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दिवाकर (चित्रकथा)
अंक २० मूल्य १७.००
भगवान नेमिनाथ
WILLO
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700000002
VUOT
प्राकृत
अकादमी
सुसंस्कार निर्माण विचार शुद्धि : ज्ञान वृद्धि मनोरंजन
Jain Educationternational
भारती
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$ 95 95 95 95 95 95 95 959595
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भगवान नेमिनाथ
जैन परम्परा के २२वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ ( अरिष्टनेमि ) का जन्म सोरियपुर के यदुवंशी राजा समुद्रविजय जी की महारानी शिवादेवी की कुक्षि से हुआ । वासुदेव श्रीकृष्ण का जन्म समुद्रविजय के छोटे भाई राजा वसुदेव जी की रानी देवकी के गर्भ से हुआ और वसुदेव जी की बड़ी रानी रोहिणी ने बलदेव (बलराम ) को जन्म दिया। इस प्रकार यदुवंश में एक ही युग में तीन महापुरुषों ने जन्म लेकर अपने अद्भुत लोकोत्तर कृतित्व से हरिवंश को तो गौरव मण्डित किया ही सम्पूर्ण भारतीय जन-जीवन को भी धर्मानुप्राणित कर दिया ।
भगवान नेमिनाथ जहाँ अद्भुत पराक्रमशाली एवं शौर्य तेज के पुँज थे वहीं परम करुणामूर्ति भी थे। उनका जीवन सांसारिक मोह एवं विकारों से निर्लेप कमल के समान पवित्र था। तो करुणा व अहिंसा की शीतलवाहिनी गंगा के समान लोक-कल्याणकारी भी था । शासक यादव जाति को शिकार व माँस-मदिरा सेवन के दुर्व्यसनों से मुक्त कराने और शील- सदाचार की ओर मोड़ने में उनका योगदान चिरस्मरणीय है। केवल वाणी द्वारा ही नहीं, किन्तु अपने आत्म बलिदानी व्यवहार से भी उन्होंने तत्कालीन मानव समाज को जीव दया व शाकाहार का सन्देश दिया । वासुदेव श्रीकृष्ण उनके इन उपदेशों को यादव जाति व तत्कालीन समाज में प्रचारित करने में विशेष सहयोगी रहे। यही कारण है कि जैन साहित्य के अलावा वैदिक साहित्य में भी भगवान अरिष्टनेमि के उपदेशों व धर्म-प्रचार का प्रशंसात्मक उल्लेख मिलता है। यजुर्वेद में तो उनको अध्यात्म वेद को प्रकट करने वाले सब जीवों का मंगल करने वाले मानकर उनके प्रति यज्ञाहुति समर्पित करने के मंत्र भी हैं। प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान डॉ. राधाकृष्णन ने उन्हें स्पष्ट ही ऐतिहासिक महापुरुष स्वीकार किया है।
भगवान नेमिनाथ की जीवन घटनाओं का वर्णन जैन आगमों व उत्तरवर्ती टीका ग्रन्थों, चरित्र ग्रन्थों आदि में विस्तार पूर्वक मिलता है । यद्यपि परम्परा भेद के कारण कुछ प्रसंगों के वर्णन में सामान्य - सा अन्तर अवश्य आता है किन्तु उनके अहिंसा - करुणामय जीवन आदर्शों को सभी ने बड़ी श्रद्धा के साथ चित्रित किया है। भगवान नेमिनाथ के साथ राजीमती का चरित्र चित्रण जैन साहित्य में बड़ी रसमय शैली में किया गया है । राजीमती के पवित्र अनुराग में त्याग और बलिदान की, शील और सद्विवेक की एक अद्भुत प्रेरणा शक्ति भरी हुई है । यहाँ पर संक्षिप्त में भगवान नेमिनाथ के पावन जीवन चरित्र को शब्दांकित किया है आचार्यश्री कलापूर्ण सूरीश्वर जी के विद्वान शिष्य मुनिश्री पूर्णचन्द्र विजय जी ने ।
-महोपाध्याय विनयसागर
लेखन : मुनि श्री पूर्णचन्द्र विजय जी प्रबन्ध सम्पादक : संजय सुराना
प्रकाशक
सम्पादक : श्रीचन्द सुराना 'सरस'
दिवाकर प्रकाशन
ए-7, अवागढ़ हाउस, अंजना सिनेमा के सामने एम. जी. रोड, आगरा-282002 दूरभाष : (नि.) 351165, (का.) 51789
-श्रीचन्द सुराना 'सरस'
चित्रण : श्यामल मित्र
श्री देवेन्द्र राज मेहता सचिव, प्राकृत भारती अकादमी 3826, यती श्यामलाल जी का उपाश्रय मोतीसिंह भोमियों का रास्ता, जयपुर-302003
मुद्रण एवं स्वत्वाधिकारी : संजय सुराना द्वारा दिवाकर प्रकाशन, ए-7, अवागढ़ हाउस, एम. जी. रोड, आगरा-2 के लिए ग्राफिक्स आर्ट प्रेस, मथुरा में मुद्रित ।
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编
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भगवान नेमिनाथ यमुना नदी के तट पट सोष्टियपुट जाम का विशाल
नगर था। यहाँ पर हरिवंश के वृष्णि कुल में जन्मे दो राजाओं का राज्य था। सोरियपुर के उत्तर-पूर्व के शासक समुद्रविजय थे जिनकी पटरानी का नाम था शिवादेवी। दक्षिणी-पूर्व भाग पर राजा वसुदेव जी का राज्य था। इनकी दो रानियों थीं रोहिणी और देवकी। वसुदेव जी की बड़ी रानी रोहिणी के पुत्र थे बलराम। छोटी रानी देवकी के पुत्र थे श्रीकृष्ण ।
यह कहानी श्रीकृष्ण के चचेरे भाई भगवान नेमिनाथ के जीवन-वृत्त पर आधारित है जिन्होंने महान् पुण्य कर्म कर बीस स्थानकों की उपासना करके पिछले जन्म में तीर्थंकर गोत्र कर्म का बन्ध किया और स्वर्ग में अपराजित विमान में देव बनें।
एक दिन स्वर्ग के सबसे ऊँचे अपराजित देव विमान में इस महान् पुण्यात्मा देव का आसन डोलने लगा। उन्होंने भविष्य के गर्भ में देखा
ओह ! मैं अब शीघ्र ही मनुष्य लोक में माता शिवा के पुत्र रूप में जन्म लूँगा।
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| माता शिवादेवी महलों में सोयी हुई थीं। कार्तिक मास की कृष्ण त्रयोदशी की मध्यरात्रि में स्वर्ग से प्रयाण कर देव की भव्य आत्मा माता शिवादेवी के गर्भ में अवतरित हुई। एक साथ अनेक दिव्य स्वप्न उनकी आँखों में तैरने लगे। हाथी, सिंह आदि एक-एक करके १४ स्वप्न माता को दिखाई दिये। वे नींद से उठकर सोचने लगीं
उन्होंने स्वर्ग से माता
को प्रणाम किया।
00000 ओह ! एक साथ
कितने शुभ स्वप्न
आये हैं?
