १००) बोलो अशुद्धप्राय तेमज घणा अंशो-वाक्यांशो वगेरे विना ज छपायेल छे. प्रस्तुत वाचनामां ते बधुं सहजपणे ज शुद्ध-पूर्ण जोवा मळशे. ४. पूर्व-प्रकाशननो आधार बनेली प्रति सं. १७४४मां कोई लेखके लखेली प्रति होई तेनी भाषा घणी बदलायेली छे. ज्यारे प्रस्तुत प्रति कर्तानी स्वहस्त होई तेनी भाषा तेमज जोडणी-बधुं असल रुपमा ज छे, अने ते ज रीते अत्रे प्रस्तुत पण थाय छे. १२मा बोलमां श्रीयशोविजयजी महाराजे विविध ग्रंथोना नामो टोक्या Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [23] छे, तेमां "समयसारसूत्रवृत्ति" नुं पण नाम छे. ते उपर टिप्पणी करतां पूर्वप्रकाशनना संपादके "इस प्रकारका गन्थ कौन सा है ? यह ज्ञात नहीं है। यहां जो साक्षी ग्रन्थ है वे श्वेताम्बरीय हैं । अत: 'समयसार' की कल्पना नहीं की जा सकती है।" आवी नोंध मूकी छे, जे बराबर नथी, अने संपादकनी ओछी सज्जतानुं सूचन आपे छे. “समयसार" नामे एक प्राकृत-गाथाबद्ध रचना श्वेतम्बराचार्यती पण छे, अने सम्भवतः यशोविजयजी तेने ज टांकता होय तेम जणाय छे. समग्रपणे ग्रन्थावलोकन करतां जणाय छे के उपाध्याय श्री धर्मसागरजी महाराजे पोताना ग्रन्थोमां जे केटलीक प्ररूपणाओ करी हती, तेने कारणे तेमणे गुरुओ तथा गच्छनायको वगेरेनो रोष वहोरवो पडेलो, माफीपत्रो आपवां पडेला अने पोताना अमुक ग्रन्थोने जलशरण पण करवा पडेला. छतां ते ग्रंथोनो प्रचार तेमना परिवार द्वारा शरु ज रह्यो होवाथी ते ग्रंथोनी अमान्य करवी पड़े तेवी वातोमां समाज अनाभोगे पण न खेंचाय, ते हेतुथी सैद्धान्तिक स्पष्टता करतो आ बोलसंग्रह श्रीयशोविजयजी महाराजे रच्यो छे, जे तेमना जेवी अतिसमर्थ प्रतिभा माटे ज शक्य अने न्याय्य छे. आ ग्रन्थनी कर्ताना स्वहस्ताक्षरनी प्रति मारा पूज्य गुरुजी श्री विजयसूर्योदयसूरिजीना संग्रहमांथी प्राप्त थई छे. तेना ८ पत्रो छे. दोडती कलमे लखायेला खरडा जेवी ओ प्रति छे, छतां शुद्ध छे. आ प्रतिना अंतमा “सम्यक्त्वनी दढता करवी सही" एम लखाण पूरूं थाय छे ते साथे ज कर्ताए स्वहस्ते १०८ एवो अंक लख्यो छे, जे १००-- आम पण वंचाय छे, अने १०८ एम पण वांची शकाय छे. संभव छे के आनी नकल करनाराओए १०८ वांच्यं होय अने ते परथी १०८ बोलसंग्रह एवं नाम प्रवत्र्यु होय. ग्रन्थान्ते कोई वर्ष, स्थल वगेरेनो उल्लेख नथी. प्रतिना आठमा पानानी बीजी पुंठी पर उपाध्यायजीए स्वहस्ते करेली विविध ढूंकाक्षरी के सांकेतिक शास्त्रीय नोंधो छे. पोताने कोई ठेकाणे उपयोगमां लेवाना पाठो के पदार्थो जड्या के सूझ्या होय तेनी आ नोंध करी राखी होय तेम लागे छे. अवसरे आ नोंध उकेलीने विद्वानो समक्ष मूकवानुं मन छे ज. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [24] "१०१ बोलसंग्रह' नी वाचना ऐं नमः ।। सर्वज्ञशतकादिकग्रंथ माहिला विरुद्ध बोल जे धर्मपरीक्षा ग्रंथमांहि देखाड्या छइ ते माहिला केतलाएक मतभेद जाणवान अधिं लिखिइ छइ ।। "उत्सूत्रभाषीनिं अनंतो ज संसार होइ" एहवू लिखू छइ ते न घटइ, जे महानिशीथादिक ग्रंथनिं विषइ अध्यवसायविशेषनी अपेक्षाइं तीर्थंकरनी महाआशातना करणहारनि संख्यातादिक ३ भेद संसार कहिओ छइ, तथा मरीचिप्रमुख उत्सूत्रभाषीनिं असंख्यातादिक संसार पणि शास्त्रिं छइ ॥ १ ॥ “निहनव तीर्थोच्छेदनी बुद्धिं उत्सूत्र भाषइ ते माटिं तेहनि अनंतो ज संसार होइ, यथाछंद ते रीति उत्सूत्र न भाषइ ते माटि तेहनि अनंत संसारनो नियम नहीं," एहवू लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे मार्टि यथाछंदनि पणि सूत्रोच्छेदनो परिणाम होइ अनि तीर्थोच्छेदनी परि सूत्रोच्छेद पणि भारे कहिओ छइ योगवीसी प्रमुख ग्रंथमां ॥ २ ॥ "नियत उत्सूत्र भाषइ तेह निह्नव, अनियत उत्सूत्र बोलइ ते यथाछंद" एहवू लिख्यूं छइ तिहां उत्सूत्रकंदकुद्दाल विना बीजा कोई ग्रन्थनी साखि नथी ॥३॥ "यथाछंदनि उत्सूत्र बोल्यानो निर्धार नथी " एहवू लिख्यूं छइ ते न मिलइ, जे मार्टि आवश्यकव्यवहारभाष्यादिक ग्रंथमां यथाछंद उत्सूत्रचारीनि उत्सूत्रभाषी ज कहिओ छइ ॥ ४ ॥ "नियत उत्सूत्रथी अनियत उत्सूत्र हलुउं ज होइ" एहवू कहइ छइ ते न घटइ, जे मार्टि एक जातिनि पापि हिंसादिक आश्रवनी परि नियतानियतभेदि फेर कहिओ नथी ।। ५ ।। "कीधां पापनूं प्रायश्चित्त तेहज भविं आवइ पणि भवांतरिं नावइ," एहवू लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे मार्टि पंचसूत्रचतुःशरणादिक ग्रंथनि अनुसार भवांतरनां पापनूं पणि प्रायश्चित्त जाणइ छइ ॥६॥ "अभव्यनि अनाभोगरूप एकज अव्यक्तमिथ्यात्व होइ गुणठाणुं न कहिइ", Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [25] एहवं व्यारव्यानविधि मां लिख्यूं छइ ते अयुक्त, जे मार्टि गुणस्थानक्रमारोहादिक ग्रंथइ अभव्यनिं व्यक्ताव्यक्त २ प्रकारि मिथ्यात्व कहिउं छइ ॥७॥ वली तिहां एहवूं लिख्यूं छइ, जे "एक पुदगलपरावर्त्त संसार शेष जेहनि होइ तेहनि ज व्यक्त मिथ्यात्व कहिइ" ते सर्वथा न घटइ, जे मार्टि तेहथी अधिक संसारी पणि पाखंडि व्यक्त मिथ्यात्वी ज कहिआ छइ अनें व्यक्त मिथ्यात्व ते गुणठाणुं छइ ॥ ८ ॥ "अनाभोगमिथ्यात्वि वर्त्तता जीव न मार्गगामी न वा उन्मार्गगामी कहिइ", एहवी कल्पना करि छइ ते कोइ ग्रंथि नथी अनि इम कहतां सघलई ३ राशि कल्पाइ ॥ ९ ॥ "अभव्य अव्यवहारिया मां" कहिया छइ ते उपदेशपदादिक ग्रंथ साथि तथा लोकव्यवहार साथि पणि न मिलइ ॥ १० ॥ व्यवहारिया तथा अव्यवहारिया (?) जीव सर्व, आवलिका असंख्येय भागसमयप्रमाण पुदगलपरावर्त्त पछी अवश्य मोक्षि जाइ, एहवूं लिख्यूं छई, तिहां कोइ ग्रंथनी साखि नथी । साहम् भुवनभानुकेवलिचरित्र, योगबिन्दु प्रमुख ग्रंथनी मेलि व्यवहारिया थया पछी अनंता पुलपरावर्त पणि दीसइ छइ ||११|| "सूक्ष्म पृथिव्यादिक ४ तथा निगोद २, ए छ भेद अव्यवहारिया कहिइ", एहवूं लिख्यूँ छइ ते न घटइ, जे मार्टि उपमितिभवप्रपंचा, समयसारसूत्रवृत्ति, भवभावनावृत्ति, श्राद्धदिनकृत्यवृत्ति, पुप्फमालावृत्ति, धर्मरत्नप्रकरणवृत्ति, संस्कृतनवतत्त्वसूत्रादिक ग्रंथनी मेलि प्रकट ज बादरनिगोदादिक व्यवहारिया जाणइ छइ, एक सूक्ष्मनिगोद ज अव्यवहारिया कहिया छइ ॥१२॥ "ए उपमितिभवप्रपंचादिकनां वचन, पत्रवणा साथि विरुद्ध अनाभोगपूर्वक एहवूं लिख्यूं छइ,” ते पूर्वाचार्यनी आशातनानूं वचन जिनशासननी प्रक्रिया जाणइ ते किम बोलइ ? ॥ १३ ॥ १. " तथा अव्यवहारिया" आटलो पाठ हांसियामां x आवुं चिह्न करीने कर्ताए मूक्यो छे पण ते क्यां उमेरको तेनुं सूचन/चिह्न जोवा मळतुं नथी; तेथी (2) साथे अहीं उमेरेल छे. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अभव्य व्यवहारियाथी तथा अव्यवहारियाथी बाह्य छइ, एहवू पणि व्याख्यानविधिशतकमां लिख्यूं छइ", ते पणि कल्पनामात्र ज जे माटइ अव्यवहार निगोदमां अभव्यनी विवक्षा नथी, आपातमात्रइ संभव हो तो हो, पणि बेहुथी बाह्य कल्पना नथी ॥ १४ ॥ "अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व आभिग्रहिक सरि आकरूं' एहवू तत्र ज लिख्यूं छइ ते पणि न घटइ, जे मार्टि योगबिन्दु प्रमुख ग्रंथि अनाभिग्रहिक आदि धर्मभूमिका गुणरूप दीसइ छइ ॥ १५ ॥ "मिथ्यात्वीनिं देवाराधन अध्यवसाय जीवहिंसादिक अध्यवसायथी पणि घणुं दुष्ट" एहवू सर्वज्ञशतक मां लिख्यूं छइ ए एकांत ग्रहवो ते खोटो, जे माटि आदि धार्मिकनि साधारणदेवभक्ति योगबिन्दु प्रमुख ग्रंथमां संसार-तरणनूं हेतु कही छइ ॥ १६ ॥ "मिथ्यात्वीना गुण ते सर्वथा ज गुणमां न गणिइ" एहवू कहइ छइ ते पणि न घटइ, जे मार्टि मिथ्यादृष्टिना गुण आवि ज, सू● पहिलूं गुणठाणु होइ, एहवू योगदृष्टिसमुच्चय ग्रंथमां कहिउं छइ ॥ १७ ॥ । "पर समयमां नही नि स्वसमयमां कही, एहवी ज क्रिया सुपात्रदान जिनपूजा, सामाइक प्रमुख मार्गानुसारिपणानुं कारण", एहवू कहिउं छइ, ते पणी एकांत न घटइ, [जे माटई उभयसंमत दयादानादिक क्रियाइं पणि मार्गानुसारिपणुं योगबिन्दु प्रमुख ग्रंथई कहिउं छई] ॥ १८ ॥ "उत्कर्षथी अपार्धपुदगलपरावर्त्त संसार शेष हो तेहमां मार्गानुसारी" एहवू लिख्यूं छइ ते पणि विचारवू, जे मार्टि उपदेशपदमां वचनौषधप्रयोगकाल चरमपुद्गलपरावर्त ज कहिओ छइ तथा योगबिंदु वीसविसी प्रमुख ग्रंथानुसारि पणि एक चरमपुदगलपरावर्त मार्गानुसारीनो काल जाणइ छइ ॥ १९ ॥ ___“सम्यक्त्वथी घणूं ढूकडो मार्गानुसारी होइ, ते संगम-नयसारादिक सरिखो ज पणि बीजो न कहिइ", एह, कहइ छइ ते न घटइ, जे मार्टि अपुनर्बंधक १, सम्यग्दृष्टी २, चारित्री ३ ए ३ शास्त्रि धर्माधिकारी कहिआ छइ, ते तो आप आपणइ लक्षणि जाणिइ पणि एक एकथी दूकडापणानो तंत नथी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m ते मार्टि जिम सम्यग्दृष्टी चारित्रथी वेगलो पणि पामिइ तिम मार्गानुसारी सम्यक्त्वथी वेगलो पणि होइ ते वातनी ना नहीं ॥ २० ॥ "मिथ्यात्वीनी क्रिया व्याधादिकना मनुष्यपणानि सरिखी" एहवू लिख्यूं छइ ते महाद्वेष, वचन, जे मार्टि अपुनर्बंधकना दयादिक गुण उपदेशपदादिक ग्रंथमां वीतरागनी सामान्यदेशनाना विषय कहिया छइ ॥ २१ ॥ "जैननी क्रियाइं अपुनर्बधक होइ पणि अन्यदर्शननी क्रियाई न होइ ज". एहवू जे कहइ छड् ते न मानवू, जे मार्टि समयग्दृष्टी स्वशास्त्रनी ज क्रियाई होइ अनि अपुनर्बंध अनेक बौद्धादिक शास्त्रनी क्रियाइं अनेक प्रकारनो होइ एहवू योगबिंदु प्रमुख ग्रंथि कहिउं छइ ।। २२ ॥ "असद्ग्रहपरित्यागेनैव तत्त्वप्रतिपत्तिर्मार्गानुसारिता' एहवं वंदारुवृत्ति कहउं छइ ते मार्टि जैनशास्त्रना तत्त्व जाण्या विना मार्गानुसारी न होइ ज" एहवो एकांत पणि न घटइ, जे मार्टि ए तंत ग्रहतां मेघकुमार हस्तिजीवनि पणि मार्गानुसारिपणु नावइ योग्यता लेहइ तो कोइ दोष नथी ॥ २३ ॥ "भगवती मां ज्ञानरहित क्रियावंत देशाराधक कहिओ छइ ते भांगानो स्वामी खारीनि टीकामां बालतपस्वी वखाण्यो छइ, ते मार्गानुसारी ज मिथ्यात्वी होइ ए अर्थ उवेखीनि ए भांगानो स्वामी द्रव्यक्रियावंत अभव्य जे कहइ छइ आपछंदइ ते न घटइ," जे मार्टि अभव्यादिकनि देशथीइ आराधकपणूं नथी व्यवहारिं आराधकपणूं तेहनि छइ" ते पणि न घटइ जे मार्टि ए मुग्धव्यवहार लेखामां नहीं लिंगव्यवहारनी परि क्रियाव्यवहार पणि अपुनर्बधकादि परिणाम विना पंचाशकादिक ग्रंथई निरर्थक कहिओ छइ ॥ २४ ॥ "निह्नवइ क्रियाज्ञा नथी भागी अनि सम्यक्त्वाज्ञा भागी छइ ते मार्टि ते देशाराधक तथा देशविराधक कहिइ" एहवू लिख्यूं छइ ते सर्वविरुद्ध, जे मार्टि ते सर्वथा आज्ञाबाह्य ज कहिया छइ ॥ २५ ॥ "जेहनि ज्ञान छतइ पाम्या चारित्रनो अंग होइ अथवा चारित्रनी अप्राप्ति होइ ते देशविराधक एहवू भगवती वृत्तिं लिख्यूं छइ तेहमां चारित्रनी अप्राप्ति देश विराधक न घटद" एहवू लिख्यूं छइ ते प्रकट पूर्वाचार्यनी आशातनानूं वचन, जे मार्टि परिभाषा लेतां कोई दोष नथी ॥ २६ ॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [28] सव्वप्पवायमूलं, दुवालसंगं जओ जिणक्खायं । रयणागरतुल्लं खलु, तो सव्वं सुंदरं तम्हि ।। (उ. ६९४) ए उपदेशपद गाथामां अन्यदर्शनमा पणि जीवदयादिक सुंदर वचन छ। ते दृष्टिवादनां, ते मार्टि तेहनी आशातनाई दृष्टिवादनी आशातना थाइ, एहवा अर्थ छइ ते ऊथाप्यो छइ ॥ २७ ॥ तेहनी वृत्तिमां - 'उदधाविवे' त्यादि काव्यनी साखि लिखी छइं ते अयुक्ती, एहवू कहिउं छइ ॥ २८ ॥ ते काव्यनो अर्थ फेरख्यो छइ ।। २९ ।। ___ "मिथ्यात्वीनी क्रिया - आंबाना फलना अर्थीनिं वटवृक्षसरिखी; चारित्ररहित ज्ञान पोसमासि आंबासरिखं" एहवू लिख्यू छइ तिहां ए ओछू जे अपुनबंधकादि क्रिया आंबाना बीजांकुरादिक सरिखी गणी नथी । श्रीहरिभद्रसूरिना घणा ग्रंथमां ए अर्थ प्रगट छइ ।। ३० ।।। "लौकिक मिथ्यात्वथी लोकोत्तर मिथ्यात्व भारी" एह लिख्यूं छइ एह पणि एकांत नथी; जे माटिं बंधनी अपेक्षाई लौकिक पणि भारे दीसइ छइ । योगबिंदुमां भिन्नग्रंथिर्नु मिथ्यात्व हलुङ कहिउं छइ अभिन्नग्रंथ- भारे कहिउं छइ ॥३१॥ "अनुमोदना तथा प्रशंसा ए २ भिन्न कहिइ" एहवू लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे माटिं पंचाशकवृत्ति प्रमुख ग्रंथि प्रमोदप्रशंसादिलक्षण अनुमोदना कही छइ ॥ ३२ ॥ . "मिथ्यादृष्टीना दयादिक गुण पणि न अनुमोदवा " एहवू कहइ ते न घटइ, जे मार्टि परसंबंधिया पणि दानरुचिपणा प्रमुख सामान्य धर्मना गुण अनुमोदवा योग्य कहिया छइ, आराधनापताकादिक ग्रंथिं तथा साधारणगुण प्रशंसा ए धर्मबिंदु सूत्रमा पणि लोक लोकोत्तर साधारण गुणनी प्रशंसा करवी कही छइ ॥ ३३ ॥ "मिथ्यात्वीना दयादिक गुण प्रशंसिइ पणि अनुमोदिइ नहि" एहवू कहइ छइ ते मायानुं वचन, जे मार्टि खरी प्रशंसाई अनुमोदना ज आवइ, अनि Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [29] खोटी प्रशंसानो तो विधि न होइ ।। ३४ ॥ "सम्यग्दृष्टी ज क्रियावादी होइ" एहवू कहइ छड् ते न घटइ, जे माटिं एक पुद्गलपरावर्त्त शेष संसार क्रियारुचि क्रियावादी कहिओ छई दशाचूर्णिण प्रमुख ग्रंथिं ॥ ३५ ॥ .. "मिथ्यात्वीनि दयादिक गुणि करि पणि सकामनिर्जरा न होइ" एहवृं लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे मार्टि मेघकुमार जीव हस्तिप्रमुखनि दयादिक गुणि संसार पातलो थयो ते सूत्रिं ज कहिउं छइ ते सकामनिर्जरा विना किम घटइ ? तथा मोक्षनि अथिं निर्जरा ते सकामनिर्जरा कही छइ ॥३६|| "कविला इत्थंपि अहयंपि" ए वचन मरीचीनी अपेक्षाई उत्सूत्र नहि, अनि कपिलनी अपेक्षाई उत्सूत्र, ते माटि उत्सूत्रमिश्र कहिइ "एह, लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे मार्टि इम करतां सिद्धान्तवचन पणि सम्यग्दृष्टी मिथ्यादृष्टीनी अपेक्षाई उत्सूत्रमिश्र थई जाइ तथा श्रुत भावभाषा मिश्र होइ ज नहीं एहवू दशवैकालिकनियुक्तिमा कहिउं छइ ।। ३७) "मरीचिनूं वचन दुर्भाषित कहिइ पणि उत्सूत्र न कहिइ" एहवू कहइ छइ ते न मिलइ, जे मार्टि पंचाशकवृत्तिं दुर्भाषितपदनो अर्थ उत्सूत्र कहिओ छइ ॥३८॥ "उत्सूत्रलेश मरीचिनूं वचन कहिउं छइ ते मार्टि उत्सूत्रमिश्र कहिइ" एहवू कहइ छइ ते न घटइ, जे मार्टि 'द्रव्यस्तवमां - भावलेश' पंचाशकादिक ग्रंथि कहिओ छड् ते पणि भावमिश्र होइ जाइ ॥ ३९ ॥ ___ "इयमयुक्ततरादुरन्तानन्तसंसारकारणम्" एहवू श्राद्धप्रतिक्रमणचूर्णि कहिउं छइ, तेहनो अर्थ एह-'' ए विपरीत प्ररूपणा घणूं अयुक्त दुरन्तानन्तसंसारनूं कारण, इहां एहq लिख्यूं छइ जे दुरन्तानन्त शब्दनो अर्थ न मिलइ 'दुरन्त'-ते जेहनो दुःखि अंत आवइ, 'अनंत' ते जेहनो अंत नावइ ए पूर्वाचार्यना ग्रंथ खंडियानी खोटी कल्पना, जे मार्टि 'दुरन्तानन्त' कहतां महानंत कहिइ "कालमणंतदुरंत" ए उत्तराध्ययनवचननी साखिं, इहां कोई दोष नथी ॥४०॥ ___ "जिनवचननो दूषनार जमालिनी परिं नाश पामइं अरघट्ट घटीयंत्र न्याई संसारचक्रवाल भमइ एहवू सूयगडांगनियुक्तिवृत्ति कहिउं छइ, ते मार्टि जमालिनिं Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [30] अनंतो ज संसार" एहवी कल्पना करइ छइ ते न घटइ, जे माटिं दृष्टांतमात्रिं साध्यसिद्धि नो हि, नर्हि तो उत्सूत्र प्ररूपणा अनंतसंसारहेतु कही छइ, तिहां श्राद्ध-प्रतिक्रमणचूर्णि श्राद्धविध्यादिक ग्रंथमां मरीचि दृष्टांत कहिओ छइ तेह भणी मरिचि पणि अनन्तसंसारी हुइ जाइ । तथा सूत्रविराधनाई अनंता जीव चतुरंत संसार भम्या जमालिनि परि एहवू नंदीवृत्तिमा कहिउं छइ ते भणि जमालिनि च्यारइ गति हुइ जोईइ ॥ ४१ ॥ "जमाली णं भंते ! देवे ताओ देवलोगाओ कहिं गच्छिहि कहिं उववज्जिहि । गो० । चत्तारि पंच तिरिक्खजोणिय मणुअ देवभवग्महणाई संसारं अणुपरिअट्टित्ता तओ पच्छा सिज्झिहिति" (श०९.३.