Book Title: Kundalpur
Author(s): Bhanvarlal Nahta
Publisher: Mahendra Singhi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री गौतम स्वामी का जन्मस्थान कुण्डलपुर ( नालन्दा) लेखक: भँवरलाल नाहटा प्रकाशक: महेन्द्र सिंघी पी-२५ कलाकार स्ट्रीट कलकत्ता-७ वीर निर्वाण संवत् २५०१ मूल्य ७५ पैसे For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir মন __लगभग ३३ वर्ष पूर्व राजगृह, नालंदा, पावापुरी एवं तन्निकटवती कई गाँवों में भूमण कर वहाँ के इतिहास-पुरातत्त्व सम्बन्धी जानकारी प्रप्त की थी। राजगृह पुस्तक लिखकर सं० २००५ में जेन सभा, कलकत्ता से प्रकाशित करवाई और पावापुरी वीर-निर्वाण भूमि के संबन्ध में विवाद खड़ा होने पर १।। वर्ष पूर्व "महातीर्थ पावापुरी” नाम से प्रमाण पुरस्सर पुस्तक लिख कर जैन श्वे० सेवासमिति से प्रकाशित की गई । उस समय नालन्दा और क्षत्रियकुण्ड के सम्बन्ध में प्रकाश डालने के लिए जैन और बौद्ध साहित्य के विश्रत विद्वान नवनालंदा महाविहार के अध्यक्ष मेरे मित्र डा० नथमलजी टाटिया ने कहा कि अब तक सरकार या ऐतिहासज्ञ विद्वान भी यह.निर्णय नहीं कर पाये है कि नालन्दा की वस्ती कहाँ पर थी ? इस विषय में लिखिये ! आचार्य अनंतप्रसाद जैन ने तो लिख दिया कि नालंदा का पता ही विश्वविद्यालय की खुदाई होने पर पाश्चात्य विद्वानों ने लगाया है। जहाँ तक जैन समाज के साहित्य और इतिहास का प्रश्न है वह कभी नालन्दा को भूला नहीं था, बाद में उसे ही. वड़गाँव कहने लगे और गुम्वरगाँव भी वही था। नालन्दा-वड़गाँव और गुबरगाँव को जैन साहित्य में बराबर याद किया गया है । इस लघु निबंध में इसी विषय पर किञ्चत प्रकाश डाला है और "कुशल निदेश" से पुनमुद्रण रूप में क्षत्रियकुण्ड की भाँति इसका भी सचित्र प्रकाशन करने का यश कलाप्रेमी तीर्थभक्त श्री महेन्द्रकुमार सिंघी ने उपार्जन किया है अतः वे धन्यवार्दाह हैं। श्री समेतशिखर महातीर्थ को प्रतिष्ठा के समय स्वर्गीय श्री नरेन्द्रसिंहजी सिंघी ने मुझे वहाँ के इतिवृत्त पर प्रकाश डालने वाली पुस्तक लिखने के लिए अनुरोध किया था। मैंने उसकी इतिहास सामग्री और अभिलेखों की नकलें भी तैयार की थी जो इतने वर्ष पड़ी रही, अब श्री महेन्द्रकुमार सिंघी ने समेतशिखर तीर्थ के संक्षिप्त इतिहास में सचित्र कला पूर्ण ग्रंथ में प्रकाशित कर आंशिक पूर्ति करदी है। अब पूरब के बडे तीर्थों में "चम्पापुरी” पर प्रकाश डालना अवशेष है जिस पर शीघ्र ही लिखने का विचार है । नालन्दा.राजगृह का एक समृद्ध उपनगर था। अनर्गल सुख समृद्धि पूर्ण होने से तत्सम्बन्धी निम्न गाथा द्रष्टव्य है : पडिसेहणणगारस्स इत्यीसद्दे ण चेव अलसद्दो । रायगिहेनगरम्मी नालंदा होइ बाहिरिया ॥३॥ For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भगवती सूत्र में नालन्दा के पास ही कोजाक सन्निवेश होना बतलाया है। यतः "वीसेणं नालंदाए बाहिरियाए अदूर सामते एत्थणं कोडाए नाम - सन्निवेसे होत्या भगवान महावीर के ग्यारह गणधरों में इन्द्रभूति ( गौतम स्वामी), अग्नि भूति भोर वायुभूति यहीं के थे अतः श्री जिनप्रभसूरि कृत विविध तीर्थकल्प में से ११ गणधर कल्प का अनुवाद दिया जा रहा है जो पाठकों को उपयोगी प्रतीत होगा। वेमारगिरि-राजगृह के मन्दिरों से ३ मील और ऊपर जाने पर उनकी निर्वाणभूमि है, वहाँ का मार्ग ठीक नहीं होने से विरले व्यक्ति ही वहाँ जाते है अतः रास्ता ठीक करवा कर यात्रियों को उस पवित्र टोंक पर जाने की प्रेरणा देना परम आवश्यक है। भगवान महावीर की चिर विहार भूमि नालंदा के सम्बन्ध में अधिकारी विज्ञान विशेष प्रकाश डालेंगे, इस आशा के साथ अपना वक्तव्य समाप्त करता हूँ। -मवरलाल नाइटा For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ना लंदा -भंवरलाल नाहटा भारत के अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त नगरों में राजगृह और नालंदा का स्थान प्रमुख है। समस्त धर्मावलम्बियों का पवित्र स्थान होने के कारण एवं अपने ऐतिहासिक और पुरातत्व सम्बन्धी महत्ता के कारण राजगृह का वैशिष्ट्य तो .था ही पर तन्निकटवती नालंदा स्थान भी गत साठ वर्षों से पुरातत्त्व विभाग द्वारा उत्खनन होने के पश्चात बौद्ध विहार और विश्वविद्यालय निकलने से विश्वविथ त हो गया है। भारत में आनेवाले सभी विदेशी एवं भारतीय पर्यटक नालंदा देखने के लिये अवश्य आते हैं। यहाँ की सारी इमारतें जो पृथ्वीतल में समा कर टीले के रूपमें परिवर्तित हो गई थी, सावधानीपूर्वक निकाली गई और प्राप्त सामग्री को संग्रहालय बना कर प्रदर्शित कर दी गई। आज भी लाखों व्यक्ति यहाँ आकर भारतीय शिक्षा, संस्कृति और शिल्पविद्या का अवलोकन करते हैं । अब तो वहाँ बौद्धधर्म और पालीभाषा का इन्स्टीट्यूट है और नालंदा जिला हो गया है परन्तु यहाँ से जैन धर्म का घनिष्ट सम्बन्ध होने के कारण यह स्थान जैनों के लिए सदा सुपरिचित था, यहाँ नालंदा के विषय में कुछ प्रकाश डालने का प्रयत्न किया जा रहा है। २५०० वर्ष पूर्व जैन शास्त्रों के अनुसार यहाँ भगवान महावीर के समय साढ़े बारह कुल कोटि जैनों का निवास था भ० महावीर ने स्वयं राजगृह नालंदा में चौदह चातुर्मास बिताये थे। यहाँ भ० पार्श्वनाथ के अनुयायी जैन प्राचीन काल से रहते थे। जैनागम सूयगडांग सूत्र द्वितीय श्रु तस्कन्ध के सातवें अध्ययन का नाम "नालंदइज्ज" है, यह नालन्दा से ही सम्बन्धित है। नालंदा राजगृह से सात मील उत्तर है, इसमें राजगृह के उत्तर पश्चिम भाग-ईशान कोण में नालन्दा नामक बहिरियापाड़ा लिखा है जिसमें लेप नामक धनाढ्य गाथापति रहता था। नालन्दापाड़ा के ईशान कोण में 'सेसदविया' नामक उदगशाला थी जो प्रासाद बनवाने में बचे हुए उपकरण से निष्पन्न अनेक स्तम्भादि से युक्त थी। उसके ईशान कोण में हस्तियाम नामक वनखण्ड था । 