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व मुसलमानों द्वारा नष्ट कर डाला गया। तबकाते नसोरी के पृष्ठ ५५ में मिनहाज ने लिखा है कि बख्तियार खिलजी ने जिस बौद्ध-विहार व विद्यालय को नष्ट किया था वह नालन्दा का ही संभावित है ।
तिब्बती "पग साम जोन झंग” में लिखा है कि मुस्लिम आक्रमण के पश्चात् मुदितभद्र ने इसे जीर्णोद्धारित किया । उसके मंत्री कुकुत्सिद्ध ने मन्दिर बनवाया । एक वार वहाँ दो ब्राह्मण आये जिस पर बौद्ध छात्रों ने पानी गिरा दिया । उसने रुष्ट होकर बारह वर्ष तक सूर्य तप किया और यज्ञ के समय अंगार गिरा कर नष्ट कर दिया ।
नालन्दा के निकट आज भी सूर्यकुण्ड नामक एक प्रसिद्ध तालाब है, जिसके स्नान का बड़ा माहात्म्य है । इसके आस-पास कई प्राचीन प्रतिमाएँ पंचमुख शिव एवं अन्य देवी देवताओं की है । मैंने तीस पैंतीस वर्ष पूर्व यहाँ " नालन्दा” नामोल्लेख युक्त अभिलेख भी देखे और उनकी छापें ली थी ।
सन् ११६७ से सन् १२०३ के बीच बख्तियार खिलजी ने विश्वविद्यालय व छात्रावास मठ आदि को पूर्णतः नष्ट कर दिया । भिक्षुगण मार डाले गए, ग्रन्थों को जला दिया गया। बाद की शताब्दियों में उसके खण्डहर एक विशाल टीले के रूप में परिवर्तित हो गए और घास ऊग गया । सन् १६१५से जब भारत सरकार के पुरातत्त्व विभाग ने उत्खनन प्रारम्भ किया तो विश्वविद्यालय की इमारतें, बौद्ध विहार, छात्रावास आदि निकले तब से नालन्दा. का महत्त्व काफी बढ गया है ।
विहार प्रान्त की इस धर्मान्ध तोड़ फोड़के समय कितने ही धर्म परिवर्त्तन हुए और अराजकता में अभिवृद्धि हुई थी पर मणिधारी दादा श्री जिनचन्द्रसूरि जी (सं० १२११ से १२२३) के प्रतिबोध देकर धर्म में दृढ़ की हुई महत्तियाण मंत्रदलीय जाति शताब्दियों तक इधर के तीर्थों-मन्दिरों की सार संभाल करती रही । इस जाति के श्रावक नालन्दा और विहार शरीफ में प्रचुर संख्या में निवास करते थे, विहार में महत्तियाण मुहल्ला अब भी विद्यमान है । जहाँ पर मुस्लिम बस्ती हो जाने से जिनालय की प्रतिमाओं को लगभग २० वर्ष पूर्व हटा लिया गया है ।
युगप्रधानाचार्य गुर्बाबली तेरहवीं शताब्दी की दैनन्दिनी की भाँति एक प्रमाणिक ग्रन्थ है । उसमें उल्लेख है कि "सं० १३५२ ( ई० सन् १२६५ में श्री जिनचन्द्रसूरिजी के उपदेश से वा० राजशेखर, सुबुद्धिराज गणि, पुण्यकीत्ति गणि, रत्नसुन्दर मुनि सहित श्रीबड़गाँव में विचरे और वहाँ के रत्नपाल सा० चाहड़ आदि परिवार सह सा० बोहित्थ पुत्र मूलदेव ने संघ
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