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"ते अनेषणीय आहारग्रहण केवलीनिं साबध नथी ते मार्टि तेहथी अपवाद न होइ, अनि जो छद्मस्थ अनेषणीय जाणई तो केवली भोजन न करइ. केवलीनी अपेक्षाई व्यवहारशुद्धि इम न होइ ते भणी अत एव रेवती अशुद्ध जाणइ छइ ते भणी तेहनो कर्यो कोलापाक महावीरिं न लीधो" एहवी कल्पना कर छइ पणि निरर्थक, जे मार्टि रात्रिहिंडनादिक छद्मस्थ दुष्ट जाणइ छइ तो पणि भगवंति अपवादि आदरिउं छइ, तथा निषिद्ध वस्तुलाभ जाणी उत्तमपुरर्षि आदरी ते अदुष्ट कही अपवाद न कहिइ तो अपवाद किहाँइ न होइ ।। ६५ ।।
"जाणीनिं जीवघात करइ तेहज आरंभक कहिइ" एहवू कहइ छइ ते न मिलइ, जे मार्टि इम कहतां एकेन्द्रियादिक सूत्रि आरंभि कहिया छइ ते न घटइ
॥६६॥
"आभोगि जीवहिंसा अवश्यभावीपणइ पणि यतीनि होइ ज. नदी ऊतरता जलजीव विराधना होइ छइ ते पणि सचित्तता निश्चय नथी ते भणी अनाभोग-जन्याशक्यपरिहारइं" एहवं कहइ छइ ते न घटइ, जे मार्टि व्यवहार सचित्तता न आदरिइ तो सघलइ शंका न मिटइ, तथा नदीमां अनंतकाय निश्चई सचित्तपणि छइ. आगमथी निश्चय थई पणि देख्या विना अनाभोग कहीइ तो विश्वासी पुरुषि कहिया जे वस्त्रादिकि अंतरित त्रसजीव तेहनी विराधनाइं पणि अनाभोग थाइ ॥६७॥
“यतीनि अनाभोगमूल ज हिंसा होइ तेहमां स्थावर सूक्ष्म त्रसनो अनाभोग केवलज्ञान विना न टलइ अनि कुंथुप्रमुख स्थूल सनो अनाभोग घणी यतनाई टलइ. अत एव नदी ऊतरतां जल संयम दुराराधन कहिओ पणि कुंथुनी उत्पत्ति कहिओ ते मार्टि नदी ऊतरतां जलजीवनि अनाभोगि संयम न भाजई" एहवी कल्पना करइ छइ ते खोटी, जे माटिं त्रसनी परि थावरनो आभोग पणि यतीनिं करवो कहिओ छइ. अत एव ८ .सूक्ष्मादिक जोवानी यतना दशवैकालिकग्रंथिं प्रसिद्ध छइ ॥६८॥
एजनादिक्रियायुक्तस्यारम्भाद्यवश्यम्भावाद् यदागमः
"जाव णं एस जीवे एयइ वेयइ चलइ फंदईत्या. यावदारंभे वट्टई" त्यादि. एहवू प्रवचनपरीक्षाई लुंपकाधिकारिं कहिउं छइ अनि सर्वज्ञशतकमां
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