________________
[2] सिद्धर्षीय हेयोपादेय उपदेशमालावृत्ति केतलीएक परति अनंता भव दीसइ छइ ते माटि ते परतिनी अपेक्षा तिम कहवी, पणि बीजा ग्रंथनी अपेक्षाई परिमित भव ज जमालिनि कहवा एहवू परमगुरुनूं वचन उवेखी अन्यथा एकांत अनंता भव जमालिनि कहइ छइ ते न घटइ ।। ४९ ॥
- "तिर्यग्योनिक' शब्द ज सिद्धान्तनी शीलीइं अनंत भवनो वाचक छइ, एहवू लिख्यूं छइ तिहां 'तिर्यग्योनीनां च' ए तत्त्वार्थसूत्रनी साखि दीधी छइ ते न घटइ, जे मार्टि तत्त्वार्थसूत्रमा कायस्थितिनि अधिकारिं तिर्यचनि अनंतकाल स्थिति लिखी छइ पणि तिर्यग्योनिक शब्द शीलीइं अनंता भव आवइं एहवू किहांइ कहिउं नथी ।। ५० ॥
"अशक्यपरिहार जीवविराधनाइं केवलीनिं जीवदयानो काययत्र नि:फल थाइ" एहवू लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे मार्टि देशना देतां अभव्यादिकनि विषई जिम केवलीनो वचनयत्न नि:फल न होइ तिम विहारादिक करतां काययत्न पणि जाणवो ॥ ५१ ॥
"तस्य असंचेय(य)उ, संचेययओ अ जाइं सत्ताई ।
जोगं पप्प विणस्संति, णात्थि हिंसाफलं तस्स ॥" ए ओघनियुक्ति गाथानो एहवो भाव छइ जे ज्ञानी कर्मक्षयनि अथिं उजमाल थयो तेहनिं यतना करतां पणि जीवनिं अणजाणवइ तथा जाणतां पणि यत्न करतां न राखी सकाई तेणिं करी तेहना योग पामी जे जीव विणसइ छ। तेहनूं हिंसाफल सांपरायिक कर्मबंधरूप नथी केवल ईर्याप्रत्यय कर्म बंधाइ इहां ज्ञानी ११ गुणठाणानो ज जे लिइ छइ तो न मिलइ, जे माटि समान्यथी ज ज्ञानी इहां कहिओ छइ अनि अशक्य परिहार तो योगद्वारांई केवलिनि पणि संभवइ ॥५२॥
"जीवरक्षोपायना अनाभोगथी ज यतीनिं जीवघात हुइ तेटल्यइ ते केवलीनि न होइ" एहवू कहइ छइ ते न घटइ, जे मार्टि ए रीति सहजि ज केवलीनि जीवरक्षा होइ तो पन्नवणामा ३६ पदि जीवकुल भूमि देखी केवलीनिं उल्लंघन प्रलंघन क्रिया कही छई ते न मिलइ ते आलावानो ए पाठ
"कायजोगं जुंजमाणे आगच्छेज्ज वा मच्छेज्ज वा चिट्ठज्ज वा णिसीएज्ज
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org