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भगवान नेमिनाथ आकाश-मंडल में स्थित स्वर्ग के देव-देवेन्द्र-बृहस्पति आदि माता शिवादेवी को नमस्कार करने लगे।
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(हे माता ! धन्य हैं आप ! आपके उदर से जगत् के तारणहार २२वें तीर्थंकर ,000
नेमिनाथ का जन्म होगा, समूचे संसार में धर्म का प्रकाश फैलेगा।
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| रानी उठी और पास के कक्ष में सोये महाराज समुद्रविजय के पास आई। रानी के आने की आहट से महाराज की नींद उचट गई। महाराज ने पूछा
"महारानी ! आप! इस मध्यरात्रि में ......?
| रानी शिवादेवी ने महाराज को अपने स्वप्न सुनाते हुए कहा
क्या आपको नहीं लग रहा है इस अंधेरी रात में जैसे दिशाओं में प्रकाश बिखर गया है। हवा में भीनी-भीनी महक-सी
आ रही है। आसमान से खुशियों की बौछारें हो रही हैं ? सितारे गा रहे हैं।
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करणER
समुद्रविजय बोले
अवश्य ! ही आप जगत् के तारणहार उस महापुरुष की माता बनने वाली हैं जिसके चरण-स्पर्श से ही पापियों का उद्धार हो जायेगा। धरती पर
धर्म की दिव्य वर्षा होगी।
.
महाराज की बात सुनकर प्रसन्न रानी अपने कक्ष में वापस आ गई और बाकी रात णमोकार मंत्र का जाप करती रही।
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भगवान नेमिनाथ
गर्भ के नौ मास पूरे होने पर श्रावण सुदि पंचमी के दिन रानी शिवादेवी ने एक सूर्य जैसे प्रकाशपुंज रूपी बालप्रभु को जन्म दिया। राजभवन का कौना-कौना उस प्रकाश से जगमगा उठा। स्वर्ग से ६४ इन्द्र और हजारों देव-देवियाँ माता शिवादेवी की वन्दना करने आये।
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हे जगत् के तारणहार तीर्थंकर देव की का माता ! हमारा नमस्कार स्वीकार हो।
TALUKA GOODSAROO
MIMARATHAWWWarmaATTON
देवेन्द्र ने बालक का एक अन्य प्रतिरूप | और बाल-प्रभु को अपने हाथों में उठाकर मेरुपर्वत के बनाकर माता के पास सुला दिया। | शिखर पर ले आये। अपने पाँच दिव्य रूप बना कर
देवेन्द्र ने भगवान का जन्म अभिषेक किया।
बारहवें दिन महाराज समुद्रविजय ने एक विशाल प्रीतिभोज का आयोजन किया और घोषणा की
जब यह बालक माता के गर्भ में था तब माता ने अरिष्ट रत्नों का दिव्य चक्र (नेमि) देखा था, इसलिए हम बालक का नाम
अरिष्टनेमि रखते हैं।
सभी ने हर्ष ध्वनि के साथ राजा की घोषणा का स्वागत किया।
एक आचार्य का कहना है, बालक का नाम इन्द्र ने 'नेमिकुमार' रखा, वे अरियों-शत्रुओं को भी प्यारे इष्ट लगते थे इसलिए उनका नाम अरि-इष्ट अरिष्ट प्रसिद्ध हो गया। ..
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भगवान नेमिनाथ बालक अरिष्टनेमि का शरीर बड़ा सुगठित और सुडौल नेमिकुमार के पश्चात् रानी शिवादेवी ने और था। शरीर का रंग हलका नीला श्याम छवि वाला था। तीन पुत्रों को जन्म दिया। जिनके नाम थेउनकी छाती पर श्रीवत्स का चिन्ह देखकर लोग कहते- रथनेमि, सत्यनेमि और दृढ़नेमि।
यह बालक तो अवश्य ही कोई चक्रवर्ती सम्राट
बनेगा।
अरिष्टनेमि धीरे-धीरे नेमिकुमार नाम से प्रसिद्ध हो गये। | चारों भाई राजसी वैभव में पलकर बड़े होने लगे।
मगध का क्रूर शासक जरासंध यादव वंश के साथ गहरी शत्रुता जरासंध ने सोपाक नामक दूत समुद्रविजय के रखता था। जब कृष्ण के हाथों अपने दामाद कंस के वध की खबर पास भेजा। दूत ने जरासंध का सन्देश सुनायाउसके पास पहुंची तो उसने अपनी बेटी जीवयशा के सामने प्रण किया
कंस के हत्यारे बलराम-कृष्ण को हमें मैं तेरे पति के हत्यारों का समूल
सौंप दो, अन्यथा समूची यादव जाति
का नाश कर डालेंगे। नाश कर डालूँगा। तू शान्ति रख !
है
RATIO
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समुद्रविजय ने कहा
कंस स्वयं हत्यारा और अपराधी था। अपराधी को दण्ड देना हमारा कर्त्तव्य है। श्रीकृष्ण ने जो किया वह बिल्कुल
ठीक किया है।
भगवान नेमिनाथ सोपाक दूत ने लौटकर जरासंध को भड़काया। जरासंध ने अपने पुत्र कालकुमार को आदेश दिया
तुम सेना लेकर जाओ और
यादवों को कुचल डालो। परन्तु सावधान रहना, कृष्ण
बहुत चतुर छलिया है। ANKRAV/पिताश्री ! आप चिंता न
करें, यदि वह अग्नि में भी प्रवेश कर गया होगा तब भी मैं उसे निकाल कर मार डालूंगा।
SALES
कालकुमार विशाल सेना लेकर श्रीकृष्ण को मारने चल दिया।
इधर समुद्रविजय वसुदेव जी आदि ने निमित्तज्ञ (ज्योतिषी) को बुलाकर पूछा--
जरासंध के साथ हमारी
सारी महाराज ! यह सत्य है कि बलराम-श्रीकृष्ण शत्रुता बंध गई है इसका
महान् पराक्रमी हैं। जरासंध को मार कर ये अन्त कब होगा.....
तीन खण्ड के अधिनायक बनेंगे, किन्तु अभी आपका इस प्रदेश में रहना ठीक नहीं है।
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निमित्तज्ञ ने कहा
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यहाँ से पश्चिम दिशा में समुद्र की ओर आप सपरिवार चले जायें। मार्ग में जहाँ सत्यभामा दो पुत्रों को जन्म देगी वहीं पर नगरी बसा लें। शत्रु
आपका बाल भी बांका नहीं कर सकेगा।
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निमित्तज्ञ के कथन का श्रीकृष्ण ने समर्थन किया
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भगवान नेमिनाथ
अभी हमें नर-संहार से बचकर नव-निर्माण करना है और इसके लिए शान्ति की जरूरत है।
सभी यादवों ने पश्चिम दिशा की तरफ प्रस्थान कर दिया।
कालकुमार विशाल सेना के साथ कृष्ण-बलराम का पीछा करता हुआ पश्चिम विंध्याचल के जंगलों में पहुँच गया। श्रीकृष्ण के सहायक एक देवता ने कालकुमार को रोकने के लिये माया रची। कालकुमार ने देखानदी किनारे एक किले के पास जगह-जगह पर चिताएँ जल रही हैं। एक बुढ़िया चिता के पास बैठी रो रही है। उसने बुढ़िया से पूछाक्या बताऊँ
बुढ़िया रूपी देव ने रोते-रोते बताया। कालकुमार गर्व से सीना तानकर बोला
यह क्या है ? किसकी चिताएँ हैं?
ठीक है, सब यादव वंशी अपने-अपने परिवारों के साथ पश्चिम दिशा में प्रस्थान करें।
कालकुमार के भय से बलराम-श्रीकृष्ण और सब यादव यहाँ जलकर मर गये। अब मैं भी इस चिता में जलकर मरूँगी।
'कृष्ण छलिया जरूर मेरे भय से अग्नि में छुपा है'अभी मैं पकड़ कर लाता हूँ। बता, कृष्ण की चिता कौनसी है?
