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पुत्र सोलह-सोलह वर्ष, अकम्भित इक्कोस वर्ष, अचलभाता चौदह वर्ष, मेतार्य और प्रभास गणधर प्रत्येक सोलह-सोलह वर्ष केवली पर्याय में विचरे थे।
१६ रूप-ग्यारहों गणधर वज ऋषभ नाराच संघयण वाले, सम चतुरस्र संस्थान, स्वर्णाभ देह वर्णवाले एवं तीर्थ करों की भाँति रूप सम्पदा वाले थे। तीर्थंकर के लिए कहा है कि समस्त देवों का सौन्दर्य यदि अंगुष्ठ प्रमाण में विकर्वण किया जाय तो वे जिनेश्वर के पदांगुष्ठ की बराबर शोभा नहीं देते । इन वाक्यों के अनुसार तीर्थ करों का रूप अद्वितीय होता है । उनसे किञ्चित न्यून गणधरों का, उनसे कुछ हीन आहारक शरीर वालों का, उनसे न्यून अनुत्तर देवों का, उनसे हीन नवग्रेवेयक पर्यवसान देवों का उनसे हीन क्रमशः अच्युत देवलोक से लगाकर सौधर्म देवलोक के देवों का रूप होता है। उनसे भी हीन भुवनपति, उनसे हीन ज्योतिषी देव और उनसे हीन व्यन्तर देवों का रूप होता है उनसे भी हीन चक्रवत्ती, उनसे भी हीन अर्द्धचक्री-वासुदेवों का उनसे हीन बलदेवों का एवं उनसे हीन अवशिष्ट लोगों का रूप होता है। इस प्रकार के विशिष्ट रूपधारी गणधर होते हैं।
श्रु तज्ञान की दृष्टि से गृहस्थावास में वे चतुर्दश विद्या के पारंगत, श्रामण्य में द्वादश अंग समस्त गणिपिटक के पारगामी और सभी द्वादशाङ्गों के प्रणेता होते हैं।
१७ लब्धि-सभी गणधर सर्व लब्धि सम्पन्न होते हैं । यतः बुद्धि लब्धि (१८ प्रकार), केवलज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यव ज्ञान, बीजबुद्धि, कोष्ठ बुद्धि, पदानुसारित्व, सम्भिन्न सोइत्क, दूरासायण सामर्थ्य, दूरस्पर्श सामर्थ्य, दूर दर्शन सामर्थ्य, दूरघ्राण सामर्थ्य, दूर श्रवणसामर्थ्य, दशपूर्वित्व, चतुर्दशपूर्वित्व अष्टाङ्ग महानिमित्त कौशल्य, प्रज्ञाश्रमणत्व, प्रत्येकबुद्धत्व, वादित्व ।।
क्रिया विषयक लब्धियाँ दो प्रकार की होती है। १ चारण लब्धि, आकाश गामित्त्व लब्धि । विकुर्वित लब्धि अनेक प्रकार की होती है । ___ अणिमा, महिमा. लघिमा, गरिमा, पत्ती प्रकामित्त्व, ईसित्त, वसित्त अप्रतिघात, अन्तर्धन, कामरूपित्त्व इत्यादि ।
तपातिशय लब्धि सात प्रकार की होती है यथा-उग्रतपरत्व, दित्ततपत्व महातपत्व घोर तपत्त्व, घोर पराक्रमत्व घोर ब्रह्मचारित्व, अघोर गुण ब्रह्मचारित्व । ___ बल लब्धि तीन प्रकार की होती है-१ मनो बलित्व, २ वचन बलित्व ३ कायबलित्व।
औषधि लब्धि आठ प्रकार को होती है, यथा-१ आमोसहि लब्धि,
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