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[24] "१०१ बोलसंग्रह' नी वाचना ऐं नमः ।। सर्वज्ञशतकादिकग्रंथ माहिला विरुद्ध बोल जे धर्मपरीक्षा ग्रंथमांहि देखाड्या छइ ते माहिला केतलाएक मतभेद जाणवान अधिं लिखिइ छइ ।।
"उत्सूत्रभाषीनिं अनंतो ज संसार होइ" एहवू लिखू छइ ते न घटइ, जे महानिशीथादिक ग्रंथनिं विषइ अध्यवसायविशेषनी अपेक्षाइं तीर्थंकरनी महाआशातना करणहारनि संख्यातादिक ३ भेद संसार कहिओ छइ, तथा मरीचिप्रमुख उत्सूत्रभाषीनिं असंख्यातादिक संसार पणि शास्त्रिं छइ ॥ १ ॥
“निहनव तीर्थोच्छेदनी बुद्धिं उत्सूत्र भाषइ ते माटिं तेहनि अनंतो ज संसार होइ, यथाछंद ते रीति उत्सूत्र न भाषइ ते माटि तेहनि अनंत संसारनो नियम नहीं," एहवू लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे मार्टि यथाछंदनि पणि सूत्रोच्छेदनो परिणाम होइ अनि तीर्थोच्छेदनी परि सूत्रोच्छेद पणि भारे कहिओ छइ योगवीसी प्रमुख ग्रंथमां ॥ २ ॥
"नियत उत्सूत्र भाषइ तेह निह्नव, अनियत उत्सूत्र बोलइ ते यथाछंद" एहवू लिख्यूं छइ तिहां उत्सूत्रकंदकुद्दाल विना बीजा कोई ग्रन्थनी साखि नथी
॥३॥
"यथाछंदनि उत्सूत्र बोल्यानो निर्धार नथी " एहवू लिख्यूं छइ ते न मिलइ, जे मार्टि आवश्यकव्यवहारभाष्यादिक ग्रंथमां यथाछंद उत्सूत्रचारीनि उत्सूत्रभाषी ज कहिओ छइ ॥ ४ ॥
"नियत उत्सूत्रथी अनियत उत्सूत्र हलुउं ज होइ" एहवू कहइ छइ ते न घटइ, जे मार्टि एक जातिनि पापि हिंसादिक आश्रवनी परि नियतानियतभेदि फेर कहिओ नथी ।। ५ ।।
"कीधां पापनूं प्रायश्चित्त तेहज भविं आवइ पणि भवांतरिं नावइ," एहवू लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे मार्टि पंचसूत्रचतुःशरणादिक ग्रंथनि अनुसार भवांतरनां पापनूं पणि प्रायश्चित्त जाणइ छइ ॥६॥
"अभव्यनि अनाभोगरूप एकज अव्यक्तमिथ्यात्व होइ गुणठाणुं न कहिइ",
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