यही है।
कालकुमार उस जलती चिता में कूद गया और अग्नि में जलकर भस्म हो गया।
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भगवान जेमिनाथ कुछ देर बाद देवता ने अपनी माया समेट श्रीकृष्ण के नेतृत्व में यादवों की सेना आगे बढ़ती हुई रैवतक ली। वहाँ न चिता थी न किला और नही पर्वत की तलहटी में पहुंची। वहाँ पर सत्यभामा ने दो बुढ़िया। कालकुमार की सेना ने जरासंध के तेजस्वी पुत्रों को जन्म दिया। श्रीकृष्ण ने अष्टम तप करके पास आकर सारी घटना सुनाई तो जरासंघ सुस्थित देव की आराधना की, देव उपस्थित हुआ-| दुःख से पागल होकर सिर पीटने लगा।
आपने मुझे किसलिए स्मरण किया है?
एप्पा
ओह ! कृष्ण ने छल से मेरे पुत्र की हत्या की है। मैं उसे जिन्दा
नहीं छोडूंगा।
देव, हमारे लिए यहाँ पर आप एक विशाल सुन्दर नगरी का निर्माण करें।
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THANK
देवता ने नौ योजन लम्बी और बारह योजन चौड़ी एक सुन्दर नगरी का निर्माण किया। जो द्वारका के नाम से प्रसिद्ध हुई।
इधर जरासंध ने अपार सेना लेकर द्वारका की तरफ प्रस्थान कर दिया। नारद जी श्रीकृष्ण की सभा में समाचार लेकर आ पहुँचे। श्रीकृष्ण ने नेमिकुमार से पूछा
होनहार ऐसी ही है। जरासंध का कुमार ! क्या यह युद्ध अनिवार्य अज्ञान और अहंकार उसे यहाँ तक है? इसका परिणाम क्या होगा? / खींच लाया है। उसकी मृत्यु निश्चित
है। आप विजयी होंगे।
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भगवान नेमिनाथ बलराम श्रीकृष्ण के साथ नेमिकुमार भी रथ पर आरूढ़ होकर युद्ध के लिए चल पड़े। भयंकर युद्ध में जरासंध ने बलराम पर गहरा प्रहार किया। बलराम भूमि पर गिर पड़े। तब श्रीकृष्ण ने जरासंध के साथ घमासान युद्ध किया। जरासंध की सेना ने श्रीकृष्ण को चारों ओर से घेर लिया और शोर मचा दिया कृष्ण मर गये। यादव सेना में खलबली | मच गई। तभी रथ पर बैठे नेमिकुमार आगे आये और उन्होंने इन्द्र द्वारा दिया हुआ शंख बजाया। अरे शंख ध्वनि इसका अर्थ
श्रीकृष्ण जीवित हैं। श्रीकृष्ण जीवित हैं।
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शंख ध्वनि सुनते ही यादव सेना हर्ष से उछलने लगी,जरासंध की सेना के छक्के छूट गये।
श्रीकृष्ण ने चक्र घुमाकर जरासंध की तरफ फेंका चक्र आता देखकर जरासंध भागा
चक्र उसका पीछा करता रहा। अन्त में चक्र से कडे कर जरासंध का सिर धड़ से अलग गिर पड़ा। देवताओं ने आकाश से फूल बरसाये। घोषणा की- नवम वासदेव
श्रीकृष्ण की जय !
(
5)
बचाओ!
बचाओ
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जरा विद्या का विनाश और शंखेश्वर महातीर्थ की उत्पत्ति
जरासंध के साथ युद्ध में भगवान नेमिनाथ ने जब शंखध्वनि की तो जरासंध की सेना के छक्के छूट गये। वहीं यादव सेना में हर्ष और उल्लास का संचार हो गया। इस प्रसंग के साथ कुछ प्राचीन चरित्रों में एक महत्त्वपूर्ण घटना का भी वर्णन है जो इस प्रकार है
जरासंध ने यादव सेना को जीतने के लिए उस पर जरा नामक दुष्ट विद्या छोड़ी। जिसके दुष्प्रभाव से यादव सैनिक मूर्छित और जरा-जीर्ण होकर निस्तेज हो गये। श्रीकृष्ण ने यह देखा तो चिंतित हुए। श्री नेमिकुमार के निर्देशानुसार अट्ठम तप किया तब भगवान पार्श्वनाथ की एक दिव्य मूर्ति पाताल से प्रगट हुई। माता पद्मावती ने दर्शन देकर बताया-“अतीत की चौबीसी में दामोदर नामक नवम तीर्थंकर के समय में अषाढ़ी नामक श्रावक ने यह मूर्ति भराई थी, इस मूर्ति का स्नात्र-प्रक्षाल जल सेना पर छिटकाव करो।" पद्मावती देवी के कथनानुसार श्रीकृष्ण ने मूर्ति का स्नात्रप्रक्षाल जल सेना पर छिटका तो दुष्ट जरा विद्या का दुष्प्रभाव दूर हुआ। सभी सैनिक सज्जित होकर उठे। जरासंध युद्ध में पराजित हो गया। तभी श्रीकृष्ण ने विजय उल्लास में शंख बजाया। तब से उस स्थान पर पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा स्थापित हुई और वह शंखेश्वर तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। शंखेश्वर महातीर्थ की वह मूर्ति आज भी इस दिव्य महिमा से मंडित मानी जाती है। आधार-आचार्य श्री जिनप्रभ सूरी रचित (१४वीं शताब्दी)
विविध तीर्थ कल्प, पार्श्वनाथ कल्प
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भगवान नेमिनाथ जरासंध को मरा देखकर उसके साथी भयभीत अनेक राजा नेमिकुमार की शरण में आये नेमिकुमार शत्रु पक्ष के राजा व जरासंध के पुत्रों को साथ लेकर वासुदेव श्रीकृष्ण के पास आये।
हमारी आज्ञा के 'तात ! आप अमेय योद्धा हैं, पराजित अधीन रहकर शत्रु को क्षमादान करना आपका धर्म A सुखपूर्वक जीयें। है। इन भयभीतों को अभयदान देकर
अपन कर्तव्य पूर्ण करें।
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नेमिकुमार के कहने पर श्रीकृष्ण ने सभी को अभयदान दिया। श्रीकृष्ण, नेमिकुमार आदि सुखपूर्वक द्वारका में रहने लगे।
नेमिकुमार अब युवा हो चुके थे। एक दिन घूमते हुए वासुदेव श्रीकृष्ण की आयुधशाला में पहुँच गये। वहाँ पर विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्र देखने लगे। आयुधशाला के रक्षक ने बताया
कुमार ! वासुदेव श्रीकृष्ण
के सिवाय किसी में भी इतनी शक्ति नहीं है जो इन
आयुधों को उठा सके।
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नेमिकुमार मुस्कराये और उन्होंने सुदर्शन चक्र अंगुली पर उठाकर खूब वेग से घुमाया। आयुधरक्षक आश्चर्यचकित देखता रहा
60000 हैं? क्या यह (वासुदेव श्रीकृष्ण
से भी अधिक पराक्रमशाली हैं?
