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भगवान नेमिनाथ
जैन परम्परा के २२वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ ( अरिष्टनेमि ) का जन्म सोरियपुर के यदुवंशी राजा समुद्रविजय जी की महारानी शिवादेवी की कुक्षि से हुआ । वासुदेव श्रीकृष्ण का जन्म समुद्रविजय के छोटे भाई राजा वसुदेव जी की रानी देवकी के गर्भ से हुआ और वसुदेव जी की बड़ी रानी रोहिणी ने बलदेव (बलराम ) को जन्म दिया। इस प्रकार यदुवंश में एक ही युग में तीन महापुरुषों ने जन्म लेकर अपने अद्भुत लोकोत्तर कृतित्व से हरिवंश को तो गौरव मण्डित किया ही सम्पूर्ण भारतीय जन-जीवन को भी धर्मानुप्राणित कर दिया ।
भगवान नेमिनाथ जहाँ अद्भुत पराक्रमशाली एवं शौर्य तेज के पुँज थे वहीं परम करुणामूर्ति भी थे। उनका जीवन सांसारिक मोह एवं विकारों से निर्लेप कमल के समान पवित्र था। तो करुणा व अहिंसा की शीतलवाहिनी गंगा के समान लोक-कल्याणकारी भी था । शासक यादव जाति को शिकार व माँस-मदिरा सेवन के दुर्व्यसनों से मुक्त कराने और शील- सदाचार की ओर मोड़ने में उनका योगदान चिरस्मरणीय है। केवल वाणी द्वारा ही नहीं, किन्तु अपने आत्म बलिदानी व्यवहार से भी उन्होंने तत्कालीन मानव समाज को जीव दया व शाकाहार का सन्देश दिया । वासुदेव श्रीकृष्ण उनके इन उपदेशों को यादव जाति व तत्कालीन समाज में प्रचारित करने में विशेष सहयोगी रहे। यही कारण है कि जैन साहित्य के अलावा वैदिक साहित्य में भी भगवान अरिष्टनेमि के उपदेशों व धर्म-प्रचार का प्रशंसात्मक उल्लेख मिलता है। यजुर्वेद में तो उनको अध्यात्म वेद को प्रकट करने वाले सब जीवों का मंगल करने वाले मानकर उनके प्रति यज्ञाहुति समर्पित करने के मंत्र भी हैं। प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान डॉ. राधाकृष्णन ने उन्हें स्पष्ट ही ऐतिहासिक महापुरुष स्वीकार किया है।
भगवान नेमिनाथ की जीवन घटनाओं का वर्णन जैन आगमों व उत्तरवर्ती टीका ग्रन्थों, चरित्र ग्रन्थों आदि में विस्तार पूर्वक मिलता है । यद्यपि परम्परा भेद के कारण कुछ प्रसंगों के वर्णन में सामान्य - सा अन्तर अवश्य आता है किन्तु उनके अहिंसा - करुणामय जीवन आदर्शों को सभी ने बड़ी श्रद्धा के साथ चित्रित किया है। भगवान नेमिनाथ के साथ राजीमती का चरित्र चित्रण जैन साहित्य में बड़ी रसमय शैली में किया गया है । राजीमती के पवित्र अनुराग में त्याग और बलिदान की, शील और सद्विवेक की एक अद्भुत प्रेरणा शक्ति भरी हुई है । यहाँ पर संक्षिप्त में भगवान नेमिनाथ के पावन जीवन चरित्र को शब्दांकित किया है आचार्यश्री कलापूर्ण सूरीश्वर जी के विद्वान शिष्य मुनिश्री पूर्णचन्द्र विजय जी ने ।
-महोपाध्याय विनयसागर
लेखन : मुनि श्री पूर्णचन्द्र विजय जी प्रबन्ध सम्पादक : संजय सुराना
प्रकाशक
सम्पादक : श्रीचन्द सुराना 'सरस'
दिवाकर प्रकाशन
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-श्रीचन्द सुराना 'सरस'
चित्रण : श्यामल मित्र
श्री देवेन्द्र राज मेहता सचिव, प्राकृत भारती अकादमी 3826, यती श्यामलाल जी का उपाश्रय मोतीसिंह भोमियों का रास्ता, जयपुर-302003
मुद्रण एवं स्वत्वाधिकारी : संजय सुराना द्वारा दिवाकर प्रकाशन, ए-7, अवागढ़ हाउस, एम. जी. रोड, आगरा-2 के लिए ग्राफिक्स आर्ट प्रेस, मथुरा में मुद्रित ।
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