Book Title: Hidayat Butparastiye Jain
Author(s): Shantivijay
Publisher: Unknown
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (हिदायत बुतपरस्तिये जैन.) ___ (जिसकों, ) जैनश्वेतांबर धर्मोपदेष्टा विद्यासागर न्यायरत्न महाराज शांतिविजयजीने मुरतिब किया. O इसमे मुनि कुंदनमलजीके लेखका जवाब और . मूर्तिपूजाके बारेमें उमदा दलिले दर्ज है. (शुरुआत किताब.) [शेयर.] रौनके महताबभी देखो, गर्मीये आफताबभी देखो, और हासिलहै मुफ्त घरबैठे, लो! हमारी कितावभी देखो.१ . जैनमजहबमें जिनमंदिर और जिनमूर्तिका मानना कदीमसे चला आया, भरतराजाने तीर्थअष्टापदपर चौईसतीर्थकरोके मंदिर तामीर करवाये, और जमाने तीर्थकर महावीरस्वामीके गौतमगणधर . उनकी जियारतकों गये, अमर जैनमजहबमें मंदिरमूर्तिका मानना मना होतातो ऐसापाठ क्यों होता? जब गौतमस्वामी जैसे जैनमुनि जिनको गणधरपदवीथी-तीर्थकी जियारतकों गये तो, दुसरे जैनमुनि क्यों न जावे ? मूर्तिपूजासे एक नागकेतु महाशयकों केवल ज्ञान पैदा हुवा, और जिनमूर्त्तिके दर्शनसे आर्द्रकुमारको जातिस्मर्ण ज्ञान हुवा. तीर्थ शंखेश्वरपार्श्वनाथ, तीर्थ केशरीयाजी और तीर्थ अंतरिक्षजीमें निहायत पुरानी जैनमूर्ति मौजूद है, अगर जैन Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिदायत बुतपरस्तिये जैन. मजहबमें मूर्त्तिका मानना कदीमसे न होतातो ये पुरानी मूर्त्तियें क्यों होती ? और पुराने जैन तीर्थभी क्यों होते ? बाद निर्वाण तीर्थंकर महावीरस्वामी के ( २९०) वर्क्स पीछे एक संप्रतिराजा जैममजहब में कामीलएतकात हुवा, जिसके तामीर करवाये हुवे जैनमंदिर हिंद में कइजगह अबतक मौजूद है, तीर्थशत्रुंजय, गिरनारपर इसीराजासंप्रतिके बनाये हुवे पुराने जैनमंदिर अबतक खडे है, आबुके जैनमंदिर मुल्कोमें मशहूर है, शेठ विमलशाह, दिवान वस्तुपाल, तेजपाल और शेठ भेसाशाहके बनवाये हुवे जैनमंदिर पहाडपर क्याही ! ऊमदा कारिगिरीके नमुने खडे है, जिसका बयान लिखना कलमसे बहार है, बडे बडे शिल्पकार इनमंदिरोकों देखकर ताज्जुब करते हैं, राजाकुमारपालका बनाया हुवा जैनमंदिर तीर्थतारंगापर किसकदर मजबूत और पावंद बना है जिसकी तारीफ वेंमीशाल है. जैनागमज्ञातासूत्रमें सतरहतरहकी पूजाका बयान है, खयाल करो कि अगर जैनमजहब में मूर्त्तिपूजा न होतीतो असा वयान क्यौं होता ? जैसे हफकों देखकर ज्ञान पैदा होता है, मूर्त्तिको देखकरभी ज्ञान होता है. जिसने पुस्तककी इज्जत कि उसने मूर्त्तिकी भी इज्जत किइ समजो, चाहे वो मूर्तिपूजासें अंतराज करे मगर उसके दिलसे मूर्त्तिकी इज्जत साबीत होचुकी. इस किताब के बनानेका सबब यह हुवा कि जब मेने संवत् (१९७१) का चौमासा मुकाम शहरधुलिया, जिले खानदेशमें किया, मुकाम वरोरा, जिले चांदा से भेजा हुवा एक " मिथ्याभर्मनास्ति " नामका इस्तिहार बजरीये डाकके मुज़कों मिला, इसके लेखक मुनि कुंदनमलजी है और प्रसिद्धकर्त्ता जौनी गटुलाला कस्तुरचंदजी खानदेश है. इसमें मेरी बनाइ हुइ किताब सनम परस्तिये जैनपर कुछ विवेचन दिया है. इसमे न किसीसूत्रका पाठ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिदायत बुतपरस्तिये जैन दिया न किसीसूत्रका हवाला दिया, सिर्फ ! थोडासा लिखाण लिखकर चैत्यशब्दके वारेमें कुछ पुछा है. विवेचनपत्रकी शुरूआतमें मुनि कुंदनमलजी लिखते है किदेखिये ! पितांबरी मूर्तिपूजक शांतिविजयजीको हमारे स्वधर्मी सुश्रावक बंब खूबचंदजी साकीन उन्हेल-मुल्क मालवेवालेने जैनपत्र तारिख २९-५-११ के अंकद्वारा (२२) सवाल पूछे थे और उत्तर जैनसिद्धांतोंके मूलपाठसे मागेथे, ऊक्त प्रश्नोके जवाबमें शांतिविजयजीने सनम परस्तिये जैन-इस नामकी किताब छापके जाहीर किइ है. (जवाब.) बेशक ! किताब सनम परस्तियेजैन मेरी तर्फसें बनाइ गइ है, जोकि जैनश्वेतांबरश्रावक धुलजी गणेश-साकीन महेंदपुर मुल्क मालवेने फायदेआमके छपवाकर जाहिर किइ है, इसमें मेने जो बाइससवालोके जवाब दिये है, कइजगह जैनसिद्धांतोके मूलपाठभी दिये है, जिनको शकहो मजकुर किताब मंगवाकर देखे, जैनसिद्धांतोके मूलपाठही मानना या बतीससूत्रही मानना जैसा किसी जैनसिद्धांतमें नहीं लिखा, अगर लिखा है तो कोई पाठ बतलावे, मेरेसे कोई महाशय जैनसिद्धांतोके मूलपाठ लेना चाहे, तो वे अपने लेखमे मूलसूत्रके पाठदेकर पेंश आवे, आप पाठ देना नही, और दुसरोसें पाठ मांगना, यह कौन इन्साफ है ? जैनसिद्धांतोमें सूत्र, भाष्य, टीका, नियुक्ति और चूर्णि ये पंचांगी मंजुर रखना फरमाया, मूलसूत्रोपर जो बालावबोध यानी टबा बना है, टीकाके आधारसे बना है, टीकाकों मंजुर नही रखना फिर टबाकों मंजुर क्यौं रखना? कइजगह मूलसूत्रमें जो बात बही है और टबेमे है, बतलाइये ! वे बाते कहांसे लाइ गई ? अगर कहा जाय टीकासे लाइ गई है, तो फिर टीकाकों मंजुर क्यों न किई जाय? नंदीसूत्रमे पेंतालीस जैनागमके नाम लिखे है, और एवमादि Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिदायत बुतपरस्तिये जैन. शब्दसे (१४००० ) प्रकीर्णकशास्त्र मंजुर रखना लिखा है, अगर तीससूत्रका मूलपाठही मंजुर रखा जाय तो बतलाइये ! महावीरस्वामी सताईसभव किस सूत्रके मूलपाठमें लिखे है ? महावीर स्वामी शाथ गौतमस्वामीका धर्मचर्चा के बारेमे वाद हुवा कहाँ लिखा है ? ब्रह्मदत्तचक्रवर्तीकी कथा, ढंढणरिषिका अधिकार, अरिहंतो के बारांगुण, आठ दिनके पर्युषण, तीर्थंकर महावीरस्वामी की जम्मराशिपर भस्मगृह आया, चंद्रगुप्तराजाने सोलहस्वम देखे और सीमंधरस्वामीवगेरा वीशव हेरमानका अधिकार ये बातें बत्तीससूत्रके मूलपाठमें किसजगह लिखी है कोई बतलावे. अब पीतांवरीके बारेमें जवाब सुनिये ! जैनागम निशीथसूत्रमें लिखा है कि- जैनमुनिकों अगर नयाकपडा मीले तो तीन पसली जितना रंग देना, पीले कपडे पहननेवालेकों कोई पीतांबरी कहे तो इससे क्या हुवा ? पीले कपडे पहनना जैनमुनिकों खिलाफ जैनशास्त्रके नही, अलबते ! जैनमुनिकों मुखपर मुखवस्त्रिका बांधना किसी जैनशास्त्रमें नही लिखा- अगर लिखा है, तो कोई पाठ बतलावे, अगर कोई इससवालकों पेश करे कि मूर्तिपूजा अछी चीज है, तो जैनमुनि खुद क्यों नहीं करते, जवाबमे मालुम हो वंदन नमनस्तवनरूप भावपूजा जैनमुनि भी करते है, पेस्तर लिखचुकाहुं कि- गणधर गौतमस्वामी - तीर्थ अष्टापदकी जियारतकों गयेथे, साबीत हुवा वंदन नमनरूप भावपूजा जैनमुनि भी करते है. आगे मुनि कुंदनमलजी अपने विवेचनपत्रमें बयान करते हैं कि उक्त किताब में कितनेक जैनके असली सिद्धांतोके मूलपाठ दाखल किये है, वह सर्व पाठ अधुरे दाखल किये है, संपूर्ण पाठ शांतिविजयजीने दाखल नही किये है, सौचो ! अधुरी बात अकलमंद हुशियार आदमी कोई वजहसे अंगीकार नही करते है. ( जवाब . ) अगर शांतिविजयजीने अधुरे पाठ दाखल कियेथे Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . हिदायत बुतपरस्तिये जैनतो आपने पुरे पाठ दाखल करके क्यों नहीं बतलाये ? आपका फर्जथा पुरे पाठ दाखल करके