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भगवाज नेमिनाथ | फिर नेमिकुमार ने आगे बढ़कर शार्ङ्ग धनुष उठाया और और पाँच जन्य शंख हाथ में लेकर बजाया तो रबर की नली की तरह मोड़ दिया।
उसकी प्रचण्ड ध्वनि से दिशाएँ गँज उठीं।
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द्वारिका राजसभा में बैठे वासुदेव श्रीकृष्ण चौंक:श्रीकृष्ण कुमार को बाहुओं में लपेटकर हँसते पड़े। वे सीधे दौड़कर आयुधशाला में आये।। | हुए बोलेउन्होंने पूछा
आश्चर्य, तुमने यह शंख बजाया? मैंने आपका शंख उठाया
फिर- मेरा भाई ! मुझसे भी कुमार ! यह शंख और क्रीड़ा करते हुए फूंक
प्रचण्ड पराक्रमी है! वाह ! किसने फूंका?
डाला। पर, आप यों घबराये हुए क्यों हैं?
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For Private & Personal use only
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श्रीकृष्ण नेमिकुमार के बल की परीक्षा लेने के लिए बोले
कुमार ! आओ, आज हम बाहुयुद्ध करके देखे, कौन अधिक पराक्रमी है ?
श्रीकृष्ण मुझसे बड़े हैं। बड़े) भाई तो पिता तुल्य पूज्य होते हैं। इनसे बाहुयुद्ध करना उचित नहीं?
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स
श्रीकृष्ण भी मुस्कराये
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भगवान नेमिनाथ
नेमिकुमार सोचने लगे।
हाँ, तुम ठीक कहते हो बंधु, क्या वास्तव में ही
तुम में इतना प्रचण्ड पराक्रम है ?
श्रीकृष्ण ने अपनी भुजा फैलाई नेमिकुमार उस पर जैसे ही झूमने लगे, श्रीकृष्ण की भुजा
नीची झुक गई।
ओह
फिर वे श्रीकृष्ण से बोले
| नेमिकुमार ने कहा
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तात ! पहलवानों की तरह मल्ल धूल में लोटना हमें
युद्ध करके शोभा नहीं देता। मैं जानता हूँ आप मेरी बल-परीक्षा करना चाहते हैं?
11
आप जरा अपनी भुजा लम्बी कीजिये।
फिर नेमिकुमार ने अपनी भुजा फैलाकर कहातात ! आप भी झूम कर देखें।
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भगवान नेमिनाथ | श्रीकृष्ण नेमिकुमार की भुजा पकड़कर झूमने लगे परन्तु यह देखकर श्रीकृष्ण चिन्तातुर होकर सोचने लगे। वह पत्थर के खम्भे की तरह सीधी ही तनी रही।
यह नेमिकुमार तो आसानी से मेरे राज्य A पर अधिकार कर
सकता है। ka
तभी आकाश-वाणी हुई
नेमिकुमार युवा अवस्था में ही गृह त्यागकर दीक्षा ग्रहण
कर लेंगे।
आकाशवाणी सुनते ही श्रीकृष्ण की सोच बदली, वे सोचने लगेनेमिकुमार को संसार में रखने का एक ही उपाय है इनका विवाह कर
दिया जाय।
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एक दिन मौका देखकर श्रीकृष्ण बोले
कुमार ! हमारे सभी भाई ! क्या आप पुग्यजनों की इच्छा है मझे कारागार में बंद आपका विवाह उत्सव करें।
करना चाहते हैं? पूज्यजनों की इच्छा पूरी करना आपका कर्तव्य है।
| श्रीकृष्ण उसे समझाते हुए बोले
कुछ दिन तुम भी संसार के सुख भोगो, फिर दीक्षा यादव
ले लेना।
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भगवान नेमिनाथ नेमिकुमार बोले
श्रीकृष्ण
तात ! दो देहों का मिलन तात ! जिसके मन में भोगों की रुचित कुमार ! मैं संसार की क्षणिक आनन्द के बाद होती है उसे संसार सुखमय लगता है,
श्रेष्ठतम सुन्दरी से तुम्हारा दीर्घकाल तक दुःखदायी (किन्तु विरक्त आत्मा को तो ये भोग जहर
विवाह कराना चाहता हूँ होता है, मैं तो उस मार्ग जिसे पाकर तुम संसार का
पर चलना चाहता हूँ के समान कड़वे और कारागार के
जिसमें सदा आनन्द ही तुल्य बंधन प्रतीत होते हैं?
आनन्द भोग सको।
आनन्द हो।
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AD
15906
श्रीकृष्ण ने सोचा
(नेमिकुमार संसार से
विरक्त हैं। इन्हें राजा (विवाह के लिए मनाना रे
सरल नहीं
श्रीकृष्ण इसी विषय में सोचते हुए अपने महलों में आ गये। सत्यभामा, रुक्मिणी आदि ने पूछा
स्वामी ! आज आप -विचार-मग्न दिख रहे
हैं। क्या बात है? 4
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श्रीकृष्ण हँसकर बोले
ज्येष्ठ पिता समुद्रविजय जी आदि सब की इच्छा है कि नेमिकुमार को विवाह के लिए मनायें, परन्तु
वह नहीं मान रहे हैं।
सत्यभामा हँसकर बोलीयह काम हम पर छोड़ दीजिये ! मेरी छोटी बहन राजीमती का अद्भुत रूप-सौन्दर्य देखकर नेमिकुमार अवश्य राजी हो
जायेंगे।
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Education International
13 For Private Personal Use Only
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भगवान नेमिनाथ एक बार फागुन का महीना था। श्रीकृष्ण और नेमिकुमार, सत्यभामा, रुक्मिणी आदि रानियों के साथ मल क्रीड़ा करने गये। सरोवर का केसरिया जल पिचकारियों में भरकर सत्यभामा, रुक्मिणी नेमिकुमार के ऊपर उछालने लगी। रानी जाम्बवती और पनावती ने फूलों की गेंद बनाकर नेमिकुमार की छाती पर फेंकी। कुमार हँसते हुए बोले
TION
NA
बस, बस रहने
दो, भाभी।
अब जल्दी ही हमारी देवरानी कुमार को शीतल जल से रोज
नहलायेगी।
यह सुनकर कुमार हँसने लगे।
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भगवान नेमिनाथ हाथी को वापस जाताते देख रानियों ने इसे विवाह की स्वीकृति नमिकुमार सोचने लगे। LAUNE क्या होकर कहने लगीं--
अब मैं कुमार के लिए
"मोह की लीला कितनी विवाह
शीघ्र ही श्रेष्ठ राज
विचित्र है जिस विवाह को भी हो गये,
कन्या लालूँगा।
मैं बेड़ी मानता हूँ, उसको ज गये।
आनन्ददायक मानकर मुझे बांधना चाहते हैं।
बाबर5
दूसरे दिन श्रीकृष्ण नेमिकुमार के विवाह का प्रस्ताव श्रीकृष्ण बोलेलेकर राजा उग्रसेन के पास आये
मैं अपने छोटे भाई हमारे लिए इससे बढ़कर हर्ष निमिकुमार के लिए आपकी की बात क्या होगी? परन्तु
'ठीक है, ऐसा ही होगा। कन्या राजीमती का हाथ हम चाहते हैं नेमिकुमार की
आप तैयारी करें। माँगने आया हूँ।
बरात लेकर आप हमारे
दरवाजे पर आयें।
AVAN
....