'नालंद For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईज्ज' अध्ययन में वहाँ गणधर गौतमस्वामी के विचरने और मेयज्जगोत्रीय पेढाल पुत्र उदक, जो भ० पार्श्वनाथ-संतानीय-अनुयायी था, के साथ तत्त्व चर्चा करके चतुर्याम धर्म से पंच महाबत सप्रतिक्रमण धर्म भगवान महावीर के पास स्वीकार कराने का विशद वर्णन है । भगवान महावीर ने दीक्षा लेने के पश्चात् अपना दूसरा चातुर्मास नालंदा तन्तुवायशाला में किया था और मंखलीपुत्र गोशालक यहीं से उनके साथ हुआ । भ० महावीर और गौतम बुद्ध समकालीन थे, बुद्ध भी अनेक बार नालंदा आये और वे यहाँ के प्रावारिक आम्रवन में विचरे पर कभी नालन्दा में चातुमांस नहीं किया जब कि भ० महावीर ने यहाँ चौदह चातुर्मास किये है। कारण स्पष्ट है यहाँ उस समय जेनों का ही वर्चस्व था। दोनों महापुरुषों का एक स्थान में विचरते हुए भी कभी परस्पर साक्षात्कार नहीं हुआ। बाद के बने. बौद्ध त्रिपिटकों में निग्रन्थों व श्रावकों के साथ भ० बुद्ध की चर्चा होने की कल्पित बातें पायी जाती है । भ० बुद्ध के प्रधान शिष्य. सारिपुत्र, मौद्गलायन में सारिपुत्र यहीं के थे, आज भी 'सारिचक' स्थान उनकी याद दिलाता है। धम्मपद अठ्ठकथा ८-५ के अनुसार सारिपुत्र का मामा राजगृह निवासी एक ब्राह्मण था जो निग्रन्थ जैन धर्म का उपासक था। . __ भगवान महावीर के यहाँ अनेक बार पधारे थे तथा गौतम स्वामी की जन्मभूमि गुम्बरगाँव भी नालन्दा के पास ही था। आज भी नालन्दा को बड़गाँव और गुव्वर गाँव कहते है–के कारण यहाँ पर जैन स्तूप का निर्माण हुआ था जिसका उल्लेख विविध तीर्थकल्प तथा परवत्ती तीर्थमालाओं में पाया जाता हैं कहा जाता है कि सम्राट अशोक ने ८४००० स्तुपों का निर्माण कराया था एवं भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् आठ राजाओं ने स्तूप बनवाये वे (१) नलका कुसीनगर (२) मल्ल की पावा (३) वैशाली (४) राजगृह (५) अल्लकप्प (६) कपिलवस्तु (७) रामग्राम (८) बेठदीप हैं। इनमें कहीं नालंदा में स्तूप होने का उल्लेख नहीं है अतः यहाँ जेन स्तूप होना चाहिये। जिनप्रभसूरिजी ने उसे कल्याणक स्तूप लिखा है। और उस पर भ. महावीर व गौतम स्वामी की चरणपादुका का पूजन तो बहुत बाद तक होता था। पहाड़पुर के जैनमठ की भाँति बौद्ध काल में उसका रूप परिवर्तित हो जाना भी असंभव नहीं । १५६५ वर्ष पूर्व अर्थात् सन् ४१० ई० में फाहियान के नालन्दा आगमन समय में यहाँ कोई शिक्षाकेन्द्र नहीं था पर ई० सन् ४५० तक शिक्षाकेन्द्र का रूप धारण कर लिया था। तिब्बत के इतिहास विशेषज्ञ तारानाथ के अनुसार For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ई० सन् ३०० में नागार्जुन व सन् ३२० में उसके शिष्य आर्यदेव नालन्दा के ख्याति प्राप्त विद्वान थे। पाँचवी शताब्दी में उत्तरकालीन गुप्त शासक कुमार गुप्त प्रथम ( महेन्द्र गुप्त ) द्वारा विश्वविद्यालय की स्थापना हो चुकी थी । गुप्त शासकों ने अपने प्रचुर दान द्वारा इसे खूब पनपाया, १२वीं शताब्दी तक इस विश्वविद्यालय को देश-विदेश के शासकों ने बड़ी प्रगति दी थी । हर्षवर्द्धन ने हुएनसांग के समय १०० गाँव दान में दिये थे । दव शताब्दी में कन्नौज के राजा यशोवर्मन के एक मंत्री के पुत्र ने विश्वविद्यालय को प्रचुर दान देकर सहाय्य किया था । बंगाल के पाल शासक धर्मपाल भी इसके विशिष्ट संरक्षक थे । पालवंश के गोपाल ने मगध को जीत कर नालन्दा के समीप ओदंतपुर में भी विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। इसी बीच तिब्बत से सम्पर्क बढ़ा तो संरक्षित पद्मसंभव जैसे उद्भट विद्वान वहाँ गये । तिब्बती लिपि के रूप में आज भी तारतीय गुप्तकालीन लिपि के वहाँ दर्शन होते हैं । धर्मपाल ने हवीं शताब्दी में नालन्दा के विद्वानों के सहयोग से विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। बारहवीं शताब्दी तक पाल शासकों से इस विश्वविद्यालय को संरक्षण मिला । नालंदा विश्वविद्यालय हुएनसंग आदि का बड़ा सम्मान हुआ । आर्यदेव, जिनमित्र, धर्मपाल, चन्द्रपाल, शीलभद्र, संतरक्षित, धर्मकीर्त्ति आदि यहाँ के प्रकाण्ड विद्वान थे । वे बाहर के आमंत्रण पर प्रवास करके धर्म का प्रचार करते थे, यहाँ का ग्रन्थागार भी तीन खण्डों में विभक्त था । इन शताब्दियों में नालंदा में बौद्धों का प्रभुत्व अवश्य बढ़ा और जैनों की वस्ती आगे से अल्प होती गई पर उनके मन्दिर मृत्ति निर्माण और धर्माराधन का काम बराबर चलता रहा इस काल की बनी हुई अनेक प्रतिमाएँ आज प्राप्त है पर साधु-विहार कम होने लग गया था. इस काल के बंगाल विहार के जैन साहित्य और चैत्यवासी युग के ऐतिहासिक साहित्य के अभाव में 'विशेष कुछ प्रकाश नहीं डाला जा सकता पर आम नागावलोक के राजगृह विजय तथा जैनाचार्य बप्पभट्टिसूरि, प्रद्युम्नसूरि व जीवदेवसूरि के इधर विचरने के संक्षिप्त उल्लेख पाये जाते हैं । पाल राज्य के पतन के साथ-साथ बौद्ध धर्म भी भारत से विलीन होता गया । नालन्दा विश्वविद्यालय जहाँ दस हजार छात्र व हजारों प्राध्यापक व बौद्ध भिक्षुओं का जमघट रहता था, उस जमाने में विश्वविश्रुत था, संसार भर के छात्र यहाँ शिक्षा प्राप्त करने के लिये आते थे, निकटस्थ उद्दड़विहारओदंतपुरी में भी शिक्षा व बौद्ध-विद्या का बड़ा भारी केन्द्र था, प्रतिस्पर्द्धियों [ ३ For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व मुसलमानों द्वारा नष्ट कर डाला गया। तबकाते नसोरी के पृष्ठ ५५ में