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116... यौगिक मुद्राएँ: मानसिक शान्ति का एक सफल प्रयोग
के गुदाद्वार को ध्यान से देखा हो तो उसे मालूम होगा कि घोड़ा प्रायः अश्विनी मुद्रा का अभ्यास करता रहता है अर्थात वह अपने गुदाद्वार की पेशियों को एक लय में प्रसारित एवं संकुचित करता रहता है । प्रस्तुत मुद्रा के अभ्यास में भी गुदाद्वार का बार-बार संकोचन और प्रसारण किया जाता है इसलिए इस मुद्रा को अश्विनी मुद्रा कहते हैं। इस मुद्रा का प्रयोग चेतन तत्त्व की मूल शक्ति कुण्डलिनी को जागृत करने एवं गुह्य सम्बन्धी रोगों से मुक्ति पाने के प्रयोजन से किया जाता है।
विधि
इस मुद्राभ्यास की दो विधियाँ निम्नलिखित हैं
प्रथम विधि- त्वरित संकुचन
• ध्यान के किसी भी आसन में सुविधापूर्वक बैठ जायें।
• शरीर को शिथिल करें।
• नेत्रों को बन्द कर लें।
• सहज रूप से श्वास-प्रश्वास करें।
. फिर गुदाद्वार यही अश्विनी मुद्रा कहलाती है। 76
• संकोच - विस्तार की आवृत्ति क्षमतानुसार कितनी भी बार कर सकते हैं। द्वितीय विधि- धीरे-धीरे संकोचन करना और रोकना ।
की मांसपेशियों को शीघ्रता से संकुचित एवं प्रसारित करें
• किसी भी आसन में सुविधापूर्वक बैठ जायें।
• श्वास लेते हुए गुदा द्वार को संकुचित करें ।
• स्नायुओं का संकुचन बनाये रखते हुए ही अंतरंग कुम्भक (श्वास को रोके रखना) करें।
• फिर श्वास को बाहर करते हुए पेशियों को प्रसारित करें।
यह एक आवृत्ति हुई। आप जितनी आवृत्तियाँ दोहरा सकते हैं दोहरायें। यह अश्विनी मुद्रा का दूसरा प्रकार जानना चाहिए।
निर्देश
1. किसी भी आसन में अश्विनी मुद्रा का अभ्यास किया जा सकता है। 2. मुद्रा प्रयोग करते समय प्रयत्न करें कि संकुचन केवल गुदा द्वार का हो। यद्यपि अन्य पेशियाँ भी सक्रिय हो ही जाती है।