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द्वारिका में अब नेमिकुमार के विवाह की तैयारियाँ होने लगीं।
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भगवान नेमिनाथ
आज द्वारिका के घर-घर में मंगल दीप जल रहे थे। तोरणों पर बंदनवारे लटक रहे थे। श्रीकृष्ण वासुदेव के गंधहस्ती पर नेमिकुमार वरराजा बनकर बैठे और पीछे घोड़ों, रथों पर तथा पैदल सैकड़ों यादव चल रहे थे।
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दूर ऊँची पहाड़ी पर विशाल राज भवन की छत पर अनेक महिलाओं से घिरी सजी हुई राजीमती दुल्हन बनकर हाथ में वर माला लिए खड़ी प्रतीक्षा कर रही थी। राजुल की दो सखियाँ नेमिकुमार को देखकर आपस में बातें करने लगीं
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वर राजा कितना सुन्दर है।
बाकी सब बातें तो ठीक हैं पर कहाँ हमारी राजुल गौरी-गौरी-सी और कहाँ कस्तूरी-सा श्यामवर्ण वर राजा ।
श्री हेमचन्द्राचार्यकृत त्रि. श. पु. च. में नेमिकुमार बारात के रथ में बैठकर चलने का कथन है, किन्तु उत्तराध्ययन सूत्र अ. २२ में वासुदेव के गंध हस्ती पर नेमिकुमार आरूढ़ होने का उल्लेख है। यहाँ पर उसी कथन को मान्य रखा है। .
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तभी राजुल ने बीच में टोकाअरी बुद्ध संसार में श्यामलता नहीं होती तो गोरेपन को कौन पूछता? काली कसौटी नहीं होती तो स्वर्ण की परीक्षा कौन करता?
भगवान नेमिनाथ
राजुल के उत्तर से दोनों सखियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ी।
जहाँ प्रेम होता है वहाँ सब दूषण-भूषण बन जाते हैं।
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| विवाह मण्डप के नजदीक पहुंचने पर नेमिकुमार ने देखा। दूर एक बाड़े में अनेक प्रकार के पशु-पक्षी बँधे हुए आर्त पुकार क्रन्दन कर रहे हैं।
सारथि ! हजारों पशु-पक्षी यहाँ माल बन्द क्यों हैं ? क्यों ये क्रन्दन कर रहे हैं इनकी करुण पुकार से मेरा,
भर हृदय दुःखी हो रहा है?
Synudeकुमार ! आपके विवाह में
आये हुए मेहमानों के लिए इन पशु-पक्षियों का वध
किया जायेगा।
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सुनते ही नेमिकुमार मैसे स्थम्भित हो गये।
क्या मेरे निमित्त इन। मूक प्राणियों का वध किया जायेगा? नहीं-नहीं! मैं ऐसा नहीं होने दूंगा। रुको ! यहीं
रुक जाओ।
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भगवान नेमिनाथ
नेमिकुमार भावविह्वल स्वर में बोले'देखो वह मूक हरिण आँखों में आंसू भरकर पूछ रहा है।।
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में आंसू भटकट पूछ रहा है।
स्वामी, हमने आपका
क्या अपराध किया, हम निर्दोषों को किसलिए मरवा
रहे हो?
इनके करुण स्वर मेरे कानों में गूंज रहे हैं, मेरा हृदय द्रवित
हो रहा है।
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सारथि ने अत्यन्त द्रवित कुमार की तरफ देखा
कुमार ! आप इन पशुओं के लिए इतने चिन्तित न होवें, इनकी तो यही होनहार है।
नेमिकुमार बोले
नहीं सारथि ! पहले जाओ, बाड़े में बंद इन पशुओं को मुक्त करो, इनके । ऑसू नहीं देखे जाते। इनकी छटपटाहट मेरे मन में टीस पैदा कर रही है।
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सारथि ने हाथी से उतर कर बाड़े का दरवाजा खोल दिया। बंद पशु हिरण, भेड़, बकरियाँ, खरगोश छलाँग मारकर भागने लगे। पशुओं को मुक्त हुआ देखकर नेमिकुमार प्रसन्न हो उठे।
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उन्होंने प्रसन्न होकर सारथि को अपने हार, कुंडल आदि आभूषण उतारकर दे दिये और हाथी को वापस द्वारका की तरफ मोड़ लिया।
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भगवान नेमिनाथ
हाथी को वापस जाता देख समुद्रविजय, श्रीकृष्ण आदि ने सामने आकर · महावत से पूछा
क्या बात हुई? हाथी वापस क्यों जा रहा है ?
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समुद्रविजय आदि ने नेमिकुमार को बहुत रोका।
कुमार ! आप जैसा कहेंगे वैसा ही हम करेंगे, बिना विवाह किये तोरण से मत लौटिए.
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तब श्रीकृष्ण ने समुद्रविजय आदि को समझाया
महाराज ! नेमिकुमार कोई साधारण पुरुष नहीं हैं, वे इस युग के पुरुषोत्तम हैं। ये जो कर रहे हैं। वह सबके कल्याण के लिए होगा। आप चिन्तित न हों..
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तात ! भ्रात ! जिस विवाह के निमित्त इतने मूक प्राणियों की हिंसा हो रही है, मुझे ऐसा विवाह नहीं करना है
विवाह मण्डप से लौटकर नेमिकुमार द्वारिका वापस आ गये। मन में निश्चय किया।
संसार को करुणा और दया का मार्ग बताने के लिए मुझे अब दीक्षा ग्रहण करना चाहिए।
तात ! शुभ संकल्प से हटना कायर पुरुषों का काम है। मैंने विवाह न करने का निश्चय ही नहीं, बल्कि संसार त्यागने का भी निश्चय कर लिया है। अब आप मुझे मत रोकिए...
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भगवान नेमिनाथ उन्होंने एक वर्ष तक वर्षीदान किया। फिर श्रावण सुदि ६ के दिन दोपहर के बाद हजार पुरुष वाहिनी उत्तराकुल नामक शिविका (पालकी) में बैठकर रैवतगिरि पर रैवतक उद्यान में पहुंचे। अशोक वृक्ष के नीचे पंच मुष्टि लोचं करके मुनिव्रत स्वीकार किया। नेमिकुमार के साथ ही १ हजार अन्य राजकुमार श्रेष्ठी आदि व्यक्तियों ने भी दीक्षा ग्रहण की। देवराज इन्द्र ने उनके केश स्वर्ण पात्र में ग्रहण किये और उन्हें एक देवदूष्य वस्त्र भेंट किया जिसे भगवान ने अपने कंधे पर रख लिया।
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सौराष्ट्र के विविध क्षेत्रों में ध्यान आदि साधना करते हुए चौवन दिन के पश्चात् वे पुनः उसी रैवतगिरि के शिखर पर पधारे।
नेमिकुमार ने जैसे ही दीक्षा ग्रहण की उन्हें मन के सूक्ष्म भावों को जानने वाला मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न हो गया। समुद्रविजय आदि के साथ वासुदेव श्रीकृष्ण ने नेमि प्रभु की वन्दना की।
हे लुप्त केश जितेन्द्रिय ! शीघ्र ही आप अपने इच्छित मनोरथ
को सिन्द्र करें।
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अशोक वृक्ष के नीचे अत्यन्त निर्मल ध्यान साधना में लीन होने पर नेमिनाथ को। केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई।
सब लोग द्वारिका की ओर लौट आये।।
दीक्षा के पश्चात नेमिकुमार नेमिनाथ कहलाये।
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भगवान नेमिनाथ
| उधर नेमिकुमार की बरात लौटती देखकर राजीमती ने सखियों से पूछा
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सखियों ने कहा
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न
क्या हुआ ? क्या हुआ? बरात क्यों जा रही है ?