मिनहाज ने लिखा है कि बख्तियार खिलजी ने जिस बौद्ध-विहार व विद्यालय को नष्ट किया था वह नालन्दा का ही संभावित है । तिब्बती "पग साम जोन झंग” में लिखा है कि मुस्लिम आक्रमण के पश्चात् मुदितभद्र ने इसे जीर्णोद्धारित किया । उसके मंत्री कुकुत्सिद्ध ने मन्दिर बनवाया । एक वार वहाँ दो ब्राह्मण आये जिस पर बौद्ध छात्रों ने पानी गिरा दिया । उसने रुष्ट होकर बारह वर्ष तक सूर्य तप किया और यज्ञ के समय अंगार गिरा कर नष्ट कर दिया । नालन्दा के निकट आज भी सूर्यकुण्ड नामक एक प्रसिद्ध तालाब है, जिसके स्नान का बड़ा माहात्म्य है । इसके आस-पास कई प्राचीन प्रतिमाएँ पंचमुख शिव एवं अन्य देवी देवताओं की है । मैंने तीस पैंतीस वर्ष पूर्व यहाँ " नालन्दा” नामोल्लेख युक्त अभिलेख भी देखे और उनकी छापें ली थी । सन् ११६७ से सन् १२०३ के बीच बख्तियार खिलजी ने विश्वविद्यालय व छात्रावास मठ आदि को पूर्णतः नष्ट कर दिया । भिक्षुगण मार डाले गए, ग्रन्थों को जला दिया गया। बाद की शताब्दियों में उसके खण्डहर एक विशाल टीले के रूप में परिवर्तित हो गए और घास ऊग गया । सन् १६१५से जब भारत सरकार के पुरातत्त्व विभाग ने उत्खनन प्रारम्भ किया तो विश्वविद्यालय की इमारतें, बौद्ध विहार, छात्रावास आदि निकले तब से नालन्दा. का महत्त्व काफी बढ गया है । विहार प्रान्त की इस धर्मान्ध तोड़ फोड़के समय कितने ही धर्म परिवर्त्तन हुए और अराजकता में अभिवृद्धि हुई थी पर मणिधारी दादा श्री जिनचन्द्रसूरि जी (सं० १२११ से १२२३) के प्रतिबोध देकर धर्म में दृढ़ की हुई महत्तियाण मंत्रदलीय जाति शताब्दियों तक इधर के तीर्थों-मन्दिरों की सार संभाल करती रही । इस जाति के श्रावक नालन्दा और विहार शरीफ में प्रचुर संख्या में निवास करते थे, विहार में महत्तियाण मुहल्ला अब भी विद्यमान है । जहाँ पर मुस्लिम बस्ती हो जाने से जिनालय की प्रतिमाओं को लगभग २० वर्ष पूर्व हटा लिया गया है । युगप्रधानाचार्य गुर्बाबली तेरहवीं शताब्दी की दैनन्दिनी की भाँति एक प्रमाणिक ग्रन्थ है । उसमें उल्लेख है कि "सं० १३५२ ( ई० सन् १२६५ में श्री जिनचन्द्रसूरिजी के उपदेश से वा० राजशेखर, सुबुद्धिराज गणि, पुण्यकीत्ति गणि, रत्नसुन्दर मुनि सहित श्रीबड़गाँव में विचरे और वहाँ के रत्नपाल सा० चाहड़ आदि परिवार सह सा० बोहित्थ पुत्र मूलदेव ने संघ ४ ] For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सहित कोशाम्बी, वाराणसी, काकन्दी, राजगृह, पावापुरी, नालंदा, क्षत्रियकुण्ड, अयोध्या, रत्नपुर आदि तीर्थों की यात्रा करके वापस लौटकर उद्दड़विहार में चातुर्मास किया जहाँ मालारोपण महोत्सवादि हुए। नालंदा बस्ती से बिलकुल सटा हुआ गुव्वर गांव था जो आज भी इसी नाम से विद्यमान है इसे प्राचीन कवियों ने मगध देश में ही लिखा है। विशेषावश्यक नियुक्ति में भी इस गोबर गांव को मगध देश में लिखा है । यतः मगहा गोब्बर गामो गोसंखो वेसिआण पाणामा कुम्मागाभायावण गोसाले गोवण पउट्ट ।। ४६३ ।। सं० १४१२ में रचित विनय प्रभोपाध्याय कृत गौतमरास में :जंबूदीव जंबूदीव भरहवासंमि खोणी तल मंडण मगह देस सेणिय नरेस रिउ दल बल खंडण धणवर गुव्वर गाम नाम तिहां गुण गण सजा विप्पवसें वसुभूई तांह तसु पुहवी मजा ताणपुत्त सिरि इंदभुइ भूवलय पसिद्धो च उदह विजा विविहरूप नारी रसलुद्धो" इस उल्लेख से स्पष्ट है कि उस समय वड़गाँव ( नालन्दा-गुव्वरगाँव में श्रावकों के पर्याप्त घर थे और वे बाहर से आकर बसे हुए नहीं पर मगध के ही अधिकारी धनाढ्य श्रावक थे। वे सुदूर तीर्थयात्रा के संघ निकालते थे, साधुओं के चातुर्मास कराते थे । वड़गाँव में मन्दिर और प्रतिमाएँ प्रचुर संख्या में यों जिसका उल्लेख आगे किया जायगा। ___ सं० १३६४ में उपयक्त राजशेखर गणि को आचार्य पद मिला था उस प्रसंग में भी राजगृहादि महातीर्थों की वन्दना करने का उल्लेख किया गया है। ठ० प्रतापसिंह के पुत्र अचल सिंह ने वैभारगिरि पर जो चतुर्विशति जिनालय बनवाया था उसके लिए सं० १३८३ में जालोर में श्रीजिनकुशलसूरिजी ने अनेक पाषाण व पित्तलमय जिन प्रतिमाओं की तथा गुरुमूर्तियों की प्रतिष्ठा की थी। . सं० १३६४ में जिनप्रभसूरि कृत 'वैभारगिरि कल्प' में "नालन्दा” का उल्लेख इस प्रकार मिलता है। नालन्दालंकृते यत्र. वर्षारात्रांश्तुर्दश ।। अवतस्थे प्रभुवीर स्तत्कथं मास्तु पावनम् ॥२५॥ यस्यां नैकानि तीर्थानि नालन्दा नायन श्रियाम् । भव्यानां जनितानन्दानालन्दानः पुनातु सा ॥२६॥ [५ For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघनादः स्फुरन्नादः शात्रवाणां रणाङ्गणे । क्षेत्रपालाग्रणीः कामान् कांस्कान् पुसां पिपत्ति न ||२७|| श्री गौतमस्यायतनं कल्याण स्तूप सन्निधौ । दृष्टमात्रमपि प्रीति पुष्णाति प्रणतात्मनाम् ||२८|| इस वर्णन में भगवान के चौदह चातुर्मास, क्षेत्रपाल मेघनाद और गौतम स्वामी के आयतन और कल्याण स्तूप के दर्शन से नमस्कार करने से भावनाएँ पुष्ट होने का उल्लेख किया है । यह कल्याण स्तूप शताब्दियों तक पूज्यमान रहा जिसके वर्णन स्वरूप कवियों द्वारा किये गए उद्धरण आगे प्रस्तुत किए जाएँगे । सं० १४१२ में फिरोजशाह तुगलक के समय में विपुलगिरि पर महत्ति - याण ठ० देवराज वच्छराज ने पार्श्वनाथ मन्दिर का निर्माण कराया था जिसकी महत्त्वपूर्ण शिला प्रशस्ति ( श्लोक ३८ ) ३३ पंक्तियों में खुदी हुई स्वर्गीय पूरणचन्दजी नाहर को प्राप्त हुई थी, जो उनके शान्तिभवन में विद्यमान है और जैन लेख संग्रह में प्रकाशित है। इस प्रशस्ति में खरतरगच्छ पट्टावली और महत्तियाण वंशावली भी शामिल है। इसे लिखने वाला कवि विद्धणु (वोधा ) ठक्कुरमाल्हा का