३३) ए भगवती सूत्रमा 'चत्तारि पंच' कहतां ९ भेद तिर्यंचना लेईइ इम - अनंता भव जमालिनि थाइ एहवू लिख्यूं छइ ते न मिलई । जे मार्टि एहवो विषम अर्थ पूर्वि कइणि विवरिओ नथी तथा ९ भेद तिर्यंचमां पणि नियम अनंता भव आवइ नहीं ॥४२॥ कोइक तिर्यंचनी कायस्थिति लेई जमालिनि अनंता भव कहइ छइ ते पणि कल्पना मात्र, जे मार्टि सूत्रिं भवग्रहण ज कहियां छइ ॥ ४३ ॥ "च्युत्वा ततः पञ्चकृत्वो, भान्त्वा तिर्यग्नृनाकिषु । अवाप्तबोधिनिर्वाणं, जमालिः समवाप्स्यति ॥ १ ॥" ए हैमवीरचरित्रश्लोकमां एहवू कहिउं छइ जे जमाली तिहांथी चवी ५ वार तिर्यंचमनुष्यदेवतामा भमी मोक्ष जास्यइ । एहथी अनंता भव नथी जणाता, तिहां कोइ कहइ छइ जे ५ वार तिर्यंचमां भमतां अनंता भव थाइ ते न मिलइ, जे मार्टि भवग्रहणि भमतां अनंत भव न घटइ ॥ ४४ ॥ "देव-किब्बिसिया णं भंते ! ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चई चइता कहिं गच्छित कहिं उववज्जिति ? गो० जाव चत्तारि पंच णेश्यतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवभवग्गहणाई संसारं अणुपरिअट्टित्ता तओ पच्छा सिझंति बुझंति जाव अंतं करंति ।। (श० ९. उ, ३३) ए सामान्य सूत्रि सामान्यथी देव किल्बिषियानि 'चत्तारि पंच' शब्द थी For Private &Personal Use Only . Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [31] अथवा 'जाव' शब्दथी जिम अनंतो संसार लीजइ तिम जमालिनि सूत्रिं पणि 'जाव' शब्द 'ताव' शब्द बाहिरंथी लेइ अनंतो संसार कहवो एहवू लिख्यूं छइ, ते घणूं ज ताण्युं प्रतिभासइ छइ । तथा ए सामान्य सूत्रज एहवू पणि संभवतूं नथी, जे मार्टि- "अत्थेगइया अणादीयं अणवदागं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरिअटुंति" (श० ९. उ. ३३) ए सूत्र अनंत संसारनुं आगलि कहिउं छइ ते मार्टि पहिलुं सूत्र जमालि सरिखा देव किल्बिषियानूं ज संभवइ ।।४५।। "अत्थेगइया' ए सूत्र अभव्य विशेषनी अपेक्षाइं, जे मार्टि एहमां छेहडइ निर्वाण नथी कहिउं" एहवू लिख्यूं छइ ते पणि न घटइ , जे मार्टि असंवुडनि सूत्रइं पणि छेहडई निर्वाण कहिउं नथी तथा भव्यविषय पणि एहवां सूत्र घणां छइ ।। ४६ ॥ "तिर्यग्मनुष्यदेवेषु, भ्रान्त्वा स कतिचिद् भवान् । भूत्वा महाविदेहेषु, दूरान्निवृतिमेष्यति ॥" ए उपदेशमालानी कर्णिका श्लोकमां तिर्यंचमनुष्यदेवतामां केतलाएक भव करी जमालि मोक्ष जास्यइ एहवू कहिउं. छइ तेणि करी अनंता भव नावइ, तिहां कोइ कहइ छइ जे ए भव लोकनिंदित केतलाएक लीधां बीजां सूक्ष्म एकेन्द्रियादिकमां अनंता जाणवा",एह पणि घणुंज ताण्डे जणाइ छइ । जे माटि नाम लेई व्यक्ति भव कहिया ते थूल किम कहिइ, अनि थाकता अनंता भव पणि स्या थकी जाण्या ? || ४७ ॥ "कर्णिकामां दूरि मोक्षिं जास्यइ एहवू कहिउं ते मार्टि केतलाएक भवं कहिया तो पणि थाकता अनंता लेवा" एहवू लिख्यूं छइ ते पणि पोतानी ज इच्छाई, जे मार्टि " तिर्यक्षु कानपि भवानतिवाह्य कांश्चिद् .देवेषु चोपचितसञ्चितकर्मवश्यः । लब्ध्वा ततः सुकृतजन्म गृहे विदेहे, जन्मायमेष्यति सुखैकखनिर्विमुक्तिम् ।। ए सर्वानन्दसूरि-विरचितोपदेशमालावृत्तिमा 'दूर' पद विनापि केतलाएक ज भव कहिया छइ ॥४८ ।। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [2] सिद्धर्षीय हेयोपादेय उपदेशमालावृत्ति केतलीएक परति अनंता भव दीसइ छइ ते माटि ते परतिनी अपेक्षा तिम कहवी, पणि बीजा ग्रंथनी अपेक्षाई परिमित भव ज जमालिनि कहवा एहवू परमगुरुनूं वचन उवेखी अन्यथा एकांत अनंता भव जमालिनि कहइ छइ ते न घटइ ।। ४९ ॥ - "तिर्यग्योनिक' शब्द ज सिद्धान्तनी शीलीइं अनंत भवनो वाचक छइ, एहवू लिख्यूं छइ तिहां 'तिर्यग्योनीनां च' ए तत्त्वार्थसूत्रनी साखि दीधी छइ ते न घटइ, जे मार्टि तत्त्वार्थसूत्रमा कायस्थितिनि अधिकारिं तिर्यचनि अनंतकाल स्थिति लिखी छइ पणि तिर्यग्योनिक शब्द शीलीइं अनंता भव आवइं एहवू किहांइ कहिउं नथी ।। ५० ॥ "अशक्यपरिहार जीवविराधनाइं केवलीनिं जीवदयानो काययत्र नि:फल थाइ" एहवू लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे मार्टि देशना देतां अभव्यादिकनि विषई जिम केवलीनो वचनयत्न नि:फल न होइ तिम विहारादिक करतां काययत्न पणि जाणवो ॥ ५१ ॥ "तस्य असंचेय(य)उ, संचेययओ अ जाइं सत्ताई । जोगं पप्प विणस्संति, णात्थि हिंसाफलं तस्स ॥" ए ओघनियुक्ति गाथानो एहवो भाव छइ जे ज्ञानी कर्मक्षयनि अथिं उजमाल थयो तेहनिं यतना करतां पणि जीवनिं अणजाणवइ तथा जाणतां पणि यत्न करतां न राखी सकाई तेणिं करी तेहना योग पामी जे जीव विणसइ छ। तेहनूं हिंसाफल सांपरायिक कर्मबंधरूप नथी केवल ईर्याप्रत्यय कर्म बंधाइ इहां ज्ञानी ११ गुणठाणानो ज जे लिइ छइ तो न मिलइ, जे माटि समान्यथी ज ज्ञानी इहां कहिओ छइ अनि अशक्य परिहार तो योगद्वारांई केवलिनि पणि संभवइ ॥५२॥ "जीवरक्षोपायना अनाभोगथी ज यतीनिं जीवघात हुइ तेटल्यइ ते केवलीनि न होइ" एहवू कहइ छइ ते न घटइ, जे मार्टि ए रीति सहजि ज केवलीनि जीवरक्षा होइ तो पन्नवणामा ३६ पदि जीवकुल भूमि देखी केवलीनिं उल्लंघन प्रलंघन क्रिया कही छई ते न मिलइ ते आलावानो ए पाठ "कायजोगं जुंजमाणे आगच्छेज्ज वा मच्छेज्ज वा चिट्ठज्ज वा णिसीएज्ज Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [33] वा तुअट्टिएज्ज वा उल्लंघेज्ज वा पलंघेज्ज वा पाडिहारियं पीठफलगसेज्जासंथारं पच्चप्पिणत्ति" || ५३ ॥ वजनाभिप्राय छतइ अनाभोगि जीवघात तथा तत्कृतकर्मबंधाभाव यतीनिं होइ अनि वर्जनाभिप्राय तो पोतानि दुर्गतिहेतु कर्मबंध थातो जाणी होइ ते भय केवलीनिं नथी ते मार्टि वर्जनाभिप्राय नथी अनाभोगि जीवघात नथी ए कल्पना करी छइ ते खोटी, जे माटि अशुद्धाहारनी परि जीवहिंसाई पणि केवलोनिं स्वरूपिं वर्जनाभिप्राय होइ तथा अवश्यभावी जीवघात पणि संभवइ जिम यतीनि नदी ऊतरतां ॥५४॥ "वीतराग गर्हणीय पाप हिंसादिक किस्यूंइ न करइ, एहवू उपदेशपदमां कहिउं छइ, ते मार्टि द्रव्यहिंसा केवलीनि न होइ, जे माटि ते लोकदेखीति गर्हणीय छइ" ए वात कही छइ ते न मिलइ, जे माटि प्रतिज्ञाभंगिं ज गर्दा होइ पणि लोकगर्हाइं तंत नथी अनि अकरणनियमई अधिकारि उपदेशपद पदनूं वचन छइ ते भणी भावहिंसानो अकरणनियम ज केवलीनिं देखाड्यो छइ ॥५५।। "उपशांतमोहनिं मोहनीयकर्म छइ ते माटिं गर्हणीय हिंसा प्रतिसेवा होइ तो पणि मोहनीयना उदय विना उत्सूत्रप्रवृत्ति न होइ" एहवू लिख्यूं छइ ते न मिलइ, जे माटि प्रतिसेवीनिं उत्सूत्रप्रवृत्ति ज होइ तेथी अवश्यभावि-द्रव्य हिंसानि दोष न कहिइ तो ज ११ गुणठाणइ अप्रतिसेवीपणूं तथा सूत्रचारीपणूं घटइ ॥५६।। गर्हणीय पाप मोहनीयमूल ते उपशांतमोहताई ज हाइ, अनि अगहणीय पाप अनाभोगमूल आश्रवच्छायारूप क्षीणमोहनि पणि होई" एहवू लिख्यूं छइ ते कोइ ग्रंथस्यूं न मिलइ । आश्रवच्छाया कहतां आश्रव ज आवइ, ते तो अगर्हणीय तुम्हारि मति भावपाप छइ, तेहनी सत्ता क्षीणमोहनि कहतां घणूंज विरुद्ध दीसइ ॥ ५७ ॥ "मोहनीयकर्मना उदयथी भावाश्रव परिणाम होइ तेहनी सत्ताथी द्रव्याश्रव परिमाण होइ," एहवू कहइ छइ ते न घटइ जे मार्टि इम कहतां द्रव्यपरिग्रह पणि धर्मोपकरणरूप केवलीनि न जोईइ ॥ ५८ ॥ ___ एणि ज करी उदित चारित्रमोहनीय असंयतीनिं भावाश्रवकारण प्रमत्तसंयतर्नि पणि सत्तावति चारित्रमोहनीय द्रव्याश्रवनूं कारण तेहमां अयतना सहित रागद्वेष ज Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [34] प्रमाद गणिंइ तेहथी प्रमत्तसंबत लगइ द्रव्याश्रव होइ अनि अप्रमत्तनि मोहनीयअनाभोग २ थी ते होइइ, इत्यादिक कल्पना पणि निषेधी जाणवी । जे मार्टि अप्रमत्तनि द्रव्यपरिग्रहनि ठामि ए युक्ति न मिलइ तथा चारित्रमोहनीय सर्वनि उदयथी भावव कहिइ तो ४ गुणठाणादिकिं न घटइ। केतलाएकनो उदय लीजइ तो ते यतीनई पणि छइ ३ कषायनी उदयसत्तानी मेलिं भावव द्रव्याश्रवनो परिणाम कहिइ तो तेहनि क्षई छद्मस्थनि पणि द्रव्याश्रव न हुओ जोईइ, तथा प्रमादि भावाश्रव कहिओ छइ इत्यादिक न घटइ ।।५९॥ . "अयतनया चरन् प्रमादानाभोगाभ्यां प्राणिभूतानि हिनस्ति" एहवू दशवैकालिकवृत्तिमा कहिउ छइ ते माटिं प्रमाद अनाभोग विना केवलीनिं द्रव्यहिंसा न हुइ'' एहवी मूलयुक्ति कहइ छइ तेहज खोटी, जे माटिं अवश्यभाविहिंसानां ए कारण न कहियां । केवला अयतनानि उद्देशि ए कारण कहियां सघलइ ए हेतु लीजइं तो आकुट्टिकादिक भेद न मिलइ ।।६०।। "केवलीनि द्रव्यहिंसा होइ ते सर्व प्रकार जाणतां हिंसानुबंधी रौद्रध्यान हुइ'' एहवू कहइ छइ ते खोटुं, जे मार्टि इह कहतां द्रव्यपरिग्रह छइ तेहना सर्वप्रकार जाणतां संरक्षणानुबंधी रौद्रध्यान पणि न वारिउं जाइ ॥६१॥ प्रमत्तसंयत शुभयोगनी अपेक्षाइं अनारंभी, अशुभयोगनी अपेक्षाई आरंभी भगवतीसूत्रमा कहिया छइ. तिहां 'शुभयोग ते उपयोगि क्रिया, अशुभयोग ते अनुपयोगि' एहवं वृत्तिं कहिउं छइ ते ऊवेषी अशुभयोग अपवादि कहइ छइ ते प्रकट विरुद्ध, जे मार्टि जाणी मृषाघाद मायावत्तिया क्रिया भणी अप्रमत्तनि पणि प्रकट जाणई छइ तथा अपवादि पणि शास्त्ररीति बृहत्कल्पादिकिं शुद्धता ज कही छइ तो अशुभयोग किम कहिइ ।।६२।। "आरंभिकी क्रिया छ गुणठाणइ सदा होइ,' एह लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे मार्टि अन्यतरप्रमत्तनि कायदुःप्रयोगभावि ज आरंभिकी क्रिया पनवणासूत्रवृत्तिमां कही छइ ।। ६३ ।। "केवलीनि अपवाद नोहि ज' एहवू कहइ छइ ते न घटइ, जे मार्टि रात्रिं हिंडन, श्रुतव्यवहार प्रमाण राखवा निमित्त अनेषणीय आहारग्रहणादिक अपवाद केवलीनि पणि कहिया छइ ।। ६४ ॥ . Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [35] "ते अनेषणीय आहारग्रहण केवलीनिं साबध नथी ते मार्टि तेहथी अपवाद न होइ, अनि जो छद्मस्थ अनेषणीय जाणई तो केवली भोजन न करइ. केवलीनी अपेक्षाई व्यवहारशुद्धि इम न होइ ते भणी अत एव रेवती अशुद्ध जाणइ छइ ते भणी तेहनो कर्यो कोलापाक महावीरिं न लीधो" एहवी कल्पना कर छइ पणि निरर्थक, जे मार्टि रात्रिहिंडनादिक छद्मस्थ दुष्ट जाणइ छइ तो पणि भगवंति अपवादि आदरिउं छइ, तथा निषिद्ध वस्तुलाभ जाणी उत्तमपुरर्षि आदरी ते अदुष्ट कही अपवाद न कहिइ तो अपवाद किहाँइ न होइ ।। ६५ ।। "जाणीनिं जीवघात करइ तेहज आरंभक कहिइ" एहवू कहइ छइ ते न मिलइ, जे मार्टि इम कहतां एकेन्द्रियादिक सूत्रि आरंभि कहिया छइ ते न घटइ ॥६६॥ "आभोगि जीवहिंसा अवश्यभावीपणइ पणि यतीनि होइ ज. नदी ऊतरता जलजीव विराधना होइ छइ ते पणि सचित्तता निश्चय नथी ते भणी अनाभोग-जन्याशक्यपरिहारइं" एहवं कहइ छइ ते न घटइ, जे मार्टि व्यवहार सचित्तता न आदरिइ तो सघलइ शंका न मिटइ, तथा नदीमां अनंतकाय निश्चई सचित्तपणि छइ. आगमथी निश्चय थई पणि देख्या विना अनाभोग कहीइ तो विश्वासी पुरुषि कहिया जे वस्त्रादिकि अंतरित त्रसजीव तेहनी विराधनाइं पणि अनाभोग थाइ ॥६७॥ “यतीनि अनाभोगमूल ज हिंसा होइ तेहमां स्थावर सूक्ष्म त्रसनो अनाभोग केवलज्ञान विना न टलइ अनि कुंथुप्रमुख स्थूल सनो अनाभोग घणी यतनाई टलइ. अत एव नदी ऊतरतां जल संयम दुराराधन कहिओ पणि कुंथुनी उत्पत्ति कहिओ ते मार्टि नदी ऊतरतां जलजीवनि अनाभोगि संयम न भाजई" एहवी कल्पना करइ छइ ते खोटी, जे माटिं त्रसनी परि थावरनो आभोग पणि यतीनिं करवो कहिओ छइ. अत एव ८ .सूक्ष्मादिक जोवानी यतना दशवैकालिकग्रंथिं प्रसिद्ध छइ ॥६८॥ एजनादिक्रियायुक्तस्यारम्भाद्यवश्यम्भावाद् यदागमः "जाव णं एस जीवे एयइ वेयइ चलइ फंदईत्या. यावदारंभे वट्टई" त्यादि. एहवू प्रवचनपरीक्षाई लुंपकाधिकारिं कहिउं छइ अनि सर्वज्ञशतकमां Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलीनि अवश्यंभावीपणि आरंभ निषेध्यो छइ ए परस्पर विरुद्ध छइ ॥६९।। "विनापवाद जाणी जीवघात करइ ते असंयत हुइ" एहवू कहइ छइ ते खोटं, जे मार्टि अपवादि आभोगि हिंसाइं पणि जिम आशयशुद्धताथी दोष नहीं तिम अपवाद विना अशक्यपरिहार जीवविराधनाइं पणि आशयशुद्धताई ज दोष न होइ. नही तो विहारादिक क्रिया सर्व दुष्ट थाइ. सिद्धान्तथी विराधनानो निश्चय थई पोतानि अदर्शनमात्रि जो विहारादिक क्रियामां जे विराधना छइ ते अनाभोगि ज कहीइ तो निरंतर जीवाकुलभूमिका निर्धारी तिहां रात्रि विहार करतां विराधनानो अनाभोग कहवाइ ॥७०॥ "नदी ऊतरतां अभोगि जलजीवविराधना यतीनि हुइ तो जलजीवघाति विरतिपरिणाम खंडित होइ ते भणि देशविरति थाइ जाणीनि एकव्रतभंगि सर्वविरति रहइ तो सम्यग्दृष्टी सर्वनिं चारित्र लेतां बाधक न होइ'' एह कहइ छइ ते न घटइ, जे मार्टि नदी ऊतरतां द्रव्यहिंसाइ आज्ञाशुद्धपणइ ज दोष नथी. तथा सम्यग्दृष्टी योग्य जाणीनि ज चारित्र आदरइ जिम व्यापारी व्यापार प्रति प्रिछी थोड़ी खोटि होइ अनि संभाली लिइ तो बाधा नहीं पणि पहिला खोटिज जाणी कोई सबलो व्यापार आदरइ नहीं ते प्रीछवू ।। ७१ ॥ "अपवादिं जिननो उपदेश होइ पणि विधिमुखि आदेश न होइ" एहवू कहइ छइ ते खोटुं, जे मार्टि छेदग्रंथि अपवादि घणां विधिवचन दीसइ छइ ॥७२।। ___ "वस्त्रिं गलिउं ज पाणी पीव्र इहां पीवानो सावधपणा माटि विधि नहि पणि गलवानो ज विधि" एहवू कहइ छइ ते न मिलइ, जे माटि गालन पणि शस्त्र कहिउं छइ. यत : "उस्सिचगालणधोअणे य उवगरणकोसभंडे य । बायर आउक्काए, एयं तु समासओ सत्थं ॥ आचारांगसूत्रनिर्युक्तौ ।। (अ.१.नि.गा.११३) ।। ७३ ।। "द्रव्यहिंसाई द्रव्यथी हिंसा- पच्चक्खाण भाजइ'' एहवू कहइ छइ ते न घटइ, जे माटि धर्मोपकरण राखतां द्रव्यथी परिग्रहनु पच्चक्खाण भाजइ एहवू दिगंबरि कहिउं छइ. तिहां विशेषावश्यकि द्रव्य-क्षेत्र-कालथी भावनं ज पच्चवखाण Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [37] होइ पणि केवल द्रव्यथी भंग न होइ ए रीति समाधान करिउं छइ ।।७४।। "श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिमा हिंसानी चोभंगीमां 'द्रव्यथी तथा भावी न हिंसा मनोवाक्कायशुद्ध साधुनि' ए भांगो कहिओ छइ तेहनो स्वामी तेरमा गुणठाणानो धणी ज जे फलावइ छइ अनि चउदमा गुणठाणनो धणी निषेधइ छ। मनवचनकाययोग विना तेहथी शुद्ध न कहवाइ जिम वस्त्र विना वस्त्रि शुद्ध न कहिउ ते भणी" ते खोटुं, जिम जलनानि जलसंसर्ग टल्या पछी पणि जलिं शुद्ध कहिइ तिम अयोगीनि योग गया पछी पणि योगि शुद्ध कहिइ ते मार्टि साधु सर्वनि जिवारं द्रव्यहिंसा गुप्तिद्वाराई न हुइ तिवारिं चोथो भांगो घटइ ।।७५।। "द्रव्यहिंसा पणि हिंसादोषस्वरूप'' एहवू कहइ छइ ते न घटइ, "समितस्य-ईर्यासमितावुपयुक्तस्य या 'आहत्य' कदाचिदपि हिंसा भवेत्सा द्रव्यतो हिंसा, इयं च प्रमादयोगाभावात्तत्त्वतोऽहिंसैव मन्तच्या, 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा' इति वचनात् (गा. ३९३२ वृत्तिः) ए बृहत्कल्पवृत्ति वचनि अप्रमत्तनि द्रव्यथी हिंसा ते अहिंसा ज जाणइ छइ || ७६ ।। बृहत्कल्पनी भाष्यवृत्तिमां वस्त्रच्छेदनादि व्यापार करतां जीवहिंसा होइ, जे मार्टि 'जिहां ताइ जीव चालइ हालइ तिहां ताइ आरंभ होइ' एह भगवतीमां कहिउं छइ एहवू प्रेरकिं कहिउं ते उपरि समाधान करतां आचार्यि ते भगवती सूत्रना आलावानो अर्थ भिन्न न कहिओ केवल इमहज कहिउं जे आज्ञाशुद्धनि द्रव्यथी हिंसा ते हिंसामा ज न गणिइ । यत :-- "यदेवं 'योगवन्तं' च्छेदनादिव्यापारवन्तं जीवं हिंसकं त्वं भाषसे तन्निश्चीयते सम्यक्सिद्धान्तमजानत एवं प्रलापः । सिद्धान्ते योगमात्रप्रत्ययादेव न हिंसोपवर्ण्यते, अप्रमत्तसंयतादीनां सयोगिकेवलिपर्यन्तानां योगवतामपि तदभावादित्यादि" (गा. ३९९२ वृत्तिः) तथाऽत्र चाद्यभंगे हिंसायां व्याप्रियमाणकाययोगेऽपि भावत उपयुक्ततया भगवद्भिरहिंसक एवोक्त इत्यादि" (गा. ३९३४ वृत्तिः) । एणि करी जे इम कहइ छइ केवलीना योगथी द्रव्यहिंसा न होइ तेहनि मर्तिइ अप्रमत्तना योगथी ज द्रव्यहिंसा न हुई जोईइ. जे माटि पहिलइ चोथइ भंगि करी अप्रमत्तादिक सयोगिकेवली तांई सरिखा ज गण्या छइ. तथा अप्रमत्तनि ज द्रव्यहिंसा कहीं तेणिं करी प्रमत्तसंयतनि पणि जे द्रव्यहिंसा कहइ छड् ते Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1381 सिद्धान्तविरुद्ध इत्यादिक घणूं विचारवू |७७|| "जावं च णं एस जीवे सया समिएयइ वेयइ चलइ फंदइ जाव तं तं भावं परिणमइ तावं च णं एस जीवे आरभइ सारभइ समारभइ" इत्यादिक भगवती मंडियपुत्रना आलावामां . "इह जीवग्रहणेडपि सयोग एवासौ ग्राह्योऽयोगस्यजनादेरसभ्भवात्" ए वृत्तिवचन उल्लंघीनि सयोगि जीव केवलिव्यतिरिक्त लेवो एहवू लिख्यूं छइ तें प्रगट हठ जणाइ छइ ॥