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भगवान नेमिनाथ उन्होंने एक वर्ष तक वर्षीदान किया। फिर श्रावण सुदि ६ के दिन दोपहर के बाद हजार पुरुष वाहिनी उत्तराकुल नामक शिविका (पालकी) में बैठकर रैवतगिरि पर रैवतक उद्यान में पहुंचे। अशोक वृक्ष के नीचे पंच मुष्टि लोचं करके मुनिव्रत स्वीकार किया। नेमिकुमार के साथ ही १ हजार अन्य राजकुमार श्रेष्ठी आदि व्यक्तियों ने भी दीक्षा ग्रहण की। देवराज इन्द्र ने उनके केश स्वर्ण पात्र में ग्रहण किये और उन्हें एक देवदूष्य वस्त्र भेंट किया जिसे भगवान ने अपने कंधे पर रख लिया।
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सौराष्ट्र के विविध क्षेत्रों में ध्यान आदि साधना करते हुए चौवन दिन के पश्चात् वे पुनः उसी रैवतगिरि के शिखर पर पधारे।
नेमिकुमार ने जैसे ही दीक्षा ग्रहण की उन्हें मन के सूक्ष्म भावों को जानने वाला मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न हो गया। समुद्रविजय आदि के साथ वासुदेव श्रीकृष्ण ने नेमि प्रभु की वन्दना की।
हे लुप्त केश जितेन्द्रिय ! शीघ्र ही आप अपने इच्छित मनोरथ
को सिन्द्र करें।
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अशोक वृक्ष के नीचे अत्यन्त निर्मल ध्यान साधना में लीन होने पर नेमिनाथ को। केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई।
सब लोग द्वारिका की ओर लौट आये।।
दीक्षा के पश्चात नेमिकुमार नेमिनाथ कहलाये।
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