पुत्र था । इस कवि की ज्ञानपंचमी चौपई क्षं० १४२३ में विहार में रचित उपलब्ध है । सं० १४३० से पूर्व लोकहिताचार्य ने यहाँ चातुर्मास किए, प्रतिष्ठाएँ कराई जिसके समाचारों के प्रत्युत्तर में आये हुए विज्ञप्ति महालेख में संकेत मिलते हैं, मूल अप्राप्त है जिसके प्राप्त होने पर ही पूरे विवरण मिल सकते हैं । "C सं० १४६७ में श्रीजिनवद्ध नसूरिजी के सानिध्य में जौनपुर से ५२ संपतियों का जो विशाल यात्री संघ निकला था, उनके रास में भी नालन्दा यात्रा का उल्लेख प्राप्त है, यत : - पावापुरि नालन्दा गामि, कुण्डगामि कायंदी ठामि । वीर जिणेसर नयर विहारि, जिणवर वंदइ सवि विस्तारि ||" जिनवर्द्धनसूरिजी ने तीर्थमाला में भी नालन्दा यात्रा का उल्लेख किया है जो हमने जैन सत्यप्रकाश ( १५ फरवरी १६५३ ) में प्रकाशित की थी यतः " इय पणमउ ए नयर नालिंद, संठिउ वीर जिणेश पुण" सं० १४७७ मिती ज्येष्ठ बदि ६ के दिन श्रीजिनवद्ध नसूरिजी ने यहाँ ऋषभदेव भगवान की प्रतिष्ठा की थी जो आज भी नालन्दा के जैन ६ ] For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मन्दिर में विराजमान है। इससे विदित होता है कि वे अनेक बार यहाँ पधारे थे। ___ श्री जिनवर्द्ध नसूरिजी के प्रशिष्य श्री जिनसागरसूरिजी के आदेश से खरतरगछीय शुभशीलगणि पूरब देश में काफी विचरे थे उनके द्वारा सं० १५०४ में प्रतिष्ठित अनेक प्रतिमाएँ राजगृह, नालन्दा, क्षत्रियकुण्ड आदि तीर्थों में प्राप्त है। नालन्दा के मन्दिर में स्थित श्री महावीर स्वामी की प्रतिमा काणा गोत्रीय महत्तियाण सा० कउरसी के पुत्र में भीषण कारित है और फाल्गुन सुदि ६ के दिन शुभशील गणिद्वारा प्रतिष्ठित है। नालन्दा के म्यूजियम में एक प्रतिमा इसी संवत की तथा दो तीन अन्य प्राचीन प्रतिमाए हैं जो वहाँ के ध्वस्त मन्दिरों से प्राप्त मालूम देती हैं। सं० १५११ में लिखित जयसागरोपाध्याय की प्रशस्ति में उनके राजगृह उद्दड़विहारादि में विचरण करने का उल्लेख है । पूरब देश की यात्रार्थ पधारे सभी मुनिराजों का नालन्दा पधारना अनिवार्य है। सं० १५६५ में कमलधर्म शिष्य हंससोम कृत तीर्थमाला में नालन्दा का इस प्रकार वर्णन है : पच्छिम पोलइ समोशरण वीरह देखीजइ, नालन्दइ पाड़इ चउद चउमास सुणीजइ । हिवडा ते लोक प्रसिद्ध ते बड़गाँव कहीजइ, सोल प्रासाद तिहां अछइ जिण बिंब नमीजइ।। कल्याण थुम पासइ अछह ए मुनिवर यात्रा खाणि । ते युगतिइ स्यं जोइई निरमालड़ी ए कीधी पापनी हाणि ।।" सं० १६०६ में कवि पुण्यसागर कृत तीर्थमाला में :वीर जिणंद नालन्दइ पाड़इ, चउद चौमासा भवियण तारई । हा० ॥ १२ ॥ छः प्रासादइ 'नृत्यमंडाण, गोतिम थूम केवल अहिनाण ।। हां० ॥१२३।। पात्रा खापि अछइ तिहाँ सारी, भवियण ल्यइ बहु गुण संभारी ॥ हा० ॥१२३।। ईट घणी डूंगर नइ मान, घर कइवन्ना छ अहिनाण ॥ हां० ।।१२४।। __ सं० १६६१ में आगरा से सुप्रसिद्ध हीरानन्द साह का संघ निकला था जिसमें खरतर गच्छीय कवि वीरविजय ने लिखा है कि बड़गामईरे गौतम ... गणधर थंभ छइ । बहु जिणहररे बहु बिंब तिहां पूज्यापछइ" इसी संवद में रचित जयविजय कृत तीर्थ माला में नालन्दा का विवरण देखिये। For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नालन्दयइ सविलोक प्रसिद्ध, वीरइ चउद चाउमासा की । मुगति पहूता सवे गणहार, सीधा साध अनेक उदार ॥६॥ दोसइ तेह तणा अहिनाण, पुहवइ प्रगटी यात्रा खाणि । प्रतिमा सतर-सतर प्रासाद, एक-एक स्युं मंडइ वाद ॥६८।। पगला गौतम स्वामी तणा, पूजइ कीजइ भामणा । वीर जिणेसर वारां तणी, पूजी प्रतिमा भावइ घणी ॥६६॥ सं० १६६६ में आगरा के संघपति कुँवरपाल सोनपाल के संघ वर्णन में अंचल गच्छीय कवि जसकीर्ति नालन्दा के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखते है : वड़गामइ तिहां थी गया रे जीरेजी जिहांछइ ऋषम जिणंदा । हारे पूज रचइ रुलियामणी रे जीरेजी जेहथी लहियइ भव पाररे ॥२७॥ नालिंदों पाडो कहिउ रे जीरेजी सो वड़गामि विमासिरे । हारे हां वीर जिणेसर जिहां रहिया रे जीरेजी रूड़ी चौद चौमासि २८ तिहांथी दक्षिण दिशि भणी रे जीरेजी पनरह सइतीड़ोतर जाइरे। तापस केवल ऊपना रे जी रेजी वारु तेणइ ठाइ रे ।। २६ ।। च्यारि खूण कइ चोतरइ रे जी० गौतम पगला दोयरे । श्री संघपति जाइ पूजिया रे जी० साथइ सहु संघ लोयरे ।।३०॥ इसी संघ यात्रा का वर्णन मुनि सुमतिकलश के शिष्य मुनि विनयसागर रचित तीर्थमाला ( अप्रकाशित ) में इस प्रकार किया है : इम राजगृह तीरथइ हो, अनइ वली वडगाम । जिह पनरह सई तापसई, पामिउ छइ २ केवल अभिराम कि ॥६६।। श्रीगौतम ना पादुका हो, तिहछइ उत्तम . थान । संघपति ते पूजी करी तिह दीधउ रे २ वलि अति घण दानकि ७० यह संघ सं० १६७० वैशाख बदि ११ को समेतशिखरजी की यात्रा करके ७ दिन में राजगृह आकर और वहाँ की यात्रा करने के पश्चात नालन्दा आया था। सतरहवीं शती में दयाकुशल रचित तीर्थमाला में नालन्दा का वर्णन इस प्रकार किया है : वीर जिन चउद चौमासा किद्ध, नालन्दो पाड़ो परसिद्ध । तिहां देउल दीसे अतिघणां, वंदं वीर जिनवर तणो ||४| गौतम गणघर पगला जिहां, मुनिवर पात्रा खाण छ तिहां । .. सेस काजि ते लई सहु कोय, जिम दोठा कह्या सह कोय ॥५०॥ 