बतलाते, यातें बांचनेवालोकों मालुम होजाता कि यह अधुरा पाठ है, और यह पुरा है. फिर मुनिकुंदनमलजीने अपने विवेचन पत्रमें तेहरीर किया है, जैसा स्थान होवे वैसा शब्दका अर्थ कियाजाता है, मसलन ! चरण-भूषण यहांपर मुकुट, ताज, पघडी, फेटा, टोपी वगैरा अर्थ कदापि नही होसकते, कर-कंकण यहांपे बुट, जुते, पगरखी, चपल, खडाऊ असे अर्थ कदापि नहीं होसकते, इसी वजह चैत्य शब्दके श्री जैनके प्राचीन असली सिद्धांतोमें अनेक अर्थ किये है. _ (जवाब.) अगर चैत्य शब्दके अनेक अर्थ किये है तो उनमेसे एक दो अर्थ जरुर कर बतलानाथा, चैत्य शब्दके माइने जिनमंदिर और जिनमूर्ति है, इसमें कोई शक नहीं, मेने चरणभूषणकी जगह मुकुटताज और करकंकणकी जगह बुट, पगरखी वगेरा अयोग्य अर्थ नहीं किये, योग्य किये है। अगर किसीजगह अयोग्य अर्थ किये हो, तो बतलाइये. __आगे मुनि कुंदनमलजी अपने विवेचनपत्रमें इस मजमूनको पेंश करते है कि तीर्थकरोके वचनोको शांतिविजयजी धक्का पहुचाके अपनी मतरूढसे एकपक्ष पकडके चैत्य इस शब्दका प्रतिमा एसा एक अर्थ करके अपना मत सिद्ध करना चाहते है, मगर श्री जैनके प्राचीन असली सिद्धांतोके बर्खिलाफबात अकलमंद हुशियार आदमी कोई वजहसे अंगीकार नहीं करते है, देखो ! चैत्य शब्दकी पुष्टि के बारेमें शांतिविजयजीने हैमकोशका दाखला दिया है, मगर हैमकोशका कर्ता मूर्तिपूजक है, इसलिये यह साक्षी मंजुर कदापि नहीं होसकती. ___ (जवाब.) अगर हैमकोशके कर्ता मूर्तिपूजक होनेसे उनकी साक्षी मंजुर नही, तो मूर्तिनिषेधक जैनाचार्यकी साक्षी दिजिये, Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ हिदायत बुतपरस्तिये जैन. जिनोने जैनकोश बनाया हो. मूर्त्तिपूजक जैनाचार्यकी साक्षी मंजुर नही, मूर्त्तिनिषेधक जैनाचार्यकी साक्षी दिइ नहीं, फिर जवाब क्या हुवा ? शांतिविजयजीने सनमपरस्तिये जैनमें ऐसा कोई लिखाण नही किया जिससे तीर्थंकरोके फरमानको धक्का पहुचे, अगर ऐसा कोई लिखाण था तो बतलाना था, एकांतपक्ष भी नही पकडा, बल्कि ! चैत्य शब्दका माइना जिनमंदिर और जिनप्रतिमा है, ऐसा जैनशास्त्र के पाठसे बतला दिया है, अगर कोई कहे कि चैत्यशब्दका माइना ज्ञान या साधु है तो उसका सबुत बतलावे, जैनागम में साधुकी जगह निगंधाण वा निग्गंथवा साहुवा साहुणीवा भिखुवा भिखुणीवा ऐसा पाठ लिखा है, मगर चैत्यं वा चैत्यानि वा एसा पाठ नही लिखा, तीर्थकर रिषभदेव महाराजके चौराशी हजार साधुये ऐसा लिखा मगर चौराशी हजार चैत्यथे ऐसा नहीं लिखा, इसीतरह तीर्थकर महावीर स्वामीके चौदह हजार साधु कहे, मगर चौदह हजार चैत्यये ऐसा नही कहा, अगर चैत्यशब्दका माइना ज्ञान है ऐसा कहे तो नंद सूत्र ज्ञानकी जगह चैत्यशब्द क्यों नही कहा ? नंदीसूत्रमे नाणं पंचविहं पन्नतं, ऐसा पाठ कहा, मगर चेहयं पंचविहं पन्नत्तं ऐसा पाठ नहीं कहा, जहांजहां ज्ञानी मुनियोका लेख आता है महनाणी सुपाणी ओहिनाणी मण पज्जवनाणी केवलनाणी ऐसा पाठ है, मगर किसीजगह मतिचैत्यी श्रुतचैत्यी अवधिचैत्य ऐसा पाठ नही आता, जैनशास्त्रोंमें कई जगह बयान है अमुक जैनमुनिकों अवधि ज्ञान पैदा हुवा, अमुक जैनमुनिकों केवलज्ञान पैदा हुवा, मगर ऐसा पाठ नही आता कि - अवधिचैत्य या केवलचैत्य पैदा हुवा, इसलिये कहाजाता है चैत्यशब्दका माइना ज्ञान नही. [ भगवती सूत्र में पाठ है. ] किं निस्सारणं भंते असुरकुमारा देवा उढं उपायंति, Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिदायत बुतपरस्तिये जैम, जाव सोहम्मोकप्पो गोयमा ! असुरकुमारा देवा इत्यादि नणथ्थ अरिहंतेवा अरिहंत चेहयाणिवा अणगारे भाविअपणो निस्साए उढं उप्पयंति जावसोहम्मो कप्पो. तीर्थंकर महावीर स्वामी से गौतमगणधर ने सवाल किया कि -- असुरकुमारदेवता आस्मानमें जावे तो कहांतक जावे ? जवाब में तीर्थंकर महावीरस्वामीने फरमाया कि असुरकुमारदेवता आस्मानमें सौधर्म देवलोकतक जावे, और जाते वख्त अरिहंतका सरणा लेकर जासकता है, अरिहंतकी प्रतिमाका या भावितआत्मा अणगारका सरणा लेकर जासकता है, देखिये ! यहां चैत्यशब्दका माईना अरिहंतकी प्रतिमा है या नही ? साबीत हुवा चैत्यशब्दका माईना जिनप्रतिमा है. फिर मुनि कुंदनमलजी अपने विवेचनपत्र में लिखते है-जैसे घरके घोडे घरके चौक में कुदाये तो इसमें क्या बडी बात करी, हम शांतिविजयजीकी बहादुरी जब समजते कि जैसी चैत्यशब्दकं बारेमें हैमकोशकी साक्षी दिइ वैसे चैत्यशब्द के बारेमें श्रीजैनके प्राचीन असली सिद्धांतोकी साक्षी देते. ( जवाब . ) शांतिविजयजीने जैनके प्राचीन और असलीसिद्धांत भगवती सूत्रके मूलपाठकी साक्षी ऊपर देदिर, उसमे देखलो ! चैत्यशब्दका माईना जिनप्रतिमा है या नहीं ? किताब सनम परस्तिये जैनमेंभी जंघाचारणमुनिके बयानमें भगवती सूत्रका पाठ देकर चैत्यशब्दका माईना जिनप्रतिमा बतलाचुका हूं, शांतिविजयजीने घरके घोडे घरम नही कुदाये है, बल्कि ! किताब सनम परस्तिये जैन बनाकर छपवा दिइ है, जिसकों आज करीब चार वर्स होगये, और छपवानेवालोने शहर बशहर भेज दिइ है, पढनेवालोने पढी होगी. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिदायत चुतपरस्तिये जैन आगे मुनि कुंदनमलजी अपने विवेचनपत्रमें बयान करते है, शयंभवमूरिका बनाया हुवा दशवकालिकसूत्र और शामाचार्यका बनाया हुवा पनवणासूत्र क्यों मंजुर रखा गया ? यहांपे सहज सवाल पैदा होनेका वख्त है कि-अगर ऊक्त दोनो सूत्रोके नाम श्रीजैनके प्राचीन असली सिद्धांतोमें दर्ज होवेगे तो शांतिविजयजीका कथन साफ खोटा है ऐसा निश्चय होगा. . (जवाब.) शांतिविजयजीका कथन खोटा जब ठहरसकता है कि-अगर मुनि कुंदनमलजी दशवकालिकसूत्रको और प्रज्ञापना सूत्रकों गणधररचित साबीत करदेवे, आचार्योके बनाये हुवे दशवैकालिक और प्रज्ञापनासूत्रको मंजुर रखते हो तो फिर आचार्योंकी बनाइ हुई टीका, भाष्य, नियुक्ति और चूर्णि क्यों नहीं मंजुर रखना ? इसका कोई जवाब देवे, अगर कहाजाय नंदीसूत्रमें दशवैकालिक और प्रज्ञापनासूत्रके नाम लिखे है इसलिये हम मानते है, तो जवाबमें मालुम हो, नंदीसूत्रमें पेतालिसआगम वगेराके नाम भी लिखे है ऊनकोभी मानना चाहिये. फिर मुनि कुंदनमलजी अपने विवेचनपत्रमें तेहरीर करते है, इसके अलावा शांतिविजयजी नियुक्ति माननेके वास्ते कोशीश करते है, मगर नियुक्तिमें जो जो अधिकार सावधाचार्योंने दर्ज किये है वह सर्व अधिकार श्रीजैनके एकादशांगादि ताडपत्रों के लिखित प्राचीन असली सिद्धांत अंगीकार करेंगे, वह नियुक्ति माननेमें आवेगी. — (जवाब.) ताडपत्रपर लिखित जैनके एकादशांगादि प्राचीन सिद्धांत मंगवाकर देख लिजिये, उनमें नियुक्तिका मानना लिखा है या नहीं ? ताडपत्रपर लिखित जैनके प्राचीन सिद्धांतके बारेमें हकीकत सुनिये ! तीर्थंकर महावीर निर्वाणके बाद (९८०) वर्स पीछे जमाने देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणके वल्लभी नगरीमें ताडपत्रोपर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिदायत बुतपरस्तिये जैन मैनपुस्तक लिखे गये, इतनेवर्सके लिखित जैनपुस्तक अगर आपलोगोके पास हो तो उनमे देखलिजिये, दुसरी दलील यह है कि जिस जिस प्राचीन और असली सिद्धांतमें नियुक्तिका मानना मना किया हो, उस उस जैनसिद्धांतके नाम जाहिर कीजिये, तीसरी दलील यह है कि जिसजिस नियुक्तिमें सावधाचार्योने अपनी तर्फसे अधिकार नहीं दर्जकिये हो ऐसी नियुक्ति कौनसी है बतलाइये याते उसपर अमल कियाजाय. .. __आगे मुनि कुंदनमलजी अपने विवेचनपत्रमें इस मजमूनको पेश करते है कि-नियुक्ति मंजुर करनेके बारेमें शांतिविजयजीने भगवतीसूत्र, अनुयोगद्वारसूत्र, समवायांगजीसूत्र, नंदीजीसूत्र, यह चारो सूत्रोके जो उक्त किताबमें पाठ दाखल किये है, वह सर्व पाठ मूर्तिपूजकोके आचार्योने अपने बनाये हुवे ग्रंथोको पूर्ण सहायताके वास्ते श्री जैनके असली सिद्धांतोमें नवीन बनाकर दाखल किये है, ऐसा निश्चय होगा, फिर नियुक्ति, नियुक्तिके कर्ता और नियुक्तिकी साक्षी देनेवाला सर्व खोटे ठहरेगें. . - (जवाब.) नियुक्ति-नियुक्तिके बनानेवाले और नियुक्तिकी साक्षी देनेवाले खोटे जब ठहर सकते है अगर कोई जैनकी द्वादशां गवानीके पुस्तकोसे नियुक्तिकों गलत साबीत करदेवे, नियुक्ति बनानेवाले चौदह पूर्वधारी जैनाचार्य भद्रबाहुस्वामी तीर्थकर महाबीरनिर्वाणके बाद (१७०) वर्स पीछे मौजूद थे, जिनको आज (२२७०) वर्स हुवे, चौदह पूर्वधारीके वचन प्रमाणीक होते है इससे साबीत हुवा-नियुक्ति और नियुक्ति बनानेवाले अप्रमाणिक नही, नियुक्तिकी साक्षी देनेवाले भी अप्रमाणिक इसलिये नही कि-जैनके एकादशादि अंगशास्त्र.भगवती और समवायांग वगेरा सूत्रोमें नियुक्तिका मानना मंजुर रखा है. मूर्तिपूजक जैनाचार्योने अगर नवीनपाठ बनाकर दाखल किये है तो ऐसे प्राचीन सूत्र Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० हिदायत बुतपरस्तिये जैन. सिद्धांत निकालो कि-जो देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणके बख्तके लिखे हुवे हो और उसमें देखो कि-नियुक्तिका मानना लिखा है या नहीं ? अगर लिखा है तो नियुक्तिकी साक्षी देनेवाले भी अपमाणीक नही ठहर सकते. ___ फिर मुनि कुंदनमलजी अपने विवेचनपत्रमें लिखते है किअतएव शांतिविजयजीने नियुक्तिके सर्व अधिकार श्रीजैनके एकादशांगादि ताडपत्रपर लिखित प्राचीन असली सिद्धांतोंसें रजुआमसभामें करके दिखलाना चाहिये. . . (जवाब.) शांतिविजयजीने नियुक्ति माननेके पाठ-किताब सनम परस्तिये जैनमें छपवाकर दिखला दिये है. छपवानेवालोने मजकुर किताब छपवाकर शहर बशहर भेज दिइ है, जिसको आज करीब चारवर्स होगये और पढनेवालोने पढीभी होगी, जिनको शक हो-ताडपत्रपर लिखे हुवे पुराने जैनसिद्धांत हिंदके जिस जिस शहरमें मौजूद हो-मंगवाकर देखे, ताडपत्रपर लिखे हुवे पुराने जैनपुस्तक इस वख्त जेशलमेर, पाटन, अहमदावाद वगेरा शहरोमें मौजूद है, जिस महाशयको जिस बातका शक हो अपना शक मिटानेकी कोशिश करे, अगर कहा जाय. जेशलमेर, पाटन और अहमदावाद वगेरा शहरोमें जो ताडपत्रपर लिखे हुवे जैनके प्राचीन पुस्तक होगें वे मूर्तिपूजक जैनोके होगें. जवाबमें मालुम हो अगर मूर्तिपूजकजैनोके लिखीत प्राचीन जैनपुस्तक मंजुर नही तो मूर्तिनिषेधक जैनोके लिखीत प्राचीन जैनपुस्तक देखिये, मगर देवर्दिगणिं क्षमाश्रमणके वख्तके लिखे हुवे देखना चाहिये क्योंकि ऊनहीके वख्तमें कंठाग्रज्ञान पुस्तकाकार लिखा गया है. .. ___कइ शिलालेख जमीनसे निकले हुवे ऐसे है, जिसके देखनेसें जिनमंदिर और जिनमूर्तिकी साबीती मिलती है, अगर कहा जाय तीर्थकर देव मुक्त हुवेबाद अरूपी है, फिर मूर्ति क्यों बनाना? Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिदायत बुतपरस्तिये जैन. ११ जवाब में मालुम हो - मूर्ति ऊस हालतकी है जब वे केवलज्ञानी देहधारी थे, मूर्त्तिपूजा जैनमें अवलसे है, जो महाशय फरमाते है बारहवर्षी दुकाल पडाथा. मूर्तिपूजा ऊस वख्तसे चली है, यह बात गलत हैं, अगर कोई इस दलीलकों पेश करे कि भगवानतो अनमोल थे, ऊनकी मूर्ति थोडे मूल्यमें क्यौं बिकती है ? जवाबमें मालुम हो जिनवानी अनमोल है, फिर जैनपुस्तक थोडे मूल्यमें क्यों बिकते है ? अगर कोई सवाल करे मूर्त्ति जड है या चेतन ? सूक्ष्म है या बादर ? मूर्त्तिमें गुणस्थान कितने पाइये ? जवाब में मालुम हो, धर्मशास्त्र जड है या चेतन ? सूक्ष्म है या बादर ? धर्मशास्त्रमें गुणस्थान कितने पाइये ? किसी जैनमुनिकी फोटोमें ऊतारी हुई तस्वीर हो उसमें गुणस्थान कितने कहना ? जड कहना या चेतन ? सूक्ष्म कहना या बादर ? इस बातपर गौर कीजिये. अगर कोई इस दलिलकों पेश करे कि जिनेंद्रोकी मूर्त्तिमें चौतीस अतिशय और तीसवाणीके गुण कहां है ? जवाबमें मालुम हो कागज, स्याहीके बने हुवे आचारांग वगेरा सूत्रोंमें जिनवानीके पेतीसगुण कहां है ? अगर कहा जाय उसके पढनेसे ज्ञान होता है तो इसीतरह जिनेंद्रोंकी मूर्त्तिकों देखकरभी ज्ञान होता है, स्थानांगसूत्रमें दशतरहके सत्य कहे उसमें स्थापनाभी सत्य कही, फिर जिनमूर्त्ति जो जिनेंद्रोंकी स्थापना है, सत्य क्यों नही ? ज्ञातासूत्रमें जहां द्रौपदीजीका अध्ययन चला है, उसमें द्रौपदीजीकों स्वयंवरमंडपमें जानेकी तयारी हुई ऊस वख्त ऊनोने जिनप्रतिमाकी पूजा किई लिखा है और ऐसाभी पाठ है कि" जेणेव जिणघरे तेणेव उबागछह.” जहां जिनमंदिर था वहां द्रौपदीजी गई, सौचो ! ऊसवख्त ऊसमंदिरमें खुद तीर्थंकरदेव तो ठे नही थे, तीर्थंकरदेवकी मूर्ति बेठी थी, ऊसी सबब से उसक Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ हिदायत बुतपरस्तिये जैन जिनघर कहा, अगर जैनमजहबमें जिनमंदिरका मानना न होता तो जिनघर ऐसा पाठ क्यों होता ? सबुत हुवा, उसमें जिनमूर्ति मौजूद थी उसी सबबसे जिनघर कहा, देखलिजिये! ज्ञातासूत्रके मूलपाठसे जिनमंदिर और जिनमूर्तिका होना साबीत होचुका, रायपसेणीसूत्रमें लिखा है कि-सुर्याभदेवताने जिनप्रतिमाकी पूजा किई, अगर अविरति समष्टिकी धर्मक्रिया गिनतिमें नही लेते तो अविरति समद्रष्टि देवेंद्रका कहा हुवा पाठ गिनतिमें क्यों लेते हो? श्रेणिकराजा अविरतिसमद्रष्टि श्रावक थे जिनोने विनाव्रतनियमके तीर्थकरगोत्र हासिल करलिया, जोकि-एक आलादर्जेकी चीजथी अगर कहा जाय मूर्ति कुछ बोलती नही इसलिये उसे क्यों मानना? जवाबमें मालुम हो धर्मपुस्तक भी खुद बोलते नही ऊनकोभी नही मानना चाहिये, अगर कोई कहे मूर्ति त्यागी है या भोगी ? एकेंद्रिय या पंचेंद्रिय ? जवाबमें मालुम हो धर्मशास्त्र त्यागी या भोगी? एकेंद्रिय या पंचेंद्रिय ? अगर कोई तेहरीर करे जिनप्रतिमामें गतिजाति इंद्रिय कौनसी ? योग ऊपयोग कितने ? लेश्या कितनी ? जवाबमें मालुम हो आचारांग वगेरा धर्मपुस्तकोमें गतिजातिइंद्रिय योगऊपयोग और लेश्या कितनी ? जैसे जैनमूर्ति पाषाणकी बनी हुई है, आचारांग वगेरा धर्मपुस्तक कागज-स्याहाके बने हुवे है. कोई श्रावक किसी जैनमुनिकों अपने शहरमें या गेरमुल्कमें वंदना