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केवलीनि अवश्यंभावीपणि आरंभ निषेध्यो छइ ए परस्पर विरुद्ध छइ ॥६९।।
"विनापवाद जाणी जीवघात करइ ते असंयत हुइ" एहवू कहइ छइ ते खोटं, जे मार्टि अपवादि आभोगि हिंसाइं पणि जिम आशयशुद्धताथी दोष नहीं तिम अपवाद विना अशक्यपरिहार जीवविराधनाइं पणि आशयशुद्धताई ज दोष न होइ. नही तो विहारादिक क्रिया सर्व दुष्ट थाइ. सिद्धान्तथी विराधनानो निश्चय थई पोतानि अदर्शनमात्रि जो विहारादिक क्रियामां जे विराधना छइ ते अनाभोगि ज कहीइ तो निरंतर जीवाकुलभूमिका निर्धारी तिहां रात्रि विहार करतां विराधनानो अनाभोग कहवाइ ॥७०॥
"नदी ऊतरतां अभोगि जलजीवविराधना यतीनि हुइ तो जलजीवघाति विरतिपरिणाम खंडित होइ ते भणि देशविरति थाइ जाणीनि एकव्रतभंगि सर्वविरति रहइ तो सम्यग्दृष्टी सर्वनिं चारित्र लेतां बाधक न होइ'' एह कहइ छइ ते न घटइ, जे मार्टि नदी ऊतरतां द्रव्यहिंसाइ आज्ञाशुद्धपणइ ज दोष नथी. तथा सम्यग्दृष्टी योग्य जाणीनि ज चारित्र आदरइ जिम व्यापारी व्यापार प्रति प्रिछी थोड़ी खोटि होइ अनि संभाली लिइ तो बाधा नहीं पणि पहिला खोटिज जाणी कोई सबलो व्यापार आदरइ नहीं ते प्रीछवू ।। ७१ ॥
"अपवादिं जिननो उपदेश होइ पणि विधिमुखि आदेश न होइ" एहवू कहइ छइ ते खोटुं, जे मार्टि छेदग्रंथि अपवादि घणां विधिवचन दीसइ छइ ॥७२।।
___ "वस्त्रिं गलिउं ज पाणी पीव्र इहां पीवानो सावधपणा माटि विधि नहि पणि गलवानो ज विधि" एहवू कहइ छइ ते न मिलइ, जे माटि गालन पणि शस्त्र कहिउं छइ. यत :
"उस्सिचगालणधोअणे य उवगरणकोसभंडे य । बायर आउक्काए, एयं तु समासओ सत्थं ॥ आचारांगसूत्रनिर्युक्तौ ।।
(अ.१.नि.गा.११३) ।। ७३ ।। "द्रव्यहिंसाई द्रव्यथी हिंसा- पच्चक्खाण भाजइ'' एहवू कहइ छइ ते न घटइ, जे माटि धर्मोपकरण राखतां द्रव्यथी परिग्रहनु पच्चक्खाण भाजइ एहवू दिगंबरि कहिउं छइ. तिहां विशेषावश्यकि द्रव्य-क्षेत्र-कालथी भावनं ज पच्चवखाण
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