5] For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org $2 ま For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सं० १५०४ प्रतिष्ठित महावीर स्वामी मूलनायक आदिनाथ सं० ११०२ प्रतिष्ठित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भगवान श्री शान्तिनाथ की प्राचीन प्रतिमा कुण्डलपुर-नालन्दा का जैन श्वे० मन्दिर For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भगवान ऋषभदेव स्वामी की प्रतिमा भगवान पार्श्वनाथ की प्राचीन प्रतिमा For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भगवान पार्श्वनाथ की प्राचीन प्रतिमा सं० १४७७ प्र० आदिनाथ प्रतिमा For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री विजयदानसूरिजी, के समय में अलवर से पं० श्रीपति के शिष्य चांपाऋषि, कुलधर मुनि, तेजविमल, ऋषि शिवा, ऋषि गंगा छः ठाणों से पूरब देश को यात्रा करके आये थे जिसके वर्णनात्मक पूरब देश चेत्य परिपाटी में कवि भइरव ने राजगृह यात्रा के बाद इस प्रकार लिखा है : च्यारि कोस वलि तिहां थकी, वड़गाम पहुता आइए । चैत्य एक श्री वीर नउ, बहु भगति नमं तसु पाइए ॥५४।। नालन्दउ पाइउ अछइ, जिहां कोटीसर बहु वास । चवद सहस मुनि परिवर्या, प्रभु कीधी हो चउदह च उमासि ।।७।। सं० १७११-१२ में शील विजयजी ने यात्रा की थी जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी तीर्थमाला में इस प्रकार किया है“यात्रा खाणि मुनिवर नीतिहां, वीर थूम वंदु वलि इहां ।३०। "गुहवरगामि गौतम मनि रंग” विजयदेवसूरिजी के समय में सहजसागर के शिष्य विजयसागर ने अपनी तीर्थमाला में इस प्रकार लिखा है "बाहिरि नालन्दो पाड़ो, सुण्यो तस पुण्य पवाड़ी। वीर चउद रह्यां चउमास, हवडां बड़गाम निवास ।।२३।। घर वसतां श्रेणिक वारइ, साढी कुल कोडी बारइ । बिहुँ देहरइ एक सो प्रतिमा, नवि लहियई बोधनी गणिमा ॥२४॥ गोयम गुरु पगला ठामि. प्रगटी मुनि पात्रानी खाणि । तस पासइ वाणिजगाम, आणंदोपासक ठाम ॥२५॥ दीठा ते तीरथ कहियाँ. न गिणं जे खुणइ रहिआ। हरख्या बहु तीरथ अटणइ, आन्या चउमासं पटणइ ॥२६॥ सं० १७५० में सौभाग्यविजय कृत तीर्थमाला में नालन्दा का वर्णन देखिये :राजगृही थी उत्तरे चित चेतो रे, नालंदो पाड़ो नाम जीव चित चेतो रे। वीर जिणंद जिहां रह्या चि० चउद चौमासा नाम जी० ।। वसता श्रेणिक वारमा चि० घर साढी कोड़ी बार जी० । ते हिवणा परमिद्ध छे चि० बड़गाम नाम उदार जी० १ एक प्रासाद छ जिनतणो चि० एक थूभ गाम मांहि जी० । अवर प्रासाद छ जना जिके चि० प्रतिमा मांहि नांहि जी०२ पाँच कोश पश्चिम दिशे चि. शुभ कल्याणक सार जी०। गौतम केवल तिहाँ थयो चि० यात्रा खाण विचार जी० ३ [६ For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वडगामे प्रतिमा बड़ी चि. बौद्धमलनी दोय जी० तिलियाभिराम कहे तिहाँ चि. वासी लोक जे होय जी. ४ उपर्युक्त तीर्थ यात्री संघों के वर्णन के पश्चात सौ वर्ष पूर्व अहमदाबाद की सेठानी हरकोर और सेठ उमाभाई का संघ जो रेल द्वारा यात्रा करने आया था, यहाँ का वर्णन समेतशिखर के ढालियों में इस प्रकार किया है "तीरथ नमी चित चालियो रे लोल, गोबरगाँव थई आवियो रे लोल । गौतम स्वामी ने वाँदी ने रे लोल, चइतर सुदि तेरस दिने रे लोल ।” श्वेताम्बर जैन साहित्य में जितने नालन्दा के सम्बन्ध में विशद उल्लेख मिलते हैं उनकी तुलना में दिगम्बर साहित्य में नगण्य है। श्वे. साहित्य में सर्वत्र गौतम स्वामी की जन्मभूमि ही इस स्थान को बतलाया है जब कि दि० ज्ञानसागर कृत सर्व तीर्थ वन्दना गौतम स्वामी का निर्वाण स्थान वड़गाम बताया है। यत : वर्धमान जिनदेव ताको प्रथम सुगणधर । गौतम स्वामी नाम पापहरण सवि सुखकर ।। खंड्या कर्म प्रचण्ड परम केवल पद पावो । श्रेणिक बैठे पास द्विविध धर्म प्रगटायो ।। वड़गामे आवीकरी कर्म हणी मुगते गयो । ब्रह्म ज्ञानसागर वदति वंदत मुझ बहु सुख थयो ।।७२।। तीर्थबन्दन संग्रह के पृ० १७३ में डा. विद्याधर जोहरापुरकर M.A. PHD. बड़गाम के सम्बन्ध में लिखते हैं मि-"प्राचीन नालन्दा गाम का ही यह मध्ययुगीन नाम है।" .. __ ऊपर के वर्णनों में हम देखते हैं कि भगवान महावीर के चौदह चातुमास के स्थान नालन्दा को बड़गाँव मानने में सभी एक मत है, गौतम स्वामी की जन्मभूमि गुम्वरगाँव भी इसे ही बताया गया है। आज भी हम इसे बड़याँव, गोबरगाँव और नालन्दा कहते हैं । गत सौ वर्षों से कुण्डलपुर नया नाम प्रसिद्धि में आ गया जिसका हमें प्राचीन साहित्य में कहीं नाम निशान नहीं मिलता । दिगम्बर समाज ने इसे भ. महावीर की जन्मभूमि कुंडलपुर (कुंडपुर-क्षत्रियकुंडपुर) मान लिया और उन्होंने बस्ती के बाहर खेतों के बीच एक मील दूरी पर ६०.७० वर्ष पूर्व धर्मशाला व मन्दिर निर्माण करा लिया। दिगम्बरों के देखादेख श्वेताम्बर समाज भी इसे कुण्डलपुर कहने लग गया प्रतीत होता है । नालन्दा के वर्णन में कवि हंससोम वहाँ १६ मन्दिर और एक स्तूप, कवि पुण्यसागर ६ मन्दिर और एक स्तूप लिखते है जो अवांतर मन्दिरों को एक गिनने से हो सकता है क्योंकि उसके बाद भी कवि वीरविजय बहुत से १०] For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मन्दिर व गौतम स्तुप तथा जयविजय १७ मन्दिर व १७ प्रतिमाओं एवं गौतम स्वामी के स्तूप के साथ-साथ भगवान महावीर के समय की प्राचीन प्रतिमाओं का उल्लेख करते हैं । इसके आठ वर्ष पश्चात् ही कवि जसकीर्त्ति केवल ऋषभदेव जिनालय का वड़गांव में उल्लेख कर चारों कोनों के चोतरे में गौतम स्वामी के दो चरणों की संघपति द्वारा पूजा करने का उल्लेख करते हैं । कवि विनयसागर तो इनके सहयात्री थे । कवि विजयसागर दो देहरों में एक सौ प्रतिमाएँ और गौतमस्वामी के पगला (चरणपादुके) स्थान ( स्तूप ) का उल्लेख करते हैं । कवि शीलविजय लिखते हैं कि यहां एक स्तूप है, अवशिष्ट जोर्ण प्रासादों में प्रतिमाएँ नहीं हैं, यह उल्लेख सं० १७५० का है । इस समय अन्य मन्दिरों की प्रतिमाएँ एक ही मन्दिर में विराजमान हो चुकी थी, विदित होता है । अन्तिम उल्लेख बीसवीं शताब्दी का है जिसमें सेठानी हरकर व सेठ उमाभाई के अहमदाबाद से रेल में आये हुए संघ सहित चैत सुदि १३ के दिन