करने जावे तो उसको पुन्य होगा या पाप ? अगर कहा जाय पुन्य होगा तो शत्रुजय गिरनार वगेरा जैनतीर्थके दर्शनकों जानेमें पुन्य क्यों नहीं? कोई जैनमुनि अपने शहरमें तशरीफ लावे और श्रावकलोग गुरुभक्तिसे कोस दो कोस सामने जावे तो पुन्य होगा या पाप ? अगर कहा जाय पुन्य होगा तो बतलाइये रास्तेमें जो वायुकाय वगेरा जीवोकी हिंसा हुई उसका पाप किसकों लगा? अगर कहा जाय मनःपरिणाम गुरुभक्तिके थे. इसलिये Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिदायत बुतपरस्तिये जैन. भावहिंसा नही और विना भावहिंसाके पाप नही, तो यही मिशाल मंदिर मूर्तिके लिये क्यों न समजी जाय ? : जैनागम ज्ञातासूत्रमें लिखा है कि-थावछापुत्रमुनि और शुकदेवजीमुनि हजार हजार जैनमुनियोके साथ और शैलकराजरिषि पांचशो जैनमुनियोके साथ पुंडरीकपर्वतपर मुक्ति गये, पुंडरीकपर्वतका दुसरा नाम शत्रुजयतीर्थ है, रायपसेणीसूत्रमें बयान है कि सूर्याभदेवताने तीर्थकर महावीरस्वामीके सामने बत्तीस तरहका नाटक किया, नाटक करनेमें वायुकायके जीवोकी हिंसा हुई, बतलाइये ! ऊस हिंसाका पाप किसकों लगेगा? अगर कहा जाय सूर्याभदेवताका इरादा धर्मका था इसलिये पाप नही तो फिर कोई श्रावक जिनप्रतिमाके सामने ईरादे धर्मके नाटक करे तो उसको पाप कैसे लगेगा? तीर्थंकरदेव जबजब विहारकरके एकगांवसे दुसरेगांव जाते थे, ऊसगांव नगरके राजेमहाराजे हाथी, घोडे, डंके निशान, रथ वगेरा जुलुसके सामने आते थे, रास्तेमें वायुकायके जीवोकी हिंसा होती थी, बतलाइये! उसका पाप किसको लगता था? अगर कहा जाय ऊनराजे महाराजेकों लगता था तो वें ऐसा क्यों करते थे ? तीर्थकरदेवोने ऊनको मना क्यों नही किया ? अगर कहा जाय उनके मनःपरिणाम धर्मके थे, इसलिये पाप नही लगता था, तो फिर इसीतरह तीर्थयात्रा वगेरामेंभी पाप नही, यह साबीत हुवा, जैनमुनि दिनमें दोदफे अपने कपडोंकी प्रतिलेखना करते है, इसमें वायुकायके जीवोंकी हिंसा होती है, बतलाइये ! इसका पाप किसको लगेगा? पतिक्रमण करते वख्त उठना बेठना पडता है, उसमेंभी वायुकायके जीवोकी हिंसा होगी, व्याख्यान वाचते वख्त, गौचरी जाते वख्त, और गुरुओकी खिदमतमें वायुकायके जीवोंकी हिंसा होगी, खयाल करनेकी जगह है इसका पाप किसकों समजना ? अगर कहा जाय यतनासे ये कार्य किये Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ हिदायत बुतपरस्तिये जैन. जाते है, इसलिये भावहिंसा नही, और विना भावहिंसाके पाप नही, तो यही मिशाल दुसरे धर्मकार्य में क्यों नही लाना ? किसी श्रावकने दुसरे श्रावककों अपने घर बुलाकर उसके तपका पारना करवाया, रसोइ बनाई, रसोई बनानेमें पानी और अग्निके जीवोकी हिंसा हुई, बतलाइये ! ऊसका पाप किसको लगा ? अगर कहा जाय रसोइ बनानेमें जो पानी और अग्निके जीवोकी हिंसा हुई ऊतना पाप लगा, और तपस्वीकों जिमानेका पुन्य हुवा. जवाब में मालुम हो रसोई बनाने में ईरादा क्या पांच इंद्रियोकी पुष्टि के लिये था जो पाप लगे ? अगर कहा जाय ईरादा तो धर्मकी पुष्टिके लिये था तो फिर पाप कैसे लगा ? जैनमुनि एक गांवसे दुसरे गांव जावे और रास्तेमें नदी आजाय तो मुताबिक फरमान आचारांगसूत्रके एवं पायं जले किच्चा एवं पायं थले किया. इसतरह नदी ऊतरे और सामने किनारे जावे; खयाल करनेकी जगह है कि - नदीके पार जानेमें कितने अपकायके जीवोंकी हिंसा होगी ? तीर्थंकर गणधरोने नदी ऊतरनेका हुकम क्यौं दिया ? अगर कहा जाय जैनमुनि यतनासे नदी ऊतरते हैं, और बाद उसके नदी उतरनेका दंड लेते है, जवाबमें मालुम हो इरादे धर्मके जैनमुनियोंको नदी उतरने का हुकम है और हुकममें दंड नही होता, अगर कहा जाय यतनासें देखभालकर जैनमुनि नदी ऊतरते है, जवाब में मालुम हो त्रसजीवोको यानी हिलतेचलते जीवोकों यतनासें बचायगें मगर पानी के जीवोकों कैसे बचासकेगे ? ऊसकी हिंसा तो होगा या नही ? अगर कहा जाय मनःपरिणाम हिंसा करनेके नही इसलिये द्रव्यहिंसा हुई- भावहिंसा नही हुई, और विना भावहिंसा के पाप नही, तो फिर यही दलिल मंदिरमूर्त्तिके बारेमें क्यों नही लाते ? दो शख्श एकरास्तेसे जारहे थे और ऊसवख्त ऊस रास्ते में Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिदायत बुतपरस्तिये जैन बहुतसे कीडे-मकोडे फिर रहे थे, एकशख्श जीवोको बचानेके इरादेसे देखभालकर चलता था, दुसरा बिनादेखे ३रहेम होकर चलताथा. जीवोको बचानेका इरादा ऊसका नही था, योगानुयोग ऐसा बना कि देखकर चलनेवालेके पांवसे एककीडा दबकर मरगया, बिनादेखे चलनेवालेके पांवसे एकभी कीडा नही मरा, बतलाइये ! पापी कौन ? और पुन्यवान् कौन ? अगर कहा जाय देखकर चलनेवाला पुन्यवान् है, दशवैकालिकसूत्रमें पाठ है कि जयं चरे जयं चिठे-जयं आसे जयं सये, जयं भासंतो भुंजतो-पावकम्मं न बद्धइ. यतनासे देखभालकर चलनेवालेको भावहिंसा नहीं लगती, इसलिये पाप नही, जो शख्श विनादेखे बेरहेम होकर चलता था. चुनाचे ! ऊसके पांवसें कोईभी जीव नही मरा, तोभी उसका ईरादा जीव बचानेका नही था इसलिये उसको पाप है, ज्ञातासूत्रमें बयान है कि एक सुबुद्धिनामके दिवानने जित शत्रुराजाकों धर्मपावंद बनानेके लिये एक मोरीका पानी मंगवाकर ऊसकों कईदफे एक घडेसे दुसरे घडेमें डाला और साफ किया, खूशबूदार चीजोसे लज्जतदार बनाया, इसतरह करनेसे वायुकाय वगेरा जीवोंकी हिंसा हुई. बतलाइये! ऊसका पाप सुबुद्धिदिवानकों लगा या किसको ? अगर कहा जाय सुबुद्धिदिवानका ईरादा पापका नही था, धर्मका था, इसलिये पाप नही, तो इसीतरह दुसरे कार्यके लियेभी खयाल करलेना चाहिये. तीर्थकर मल्लिनाथजीने गृहस्थापनमें छह राजोको प्रतिबोध देनेके लिये. सुवर्णकी पुतली भीतरसे पोकल बनाइथी, और उसमें हमेशां भोजनका एकएक कवल डालतेथे, उसमें जो जीव पैदा हुवे और चवे बतलाइये ! ऊसका पाप किसकों लगा? अगर कहा जाय तीर्थकर मल्लिनाथजीका इरादा पापका नही था, छह राजोकों धर्मपावंद बनानेका Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिदायत बुतपरस्तिये जैन था, इसलिये पाप नही तो इसीतरह मूर्तिपूजाके बारेमें भी इरादेपर खयाल किजिये, एक कचे पानीके थालमें एक मखी गिरपडी ऊसकों बचानेके इरादेसें तुर्त एक श्रावकने निकाली, बतलाइये! कचे पानीमे अंगुलि डालनेसें जो पानीके जीवोंकी हिंसा हुई ऊसका पाप किसको लगा? अगर कहा जाय मखी निकालनेवाले श्रावकका इरादा जीव वचानेका था, इसलिये पानीके जीवोकी जो द्रव्यहिंसा हुइ ऊसका पाप नही, क्योंकि-पाप या पुन्य बांधना मनः परिणामके ताल्लुक है, जब मनः परिणाम अशुभ नही तो पाप कैसे बंधे ? इसीतरह मूर्तिपूजाके लिये भी मनः परिणामपर बात है. __अगर कोई कहे श्राद्धविधि ग्रंथमें लिखा है जिनमंदिरकी धजाकी छाया जिसके घरपर दिनके अवल और अखीरपहरमें पडे ऊस घरवालेका अछा नही, जिनमंदिर तो अछा है, फिर उसकी धजाकी छाया अछी क्यों नहीं? जवाबमें मालुम हो, अछी चीज भी विधिसे सेवन करो तभी फायदेमंद होती है, श्रावकोंका फर्ज है, जिनमंदिरको आशातनासे