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ई० सन् ३०० में नागार्जुन व सन् ३२० में उसके शिष्य आर्यदेव नालन्दा के ख्याति प्राप्त विद्वान थे। पाँचवी शताब्दी में उत्तरकालीन गुप्त शासक कुमार गुप्त प्रथम ( महेन्द्र गुप्त ) द्वारा विश्वविद्यालय की स्थापना हो चुकी थी । गुप्त शासकों ने अपने प्रचुर दान द्वारा इसे खूब पनपाया, १२वीं शताब्दी तक इस विश्वविद्यालय को देश-विदेश के शासकों ने बड़ी प्रगति दी थी । हर्षवर्द्धन ने हुएनसांग के समय १०० गाँव दान में दिये थे । दव शताब्दी में कन्नौज के राजा यशोवर्मन के एक मंत्री के पुत्र ने विश्वविद्यालय को प्रचुर दान देकर सहाय्य किया था । बंगाल के पाल शासक धर्मपाल भी इसके विशिष्ट संरक्षक थे । पालवंश के गोपाल ने मगध को जीत कर नालन्दा के समीप ओदंतपुर में भी विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। इसी बीच तिब्बत से सम्पर्क बढ़ा तो संरक्षित पद्मसंभव जैसे उद्भट विद्वान वहाँ गये । तिब्बती लिपि के रूप में आज भी तारतीय गुप्तकालीन लिपि के वहाँ दर्शन होते हैं । धर्मपाल ने हवीं शताब्दी में नालन्दा के विद्वानों के सहयोग से विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। बारहवीं शताब्दी तक पाल शासकों से इस विश्वविद्यालय को संरक्षण मिला । नालंदा विश्वविद्यालय हुएनसंग आदि का बड़ा सम्मान हुआ । आर्यदेव, जिनमित्र, धर्मपाल, चन्द्रपाल, शीलभद्र, संतरक्षित, धर्मकीर्त्ति आदि यहाँ के प्रकाण्ड विद्वान थे । वे बाहर के आमंत्रण पर प्रवास करके धर्म का प्रचार करते थे, यहाँ का ग्रन्थागार भी तीन खण्डों में विभक्त था ।
इन शताब्दियों में नालंदा में बौद्धों का प्रभुत्व अवश्य बढ़ा और जैनों की वस्ती आगे से अल्प होती गई पर उनके मन्दिर मृत्ति निर्माण और धर्माराधन का काम बराबर चलता रहा इस काल की बनी हुई अनेक प्रतिमाएँ आज
प्राप्त है पर साधु-विहार कम होने लग गया था. इस काल के बंगाल विहार के जैन साहित्य और चैत्यवासी युग के ऐतिहासिक साहित्य के अभाव में 'विशेष कुछ प्रकाश नहीं डाला जा सकता पर आम नागावलोक के राजगृह विजय तथा जैनाचार्य बप्पभट्टिसूरि, प्रद्युम्नसूरि व जीवदेवसूरि के इधर विचरने के संक्षिप्त उल्लेख पाये जाते हैं ।
पाल राज्य के पतन के साथ-साथ बौद्ध धर्म भी भारत से विलीन होता गया । नालन्दा विश्वविद्यालय जहाँ दस हजार छात्र व हजारों प्राध्यापक व बौद्ध भिक्षुओं का जमघट रहता था, उस जमाने में विश्वविश्रुत था, संसार भर के छात्र यहाँ शिक्षा प्राप्त करने के लिये आते थे, निकटस्थ उद्दड़विहारओदंतपुरी में भी शिक्षा व बौद्ध-विद्या का बड़ा भारी केन्द्र था, प्रतिस्पर्द्धियों
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