गुब्वर गाँव का उल्लेख है जो वर्त्तमान रूप है । इन यात्रा वर्णनों में कई बातें लोकोक्तियों पर आधारित हैं । जिनप्रभसूरिजी के समय से जिस कल्याणक स्तूप का गौतम स्वामी के केवलज्ञान स्मारक का या वीर स्तूप का जो वर्णन आया है वह सं० १७५० तक तो विद्यमान था । यह स्थान नालन्दा विश्वविद्यालय के हाते में ही होगा क्योंकि सभी कवियों ने बहाँ पात्रा खान या यात्रा खान का उल्लेख किया है । कवि पुण्यसागर ने इस स्थान पर पहाड़ जैसा ईंटो का ढेर कहते हुए कयवन्ना सेठ का घर बतलाया है । कवि जसकीर्ति और विनयसागर ने दक्षिण की ओर १५०३. तापसों की कैवल्य भूमि कही है । कवि विजयसागर और सौभाग्यविजय ने लिखा है कि यहाँ श्रेणिक राजा के समय साढे बारह कुल कोटि घर निवास करते थे। कवि विजयसागर के अनुसार दो मन्दिरों में एक सौ जिन प्रतिमाएँ थी । वे यह भी लिखते हैं कि यहाँ इतनी बौद्ध प्रतिमाएँ हैं कि उनकी कोई गिनती नहीं थी, आनन्द श्रावक का निवास स्थान वाणिज्यग्राम भी इस के पास ही बतलाया है । कवि सौभाग्यविजय लिखते हैं कि बड़गाँव में एक विशाल बौद्ध प्रतिमा है जिसे वहाँ के अधिवासी लोग " तिलियाभिराम" कहते हैं यह प्रतिमा मैंने भी एक खेत में पड़ी देखी थी और सुना था कि तेलुआ बाबा और टेलुआ बाबा नाम से प्रख्यात बौद्ध प्रतिमाएँ है । तेलुआ बाबा पर जनता तेल चढ़ाती है और ढेलुआ बाबा को पत्थरों से मारती है कि वह भग-वान के पास जाकर उनकी सिफारिस करे । बौद्ध विशेध और विद्वेष को जनः मानस में रूढ करने का इससे बढ़कर मूर्खतापूर्ण क्या उदाहरण हो सकता है ।" अस्तु । [ १ For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन तीर्थमालाओं के उपयुक्त अवतरणों में एक वाक्य विचारणीय है । वह है-"मुनिवर यात्रा खाणि” यह हंससोम, जयविजय, सौभाग्यविजय और शीलविजय को प्रकाशित तीर्थमालाओं का पाठ है, जबकि दयाकुशल, विजयसागर और पुण्यसागर कृत तीर्थमाला में "मुनिवर पात्रा खाण” पाठ है । यहाँ दो प्रकार के पाठ देख कर प्राचीन तीर्थमाला संग्रह भा० १ के संक्षिप्त सार में जैनाचार्य श्री विजयधर्मसूरिजी ने मुनिवर यात्रा खाणि पाठ को प्रधानता देते हुए खाणि'शब्द को बंगला के 'जे खाने से खाने' शब्द का उदाहरण देकर यात्रा स्थान अर्थ किया है और उसके पूर्व प्रमाण में वैभारगिरिकल्प के २८ वें श्लोक को प्रस्तुत किया है । वास्तव में यात्रा खाणि पाठ सही नहीं है, मुनिवर यात्रा स्थान ही क्यों ? सर्वसाधारण के यात्रा का स्थान हो सकता है । सं० १६६१ में जयविजय "पुहवइ प्रगटी यात्रा खाणि” तथा विजयसागर "गोयम गुरु पगला ठामि, प्रगटी मुनि पात्रानी खाणि" पाठ में "पुहबइ प्रगटी” और “प्रगटी" शब्द में पृथ्वी में से मुनिराजों के पात्रों की खाण प्रगट होने का उल्लेख करते हैं, यही अर्थ सही है, क्योंकि नालन्दा विश्वविद्यालय का महाविहार जो ध्वस्त कर दिया गया था, उसमें दबे हुए बौद्ध श्रमणों के पात्र यदा-कदा जमीन में से निकलते रहते थे। कवि दयाकुशल यहाँ 'सेस का जि लई सहु कोय' लिख कर बताते हैं कि लोग उन पात्रों को स्मृति चिन्ह-प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं। यह स्थान कल्याणक स्तूप के पास ही होने का सभी कवियों ने उल्लेख किया है। कवि पुण्यसागर ने ईटों के देर को कयवन्नासेठ के घर की कल्पना की है तथा जशकीर्ति ने और विनयसागर ने १५०३ तापसों का जिन्हे गौतमस्वामी अष्टापदजी से लाये थे- केवलज्ञान स्थान कहा है। नालन्दा विश्वविद्यालय के निकट जो भगवान महावीर अथवा गौतम स्वामी के चरण पादुकाओं वाला स्तूप था वह कल्याणक स्तुप कब किस रूप में परिवर्तित हो गया या ध्वस्त दुह में विस्मृत हो गया यह शोध अपेक्षित है। सौभाग्यविजय ने कल्याणक स्तूप को पांच कोश की दूरी पर लिखा है यह उनकी विस्मृति लगती है। कवि विजयसागर ने नालन्दा के पास आनन्द श्रावक के वाणिज्यग्राम का उल्लेख किया है पर अभी विश्वविद्यालय के पास कपठिया नामक गाँव है सामने सारीचक, आगे वड़गाँव गुठवर गाँव और सूरजपुर है । नालन्दा से राजगृह की ओर जाते बाँयें तरफ मोहनपुर ओर दाहिनी ओर सीमा गाँव पड़ता है। पुरातत्त्व विभाग और शोध विद्वान अब तक यह निर्णय नहीं कर 'पाये हैं कि नालन्दा की बस्ती कहाँ थी ? परन्तु जैन कवियों के उल्लेख से स्पष्ट है कि नालन्दा का नाम ही पीछे जाकर वड़गाँव प्रसिद्ध हो गया। १२] For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुव्वर गाँव भी उसी के पास था। सूरजकुण्ड पर प्राप्त अभिलेख में " नालन्दा उल्लेख का मैं आगे लिख चुका हूँ। वड़गाँव- नालन्दा के बाह्य भाग में विश्व - विद्यालय था । इस समय जैन धर्मशाला के अन्दर प्रविष्ट होते ही दाहिनी ओर द्वितल शिखरबद्ध जिनालय है और सामने बगीचे के बीच में दादासाहब का गुरुमन्दिर है । मन्दिर में जिनेश्वर भगवान की सात प्रतिमाएँ हैं जिन में तीन ऋषभदेव स्वामी की दो पार्श्वनाथ भगवान की, एक शान्तिनाथ जी की और एक महावीर स्वामी की हैं और एक गोतमस्वामी के प्राचीन चरण पादुक हैं। ये सभी श्याम पाषाण निर्मित हैं । मूलनायक भगवान के परिकर के नीचे उत्कीर्णित एक पालकालीन अस्पष्ट लेख है जो सं० ११०२ मिती ज्येष्ठ सुदि ४ का मालूम देता है। आदिनाथजी की प्रतिमा सं० १४७७ की और महावीर भगवान सं० १५०४ के प्रतिष्ठित हैं । अवशिष्ट प्राचीन प्रतिमाएँ लेख विहीन । दूसरे तले में अभिनन्दन स्वामी की श्वेत प्रतिमा है। दादावाड़ी में सं० १६८६ के कई लेख हैं । श्री गौतम स्वामी दादा श्री जिनकुशलसूरि, श्री जिन सिंहसूरिजी की पादुकाएँ इसी संवत् की हैं। अंतिम लेख सं० १८५० कार्त्तिक पूर्णिमा का है । मन्दिर के बाहर