बचे, और इसीलिये कुछ फासले पर बसे, नजीक जिनमंदिरके अपना घर होनेपर आशातना होनेका सबब है, बात आशातना मिटानेके लियेथी, इसको दुसरे रास्ते ऊतारना मुनासिब नही. . जैनशास्त्रोमें तीर्थ दो तरहके फरमाये, एक स्थावरतीर्थ दुसरा जंगमतीर्थ, स्थावरतीर्थ, अष्टापद, समेतशिखर, शत्रुजयगिरनार, चंपापुरी, अयोध्या, पावापुरी वगेरा, और जंगमतीर्थ, साधुसाधवी, श्रावक-श्राविका, जैनागममें दोनों तरहके तीर्थ मंजुर रखना फरमाये, तीर्थंकर रिषभदेव महाराज अष्टापदपर मुक्त हुवे, बीस तीर्थकर समेतशिखरपर मुक्त हुवे, तीर्थकर वासुपूज्य महाराज चंपापुरीमे नेमिनाथ महाराज गिरनार पर्वतपर तीर्थकर Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिदायत बुतपरस्तिये जैन, १७ महावीर स्वामी पावापुरीमें मुक्त हुवे, तीर्थ अष्टापदकी जियारतकों गौतमस्वामी गये. इसीतरह दुसरे जैनमुनि अगर तीर्थकरोकी निर्वाणभूमिपर जियारतकों जावे तो क्या हर्ज है ? साबीत हुवा जैनशास्त्रमें जैन तीर्थोंकी जियारत जाना लिखा है. जीवाभिगमसूत्रमें बयान है कि- भुवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिकदेव ते नंदीश्वर द्वीपके जिनमंदिरोंकी जियारतको जाते है, और जलसा करते हैं, भगवतीसूत्रमें लिखा है, देवलोक में जहां सुधर्मासभा के माणवक चैत्यस्तंभोमें जिनोद्रोकी डाढा रखी हुई है, देवतेलोग ऊनका विनय करते हैं, देखिये ! यह जडवस्तुकी इज्जत हुई या नही ? मूर्त्तिपूजाकी पुख्तगीकी यहभी एक ऊमदा दलिल है, सूत्रऊपाशकदशांगमें आनंद और कामदेव वगेरा श्रावकोंने जिनप्रतिमाका वंदन नमन करना मंजुर रखा, ज्ञातासूत्रमें द्रौपदीजीने जिनप्रतिमाकी पूजा किइ, और नमुथ्थुणंका पाठ पढकर भावस्तव किया, रायपसेणीसूत्रमें सूर्याभ देवताने और जीवाभिगमसूत्रमें विजयदेवताने जिनप्रतिमाकी पूजा किई लिखा है, अगर जैनमजहब में मूर्तिपूजा कदीमसें न होती तो जैनशास्त्रों में ये पाठ क्यों होता ? ज्ञातासूत्रमें और अंतगडसूत्रमें कहा है, शत्रुंजय पर्वतपर अमुक जैनमुनि सिद्ध हुवे, मानुष्योत्तर पर्वतपर और नंदीश्वरद्वीपमें जो जैनमंदिर मौजूद है, जंघाचरण जैनमुनि ऊनकी जियारतकों जाते है, साबीत हुवा तीर्थभूमि अछे इरादे पैदा होनेकी जगह है, अगर कहा जाय अढाइद्वीपमें सबजगह सिद्ध हुवे हैं, फिर तीर्थभूमिकी बात ज्यादा क्या हुई ? जबाव में मालुम हो ज्यादा बात यह हुई कि- अबभी वहां जैनमंदिर और मोक्षगामी जैनमुनियोके चरण बने हुवे है, इसीलिये कहाजाता है, तीर्थभूमि ज्यादा धर्मपुख्तगीका सबब है. जैनशास्त्रोंमें लिखा है, भरतराजा - चतुर्विधसंघकों लेकर Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ हिदायत बुतपरस्तिये जैन. तीर्थ शत्रुजयकी जियारतकों गये थे. कई श्रावक जैनमुनिकों वंदन करनेके लिये एक शहरसे दुसरे शहर जावे यह गुरुयात्रा हुई. जब गुरुयात्रामें पुन्य है तो देवयात्रामें पुन्य क्यों नही? देवलोगोके चित्र-नरकावासोके चित्र-जंबूद्वीप वगेराके नकशे. देखकर जैसे ऊन ऊन चीजोका ज्ञान होता है मूर्ति देखकर ऊस देवका ज्ञान क्यों न होगा ? तीर्थकरोके समवसरणमें पूर्व दिशाके सामने खुद तीर्थंकरदेव तख्तनशीन होते है, और तीनदिशामें तीर्थंकरदेवकी मूर्ति बनाकर देवतेलोग जायेनशीन करते है. सबुत हुवा खास तीर्थकरोके होते हुवे भी मूर्ति मानी जातीथी, खयाल करो! यह किसकदर मजबूत और पावंद दलिल है कि-जिसपर कोई किसी तरहका ऊज्र नही करसकता. जब तीर्थकरोकी हयातीमें भी मूर्ति मानी जाती थी तो फिर इसके माननेमें कौन जैन इनकार करसकता है ? दश वैकालिकसूत्रकी नियुक्तिमें बयान है. जैनाचार्य शयंभवमूरिने जिनमूर्ति देखकर प्रतिबोध पाया. जैनमजहबमें जिनमंदिर मूर्ति-जैनपुस्तक साधु-साधवी, श्रावक-श्राविका ये सात धर्मक्षेत्र बयान फरमाये, अगर मंदिरमूर्तिका इनकार करे तो पांच धर्मक्षेत्र रहजाते है, और रखना चाहिये सात समजसको तो समज लो ! मंदिरमूर्ति जैनमें कदीमसे है या नही ? कई शिलालेख जमीनसे निकले हुवे ऐसे है, जिनोमे जैनमंदीर और जिनमूर्तिके लेख मीलते है, सौचो! अगर जैनमजहबमें मूर्तिपूजा न होती तो उसके लेख क्यों होते ? अगर क्रिया करनेसे मुक्ति होती हो तो जमालिजीने गौतमगणधर जैसी क्रिया किई फिर उनकी मुक्ति क्यों नही हुई ? दरअसल ! विनाश्रद्धाके क्रिया कारआमद नहीं होती, कइशख्श विना क्रिया किये अकेली श्रद्धापूर्वक भावनासे केवल ज्ञान पाये है, इसीलिये कहा है श्रद्धा बडी दुर्लभ है. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिदायत बुतपरस्तिये जैन जिनप्रतिमाकी पूजामें अगर आरंभ मानाजाय तो फिर बतलाइये ! जैनमुनिकी दीक्षाके जलसे में आरंभ क्यों नही ? अगर कहा जाय दीक्षाके जलसेमें इरादा धर्मका है, इसलिये भावहिंसा नही तो फिर जिनप्रतिमाके जलसेमें रथयात्रामें अष्टान्हिका महोछवमें भी इरादा धर्मका है उसमें पाप कैसे लगेगा ? अगर कहा जाय हम भावनिक्षेपा मंजुर रखते है, तो फिर जैनमुनिका वेष देखकर वंदन क्यौं करना ? क्योंकि उनके दिलका भाव कैसा है यह शिवाय अतिशयज्ञानीके दुसरा कौन जानसकता है ? गुरूमहाराजके आसनकों या तख्तको अपना पांव लगजाय तो गुनाह हुवा समजते हो सौचो ! यह एक तरहकी जडवस्तुकी इज्जत हुई या नहीं? जड वस्तुकी इज्जत किइ या ऊसकों मंजुररखी बात एकही हुई. किसी जैनमुनिकों कोई श्रावक एक गांवसे दुसरे गांव वंदना करनेको जावे ऊसवख्त ऊसगांवके श्रावक ऊनकों भोजन जिमावे तो बतलाइये ! जिमानेवालेको पुन्य होगा या पाप ? अगर कहा जाय ईरादा स्वधर्मीकी भक्तिका था इसलिये भावहिंसा नही तो फिर इसीतरह इरादेपर बात रखीये, किसी जैनमुनिका इंतकाल होजाय और उनके शरीरका अग्निसंस्कार किया जाय उसमें पुन्य समजना या पाप ? कईजगह देखागया है ऊस जैनमुनिके मृतकलेवरके विमानकों जब श्मशानमें लेजाते है ऊसवख्त ऊस विमानके आगे रुपये पैसे उछालते हुवे मयजलसेके लेजाते है, और खुशबूदार चिजोके साथ अग्निसंस्कार करते है. कहिये ! अग्निसंस्कार करनेवाले श्रावकोकों पुन्य हुवा या पाप ? अगर कहा जाय ईरादा गुरुभक्तिका है इसलिये भावहिंसा नहीं और विना भावहिंसाके पाप नही तो यही बात दुसरे धर्मकार्यके लिये क्यौं न समजी जाय ? मृतकलेवर तो जड है, जड वस्तुकी भक्ति क्यौं करना? कई श्रावक इसवातका अनुमोदन करते है कि अमुक Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिदायत बुतपरस्तिये जैन जैनमुनिके कलेवरका अग्निसंस्कार-अछा किया गया. विमान अछा बना था. कहिये ! यह अमुमोदन पुन्यका सबब है या नहीं? प्रकरण संग्रहका थोकडा जोकि पंडितराज पूज्यश्री (७) देवजीस्वामीके शिष्य पूज्यश्री लाधाजीस्वामीके पास शुद्ध करवाके श्रावक भगवानदासजी केवलदासजी साकीन सुरतने गुजराती प्रिंटिंग प्रेस बंबईमें छपवाया है, उसके पृष्ट (११७)पर लिखा है, मेरुके चारवन है. १ भद्रशालवन, २ नंदनवन, ३ सौमनसबन, ४ पांडुकबन, भद्रशालबन मेरुके चौतर्फ जमीनपर है, वह पूर्वपश्चिम