राजुल ! सुना है विवाह में पशु-पक्षियों की हिंसा होती जानकर नेमकुमार नाराज होकर लौट गये। अब वे विवाह नहीं करेंगे।
मेरे स्वामी ! मुझे छोड़कर कहाँ चले गये? क्या मैं इतनी अभागिनी, पापिनी हूँ कि आपके लायक भी नहीं हूँ?
कहते-कहते राजीमती मूर्च्छित होकर गिर पड़ी।
सखियों ने शीतल जल छिड़का, हवा की। राजीमती होश में आई। उसने अपना श्रृंगार उतार दिया, आभूषण फेंक दिये, फूलों की मालाएँ तोड़-तोड़कर उछाल दीं। पागल जैसी पुकारती रही
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हैं, तोरण पर आकर वापस चले गये मेरे स्वामी ! मुझे मँझधार में, छोड़ गये।
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भगवान नेमिनाथ
सखियों ने धीरज बँधाया
राजुल ! रो मतः पिताश्री नेमिकुमार को मनाने गये हैं। मनाकर ले आयेंगे, तुझे जरूर ले जायेंगे।
नहीं, नहीं ! अब वे नहीं आयेंगे ...."अरे! मुझे उनके चरणों में पहुंचा दो, मैं ही अपने स्वामी को मना लूँगी, और किसी से वे
नहीं मानेंगे।
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इसी प्रकार रोती आँसू बहाती राजुल एकान्त में बैठकर । एक अज्ञात हर्ष से राजुल का रोम-रोम नाच उठा। रैवतगिरि पर्वत की तरफ देखती रहती थी। एक दिन एक उसने वहीं से अपने आराध्य देव को नमस्कार कियासखी ने आकर उसे सूचना दी
WAस्वामी ! सचमुच आपने जो चाहा सो
|मी पा लिया। मैं अभी भी मोह में पागल राजुल ! तेरे नाथ अब त्रिलोकीनाथ
LATE बनी हुई हूँ। वीतरागी से कैसा मोह ! बन गये। देख असंख्य-असंख्य
Byee कैसा प्रेम ! मेरे निर्मोही प्रभु, अब मुझे देव-देवियाँ आकर उनका कैवल्य
HTAuTI भी वीतरागता का मार्ग बताओ महोत्सव मना रहे हैं।
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भाव-विभोर हुई राजुल रैवतगिरि की तरफ हाथ जोड़कर बार-बार प्रार्थना करने लगी। उसकी आँखों से हर्ष के आँसू टपकने लगे।
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सखी ने झकझोरा
राजुल ! इतनी भावुकत पगली ! चल आज सभी प्रभु के दर्शन करने जा रहे हैं.....
प्रभु ! आपने नौ भवों की प्रीत पल भर में तोड़ डाली। अब मुझे भी वह मार्ग बताइए ! इस मोह से उबर कर वीतराग भाव में रमण करूँ? मुझे संयम दीक्षा दीजिये !
भगवान नेमिनाथ
हर्ष से पगलाई राजुल राजपरिवार के साथ रथ में बैठकर रैवतगिरि पर्वत की तरफ चल दी। वह रैवतगिरि के शिखरों को भाव-विह्वल होकर निहारने लगी।
रैवतगिरि की तलहटी में रथ रुक गया। पगडण्डी से राजुल बालक की तरह दौड़ती-उछलती चढ़ गई। गिरि शिखर पर भगवान नेमिनाथ का समवसरण लगा था। भगवान अपने आठ भवों की कथा सुना रहे थे। कथा समाप्त होते ही राजीमती आगे आई और प्रार्थना करने लगी
राजीमती के वैराग्य को देखकर राजा समुद्रविजय वासुदेव श्रीकृष्ण एवं उग्रसेन आदि सभी ने प्रभु से प्रार्थना की।।
प्रभु ऊपर विराजे धर्म देशना दे रहे होंगे? कितनी मीठी होगी उनकी वाणी ! कैसा आनन्द आ रहा होगा .
10000-100
प्रभु ! इसका हृदय संसार से विरक्त हो गया है। इसे संयम दीक्षा प्रदान करें।
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भगवान नेमिनाथ
प्रभु की स्वीकृति मिलते ही वासुदेव श्रीकृष्ण आदि ने राजीमती का दीक्षा महोत्सव किया। राजीमती ने अपने भँवरे जैसे काले कोमल केशों का हाथ से लुंचन किया। श्वेत वस्त्र धारण कर वह सैकड़ों यादव कन्याओं के साथ प्रभु नेमिनाथ के समक्ष उपस्थित हुई।
आर्या यक्षिणी ने सभी को मुनि दीक्षा प्रदान की।
सर्वप्रथम वासुदेव श्रीकृष्ण ने राजीमती को शिक्षा दी
कुमार रथनेमि भी इसी समय भगवान के समक्ष उपस्थित हुआ
प्रभु! मेरा मन मोह मूढ़ होकर भटकता रहा है। अब मैं अपने पापों का पश्चात्ताप कर दीक्षा लेना चाहता हूँ।
प्रभु की स्वीकृति मिली।
हे कन्ये ! तू इन्द्रियों को जीतकर मन को संयम में रमाते रहना। इस घोर संसार-सागर को वैराग्य नौका से शीघ्र ही पार करना।
जैसा सुख
लगे वैसा
करो।
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कुमार
रथनेमि भी मुनि बनकर रैवतगिरि की गुफाओं में तप-ध्यान करने चले गये।
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भगवान नेमिनाथ एकबार साध्वी राजीमती अनेक साध्वियों के साथ भगवान नेमिनाथ की वन्दना करने रैवतगिरि पर चढ़ रही थी। अचानक आकाश में काले-काले बादल गड़गड़ाने लगे। बिजलियाँ चमकने लगीं। सांय-सांय करती तेज हवा के साथ वर्षा की तेज बौछारें आने लगीं।
साध्वियाँ तूफानी वर्षा से बचने के लिए पर्वत की गुफाओं में इधर-उधर आश्रय खोजने लगीं। राजीमती अपने समूह से बिछुड़ कर अकेली रह गई। उसने देखा-सामने एक गुफा है। वह उसी गुफा में आकर खड़ी हो गई। गुफा भीतर में बहुत गहरी थी। राजीमती ने सोचा
मेरे वस्त्र पानी से भीग गये हैं। यहाँ एकान्त है, जरा अपने
वस्त्रों को सुखा लूँ।
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इधर-उधर देखा, दूर-दूर तक अँधेरा था। राजीमती ने अपनी शाटिका सुखाने के लिए फैलायी। उसी गुफा में स्थनेमि ध्यानस्थ खड़े थे। बादलों की गड़गड़ाहट से उनका ध्यान टूट गया, वे ऊपर बाहर देखने लगे। अचानक बिजली चमकी तो सामने ही वस्त्र उतारती रानीमती खड़ी दिखाई दी। राजीमती को देखते ही। रथनेमि का मन डोल गया। मन का हाथी बेकाबू हो उठा।
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राजीमती! वाह!!
