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मेघनादः स्फुरन्नादः शात्रवाणां रणाङ्गणे । क्षेत्रपालाग्रणीः कामान् कांस्कान् पुसां पिपत्ति न ||२७|| श्री गौतमस्यायतनं कल्याण स्तूप सन्निधौ । दृष्टमात्रमपि प्रीति पुष्णाति प्रणतात्मनाम् ||२८||
इस वर्णन में भगवान के चौदह चातुर्मास, क्षेत्रपाल मेघनाद और गौतम स्वामी के आयतन और कल्याण स्तूप के दर्शन से नमस्कार करने से भावनाएँ पुष्ट होने का उल्लेख किया है । यह कल्याण स्तूप शताब्दियों तक पूज्यमान रहा जिसके वर्णन स्वरूप कवियों द्वारा किये गए उद्धरण आगे प्रस्तुत किए जाएँगे ।
सं० १४१२ में फिरोजशाह तुगलक के समय में विपुलगिरि पर महत्ति - याण ठ० देवराज वच्छराज ने पार्श्वनाथ मन्दिर का निर्माण कराया था जिसकी महत्त्वपूर्ण शिला प्रशस्ति ( श्लोक ३८ ) ३३ पंक्तियों में खुदी हुई स्वर्गीय पूरणचन्दजी नाहर को प्राप्त हुई थी, जो उनके शान्तिभवन में विद्यमान है और जैन लेख संग्रह में प्रकाशित है। इस प्रशस्ति में खरतरगच्छ पट्टावली और महत्तियाण वंशावली भी शामिल है। इसे लिखने वाला कवि विद्धणु (वोधा ) ठक्कुरमाल्हा का पुत्र था । इस कवि की ज्ञानपंचमी चौपई क्षं० १४२३ में विहार में रचित उपलब्ध है ।
सं० १४३० से पूर्व लोकहिताचार्य ने यहाँ चातुर्मास किए, प्रतिष्ठाएँ कराई जिसके समाचारों के प्रत्युत्तर में आये हुए विज्ञप्ति महालेख में संकेत मिलते हैं, मूल अप्राप्त है जिसके प्राप्त होने पर ही पूरे विवरण मिल सकते हैं ।
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सं० १४६७ में श्रीजिनवद्ध नसूरिजी के सानिध्य में जौनपुर से ५२ संपतियों का जो विशाल यात्री संघ निकला था, उनके रास में भी नालन्दा यात्रा का उल्लेख प्राप्त है, यत :
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पावापुरि नालन्दा गामि, कुण्डगामि कायंदी ठामि । वीर जिणेसर नयर विहारि, जिणवर वंदइ सवि विस्तारि ||"
जिनवर्द्धनसूरिजी ने तीर्थमाला में भी नालन्दा यात्रा का उल्लेख किया है जो हमने जैन सत्यप्रकाश ( १५ फरवरी १६५३ ) में प्रकाशित की थी
यतः
" इय पणमउ ए नयर नालिंद, संठिउ वीर जिणेश पुण"
सं० १४७७ मिती ज्येष्ठ बदि ६ के दिन श्रीजिनवद्ध नसूरिजी ने यहाँ ऋषभदेव भगवान की प्रतिष्ठा की थी जो आज भी नालन्दा के जैन
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