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प्राचीन तीर्थमालाओं के उपयुक्त अवतरणों में एक वाक्य विचारणीय है । वह है-"मुनिवर यात्रा खाणि” यह हंससोम, जयविजय, सौभाग्यविजय और शीलविजय को प्रकाशित तीर्थमालाओं का पाठ है, जबकि दयाकुशल, विजयसागर और पुण्यसागर कृत तीर्थमाला में "मुनिवर पात्रा खाण” पाठ है । यहाँ दो प्रकार के पाठ देख कर प्राचीन तीर्थमाला संग्रह भा० १ के संक्षिप्त सार में जैनाचार्य श्री विजयधर्मसूरिजी ने मुनिवर यात्रा खाणि पाठ को प्रधानता देते हुए खाणि'शब्द को बंगला के 'जे खाने से खाने' शब्द का उदाहरण देकर यात्रा स्थान अर्थ किया है और उसके पूर्व प्रमाण में वैभारगिरिकल्प के २८ वें श्लोक को प्रस्तुत किया है । वास्तव में यात्रा खाणि पाठ सही नहीं है, मुनिवर यात्रा स्थान ही क्यों ? सर्वसाधारण के यात्रा का स्थान हो सकता है । सं० १६६१ में जयविजय "पुहवइ प्रगटी यात्रा खाणि” तथा विजयसागर "गोयम गुरु पगला ठामि, प्रगटी मुनि पात्रानी खाणि" पाठ में "पुहबइ प्रगटी” और “प्रगटी" शब्द में पृथ्वी में से मुनिराजों के पात्रों की खाण प्रगट होने का उल्लेख करते हैं, यही अर्थ सही है, क्योंकि नालन्दा विश्वविद्यालय का महाविहार जो ध्वस्त कर दिया गया था, उसमें दबे हुए बौद्ध श्रमणों के पात्र यदा-कदा जमीन में से निकलते रहते थे। कवि दयाकुशल यहाँ 'सेस का जि लई सहु कोय' लिख कर बताते हैं कि लोग उन पात्रों को स्मृति चिन्ह-प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं। यह स्थान कल्याणक स्तूप के पास ही होने का सभी कवियों ने उल्लेख किया है। कवि पुण्यसागर ने ईटों के देर को कयवन्नासेठ के घर की कल्पना की है तथा जशकीर्ति ने और विनयसागर ने १५०३ तापसों का जिन्हे गौतमस्वामी अष्टापदजी से लाये थे- केवलज्ञान स्थान कहा है। नालन्दा विश्वविद्यालय के निकट जो भगवान महावीर अथवा गौतम स्वामी के चरण पादुकाओं वाला स्तूप था वह कल्याणक स्तुप कब किस रूप में परिवर्तित हो गया या ध्वस्त दुह में विस्मृत हो गया यह शोध अपेक्षित है। सौभाग्यविजय ने कल्याणक स्तूप को पांच कोश की दूरी पर लिखा है यह उनकी विस्मृति लगती है। कवि विजयसागर ने नालन्दा के पास आनन्द श्रावक के वाणिज्यग्राम का उल्लेख किया है पर अभी विश्वविद्यालय के पास कपठिया नामक गाँव है सामने सारीचक, आगे वड़गाँव गुठवर गाँव और सूरजपुर है । नालन्दा से राजगृह की ओर जाते बाँयें तरफ मोहनपुर ओर दाहिनी ओर सीमा गाँव पड़ता है। पुरातत्त्व विभाग और शोध विद्वान अब तक यह निर्णय नहीं कर 'पाये हैं कि नालन्दा की बस्ती कहाँ थी ? परन्तु जैन कवियों के उल्लेख से स्पष्ट है कि नालन्दा का नाम ही पीछे जाकर वड़गाँव प्रसिद्ध हो गया।
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