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[33] वा तुअट्टिएज्ज वा उल्लंघेज्ज वा पलंघेज्ज वा पाडिहारियं पीठफलगसेज्जासंथारं पच्चप्पिणत्ति" || ५३ ॥
वजनाभिप्राय छतइ अनाभोगि जीवघात तथा तत्कृतकर्मबंधाभाव यतीनिं होइ अनि वर्जनाभिप्राय तो पोतानि दुर्गतिहेतु कर्मबंध थातो जाणी होइ ते भय केवलीनिं नथी ते मार्टि वर्जनाभिप्राय नथी अनाभोगि जीवघात नथी ए कल्पना करी छइ ते खोटी, जे माटि अशुद्धाहारनी परि जीवहिंसाई पणि केवलोनिं स्वरूपिं वर्जनाभिप्राय होइ तथा अवश्यभावी जीवघात पणि संभवइ जिम यतीनि नदी ऊतरतां ॥५४॥
"वीतराग गर्हणीय पाप हिंसादिक किस्यूंइ न करइ, एहवू उपदेशपदमां कहिउं छइ, ते मार्टि द्रव्यहिंसा केवलीनि न होइ, जे माटि ते लोकदेखीति गर्हणीय छइ" ए वात कही छइ ते न मिलइ, जे माटि प्रतिज्ञाभंगिं ज गर्दा होइ पणि लोकगर्हाइं तंत नथी अनि अकरणनियमई अधिकारि उपदेशपद पदनूं वचन छइ ते भणी भावहिंसानो अकरणनियम ज केवलीनिं देखाड्यो छइ ॥५५।।
"उपशांतमोहनिं मोहनीयकर्म छइ ते माटिं गर्हणीय हिंसा प्रतिसेवा होइ तो पणि मोहनीयना उदय विना उत्सूत्रप्रवृत्ति न होइ" एहवू लिख्यूं छइ ते न मिलइ, जे माटि प्रतिसेवीनिं उत्सूत्रप्रवृत्ति ज होइ तेथी अवश्यभावि-द्रव्य हिंसानि दोष न कहिइ तो ज ११ गुणठाणइ अप्रतिसेवीपणूं तथा सूत्रचारीपणूं घटइ ॥५६।।
गर्हणीय पाप मोहनीयमूल ते उपशांतमोहताई ज हाइ, अनि अगहणीय पाप अनाभोगमूल आश्रवच्छायारूप क्षीणमोहनि पणि होई" एहवू लिख्यूं छइ ते कोइ ग्रंथस्यूं न मिलइ । आश्रवच्छाया कहतां आश्रव ज आवइ, ते तो अगर्हणीय तुम्हारि मति भावपाप छइ, तेहनी सत्ता क्षीणमोहनि कहतां घणूंज विरुद्ध दीसइ ॥ ५७ ॥
"मोहनीयकर्मना उदयथी भावाश्रव परिणाम होइ तेहनी सत्ताथी द्रव्याश्रव परिमाण होइ," एहवू कहइ छइ ते न घटइ जे मार्टि इम कहतां द्रव्यपरिग्रह पणि धर्मोपकरणरूप केवलीनि न जोईइ ॥ ५८ ॥
___ एणि ज करी उदित चारित्रमोहनीय असंयतीनिं भावाश्रवकारण प्रमत्तसंयतर्नि पणि सत्तावति चारित्रमोहनीय द्रव्याश्रवनूं कारण तेहमां अयतना सहित रागद्वेष ज
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