पाइस बाइसहजार योजन लंबा और ऊत्तरदखन अढाइसो अढाइसो योजन चौडा है, उसमें एक पदमवेदिका जोकि चौतर्फ एकबनखंडसे घीरी हुई है. मेरुसे पूर्वकी तर्फ पचासयोजन बनमें जावे तो वहां एक सिद्धायतन है, वह पचास योजन लंबा, पचीसयोजन चौडा और छतीस योजन ऊंचा है, और उसमें अनेकथंभे लगे हुवे है. ऊस सिद्धायतनके तीनदरवजे पूरव दखन उत्तरमें बने हुवे है. वे दरवजे आठआठ योजनके ऊंचे और चारचार योजनके चौडे है. ऊस सिद्धायतनके बीचले विभागमें एक मणिमय पीठिका जोकि चार योजन लंबी चौडी और चार योजन महोटी रत्नमय बनी हुई है, उसपर एक देवछंदा आठ योजन लंबा चौडा और आठ योजनसे कुछ ज्यादह ऊंचा बना हुवा है, उसमे जिनप्रतिमा है, उसका बर्नन, देवछंदा, यावत् , धूपके कडछे वगेरा मौजूद है, इसीतरह चारो दिशामें चार सिद्धायतन जानना. देखिये ! इसमे सिद्धायतन, देवछंदा और जिनप्रतिमाका बयान मौजूद है, जैनमजहबमें अगर जिनप्रतिमा मंजुर न होती तो ऐसा बयान क्यों होता ? इससे साबीत हुवा जिनप्रतिमा जैनधर्ममें कदीमसे मानी जाती है, जिनप्रतिमाकी पूजा करना श्रावकोका कर्तव्य है, ऐसा उपदेश जैनमुनि देते है. जैनशास्त्रोमें जो बात Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन. २१ हिदायत बुतपरस्तिये जैन. लिखी हो, उसका ऊपदेश करना जैनमनिका फर्ज है. तीर्थकरोके समवसरणमें सचित फुल बीछाये जाते थे. खुद तीर्थंकर महाराज रत्नसिंहासनपर बेठते थे, अपने ज्ञानसे वे जानते थे कि समवसरणमें बैठते वख्त फुलोका स्पर्श जैनमुनियोकों होगा, फिर फुल बिछानेकी मनाइ तीर्थंकरोने क्यों नही किई ? अगर कहा जाय वे फुल अचित थे तो ऐसा पाठ किसी जैनआगमका कोई जाहिर करे. __ अगर कोई इस सवालकों पेंश करे कि-जैनमुनिकों मुहपति हाथमें रखना किस जैनशास्त्रमें लिखा है. (जवाब.) ओघनियुक्तिशास्त्रमें लिखा है कि मुहपति हायमें रखना. मुखपर बांधना किसी जैनशास्त्रमें नहीं लिखा, अगर कहा है तो कोई पाठ बतलावे, मुहपत्ति मुखपर बांधना वायुकायके जीवोकी हिफाजतके लिये नही होसकता. मुखमेसे निकलते हुवे भाषा वर्गणाके पुदगल चारस्पर्शी होते है और वायुकायके जीवोंका शरीर आठस्पर्शी होता है. चारस्पर्शी आठस्पर्शीकी घात नही करसकते. अगर. कहा जाय भाषावर्गणाके पुदगल मुखसे बहार निकले बाद आठस्पर्शी होजायगे और फिर वायुकायके जीवोंकी घात करेगें, जवाबमें मालुम हो मुहपत्ति बांधनेसेभी भाषावर्गणाके पुदगल मुखसे बहार निकले बाद आठस्पर्शी होजायगें और वायुकायके जीवोकी हिंसा करेंगे तो फिर बतलाइये ! मुहपत्ति मुखपर बांधनेसे क्या! फायदा हुवा ? आचारांगसूत्रके दुसरे श्रुतस्कंधमें दुसरे अध्ययनके तीसरे उदेशेमें पाठ है कि से भिखुवा भिखुणीवा उसासमाणेवा निसासमाणेवा कासमाणेवा छीयमाणेवा जंभायमाणेवा उढवाएवा वायषिसग्गेवा करेमाणे पूवामेव आसयंवा पोसयंवा पाणिणा परिपेहित्ता ततो संजयामेव ओसासेजा जाव वायणिसग्गेवा करेजा. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिदायत बुतपरस्तिये जैन. स्वासोत्स्वास लेतेवख्त खांसी, आतेवख्त छींक, लेते वख्त ऊबासी, लेतेवख्त और डकार लेतेवख्त जैनमुनि अपने मुखकों अपने हाथ से ढांके. खयाल किजिये ! अगर मुहपत्ति मुखपर बांधनेका हुकम होता तो मुखको हाथसे ढांकनां क्यौं फरमाते ? इसका कोई जवाब देवे. २२ अगर कोई तेहरीर करे कि जैनमुनिकों पीले कपडे रखना किस जैनशास्त्रमें कहा है, जवाब में मालुम हो निशीथसूत्र के अठारहमें ऊदेशेमें लिखा है कि जैनमुनि नये कपडेकों तीनपसली जितना रंगदेवे, जिनकों शकहो वे महाशय ऊसशास्त्रकों देखे, और अपना शक रफाकरे, बत्तीससूत्र में नंदीसूत्र सामील है, उसमें निशीथसूत्र मंजुर रखना फरमाया, इसलिये जैनमुनिकों कपडे रंगनेकी बातकों कौन जैन ईनकार करसकता है ? अगर कोई इस दलीलकों पेश करे कि रात्रीकों पानी रखना जैनमुनिको मुनासिब है ? जवाबमें मालुम हो. बेशक ! मुनासिब है, क्योंकि रात्रीके वख्त फर्ज करो! किसी जैनमुनिकों मलोत्सर्ग करनेकी हाजत हुई तो बतलाइये ! ऊस वख्त अशूचि दुर करने के लिये पानी की जरुरत होगी या नही ? इसलिये चुना डालकर जैनमुनि रात्रीकों पानी रखे तो कोई हर्ज नही. अगर कोई बयान करे कि जैनमुनिकों रात्रीके वख्त विहार करना किस जैनशास्त्रमें लिखा है ? जवाब में मालुम हो, रात्रीके वख्त विहार करना जैनमुनिकों मना है, मगर कोई कारण बनजाय तो नियुक्तिशास्त्रमें कहा भी है, रात्रीकों जैनमुनि विहार करे, ऊत्तराध्यनसूत्रमें बयान है कि एक चंडरुद्रनामके जैनाचार्य और उनके शिष्य कारणसे रात्रीको विहार करगये थे. पहले जमाने में जैनमुनि बनखंड में बागबगिचेमें या उद्यानमें रहते थे. आजकल गांवमें और फिर अछे अछे मकानमें रहते हैं, कहिये ! यह रबाज Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिदायत बुतपरस्तिये जैन. २३ कबसे चला ? ऊत्तराध्ययनसूत्रमें जैनमुनिकों तीसरे प्रहर गौचरी जाना कहा, आजकल पहले दुसरे प्रहरमें जानेका रवाज चलता है. यह रवाजभी कबसे जारी हुवा ? पहलेके जमानेमें जैनमुनि लुखासुका आहार लेते थे, अगर कोई पंचमहाव्रतधारी उत्कृष्ट संयमी पूर्ण क्रियापात्र बनना चाहे तो उद्यान या वनखंडमें रहे. और लुखासुका आहार लेवे, पहले जमाने में कई जैनमुनि ऐसे थे जो राग होते हुवे भी औषध नही करवाते थे, अगर कहा जाय कि द्रव्यक्षेत्र कालभाव देखकर ऐसा बर्ताव करना पडता है तो इसी बातपर खयाल किजिये, महत्वता किस बातकी करना. जैसा द्रव्य क्षेत्रकालभाव है और जैसा सत्व संहनन और योग्यता है, मुताबिक उसके बर्ताव किया जाता है ऐसा कहना चाहिये. [बसीससूत्र के नाम यहां बतलाये जाते है जोकि स्थानकवासी मजहब में मंजुर रखे गये है. ] १ आचारांग. २ सूत्रकृतांग. ३ स्थानांग. ४ समवायांग. ५ भगवती सूत्र. ६ ज्ञातासूत्र. ७ ऊपाशक दशांगसूत्र. ८ अंतकृत सूत्र. ९ अनुत्तरोववाइसूत्र १० प्रश्नव्याकरणसूत्र. ११ विपाकसूत्र. १२ ऊवाइसूत्र. १७ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र. १८ जंबूद्वीप प्रज्ञप्तिसूत्र. १९ निर्यावली सूत्र. २० कल्पावर्तसिकासूत्र. २१ पुष्पिकासूत्र. २२ पुष्पचुलिका सूत्र. २३ वन्हीदशांगसूत्र. २४ ऊत्तराध्ययन सूत्र. २५ दशवैकालिकसूत्र. २६ नंदी सूत्र. २७ अनुयोगद्वारसूत्र. २८ निशीथसूत्र. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिदायत बुतपरस्तिये जैन १३ रायपसेणीसूत्र. २९ दशाश्रुतस्कंधसूत्र. १४ जीवाभिगमसूत्र. ३० वरत्कल्पसूत्र. १५ प्रज्ञापनासूत्र. ३१ व्यवहारसूत्र. १६ चंद्रप्रज्ञप्तिसूत्र. ३२ आवश्यकसूत्र. ए बतीसमूत्र स्थानकवासी मजहबके लोग मानते है, इनमें जो छविशमें नंबरपर नंदीसूत्र कहा है, उसमे पेतालिस आगम वगेरा चौदह हजार प्रकीर्णकशास्त्र मानना लिखे, ऊनको नही मानना इसकी क्या वजह है ? स्थानकवासी मजहबके लोग कहा करते है, हम तीर्थंकर गणधरोके वचनको मंजूर रखते है. बतलावे! फिर प्रज्ञापनासूत्र और दशवैकालिकसूत्र जो ऊपर बतीससूत्रोकी गिनतीमें (१५) और (२५)में नंबरपर गिनाये गये है, तीर्थकर गणधरोके बनाये हुवे नही, आचार्योंके बनाये हुवे है, इनकों क्यौं मंजुर रखे गये. मुनि कुंदनमलजी इसका जवाब देवे, अगर कहा जाय नंदीसूत्रमें इनके नाम दर्ज है, इसलिये मंजुर रखे है, तो दुसरे सूत्रोके नामभी नंदीसूत्रमें दर्ज है, उनको क्यों नही मानते ? तीर्थकर महावीरस्वामीके बाद (९८०) वर्सके पीछे जब देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण जैनाचार्यने सब जैनाचार्योकी सलाहसे जैनपुस्तक ताडपत्रपर लिखे, तब दशवैकालिक और प्रज्ञापनासूत्रके नाम दर्ज किये है. मूर्तिपूजा धर्मी शख्शोकों एतकात बढानेवाली चीज है, जहां जिनमंदिर बने रहेंगें वहां तरक्की धर्मकी बनी रहेगी, जिनमंदिर बनवानेवाला श्रावक बारहमे देवलोककी गति हासिल करे, ऐसा महा निशीथसूत्रमें पाठ है, अगर कोई इस दलिलकों पेंश करे कि बतीसमूत्रकी गिनतीमें महा निशीथसूत्र नहीं गिना है, जवाबमें मालुम हो, बतीससूत्रकी गिनतीमें नंदीसूत्र माना गया है, और ऊस नंदीसूत्रमें महा निशीथसूत्रका नाम दर्ज है, इससे साबीत हुवा Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिदायत बुतपरस्तिये जैन. २५ महानिशीथसूत्र काबिल मंजुर करनेके है. बत्तीससूत्रही मानना और दुसरे नही मानना यह किसी जैनागममें नही लिखा, स्थानकवासी मजहब के श्रावकलोग अपने धर्मगुरुवोकों वंदना करने आनेवाले श्रावकोकों रसोई जिमावे और स्वधर्मी जानकर भक्ति करे तो बतलाइये ! पुन्य होगा या पाप ! अगर कहा जाय पुन्य होगा, तो फिर स्वधर्मी वात्सल्य करनेमें पुन्य क्यों नही ? अगर कहा जाय दया सुखकी वेलडी है, और हिंसा दुखकी वेलडी है, तो जवाब में मालुम हो, जैनमुनि विहार करते वख्त जब नदी ऊतरेगे और ऊनके पांवोसें जो पानीके जीव मरेगें यह दयामें समजना या हिंसामे ? अगर कहा जाय ! नदी ऊतरना ईरादे धर्मके तीर्थंकरोका हुकम है, तो फिर जिनमंदिर बनाना तीर्थयात्रा जाना यह ईरादे धर्मके हुकम नहीं है क्या ? देखिये ! ईरादेकी सडक कैसी मजबूत है कि - बिना इसके काम नही चलता, जैनमुनि जब आहार लेनेकों गृहस्थोके घर जायगें तो ऊनके शरीर से जो वायुकाय वगेरा जीवोकी हिंसा होगी, यह दयामें समजना या किसमे ? दीक्षाके जलसे में बाजे बजवाना, जुलुस निकालना यह दयामे समजना या किसमे ? स्थानक बनानेमे पृथ्वी, पानी और अग्निकायके जीवोंकी हिंसा होगी यह दयामें समजना या किसमे ? इसका कोई महाशय जवाब देवे. दरअसल ! जहां इरादा शुभ है वहां भावहिंसा नही, और विना भावहिंसा के पाप नही, यह सिधी सडक है. अगर कोई इस दलिलकों पेश करे कि - पथरकी गौ जैसे दुध नही देती, वैसे पथरकी मूर्ति मुक्ति कैसे देयगी ? ( जवाब . ) जैसे कागज स्याहीके बने हुवे जडपुस्तक बोलते नही तो मुक्ति कैसे देगे ? अगर कहा जाय पुस्तक के बांचने से ज्ञान होगा तो जवाब में मालुम हो, इसीतरह मूर्त्तिके दर्शन करनेसे Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ हिदायत बुतपरस्तिये जैन भी ज्ञान होगा, जैसे जंबूद्वीपका नकशा देखकर जंबूद्वीपका ज्ञान होता है, जिनेंद्रकी मूर्चि देखनेसे जिनेंद्रोके गुणोका ज्ञान होगा, ज्ञातासूत्रमें बयान है कि-मल्लिनाथजीकी मूर्ति देखकर छह राजाओको जातिस्मर्ण ज्ञान हुवा, जैसे किसी शख्शकी मूर्ति देखकर वो याद आजाता है, जिनेंद्रोकी मूर्ति देखकर जिनेंद्रदेव क्यों न याद आयगें? कई शहरोमें राजेमहाराजोकी मूर्ति बतौर याददास्तीके खडी किई जाती है, हुंडी एकतरहकी स्थापना है, और ऊससे रुपये मीलसकते है, देखिये ! स्थापना कितनी आलादर्जेकी चीज है, इस बातपर गौर करो. रजोहरण-मुखवस्त्रिका जैनमुनिका वेश है, उनको धारण करनेवाले जब दिखाई दिये कि-तुर्त दुसरोके दिलमें मुनि याद आजाते है, इसी तरह जिनेंद्रोकी मूर्ति देखकर जिनेंद्र याद आजाते है, अगर कोई कहे सिंहकी मूर्ति किसीकों मारती नही, वैसे जिनेंद्रकी मूर्ति किसीकों तारती नहीं, जवाबमें मालुम हो, सिंहकी मार्त देखनेसे जैसे सिंह याद आजाता है, और दिलमें एक तरहका खोफ भी दरपेश होजाता है, वैसे जिनेंद्रकी मूर्ति देखनेसे जिनेंद्र याद आजाते है, और दिलमें वैराग्य भावना पैदा होजाती है, सबुत हुवा मूर्ति ऊस चीजकी यादी दिलानेमें एक फायदेमंद चीज है, नरकके जीवोके और स्वर्गके जीवोके चित्र देखकर आदमी ताज्जुब करने लगता है, देखिये ! चित्रोने कितना असर पहुचाया, जिसके देखनेसे स्वर्ग-नरक याद आगये, चित्रभी एक तरहकी स्थापना है. सौचो ! स्थापनामें कितनी बडी ताकात रही है, गेरमुल्कसें आई हुई चीठीके बांचनेसे घर बेठे सबहाल मालुम होसकते है, कहिये ! होंमें कितनी ताकात रही हुई है ? उसपर खयाल किजिये ! दरअसल ! हर्फ ज्ञानकी स्थापना है, और वो स्थापना पुरा काम देती है. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पास हिदायत बुतपरस्तिये जैन. जैनरामायणमें बयान है कि-रामचंद्रजीकी भेजी हुई अंगुठीसे सीताजीकों लंकामें खुशी पैदा हुई और सीताजीके भेजे हुवे कंकणसे किष्कंधामें बेठे हुवे रामचंद्रजीकोंभी खुशी हासिल हुई, समजसको तो समजलो ! जडचीजने चेतनकों कितनी खुशी पैदा किई ? पांडवचरितमें बयान है,-एक भीलने द्रोणाचार्यजीकी मूर्ति बनाकर ऊस मूर्त्तिके सामने अदब किया, उस मूर्तिको गुरूसमान मानी और ऊससे धनुर्विद्याका ईल्म हासिल किया देखलो! बदौलत ऊस मूर्तिके ऊस भीलको कितना फायदा हुवा ? ___ अगर कोई इस मजमूनकों पेंश करे कि-निराकार परमात्माकी साकार मूर्ति कैसे बनाते हो ? जवाबमें मालुम हो, निराकारकी मूर्ति नही बनाई जाती, साकारकी मूर्ति बनाई जाती है. तीर्थंकरदेव जब देहधारी थे ऊस हालतकी मूर्ति बनाई जाती है, निराकार हालतकी नही बनाई जाती, जिसने कागज स्याहीके बने हुवे धर्मपुस्तक माने ऊसने मूर्ति एकदफे नहीं हजारदफे मानी समजो, कोई पुस्तकको मानते है, कोई किसी पहाडको, कोई चरनको और कोई मंदिरमूर्तिको मानते है, देखलो! विना स्थापनाके किसीका काम नही चला, सबुत हुवा नाम स्थापना, द्रव्य और भाव ये चारो निक्षेपे काबिल माननेके है, गुरुके आसनपर अगर अपना पांव लगजाय तो कहते हो, बेअदबी हुई, कहिये ! आसन एक जडवस्तु थी, जडकी बेअदबीसे गुरुकी वेअदबी कैसे हुई ? अगर कहा जाय जडमें चेतनकी स्थापना मानी गई है तो फिर मूर्ति भी परमात्माकी स्थापना मानी गई है ऐसा कहना कौन बेंइन्साफ हुवा ? जब तीर्थकरोका जन्म होता है इंद्रदेवते मीलकर उनका जन्म उत्सव करते है, खयाल करो! ऊस वख्त वे भावतीर्थकर तो हुवे नहीं थे. द्रव्यतीर्थकरका ऊत्सव ऊनोने किया या नहीं ? अगर द्रव्यतीर्थकरका उत्सव करना उफायदे Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ हिदायत बुतपरस्तिये जैन. था तो इंद्रदेवते ऐसा क्यों करते ? अगर कोई कहे हम तीर्थकरदेवका ध्यान मनमेंही करलेयगें हमको मूर्ति माननेसे. कोई जरूरत नही. . (जवाब.) फिर गुरुमहाराजका ध्यानभी