शिलापट पर जैन संघ की आज्ञा से बम्बई वाले रूपचंद रंगीलदास ने आरती होने के पश्चात् मन्दिर न खुलवाने तथा कोयले से लिखना मना किया है इससे विदित होता है कि इन्होंने १६६० के आसपास पावापुरी की भाँति यहाँ भी जीर्णोद्धारादि कराया होगा । नालन्दा एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त स्थान होने के साथ-साथ जैन धर्म का भी प्राचीन और महत्वपूर्ण तीर्थ है । यहाँ की टूटी फूटी धर्मशाला को शीघ्र मरम्मत करवा कर जैन समाज को यहाँ छात्रावास खोलना चाहिये ताकि नालन्दा की इन्स्टीटयूट से समुचित लाभ उठाया जा सके । वर्त्तमान प्राचीन मन्दिर की अवस्थिति किसी को मालुम नहीं होने से पर्यटक लोग तथा कतिपय जैन लोग भी दर्शनों से वंचित रह जाते हैं अतः मंदिर तक पक्की सड़क होकर स्थान-स्थान पर बोर्ड लग जाना अत्यावश्यक हैं । For Private and Personal Use Only [ १३ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री जिनप्रभसूरिकृत महावीर गणधर कल्प श्री वीरप्रभु के ब्राह्मण वंशोत्पन्न ग्यारह गणधरों को नमस्कार करके शास्त्रों के अनुसार उनका लेश मात्र कल्प कहता हूँ । नाम १, स्थान २, पिता ३, माता ४, जन्म नक्षत्र ५, गोत्रादि ६, गृहपर्याय ७, संशय ८, व्रत दिवस ६, नगर १०, देश ११, काल १२, व्रत परिवार १३, छद्मस्थ १४, केवलित्व वर्ष संख्या १५, रूप १६, लब्धि १७, आयुष्य १८, मोक्ष स्थान १६, और तप २०, आदि द्वार ( वर्णन करता हूँ)। १ गणधरों के नाम-१ इन्द्रभूति, २ अग्निभूति, ३ वायुभूति, ४ व्यक्त, “५ सुधर्मास्वामी, ६ मण्डित, ७ मोरियपुत्र, ८ अकंपित, ६ अचलभ्राता, १० मेतार्य ११ प्रभास । २ स्थान-इन्द्रभूति आदि ३ सहोदर मगधदेश के गोबर गाँव में उत्पन्न हुए। व्यक्त और सुधर्मास्वामी कोल्लाग सन्निवेश में। मंडित और मोरियपुत्र दोनों मोरिअ सन्निवेश में। अकंपित मिथिला में । अचलभाता कोशला में। मेतार्य वत्सदेश के हँगिय सन्निवेश में और प्रभास स्वामी -राजगृह में उत्पन्न हुए। ३ पिता-तीन सहोदरों के पिता वसुभूति, व्यक्त को धन मित्र आर्य सुधर्म का धम्मिल, मण्डित का धनदेव मोरियपुत्र का मोरिअ अकम्पित के पिता देव, अचलभाता के वसुदत्त, मेतार्य के दत्त और प्रभासस्वामी के पिता का नाम बल था। ___ ४ माता-तीन भ्राताओं की जननी पृथ्वी, व्यक्त की वीरुणी, सुधर्म की भद्दिला, मंडित की विजयदेवा एवं मोरिअपुत्र की भी वही, क्योंकि धनदेव के परलोक गत होने से मोरिअ ने उसे संगहीत किया क्योंकि उस देश में ऐसा होना निर्विरोध था। अकम्पित की जयन्ती, अचलभाता की नन्दा, मेतार्य की वरुणदेवा और प्रभास की माता अतिभद्र थी। १४ ] For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५ नक्षत्र-इन्द्रभूति का ज्येष्ठ, अग्निभूति की कृतिका, वायुभूति का स्वाति, व्यक्त का श्रवण, सुधर्मा स्वामी का उत्तराफाल्गुनी, मण्डित का मघा, मोरिअपुत्र का मृगशिरा, अकम्पित का उत्तराषाढा, अचलभाता का मृगशिरा, मेतार्य का अश्विनी प्रभास का पुष्य नक्षत्र था । ६ गोत्रः-तीनों भाई गौतम गोत्रीय, व्यक्त मारद्वाज गोत्रीय, सुधर्मा स्वामी अग्नि वेश्यायन गोत्रीय, मण्डित वाशिष्ट गोत्रीय, मोरिअपुत्र काश्यप गोत्रीय, अकम्पित गौतम गोत्रीय, अचलभाता हारीत गोत्रीय, मेतार्य और प्रभास स्वामी कौडिन्य गोत्रज थे। ___७ गृहस्थ पर्याय-इन्द्रभूति का ५० वर्ष, अग्निभूति का ४६ वर्ष, वायुभूति का ४२ वर्ष, व्यक्त का ५० वर्ष, मण्डित का ५३ वर्ष, मोरिअपुत्र का ६५ वर्ष, अकम्पित का ४८ वर्ण, अचलभ्राता का ४६ वर्ग, मेतार्य का ३६ वर्ष, प्रभास स्वामी का १६ वर्ष था। ८संशय-इन्द्रभूति का जीव विषयक संशय भगवान महावीर ने मिटाया । अग्निभूति का कर्म विषयक, वायुभूति का जीव-शरीर विषयक, व्यक्त का पंच महाभूत विषयक,सुधर्मा स्वामी का जैसा यह भव वैसा ही परभव,मंडित का बन्ध मोक्ष विषयक, मोरिअपुत्र का देव सम्बन्धी, अकम्पित का नरक सम्बन्धी, अचलभाता का पुण्य पाप सम्बन्धी, मेतार्य का परलोक विषयक एवं प्रभास स्वामी का निर्वाण विषयक सन्देह भगवान ने मिटाया था। ६-१०-११-१२ द्वार:-ग्यारह गणधरों का दीक्षा दिवस एकादशी है । यज्ञवाटिका में उपस्थितों ने समवशरण में देवों का आगमन देखकर वैशाख शुक्ल ११ के दिन, मध्यम पापानगरी में, महसेन वनोद्यान में पूर्वाण्ह देश और पूर्वाण्ह काल में भगवान महावीर स्वामी के पास दीक्षा ग्रहण की थी। १३ ब्रत परिवार-इन्द्रभूति आदि पाँचों पाँचसौ छात्रों के साथ दीक्षित हुए मंडित व मोरियपुत्र साढ़े तीन सौ एवं अकम्पितादि चारों गणधर तीन सौ-तीन सौ छात्रों के साथ प्रत्येक दीक्षित हुए थे। १४ छद्मस्थ पर्याय-इन्द्रभूति का ३० वर्ष, अग्निभूति का बारह वर्ष, वायुभूति का दस वर्ष, व्यक्त का १२ वर्ष, सुधर्मा स्वामी का बयालीस वर्ष, मण्डित और मोरियपुत्र का चौदह वर्ष, अकम्पित का नौ वर्ष, अचलभ्राता का बारह वर्ष , मेतार्य का और प्रभास का आठ वर्ष का छद्मस्थ काल है । १५ केवलत्त्व-इन्द्रभूति गणधर बारह वर्ष, अग्निभूत सोलह वर्ष, वायुभूति ओर व्यक्त अठारह वर्ष, आर्य सुधर्मा स्वामी आठ वर्ष मण्डित-मोरिय [ १५ For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुत्र सोलह-सोलह वर्ष, अकम्भित इक्कोस वर्ष, अचलभाता चौदह वर्ष, मेतार्य और प्रभास गणधर प्रत्येक सोलह-सोलह वर्ष केवली पर्याय में विचरे थे। १६ रूप-ग्यारहों गणधर वज ऋषभ नाराच संघयण वाले, सम चतुरस्र संस्थान, स्वर्णाभ देह वर्णवाले एवं तीर्थ करों की भाँति रूप सम्पदा वाले थे। तीर्थंकर के लिए कहा है कि समस्त देवों का सौन्दर्य यदि अंगुष्ठ प्रमाण में विकर्वण किया जाय तो वे जिनेश्वर के पदांगुष्ठ की