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हिदायत बुतपरस्तिये जैन था, इसलिये पाप नही तो इसीतरह मूर्तिपूजाके बारेमें भी इरादेपर खयाल किजिये, एक कचे पानीके थालमें एक मखी गिरपडी ऊसकों बचानेके इरादेसें तुर्त एक श्रावकने निकाली, बतलाइये! कचे पानीमे अंगुलि डालनेसें जो पानीके जीवोंकी हिंसा हुई ऊसका पाप किसको लगा? अगर कहा जाय मखी निकालनेवाले श्रावकका इरादा जीव वचानेका था, इसलिये पानीके जीवोकी जो द्रव्यहिंसा हुइ ऊसका पाप नही, क्योंकि-पाप या पुन्य बांधना मनः परिणामके ताल्लुक है, जब मनः परिणाम अशुभ नही तो पाप कैसे बंधे ? इसीतरह मूर्तिपूजाके लिये भी मनः परिणामपर बात है. __अगर कोई कहे श्राद्धविधि ग्रंथमें लिखा है जिनमंदिरकी धजाकी छाया जिसके घरपर दिनके अवल और अखीरपहरमें पडे ऊस घरवालेका अछा नही, जिनमंदिर तो अछा है, फिर उसकी धजाकी छाया अछी क्यों नहीं? जवाबमें मालुम हो, अछी चीज भी विधिसे सेवन करो तभी फायदेमंद होती है, श्रावकोंका फर्ज है, जिनमंदिरको आशातनासे बचे, और इसीलिये कुछ फासले पर बसे, नजीक जिनमंदिरके अपना घर होनेपर आशातना होनेका सबब है, बात आशातना मिटानेके लियेथी, इसको दुसरे रास्ते ऊतारना मुनासिब नही. . जैनशास्त्रोमें तीर्थ दो तरहके फरमाये, एक स्थावरतीर्थ दुसरा जंगमतीर्थ, स्थावरतीर्थ, अष्टापद, समेतशिखर, शत्रुजयगिरनार, चंपापुरी, अयोध्या, पावापुरी वगेरा, और जंगमतीर्थ, साधुसाधवी, श्रावक-श्राविका, जैनागममें दोनों तरहके तीर्थ मंजुर रखना फरमाये, तीर्थंकर रिषभदेव महाराज अष्टापदपर मुक्त हुवे, बीस तीर्थकर समेतशिखरपर मुक्त हुवे, तीर्थकर वासुपूज्य महाराज चंपापुरीमे नेमिनाथ महाराज गिरनार पर्वतपर तीर्थकर