७८॥ "जिहां ताइ एजनादि क्रिया तिहां तांई आरंभादिक ३नो नियम न घटइ, ते माटि आरंभादिक शब्दि योगज कहिइ, योग हुइ तिहां ताइं अंतक्रिया न हुइ एहवो ए सूत्रनो अभिप्राय" एहवू कहइ छइ ते अपूर्वज पंडित, जे मार्टि ए अर्थ वृत्ति नथी. तथा आरंभादिक अन्यतर नियमनि अभिप्राई सूत्रि विरोध पणि नथी ए रीतिनां सूत्र बीजाई दीसइ छइ. तथा हि "जाव णं एस जीवे सया समियं एयइ जाव तं तं भावं परिणमइ ताव णं अट्ठविहबंधए वा सत्तविहबंधए वा छव्विहबंधए वा एगविहबंधए वा नो एं अबंधए" इत्यादिक तथा आरंभादिक ३ शब्दि एक योगनो अर्थ ए पणि न संभवइ इत्यादि विचारवू ७९॥ "तत्साक्षाज्जीवघातलक्षण आरम्भो नान्तक्रियाप्रतिबन्धकः, तदभावेऽन्तक्रियाया अभणनात्, प्रत्युताऽनिकापुत्राचार्य-गजसुकुमारादिदृष्टान्तेन सत्यामपि जीवविराधनायां केवलज्ञानान्तक्रिययोर्जायमानत्वात् कुतस्त-त्प्रतिबन्धकत्वशङ्काऽपि" (गा. २९ वृत्तिः ) ___ एहवू सर्वज्ञशतकमां लिख्यूं छई ते प्रकट स्वमतविरुद्ध ॥८०॥ शैलेश्यवस्थायां मशकादीनां कायसंस्पर्शेन प्राणत्यागेऽपि पञ्चधोपादानकारणयोगाभावानास्ति बन्धः, उपशान्तक्षीणमोहसयोगिकेवलिनां स्थितिनिमित्तकषायाभावात् सामायिक'' इत्यादिक आचारांगवृत्तिं कहिलं छइ. तथा "सेलेसिं पडिवनस्स जे सत्ता फरिसं पप्प उद्दायंति मसगादी । तन्थ कम्पबंधो पत्थि । सजोगिस्स कम्मबंधो दो समया" । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [39] एहवूं आचारांगचूर्णिमां कहिउं छइ तिहां चउदमिं गुणठाणइ योग नथी ते मार्टि तिहां केवलिकर्तृक मशकादिवध न होइ पणि मशकादिकर्तृक ज होइ, तद्गतापादानकर्मबन्धकार्यकारणभावप्रपंचनिं अर्थि ए ग्रंथ छइ एहवी कल्पना करइ छइ ते खोटी, जे मार्टि सामान्यथी साधुनिं अवश्यभाविजीवघातनि अधिकारिं ज ए ग्रंथ चाल्यो छइ. तथा चउदमिं गुणठाणइ मशकादिकर्तृक ज मशकादिघात कहिइ तो पहिला पणि तेहवो ते होइ युक्ति सरिखी छइ ते माटिं मोहनीयकर्म होइ तिहां तांइं जीवघातकर्ता कहिइ एह वचन पणि प्रमाणिक नहि, जे मार्टि प्रमादि ज प्राणातिपातकर्ता कहिओ छड़ इत्यादिक इहां घणूं विचारखूं ॥८१॥ "प्राई असंभवी कदाचित् संभवइ ते अवश्यभावी कहिइ एहवो जीवघात अनाभोगि छद्मस्थसंयतनि होइ पणि केवलीनिं न होइ " एहवूं कहइ छइ ते न घटइ, जे माटिं अनभिमतपणइ पणि अवर्जनीय ते अवश्यभावी कहिइ तेहवो द्रव्यवध अनाभोग विणा पणि संभवइ जिन यतीनि नदी उतरतां ॥८२॥ "केवलीना योग ज जीवरक्षानुं कारण" एहवूं कहइ छइ तेहनि मति चउदमइ गुणठाणइ जीवरक्षाकारणयोग गया ते माटि हीनपणूं थयूं जोईइ ॥८३॥ "केवलीनिं बादरवायुकाय लागइ तिवारिं तथा नदी उतरतां अवश्यभाविनी जीवविराधना थाइ तिहां जे एहवूं कल्पइ छड् बादरवायुकाय अचित्तज केवलीनिं लागइ तथा नदी ऊतरतां केवलीनिं जल अचित्तपणइ ज परिणमइ" तिहां कोइ प्रमाण नथी, केवल योगनो ज एहवो अतिशय कहिइ तो उल्लंघन - प्रलंघनप्रतिलेखनादि व्यापारसूं निरर्थकपणुं थाइ ॥ ८४ ॥ एणि ज करी ए कल्पना निषेधि जे केवली गमनादिपरिणत होइ तिवारिं आपि ज कीडी प्रमुख जीव ओसरइ अथवा ओसरिया होइ पणि केवलीनी क्रियाई प्रेरी क्रिया न करइ, जे मार्टि इम कहतां जीवाकुल भूमि देखी केवलीनिं उल्लंघनादि व्यापार पत्रवणामांहि कहिओ छइ ते न मिलइ तथा वस्त्रप्रतिलेखना पणि न मिलइ ॥८५॥ " अभयदयाणं ए सूत्रनी मेलि भगवंतना शरीरथी जीवनिं सर्वथा भय न उपजइ" एहवूं कहइ छइ ते न मिलइ, जे मार्टि भगवंत वस्त्रादिकथी जीव अलगा मूकइ तेहनि भय विना अपसरण न संभवइ तथा 'अभयदयाणं' ए वचनि Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलिशरीरथी कोइनिं भय न ऊपजइ एहवू कल्पि तो 'मंता मतिमं अभयं विदित्ता' इत्यादिक सूत्रनी मेलि यतीमात्रना शरीरथी जीवनिं भय उपजवो न घटइ ॥ ८६ ॥ श्रीवर्धमाननि देखीनि हाली नाठो तिहां कोइ इम कल्पना करइ छड् जे "तिहां हालीना योग कारण, पाणि भगवंतना योग कारण नहि'' ते अति खोटुं, जे मार्टि 'भगवंतं दळूण धमधमेइ' एह व्यवहारचूणि कहिइं छइ तेहनि अनुसारि भगवंतना योग ज तिहां कारण जाणइ छइ तथा अन्यकर्तृक भय तेरमिं गुणठाणिं होइ तो चउदमा गुणठाणानी परि अन्यकर्तृक हिंसा पणि हुई जाईइ ते तो स्वमत विरुद्ध १८७|| 'सव्वजियाणमहिंसं' इत्यादिक सूत्रनी मेलिं जे केवलीनि अवश्यभाविनी हिंसा ऊथापइ छइ तेहनि मतिं हिंसाइदोससुन्ना इत्यादिक सूत्रनी मेलिं सामान्य साधुनिं पणि ते ऊथापी जोईइ ।।८८॥ "जलचारणादिक लब्धिमंत यतीनिं जलादिकमां चालतां जलादिक जीवनो घात ज न होइ तो सर्वलब्धिसंपन्न केवलीनिं ते किम हुइ'' एहबूं कहइ छइ ते न घटइ, जे माटि लब्धिफल सर्व केवलीनि छइ तो हि पणि लब्धिप्रयोग नथी ॥