बराबर शोभा नहीं देते । इन वाक्यों के अनुसार तीर्थ करों का रूप अद्वितीय होता है । उनसे किञ्चित न्यून गणधरों का, उनसे कुछ हीन आहारक शरीर वालों का, उनसे न्यून अनुत्तर देवों का, उनसे हीन नवग्रेवेयक पर्यवसान देवों का उनसे हीन क्रमशः अच्युत देवलोक से लगाकर सौधर्म देवलोक के देवों का रूप होता है। उनसे भी हीन भुवनपति, उनसे हीन ज्योतिषी देव और उनसे हीन व्यन्तर देवों का रूप होता है उनसे भी हीन चक्रवत्ती, उनसे भी हीन अर्द्धचक्री-वासुदेवों का उनसे हीन बलदेवों का एवं उनसे हीन अवशिष्ट लोगों का रूप होता है। इस प्रकार के विशिष्ट रूपधारी गणधर होते हैं। श्रु तज्ञान की दृष्टि से गृहस्थावास में वे चतुर्दश विद्या के पारंगत, श्रामण्य में द्वादश अंग समस्त गणिपिटक के पारगामी और सभी द्वादशाङ्गों के प्रणेता होते हैं। १७ लब्धि-सभी गणधर सर्व लब्धि सम्पन्न होते हैं । यतः बुद्धि लब्धि (१८ प्रकार), केवलज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यव ज्ञान, बीजबुद्धि, कोष्ठ बुद्धि, पदानुसारित्व, सम्भिन्न सोइत्क, दूरासायण सामर्थ्य, दूरस्पर्श सामर्थ्य, दूर दर्शन सामर्थ्य, दूरघ्राण सामर्थ्य, दूर श्रवणसामर्थ्य, दशपूर्वित्व, चतुर्दशपूर्वित्व अष्टाङ्ग महानिमित्त कौशल्य, प्रज्ञाश्रमणत्व, प्रत्येकबुद्धत्व, वादित्व ।। क्रिया विषयक लब्धियाँ दो प्रकार की होती है। १ चारण लब्धि, आकाश गामित्त्व लब्धि । विकुर्वित लब्धि अनेक प्रकार की होती है । ___ अणिमा, महिमा. लघिमा, गरिमा, पत्ती प्रकामित्त्व, ईसित्त, वसित्त अप्रतिघात, अन्तर्धन, कामरूपित्त्व इत्यादि । तपातिशय लब्धि सात प्रकार की होती है यथा-उग्रतपरत्व, दित्ततपत्व महातपत्व घोर तपत्त्व, घोर पराक्रमत्व घोर ब्रह्मचारित्व, अघोर गुण ब्रह्मचारित्व । ___ बल लब्धि तीन प्रकार की होती है-१ मनो बलित्व, २ वचन बलित्व ३ कायबलित्व। औषधि लब्धि आठ प्रकार को होती है, यथा-१ आमोसहि लब्धि, १६ ] For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ खेलोसहि लब्धि, ३ जलोसहि लन्धि, ४ मलोसहि लब्धि, ५ विद्योसहि लन्धि, ६ सर्वोसधि लब्धि ७ आसगअविषत्त्व ८ दृष्टि विषत्व।। रस लन्धि छ प्रकार की होती है । यथा-१ वचन विषत्व, दष्टि विषत्व, क्षीरामवित्व, मधुश्रावित्व, रुप्पि आश्रवित्व, अमृतावित्व । क्षेत्र लब्धि दो प्रकार की होती है-१ अक्षीण महानसत्व, २ अक्षीण महा लयत्व । सभी गणधर इन लब्धियों से सम्पन्न होते है । १८ सर्वायु-इन्द्रभूति की बाणवे वर्ष, अग्भूिति की चौहत्तर वर्ष वायुभूति की सत्तर वर्ष, व्यक्त की अस्सी वर्ष, आर्य सुधर्मा स्वामी की मौ वर्ष, मण्डित की यासी वर्ष, मोरियपुत्र की पंचाणवे वर्ष, अमित की • अठत्तर वर्ष, अचलभ्राता को बहत्तर वर्ष, मेतार्य को बासठ वर्ष और प्रभास स्वामी की सर्वायु चालीस वर्ष की थी। १९-२० मोक्ष स्थान व तप-सभी गणधरों का निर्वाण मासभक्तोपवास व पादोपगमन पूर्वक राजगृह नगर के वेभारगिरी पर्वत पर हुआ । प्रथम और पंचम गणधर के अतिरिक्त नौ गणधर भगवान महावीर की विद्यमानता में ही मोक्ष प्राप्त हुए। इन्द्रभूति और सुधर्मास्वामो भगवान के निर्वाणोपरान्त माक्ष गए। गौतम स्वामी प्रभूति गणधर प्रभु-प्रवचनाम्न वन, के मधुर फल सुग्रहीत नामधेय महोदय हमें प्राप्त हो। यह गणधर कल्प जो प्रतिदिन प्रातःकाल प्रसन्न चित्त से पढता है, उसके करतल में सभी कल्याण परमराएं निवास करती है। संवद १३८६ विक्रमीय के ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी बुधवार के दिन रचित जिनप्रभसूरि कृत गणधर कल्प चिरकाल तक जयवंता हे। For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महोपाध्याय समयसुन्दरगणिकृत श्री गौतम स्वामी अष्टक प्रह ऊठी गौतम प्रणमीजइ, मन वंछित फल नौ दातार । लबधि निधान सकल गुण सागर, श्री वर्द्धमान प्रथम गणधार ।। प्र. १॥ गौतम गोत्र चौदह विद्या निधि, पृथिबी मात पिता वसुभूति । जिनवर वाणी सुण्या मन हरखे, बोलाव्यो नामे इन्द्रभूति ।। प्र० २।। पंच महाब्रत लेइ प्रभु पासे, ये त्रिपदी जिनवर मन रंग। श्री गौतम गणधर तिहां गूंथ्या, पूरब चउद दुवालस अंग ।। प्र० ३॥ लब्धे अष्टापद गिरि चढ़ियो, चैत्यवंदन जिनवर चौवीस । पनरेसे तोडोत्तर तापस, प्रतिबोधी कीषा निज सीस ।। प्र. ४ । अद्भुत ए सुगुरु नी अतिशय, जसु.दीखइ तसु केवलनाण । जाव जीव छठ छठ तप पारणे, आपण पै गोचरीय मध्याह्न ॥ प्र० ५। कामधेनु सुरतरू चिंतामणि, नाम माहि जस करे रे निवास । ते सद्गुरु नो ध्यान धरता, लाभइ लक्ष्मी लील विलास ।। प्र० ६॥ लाभ घणो विणजे व्यापारे, आवे प्रवहण कुशले खेम । ए सद्गुरु नो ध्यान धरंता, पामै पुत्र कलत्र बहु प्रेम ।। प्र० ७॥ गौतम स्वामी तणा गुण गातां, अष्ट महासिद्धि नवे निधान । समयसुन्दर कहै सुगरू प्रसादे, पुण्य उदय प्रगव्यो परधान ॥ प्र०८॥ For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री जैन संस्कृति कला-मन्दिर द्वारा प्रकाशित एवं प्राप्य ग्रन्थादि (1) सम्मेत शिखर ( लेखक-महेन्द्र सिंघी) 130 चित्रसह प्रस्तावना-भंवरलाल नाहटा मूल्य 12 रु० (2) श्री पावापुरी 16 रंगीन, 16 इकरंगे चित्रयुक्त लेखक-महेन्द्र सिंघी, प्रस्तावना-विजयसिंहजी नाहर मूल्य 11 रु० (3) राजगृह, लेखक-भंवरलाल नाहटा, प्रस्तावना-शुभकरणसिंह सचित्र मूल्य 20 (4) क्षत्रियकुण्ड, लेखक-अगरचन्द नाहटा, भँवरलाल नाहटा सचित्र मूल्य 75 पैसे (5) कुण्डलपुर (नालन्दा), लेखक-भँवरलाल नाहटा सचित्र मूल्य 75 पैसे (6) चम्पापुरी (प्रेस में) लेखक-भंवरलाल नाहटा सचित्र मूल्य 75 पैसे (7) पूर्व भारत के जैन 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