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भगवान नेमिनाथ
दुबारा बिजली चमकी तो राजीमती ने भी देखा, सामने कोई श्रमण खड़ा है। उसने तुरन्त गीली साड़ी शरीर पर लपेट ली। और हाथ-पाँव सिकोड़कर अंगों को छुपाती हुई भयभ्रान्त हरिणी-सी एक तरफ बैठ गई।
कोई श्रमण खड़ा है।
रथनेमि का उद्भ्रान्त मन बेकाबू हो उठा था। उसने कहाहे सुरूपे, डरो मत! मैं रथनेमि हूँ। मैं तुमसे प्यार करता हूँ, स्नेह करता हूँ, तेरे बिना मेरा जीवन व्यर्थ हो रहा है, आओ, इस सुहावने मौसम हम यौवन का आनन्द लेवें।
रथनेमि के पाँव थम गये। वह स्तब्ध खड़ा पुकारने लगा
सुन्दरी ! भाग्य ने आज यह अवसर दिया है। आओ, इस अवसर का आनन्द लो
| राजीमती सहम कर छुपने की चेष्टा करती हुई बोलीरथनेमि । रुक जाओ ! आगे मत बढ़ना ! धिक्कार है तुम्हें, जो बड़े भाई का वमन पीना चाहते हो.... उज्ज्वल वृष्णि कुल में जन्म लेकर भी कौवे, कुत्ते की तरह त्यागी हुई वस्तु का भोग करना चाहते हो....?
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भगवान नेमिनाथ
राजीमती ने कहा
मूर्ख ! मैं तुम्हारे जैसे वासना के कीड़ों को छूना भी नहीं चाहती.... अगन्धन कुल में जन्मा सर्प जलती अग्नि में मरना पसन्द करता है। परन्तु उगला हुआ विष वापस नहीं पीता। तुम्हें सौ-सौ धिक्कार है, जो त्यागे हुए भोगों की पुनः इच्छा करते हो....? ऐसे पतित जीवन से तो मृत्यु श्रेष्ठ है...
राजीमती के तीखे तेज वचनों ने स्थनेमि के मन को झकझोर दिया। जैसे अंकुश से हाथी का मद उतर जाता है। वैसे ही स्थनेमि के मन पर से वासना का नशा उतर गया। दूर खड़े-खड़े ही उसने जोर से ध्वनि की
मुझे धिक्कार है। धिक्कार है।
और वह वापस संयम में स्थिर हो गया।
तब तक वर्षा थम चुकी थी। राजीमती गुफा से बाहर | निकली और साध्वियों के साथ भगवान नेमिनाथ की वन्दना करने रैवतगिरि शिखर पर चढ़ने लगी।
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स्थनेमि भी भगवान नेमिनाथ के चरणों में पहुँचा, प्रार्थना करने लगा
भिन्ते ! मेरा मन मोह ग्रस्त होकर निर्लज्ज । हो गया। मैंने राजीमती जैसी महान् साध्वी
को अप्रिय अभद्र वचन कहकर कष्ट पहुंचाया,मुझे प्रायश्चित्त दीजिये प्रभु!/
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भगवान नेमिनाथ
प्रभु ने स्थनेमि से कहा
स्थनेमि ! अपने दुश्चरण के प्रति पश्चात्ताप और ग्लानि होना ही सबसे बड़ा प्रायश्चित्त है। तुम तप करो, ध्यान करो, इसी से वासना का
क्षय होगा . . . . मोह नष्ट होगा।
राजीमती ने भी अनेक वर्षों तक साधना करके कर्मों का क्षय किया और मोक्ष पद प्राप्त किया।
मुनि रथनेमि भी तप-ध्यान में लीन हुए निर्वाण को प्राप्त हुए।
भगवान नेमिनाथ सौराष्ट्र आदि जनपदों में विचरते हुए अन्त में रैवतगिरि पर्वत पर पधारते हैं। आषाढ़ सुदि अष्टमी के दिन एक मास के संथारा पूर्वक भगवान ने निर्वाण प्राप्त किया।
Atmaithununitatunner
समाप्त
आधार; उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २२ त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व ८, सर्ग
,
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प्र. सं.
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3.
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6.
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8.
10.
11.
12.
13.
14.
15.
16.
17.
18. 19-20.
21.
22.
23.
24.
कृति नाम
कल्पसूत्र सचित्र
प्राकृत स्वयं शिक्षक
स्मरण कला
जैनागम दिग्दर्शन
61.
52
63.
जैन कहानियाँ
जाति स्मरण ज्ञान
64.
65.
66.
67.
गणधरवाद
Jain Inscriptions of Rajasthan
Basic Mathematics
प्राकृत काव्य मंजरी
महावीर का जीवन सन्देश
Jain Political Thought Studies of Jainism
25.
26.
27.
नीलांजना
28. चन्दनमूर्ति
29.
30. 31-32. 33.
35.
37.
38.
39.
41.
42.
44.
45.
46. 47-48. 50, 51.
52.
53.
55.
56.
जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग जैन, बौद्ध और गीता का समाज दर्शन जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का
प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर प्रकाशन सूची
तुलनात्मक अध्ययन, भाग 1, 2
जैन कर्म सिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन हेम-प्राकृत व्याकरण शिक्षक आचारांग चयनिका
वाक्पतिराज की लोकानुभूति प्राकृत गद्य सोपान
अप्रभ्रंश और हिन्दी
Astronomy and Cosmology Not Far From The River
उपमिति भव-प्रपंच कथा भाग 1, 2 समणमुतं चयनिका
जैन धर्म और दर्शन दशवैकालिक चयनिका
Rasaratna Samucchaya
नीतिवाक्यामृत (English aleo) गीतमराम : एक परिशीलन अष्टपाहुड चयनिका
बज्जालग्ग में जीवन मूल्य गीता चयनका
ऋपिभाषित सूत्र (English also)
नाड़ी विज्ञान एवं नाड़ी प्रकाश
57.
58.
59. सर्वज्ञ कथित परम सामायिक धर्म
गाथा सप्तशती
उववाइय सुत्तम् (English also) उत्तराध्ययन चयनिका
समयसार चर्यानका
परमात्मप्रकाश एवं योगसार चयनिका
अर्हत् वन्दना
राजस्थान में स्वामी विवेकानन्द भाग 1
आनन्दघन चौबीसी
देवचन्द्र चौबीसी
त्रिपुष्टिशलाका पुरुष चरित्र, प्रथम भाग
Yogashastra
जिन भक्ति
सहजानन्दयनवरियम्
आगम युग का जैन दर्शन खरतर गच्छ दीक्षा नन्दी सूची
लेखक / सम्पादक
सं. म. विनयसागर डॉ. प्रेमसुमन जैन अ. मोहन मुनि डॉ. मुनि नगराज उ. महेन्द्र मुनि उ. महेन्द्र मुनि
म. विनयसागर
Ramvallabh Somani
Prof. L. C. Jain
डॉ. प्रेमसुमन जैन काका कालेलकर
Dr. G. C. Pandey Dr. T. G. Kalghatgi डॉ. सागरमल जैन
डॉ. सागरमल जैन
डॉ. सागरमल जैन
डॉ. सागरमल जैन
डॉ. उदयचन्द जैन
डॉ. के. सी. सोगानी
डॉ. के. सी. सोगानी
डॉ. प्रेमसुमन जैन डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन
गणेश ललवानी
गणेश ललवानी
Prof. L. C. Jain David Ray
स. म. विनयसागर
डॉ. के. सी. सोगानी गणेश ललवानी
डॉ. के. सी. सोगानी
Dr. J. C. Sikdar
डॉ. एस. के. गुप्ता सं. म. विनयसागर डॉ. के. सी. सोगानी
डॉ. के. सी. सोगानी
डॉ. के. सी. सोगानी
सं. म. विनयसागर
जे. सी. सिकदर
गणेश ललवानी डॉ. के. सी. सोगानी
डॉ. के. सी. सोगानी
डॉ. के. सी. सोगानी
म. चन्द्रप्रभसागर
पं. झाबरमल शर्मा
भंवरलाल नाहटा अ. प्र. सज्जनश्री विजयकलापूर्णसूरि डॉ. हरिराम आचार्य गणेश ललवानी
E. Surendra Bothara
अ. भद्रंकरविजय गणि
भंवरलाल नाहटा डी. डी. मालवणिया
भंवरलाल नाहटा, सं. मं. विनयसागर
मूल्य
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100.00
30.00
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100.00 50.00
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७०
90. 92.