८९॥ "घातिकर्मक्षयथी ऊपनी जीवरक्षाहेतु लब्धि प्रयुज्या विना ज केवलीनिं हुइ' एहवू मानइ छइ तेहनि मतिं चउदमि गुणठाणइ मशकादिकर्तृक मशकादिवध मान्यो छइ तेह पणि न मिलइ, नहीं तो तेमि गुणठाणइ पणि तेहवो ते मान्यो जोईइ ॥९०| "द्रव्यहिंसाई केवलीनिं १८ दोषरहितपणूं न घटइ'" एहवू कहइ छइ तेहनि मतिं द्रव्यपरिग्रह छतां पणि १८ दोषरहितपणूं न मिलइ ॥९१॥ "प्राणातिपात मृषावादादि छद्मस्थलिंग मोहनीय अनाभोगमा एकइ विना न हुइ ते मार्टि बारमि गुणठाणइ मृषा भाषा कर्मग्रंथादिकमां कही छई स संभावनारूढ जाणवी,' एहयूं कहइ छइ तेहनि पूछवू जे द्रव्यभाव विना संभावनारूढ त्रीजो किहां कहिओ छइ कालशूकरिकनि कल्पित हिंसानी परि ए संभावनारूढ मृषावाद लेवो एहवू लिख्यूं छइ तेहनि अनुसारिं तो अंतरंग भावभृषावाद ज बारमइ गुणठाणइ आवइ ।।१२।। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "प्रतिलेखना प्रमार्जनादिक क्रिया क्षुद्रजंतु भयोत्पादकपणइ अपवादकल्प कहिइ ते छद्मस्थनूं लिंग केवलीनिं न होइ,' एहवू कहइ छइ ते न घटइ, ते (जे) मार्टि उत्सर्ग अपवाद टाली त्रीजो अपवादकल्प किहांइ कहिओ नथी. इच्छांइ ३ भेद कल्पि उत्सर्गकल्पनामि चोथो भेद कल्पतां पणि कुण ना कहइ ? तथा केवलिव्यवहारानुसार प्रतिलेखनादिक क्रिया पणि केवलीनि छइ ते प्रीछवू ।। ९३ ॥ "बिलवासी मनुष्य पणि जातिस्मरणादिकिं मांसभक्षण अतिनिंदित जाणी परिहरइ छइ, ते मार्टि मांसभक्षणथी सम्यक्त्वनो नाश ज होइ' एहवू लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे माटिं मांसभक्षणनी परि परदारागमन पणि महानिंदित छइ तेहथी सत्यकिविद्याधर प्रमुखनि जो सम्यक्त्व न गयुं तो मांसभक्षणथी कृष्णादिकनुं सम्यक्त्व न जाइ तिहां बाधक नथी ।। ९४ ।। "मांसाहार नरकायुर्बन्धस्थानक छइ ते माटि तेहनी अनिवृत्तिं सम्यक्त्व न होई" एहवू लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे माटिं महारंभ-परिग्रहादिक पणि नरकायुबंधस्थानक छइ तेहनी अनिवृत्तिं प्रति जिम कृष्णादिकनि सम्यक्त्व छइ तिम मांसभक्षणनी अनिवृत्ति पणि सम्यक्त्व होइ तिहां बाधक नथी ।। ९५ ।। "तए णं से दुवए राया कंपिल्लपुरं णगरं अणुप्पविसइ अणुप्पविसित्ता विपुलं असणं ४ उवक्खडावेइ उवक्खडावित्ता कोडंबिय पुरिसे सदावेइ सद्दावेत्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुब्भे देवापुप्पिया ! विपुलं असणं ४ सुरं मज्जं मंसं पसन्नं च सुबहुपुप्फफलवत्थगंधमल्लालंकारं च वासुदेवपामोक्खार्ण रायसहस्साणं आवासेसु साहरह ते वि साहरति तए णं ते वासुदेवप्पामोक्खा विपुलं असणं ४ जाव पसन्नं असाएमाणा विहर(रं)ति" (ज्ञा.सू.१९८) ए षष्ठांगसूत्रवर्णनमात्र ज एहवू लिख्यूं छइ'' इम सद्दहतां नास्तिकपणूं थाइ, जे माटि स्वर्गादि सूत्र पणि वर्णनमात्र कहतां कुण ना कहइ ? ॥ ९६ ।। "ए सूत्रमा वासुदेवनि मांसपरिभोग ते आज्ञा द्वारांइं जाणवो. आज्ञा पणि ते ते अधिकारीनी द्वाराई, पणि साक्षात् नहि' एहवी कल्पना करी छइ ते न घटइ. जे मार्टि आस्वादक्रियानो अन्वय वासुदेवप्रमुखनि कहिओ छइ तेहमांथी वासुदेवनि आज्ञाद्वाराई आस्वादनक्रियानो अन्वय कहिइ तो वाक्यभेद थाइ एहवी कल्पना Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [2] शास्त्रज्ञ न करइ // 97|| "विधिप्रतिष्ठित ज प्रतिमा जुहारवी ते तपागच्छनी ज पणि गच्छतरनी नहीं" एहवू कहइ छइ त न घटइ, जे मार्टि प्रतिष्ठादिकनी सर्व विधि जोतां हवणां प्रतिमा वंदननूं दुर्लभपणूं होइ. तथा श्राद्धविधिमां आकारमात्रि सर्व प्रतिमा वांदवाना अक्षर पणि छइ अविधिचैत्य वांदतां पणि विधिबहुमानादिक होइ तो अविधिदोष निरनुबंध हुइ इत्यादिक श्रीहरिभद्रसूरिना ग्रंथनि अनुसारिं जाणवू // 98 // "गच्छांतरनो वेषधारी जिम वांदवा योग्य नहि तिम गच्छांतरनी प्रतिमा वांदवा योग्य नहीं" एहवू कहइ छइ ते न घटइ, जे मार्टि लिंगमां गुणदोषविचारणा कही छइ पणि प्रतिमा सर्वशुद्धरूप ज कही. यतः "जइविय पडिमाउ जहा मुणिगुणसंकप्पकारणं लिंगं / उभयमवि अस्थि लिंगे ण य पडिमासूभयं अत्थि 11 // " -वंदनकनियुक्तौ // 99 // जा जयमाणस्स भवे विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स / सा होइ णिज्जरफला अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स / / 1 // ए गाथामां अपवादपदप्रत्यय विराधना निर्जराहेतु होइ, एहवू पिंडनियुक्तवृत्ति विवरिउं छइ ते ऊवेषीनिं जे इम कल्पइ छइ जे इहां विराधना निर्जराप्रतिबंधक नथी जीवघातपरिणामजन्यपणानि अभावि वर्जनाभिप्रायोपाधिनी अपेक्षाई दुर्बल छइ ते वती, ते खोटुं, जे मार्टि ए कल्पनांई कदाचि अनाभोगहिंसा अदुष्ट आवइ पणि अपवादनी हिंसा अदुष्ट नावइ तिवारिं मलयगिरि आचार्यना साथि विरोध थाइ ते विचार || 100 // "दृष्टमंडलनि विषइ जे साधु दीसइ छइ तपगच्छना ते यली बीजइ क्षेत्रि साधु नथी" एहवू कहइ छइ ते न मिलइ. जे मार्टि महानिशीथदुःखमास्तोत्रादिकनि अनुसारि क्षेत्रांतरि साधुसत्ता संभवइ एहवू परमगुरुनूं वचन छइ // 101 // इत्यादिक घणा बोल विचारवाना छइ ते सुविहित गीतार्थना वचनथी निर्धारीनिं सम्यक्त्वनी दृढता करवी सही // 101 //