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हिदायत बुतपरस्तिये जैन. पापमय नही, इसलिये पाप नही. बल्कि ! पुन्यानुबंधिपुन्य और अशुभ अनिकाचितकर्मकी निर्जराका हेतु है, तिसरा भेद निरवद्य व्यापार और सावधपरिणाम यह प्रसन्नचंद्र राजरिषिकी अपेक्षासे जानना, प्रसन्नचंद्रजी राजरिषि काजोत्सर्गध्यानमे खडे थे, उनका व्यापार ऊसवख्त निरवद्य था, मगर मनःपरिणाम हिंसात्मक होनेसे उनकों अशुभ कर्मके दलिये संचय होगये थे, चौथा भेद निरवद्यव्यापार और निरवद्यपरिणाम यह भेद सर्व विरतिसाधुकी अपेक्षासे जानना, क्यौं सर्वविरति साधुमहाराजका व्यापार (यानी) कर्तव्यभी निरवद्य और मनःपरिणामभी निरवद्य होते है, इन चारो भेदोको अछीतरह समज लिये जाय तो सब तरहके शक रफा हो सकेंगें.
दरअसल ! मनके शुभाशुभ परिणाम पुन्यपापके हेतु है, देखलो! एलाचिकुमार एक नटिनीपर मोहित होकर अपने घरसे निकला था, और चाहताथा कि-किसी तरह इस नटिनीकों अपनी
औरत बनालं. मगर एकदफे जब एकशहरमें बांसपर चढकर नाटक करता था, एक जैनमुनिकों भिक्षावृत्ति करते देखे और मनःपरिणाम सुधरे, फौरन ! ऊनकों केवलज्ञान पैदा होगया. देखलो ! निरवद्य मनःपरिणामके सामने सावधव्यापार यानी हिंसात्मक कर्तव्यभी रद होगया इसी लिये कहाजाता है, मनःपरिणाम यानी इरादा बडी चीज है, तीर्थोकी जियारत जानेसे जीवके इरादे पाक
और साफ होते है, धर्मपर एतकात नढता है और दुनियाके कारोबार भूलजाते है, अगर तीर्थों में कोई जैनमुनि पधारे हुवे हो तो शास्त्र सुननेकाभी फायदा मीलता है, जोजो तीर्थकर और मुनिमहाराज ऊस तीर्थसे मुक्ति पाये है वे याद आयगे. पुन्यवान् पुरुषोके निर्मल पुदगल परमाणुओका स्पर्श होनेसे बुद्धि निर्मल होगी. तीर्थों में फिरनेसे भवभ्रमण कम होगा. तीर्थभूमिकी रज