Ở
98.
70. प्राकृत धम्मपद (English also)
सं. डॉ. भागचन्द जैन
150.00 71. नालाडियार (Tamil, English, Sanskrit, Hindi)
सं. म. विनयसागर
120.00 72. नन्दीश्वर द्वीप पूजा
सं. म. विनयसागर
10.00 73. पुनर्जन्म का सिद्धान्त
डॉ. एस. आर. व्यास
50.00 समवाय सुत्तं
म. चन्द्रप्रभसागर
100.00 जैन पारिभाषिक शब्दकोश
म. चन्द्रप्रभसागर
10.00 जैन साहित्य में श्रीकृष्ण चरित
म. राजेन्द्र मुनि शास्त्री
100.00 त्रिशष्टिशलाका पुरुष चरित्र, भाग 2
गणेश ललवानी
60.00 राजस्थान में स्वामी विवेकानन्द, भाग 2
पं. झाबरमल शर्मा
100.00 त्रिशष्टिशलाका पुरुष चरित्र, भाग 3
गणेश ललवानी
100.00 80. दादा दत्त गुरु कॉमिक्स
म. ललितप्रभसागर
5.00 81. भक्तामर : एक दिव्य दृष्टि
डॉ. साध्वी दिव्यप्रभा
51.00 दादागुरु भजनावली
सं. म. विनयसागर
150.00 जिनदर्शन चौबीसी (सचित्र)
50.00 त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, भाग 4
गणेश ललवानी
80.00 Saman Suttam, Part 1
Dr. K.C. Sogani
65.00 Jainism in Andhra Pradesh
Dr. Jawaharlal Jain
450.00 रथनेमि अध्ययन (English also)
डॉ. बी.के.खडबडी
20.00 89. उपमिति भव प्रपंच कथा (मूल)
सं. विमलबोधिविजय
200.00 मध्य प्रदेश में जैन धर्म का विकास
डॉ. मधूलिका बाजपेयी
130.00 बरसात की एक रात
गणेश ललवानी
45.00 93. अरहंत शब्द दर्शन
डॉ. साध्वी दिव्यप्रभा
100.00 योग प्रयोग अयोग
डॉ. साध्वी मुक्तिप्रभा
100.00 97. Jainism in India
Ed. Ganesh Lalwani
100.00 ज्ञानसार सानुवाद (English also)
गणि मणिप्रभसागर
80.00 99. विज्ञान के आलोक में जीव-अजीव तत्त्व
सं. कन्हैयालाल लोढ़ा
40.00 100. ज्योति कलश छलके
म. ललितप्रभसागर
40.00 101. जैन कथा साहित्य : विविध रूपों में
डॉ. जगदीशचन्द्र जैन
100.00 102. नीलकेशी
प्रो. ए. चक्रवर्ती
100.00 104. त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, भाग 5
गणेश ललवानी
120.00 105. जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप (English also)
आ. देवेन्द्र मुनि
300.00 106. सकारात्मक अहिंसा
सं. कन्हैयालाल लोढ़ा
110.00 107. द्रव्य विज्ञान
डॉ. साध्वी विद्युतप्रभा
80.00 108. अस्तित्व का मूल्यांकन
डॉ. साध्वी मुक्तिप्रभा
100.00 109. दिव्यद्रष्टा महावीर
डॉ. साध्वी दिव्यप्रभा
51.00 110. जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय
डॉ. सागरमल जैन
100.00 112. श्री स्वर्णगिरि जालोर
भंवरलाल नाहटा
60.00 113. Philosophy and Spirituality of Shrimad Rajchandra Dr. U. K. Pungalia
180.00 114. कल्याण मन्दिर (यन्त्र विधान सह)
डॉ. साध्वी मुक्तिप्रभा
100.00 मुद्रणाधीन ग्रन्थ 88. प्रवचनसारोद्धार (हिन्दी अनुवाद)
अ. साध्वी हेमप्रभा पंचदशी एकांकी संग्रह
गणेश ललवानी 103. तिरुक्कुरल (तमिल, अंग्रेजी, हिन्दी) 111. वैराग्यशतक (पद्मानन्द संस्कृत, अंग्रेजी, हिन्दी)
चित्रकथाएँ किस्मत का धनी धन्ना 2. मेघकुमार की आत्मकथा
युवायोगी जम्बूकुमार राजकुमार श्रेणिक 5. नमोकार मंत्र के चमत्कार
6. सती अंजना सुन्दरी 7. भगवान मल्लीनाथ 8. भगवान अरिष्टनेमि (मुद्रणाधीन)
क्षमादान 10. सिद्धचक्र के चमत्कार
(प्रत्येक पुस्तक का मूल्य 17.00 रुपया) 11. करुणानिधान भगवान महावीर (1, 2) (पुस्तक क्रम 11 का मूल्य 34.00 रुपया मात्र) पुस्तक-प्राप्ति स्थान
प्राकृत भारती अकादमी 3826, मोतीसिंह भोमियो का रास्ता 13-ए, कैलगिरि हॉस्पिटल रोड, जयपुर-302003 (राज.)
मालवीय नगर, जयपुर-302004 फोन : 561876
फोन : 523356 तथा- दिवाकर प्रकाशन, ए-7, अवागढ़ हाउस, एम. जी. रोड, आगरा-282 002. फोन : 351165
96.
9.
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सोचिए
आपका मन क्या कहता है
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पशु खाता है केवल पेट भरने के लिए मूर्ख खाता है केवल स्वाद के लिए चतुर खाता है आरोग्य और शक्ति के लिए सन्त खाता है केवल साधना के लिए
यदि आप स्वयं को चतुर समझते हैं तो भोजन पेट में डालने से पहले एक क्षण सोचिए : ★ क्या यह प्राकृतिक भोजन है ?
★ किसी प्राणी के अपवित्र खून - माँस और चर्बी की गंदगी तो इसमें नहीं मिली है ? ★ किसी जीव की हत्या से निर्मित भोजन आपके पेट में जाकर हिंसा, क्रूरता प्रतिहिंसा की ज्वाला तो पैदा नहीं करेगा ?
और
शाकाहार है - स्वास्थ्य का आधार शाकाहार है - स्वच्छता का विचार शाकाहार है - शान्ति का संसार
निवेदक :
शाकाहार एवं व्यसनमुक्ति कार्यक्रम के सूत्रधाररतनलाल सी. बाफना ज्वेलर्स
जहाँ विश्वास ही परम्परा ह
"नयनतारा ", सुभाष चौक, जलगांव -- 425001 फोन : 23903, 25903, 27322, 27268
गंदी वस्तु पेट में डालकर पेट को कूड़ादान और मन को नरक मत बनाइये ।
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