मनमेंही करलिया करो, गुरुमहाराजके दर्शनोकों एक गांवसे दुसरेगांव जाना क्या! फायदा? गाडीघोडेपर सवार होना, रास्तेमें खानेपीनेका आरंभ करना, क्या जरुरत ? घरबेठेही गुरुका ध्यान करलेना अछा है, गुरुके दर्शनोकों जाना और तीर्थंकरोके दर्शनोकों नही जाना कौन ईन्साफ है ? ___अगर कोई इस दलिलकों पेंश करे कि-तीर्थकरदेव त्यागी होते थे, उनकी मूर्तिको गेहने पहनाना क्या जरुरत ? - __ (जवाब.) तीर्थंकरदेव खुद जब समवसरणमें रत्नसिंहासनपर विराजमान होते थे, दोनों तर्फ देवते चवर करते थे, उनके पीछे भामंडल रखा जाता था, विहार करते वख्त देवताओके बनाये हुवे सुवर्णके कमलोपर पांव देकर चलते थे, इन बातोसे उनका त्यागीपना नहीं गया था, तो उनकी मूर्तिकों गहने पहनानेसें त्यागीपना कैसे चला जायगा ? स्थानांगसूत्रमें बयान है कि-१ सावधव्यापार और सावधपरिणाम, २ सावधव्यापार और निरवद्यपरिणाम, ३ निरवद्यव्यापार और सावधपरिणाम, ४ निरवद्य व्यापार और निरवद्यपरिणाम, इन चार भेदोमें पहलाभेद अधर्मी मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षासे कहा गया है, ऐसा जानना, क्योंकि अधमौके मनपरिणाम पापमय और कर्तव्यभी पापमय होते है. दुसरा भेद सावधव्यापार और निरवद्यपरिणाम यह श्रद्धावान् श्रावककी अपेक्षासे कहा गया है, ऐसा जानना. देवपूजा, गुरुवंदन वगेरा धार्मिक कामोमें सावधव्यापार दिखाई देता है, मगर मनःपरिणाम Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिदायत बुतपरस्तिये जैन. पापमय नही, इसलिये पाप नही. बल्कि ! पुन्यानुबंधिपुन्य और अशुभ अनिकाचितकर्मकी निर्जराका हेतु है, तिसरा भेद निरवद्य व्यापार और सावधपरिणाम यह प्रसन्नचंद्र राजरिषिकी अपेक्षासे जानना, प्रसन्नचंद्रजी राजरिषि काजोत्सर्गध्यानमे खडे थे, उनका व्यापार ऊसवख्त निरवद्य था, मगर मनःपरिणाम हिंसात्मक होनेसे उनकों अशुभ कर्मके दलिये संचय होगये थे, चौथा भेद निरवद्यव्यापार और निरवद्यपरिणाम यह भेद सर्व विरतिसाधुकी अपेक्षासे जानना, क्यौं सर्वविरति साधुमहाराजका व्यापार (यानी) कर्तव्यभी निरवद्य और मनःपरिणामभी निरवद्य होते है, इन चारो भेदोको अछीतरह समज लिये जाय तो सब तरहके शक रफा हो सकेंगें. दरअसल ! मनके शुभाशुभ परिणाम पुन्यपापके हेतु है, देखलो! एलाचिकुमार एक नटिनीपर मोहित होकर अपने घरसे निकला था, और चाहताथा कि-किसी तरह इस नटिनीकों अपनी औरत बनालं. मगर एकदफे जब एकशहरमें बांसपर चढकर नाटक करता था, एक जैनमुनिकों भिक्षावृत्ति करते देखे और मनःपरिणाम सुधरे, फौरन ! ऊनकों केवलज्ञान पैदा होगया. देखलो ! निरवद्य मनःपरिणामके सामने सावधव्यापार यानी हिंसात्मक कर्तव्यभी रद होगया इसी लिये कहाजाता है, मनःपरिणाम यानी इरादा बडी चीज है, तीर्थोकी जियारत जानेसे जीवके इरादे पाक और साफ होते है, धर्मपर एतकात नढता है और दुनियाके कारोबार भूलजाते है, अगर तीर्थों में कोई जैनमुनि पधारे हुवे हो तो शास्त्र सुननेकाभी फायदा मीलता है, जोजो तीर्थकर और मुनिमहाराज ऊस तीर्थसे मुक्ति पाये है वे याद आयगे. पुन्यवान् पुरुषोके निर्मल पुदगल परमाणुओका स्पर्श होनेसे बुद्धि निर्मल होगी. तीर्थों में फिरनेसे भवभ्रमण कम होगा. तीर्थभूमिकी रज Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० हिदायत बुतपरस्तिये जैन, अपने शरीर पर लगनेसें पापरूपीरज दुर होगी, इन इन सबोसे तीर्थों की जियारत और मूर्तिपूजा फायदेमंद चीज साबीत होती है. अगर कोई इस दलिलकों पेश करे कि - तीर्थोंमें गये और मनःपरिणाम नही सुधरे तो क्या फायदा हुवा ? ( जबाब . ) गुरुमहाराजको वंदना करने गये और मनःपरिणाम नही सुधरे तो बतलाइये ! क्या ! फायदा हुवा ? दरअसल ! देवगुरुधर्मकी जगह मनःपरिणाम सुधरनेका स्थान है, इतने पर भी किसीके मनःपरिणाम नही सुधरे तो ऊस जीवके कर्मोका दोष है, यूं तो दीक्षा लेनेपरभी किसीके मनःपरिणाम नही सुधरे तो इसमे कोई क्या करे, उस जीवके पापकर्मका ऊदय जानना, तीर्थंकरदेवकी वानी सुनकर अभव्यजीवके मनःपरिणाम नही सुधरे तो इसमें तीर्थंकरकी वानीका क्या दोष? ऊस जीवके अशुभकर्मका दोष है, ऐसा जानना. किताब- हिदायत बुतपरस्तिये जैनका लिखान खतम होता है, मुनि कुंदनमलजीके विवेचनपत्रका जवाबभी इसमें देदिया है, आपलोग पढे, और अपने दोस्तोकोंभी दिखलावे, में ऊमेद करता हुँ - सबकों यह किताब पसंद होगी और मूर्तिपूजाकी संबुतीपर ऊमदा दलिले मीलेगी. व कल्म- जैन श्वेतांबर धर्मोपदेष्टा विद्यासागर न्यायरत्न महाराज शांतिविजयजी, मुकाम - पाचोरा - खानदेश. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ১৩৯৩১ ৩৩১৩১৩১৩৩৩ [सिद्धचक्र के महात्मपर उमदा लावनी.] जगतमें नवपद जयकारी-पूजतां रोग टले भारी, प्रथमपद तीरथपति राजे-दोप अष्टादशको त्यागे, आठ प्रातिहारज छाजे-जग्तप्रभु गुण बारे राजे, अष्ट कर्मदल जीतके-सकल रिद्धि थई आय, सिद्ध अनंत नमुं बीजेपद एक समय शिव जाय, प्रगट भयो निजस्वरूप भारी-जगतमें नवपद जयकारी. १ सुरिपदमें गोयम केशी-ओपमा चंद सूरज जैसी, ऊधार्यो राजा परदेशी-एक भवमांही शिव लेसी, चोथेपद पाठक नमुं श्रुतधारी ऊबझाय, सर्वसाधु पंचमपदमांही-धन धन्नो अणगार, वखाण्यो वीरप्रभु भारी-जगतमें नवपद जयकारी. द्रव्य खटकी सरधा आवे-समसंवेगादिक पावे, बिना ये ज्ञान नही किरिया-ज्ञानदर्शनथी सब तरिया, ज्ञानपदारथ सातमें-पदमें आतमराम, रमता रहे अध्यातममांही-निजपद साधे काम, देखता वस्तु जगतसारी-पूजतां रोग टले भारी. योगनी महिमा बहु जानी-चक्रधर छोडी सब नारी, यति दशधर्म करी सोहे-मुनि श्रावक सब मन मोहे, कर्म निकाचित काटना-तपकुठार करधार, नवमापद जो करे क्षमासु-कर्म मूलकट जाय, भजो नवपद जगसुखकारी-जगतमें नवपद जयकारी. ४ ७७७०৩PU ३ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PROPOreot o sasaree श्री सिद्धचक्र भजो भाइ-आचामल तप नव दिनठाई, पाप तिहु योगे परीहरज्यो-भवी श्रीपालपरे तरज्यो, ____ओगणीसें सतरांसपे-जयपुर श्रीसुपास, चैत्रधवल पुनमदिने-मुज सफल हुई सब आस, बाल कहें नवपद छब प्यारी-जगतमें नवपद जयकारी. 5 (इति नवपद महात्मपर लावनी संपूर्ण.) CCC 2G aaeenecene [जैनश्वेतांबर धर्मोपदेष्टा विद्यासागर न्यायरत्न महाराज शांतिविजयजीके बनाये हुवे __ ग्रंथोकी यादी.] १-मानवधर्मसंहिता. २-रिसाला मजहब ढुंढिये. ३-जैनसंस्काराविधि. ४-बयान पारसनाथ पहाड. ये चार ग्रंथ जितने छपे थे तमाम बीक गये, सीलक नहीं रहे. १-जैनतीर्थगाइड-किंमत तीन रूपये. २-त्रिस्तुति परामर्श-आठ आने. ३-सनम परस्तिये जैन-किंमत चार आने. ४-न्यायरत्नदर्पण-मुफत. [अलावा इसके और ग्रंथ छपवाना बाकी है, जनके नाम नीचे मुजब.] १-जैनतीर्थगाइड छोटी. २-पंचमकाल पताका. ३-खरतरगछ मीमांसा. ४-जहुरे आलम. ५-प्राचीन श्वेतांबर. ६-निर्णय प्रभाकर. कोई श्रावक इन ग्रंथोकों अपने नाम और अपने खर्चसे. छपवाना चाहे-ग्रंथकतासे बजरीये पत्रके दरयाफ्त करे. అe JoswwwcoG